राजनैतिक >> मंत्रिमंडल मंत्रिमंडलराजकृष्ण मिश्र
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राजनीतिक उपन्यासों के लेखन में सिद्धहस्त राजकृष्ण मिश्र के इस नये उपन्यास में एक प्रदेश के बहाने पूरे भारत राष्ट्र की राजनीतिक दशा-दुर्दशा को बेनकाब किया गया है।
जिस तरह, राज्यपाल सदाशिवनारायण बरुआ मुर्गाबियों को, शिकार के लिए अपने जाल में फँसाते थे, जिस तरह वह खुद रायफल से निकले हुए छर्रों के जाल में फँस गये थे, उस तरह, 16 जून को, राजभवन में, उन्होंने पार्टी अध्यक्ष को, उत्सुकदास के लिए कही गयी चुनिन्दा गालियों के जाल में फँसाया और पार्टी अध्यक्ष को तैयार करने के बाद उन्होंने धीरे से, भीमसिंह का नाम सरका दिया। काफी देर तक जब पार्टी अध्यक्ष सब-कुछ समझते हुए भी नहीं समझे, तब राज्यपाल को कुछ, बेचैनी-सी होने लगी थी। उनकी समझ में नहीं आ रहा था, पार्टी अध्यक्ष जान-बूझकर नाटक कर रहे थे, या फिर मन्त्रिमण्डल की सूची को, हाईकमाण्ड के द्वारा अन्तिम रूप दिये जाने के कारण, वह चुप थे। उधर राज्यपाल को लग रहा था यदि पार्टी अध्यक्ष ने तुरन्त कोई अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं दिखायी और उनके दिमाग में, मुर्गाबियों के दिये हुए छर्रे मचलने लगे, तब क्या होगा। उनका प्रिय पात्र भीमसिंह यदि मन्त्री नहीं बना तो शपथ दिलाने में उन्हें तनिक भी आनन्द नहीं आयेगा। वह मन्त्रिमण्डल को शपथ न दिलवायें, ऐसा तो सम्भव नहीं था लेकिन उस मन्त्रिमण्डल को शपथ दिलाने की कठिन परीक्षा से बिना भीमसिंह के गुजरने पर, उन्हें बेहद तकलीफ होगी, वह जानते थे।
भीमसिंह और राज्यपाल की जान-पहचान यहीं इसी प्रदेश में, इसी राजभवन में हुई थी। उन दिनों जब वह नये-नये राज्यपाल होकर आये थे, निहायत शाकाहारी किस्म के लोग उनसे मिलने आया करते थे। महिला हो या पुरुष, अदना हो या बड़ा, धनी हो या गरीब, बूढ़ा हो या जवान, कच्ची उम्र का या पक्की उम्र का, स्वस्थ हो या मरगिल्ला, सब के सब उनके सामने हाथ जोड़कर, पैर बाँधे खड़े रहते। वाह राज्यपाल जी....वाह....वाह की जैसे जवाबी कीर्तन, उन दिनों राजभवन में चला करती। सदाशिवनारायण बरुआ, अपने सुदूर प्रदेश से, सत्ता की राजनीति में वापस आने के लिए इतनी दूर, राजभवन में, इसलिए नहीं आकर बैठे थे कि वह खैराती किस्म के लोगों से घिरे हुए वाह-वाह का जवाबी कीर्तन सुनते सुनाते जिन्दगी काट दें। वह तो बड़ी राजनीति करने के लिए, पार्टी में दुबारा उठकर खड़े हो गये थे। उनके ऊपर किसी ने दया, किसी ने मेहरबानी, किसी ने एहसान नहीं किया था वह अपनी शक्ति से, जनशक्ति से सत्ता की राजनीति में वापस आये थे। उनका बड़ा मन करता, इस सुदूर प्रदेश में किसी जन-आन्दोलन को छेड़ देने का। असल में सदाशिवनारायण बरुआ की हालत उस अपंग, अपाहिज की तरह थी जो अपने शारीरिक अंगों के ठीक हो जाने के बाद, जब अपंग नहीं रहता तो चारों तरफ घूमना चाहता, दूर तक चलना, दौड़ना चाहता था।
