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राम कथा - संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6499
आईएसबीएन :21-216-0761-2

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, तीसरा सोपान

द्वन्द्व की असुरक्षित घड़ियों में राम का ध्यान, उस ओर नहीं गया था किंतु कुछ सहज होते ही उनके मन में अनेक प्रश्न जागने लगे थे।

"तुम कौन हो?" उन्होंने अपने आत्मविश्वास-भरे स्वर में पूछा।

"मैं विराध हूं। गंधर्व!" उसका स्वर दीन था।

"पहले तो तुम राक्षस थे।" लक्ष्मण हंसे, "मार पड़ी तो गंधर्व हो गए। थोड़ी-सी पिटाई और हो गई, तो देवता हो जाओगे।"

"नहीं!" विराध के स्वर में शारीरिक पीड़ा का भाव था, "गंधर्व हूं, गंधर्व ही रहूंगा।"

"पहले स्वयं को राक्षस क्यों कहा था?" राम ने पूछा। विराध की आंखों में एक क्षण के लिए सोच उतरी। कंठ पर पड़ते हुए दबाव से पीड़ित हो उठा। राम ने पैर का दबाव कम कर दिया।

"शरीर से मैं अत्यंत बलशाली था।" विराध बोला, "इस क्षेत्र में कोई वैधानिक सुशासन नहीं है। जीविका के बने-बनाए उपयुक्त साधन नहीं है। कुछ बिखरे हुए आश्रम हैं, और स्थान-स्थान पर स्थापित, राक्षसों के छोटे-बड़े सैनिक स्कंधावार। वे प्रत्येक उचित व्यवस्था को नष्ट करते रहते हैं। मेरे लिए, दो में से एक ही मार्ग था-या तो किसी आश्रम में जा रहता। स्वयं को ज्ञान-विज्ञान में दीक्षित करता और आसपास के क्षेत्र में राक्षसों के विरुद्ध जन-सामान्य का स्वायत्त शासन स्थापित करने के लिए संघर्ष करता। पर उससे मुझे क्या मिलता? भूख, पीड़ा, चिंता...और अंत में मृत्यु?"

"दूसरा मार्ग क्या था?" लक्ष्मण ने टोका।

"दूसरा मार्ग मैंने अपनाया।" विराध धीरे से बोला, "अपनी देह के सुख के लिए लूट-पाट, हत्या-बलात्कार! इसमें वैभव था, विलास था।" "रावण से तुम्हारा कोई संबंध है ?" राम ने जानना चाहास, "उसने तुम्हारी सहायता की?"

"रावण से मेरा कोई सीधा संबंध नहीं है।" विराध ने उत्तर दिया, "उसके सहायकों ने वैसे ही ऐसा वातावरण बना रखा है कि पग-पग पर राक्षसों और राक्षस-नीति का जन्म और पालन-पोषण हो रहा है। न्याय का शासन न हो, तो प्रत्येक समर्थ मनुष्य अपने-आप राक्षस बनता चला जाता है, और असमर्थ जनता उसका भक्ष्य पदार्थ।...उन्होंने राक्षस बनने में मेरी सहायता की, और मैंने राक्षस बनकर उनकी...।"

विराध का कंठ सूखने लगा। आंखों के सम्मुख अंधकार छाने लगा। वह चुप हो गया। वे वहां अधिक नहीं रुके थे। विराध के प्राण निकलने पर, उसके शव को ठिकाने लगा, आगे बढ़ आए। मार्ग में मिले कुछ ग्रामवासियों से शरभंग-आश्रम का मार्ग मालूम हुआ था।

राम का मन उदास हो गया : तुंभरण और विराध जैसे अनेक लोग मारे जाएं, पर क्या उससे अन्याय का नाश हो जाएगा? वे मारे गए, क्योंकि वे संगठित नहीं थे; किंतु उनका क्या होगा, जो रावण के समान संगठित हैं; जिनके पास धन, सत्ता, बल और सेनाएं हैं। रावण की अनीति की वर्षा होती रही तो कुकुरमुत्तों के समान, राक्षस-समूहों का जन्म होता रहेगा। रावण द्वारा उत्पन्न किए गए शोषण के कीचड़ में विराध जैसे राक्षस, कीड़ों के समान जन्मते रहेंगे...।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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