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राम कथा - संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6499
आईएसबीएन :21-216-0761-2

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, तीसरा सोपान

"राम!" सहसा भूधर चीत्कार कर उठा, "हमने युद्ध में शस्त्र त्यागे हैं। हमने आपके सम्मुख समर्पण किया है-हम आपकी शरण में आए हैं।...हम कुलीन राक्षस हैं; हमें इन गंवारों की दया पर न छोड़ें...।"

"अधिक रक्तपात न हो तो अच्छा है।" ब्रह्मचारी समुद्रदत्त कोमल से स्वर में बोला, "यदि ये अपनी भूल स्वीकार करते हैं, तो इन्हें क्षमा कर दिया जाना...।"

"नहीं! नहीं!!" अनेक दिशाओं से जैसे प्रेत जाग उठे, "इन्हें क्षमा नहीं किया जा सकता।"

और सहसा एक वृद्ध आगे बढ़ा। उसके हाथ में राक्षसों से छीना हुआ एक शूल था।...और इससे पहले कि कोई कुछ कहता, उसने अपने शरीर का सारा बल लगाकर, शूल भूधर के वक्ष में उतार दिया...

"यह लो क्षमा! जिस दिन तुमने मुझे बांधकर, मेरी आंखों के सम्मुख मेरी संतान की हत्या की थी, उस दिन क्षमा कहां थी...?"

सन्नाटा छा गया। वृद्ध धीरे-धीरे आया और राम के सम्मुख खड़ा हो गया, "मेरा अभियोग है कि इसने मेरे निरपराध और निरीह, दो-दो पुत्रों की हत्या की है और मुझ पर आरोप है कि मैंने इस अपराधी की केवल एक बार हत्या की। मेरा न्याय कहता है कि मैं उसकी एक बार और हत्या कर सकता हूं। तुम्हारा न्याय क्या है, बोलो राम! तुम्हारा मन मुझे अपराधी माने तो मैं दंड के लिए प्रस्तुत हूं।"

"नहीं बाबा! तुम अपराधी नहीं हो।" राम शांत स्वर में बोले, "किंतु तुमने कुछ त्वरा से काम लिया, कदाचित् अपने आवेश के कारण। यदि अपना आरोप लगाकर न्याय जन-न्यायालय पर छोड़ देते, तो भी तुम देखते कि तुम्हारे पुत्रों की हत्था के अपराध में, यह मृत्यु-दंड से कम में नहीं छूटता। अच्छा..." राम ने अपना स्वर ऊंचा किया, "मेरा प्रस्ताव है कि भीखन तथा आनन्द सागर मिलकर कुछ लोगों की समिति बनाएं और इन युद्ध-बंदियों के लिए कारागार की उचित व्यवस्था करें। फिर एक-एक व्यक्ति पर जन-न्यायालय में अभियोग चलाकर उनका उचित न्याय करें। आप लोग यदि सहमत हों तो अपना समर्थन प्रकट करें।"

उपस्थित लोगों ने समर्थन में उल्लसित कोलाहल किया।

"ठीक है।" राम पुनः बोले, "दूसरा निर्णय यह करना है कि अब, जब आपके पास शस्त्र भी हैं और आप मुक्त भी हैं; आपकी रक्षा के लिए हम यहां ठहरें या अपने आश्रम लौट जाएं?"

भीड़ चुप रही। कोई कुछ नहीं बोला।

"आत्म-रक्षा तो हम कर लेंगे।" थोड़ी देर के पश्चात भीखन बोला, "किंतु, आप यहां ठहरें तो...।"

"तुम अपनी रक्षा कर लोगे, तो आज मैं लौटना चाहूंगा।" राम

मुस्कराए, "मैं फिर आऊंगा, और जब जाऊंगा तुम्हें अपने आश्रम और ग्राम से इस जन-वाहिनी के लिए बीस सैनिक देने होंगे।"

"देंगे। देंगे।" भीड़ ने हर्ष के साथ कहा।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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