वह इस प्रदेश के राज्यपाल बन गये थे। यह अपने आप में एक उपलब्धि थी। लेकिन यह उपलब्धि, वह जानते थे, किसी ने उन्हें खैरात में नहीं दी थी, यह तो उन्होंने अपने बलप्रयोग से, अपनी जनशक्ति से छीनी थी। उसके बाद उनको मजा आने लगा। वह निहायत खुदगर्ज किस्म के इंसान थे। उनको जहाँ एक तरफ इस बात का इल्म था कि उन्हें राजभवन की राजगद्दी किसी ने खुशी-खुशी नहीं दी, वहाँ दूसरी तरफ वह खुद भी अपनी वर्षों की तनहाई से, बुरी तरह ऊब चुके थे। यद्यपि वह जानते थे वह सब उन्होंने अपने पुरुषार्थ में पाया था, उसे बनाये रखने के लिए अपनी राजनैतिक उपयोगिता को जीवित रखना, उनके लिए, बहुत जरूरी था। राज्यपाल सदाशिवनारायण बरुआ को न तो पैसे की जरूरत थी ना ही वैभव की।
ऐसे-ऐसे चार राजभवन उनके अपने प्रदेश में खुद उनकी मिल्कियत में थे। अथाह पैसा, असीम वैभव और ऊपर से जनशक्ति का वरदान और क्या चाहिए था उन्हें। खाये जा रही थी उन्हें तो बस उनकी शिकारी प्रवृत्ति। दिमाग में नाचते हुए छर्रों के बावजूद भी, सदाशिवनारायण बरुआ, खुद अपने आप से एक कभी न खतम होनेवाली जंग लड़ रहे थे। इसीलिए राजभवन के कारिन्दों, हाकिमों और हुकमरानों ने जब उनके सामने नन्हे बच्चों, खूबसूरत लड़कियों, समाजसेवी अधेड़ उम्र की औरतों तथा किस्म-किस्म के सफेदपोश आदमियों को पेश करना शुरू किया तो उन्हें कोई अनजाना खौफ़ दौड़ाने लगा। उन्हें लगा सबके पीछे एक चाल थी, सधी-सधायी राजनीति उनके साथ खेली जा रही थी, उन्हें फँसाया जा रहा था। आरती, चन्दन, फूलमाला, जय-जयकार और नारों के बीच घेरकर, उन्हें एक विशाल राजभवन में बन्दी बनाया जा रहा था, निकम्मा बनाया जा रहा था। वह कुछ दिनों तक तो सारी नौटंकी चुपचाप देखते रहे। फिर धीरे-धीरे उन्हें उस सबसे चिढ़ होने लगी। उनको लगा, दिमाग में चक्कर काटते हुए छर्रों से तो वह बच निकलेंगे, लेकिन वह सारा तमाशा, उन्हें ले डूबेगा। शुरू-शुरू में, नये प्रदेश में वह ऐसा कुछ नहीं करना चाहते थे जिससे उनकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा पर आँच आये या उनके बारे में कोई गलत धारणा बना ली जाय। सार्वजनिक छवि बनाने के लिए, उन्हें लगा, यह सारा नाटक कुछ हद तक जरूरी था। फिर भी कुछ ही दिनों में बरुआ साहब को एक यातना का अहसास होने लगा था।
राजनीति के पुराने खिलाड़ी थे, सदाशिवनारायण बरुआ। उनको पा लेना, उनकी तह तक पहुँच जाना बड़ा मुश्किल था। उन्हीं दिनों नये राज्यपाल से मिलने-जुलने के बहाने भीमसिंह राजभवन जाया करते थे। बरुआ साहब के 140 लोगों के स्टाफ में भाटी नाम का एक उनका व्यक्तिगत सेवक था। भीमसिंह अपनी राजभवन की यात्राओं में अनेक बार अफसर रहे। बरुआ साहब ने उन्हें घास तक नहीं डाली। वह तो यही समझे थे भीमसिंह भी उसी बारात का हिस्सा था जो उन दिनों रोज राजभवन से निकला करती थी। उधर भीमसिंह की परिषद की सदस्यता के दिन तेजी से लद रहे थे। गुरुपदस्वामी के पहले जिन मुख्यमन्त्री ने उन्हें परिषद का सदस्य बनाया था, वह कब के गुजर गये थे। उनका, तब कोई नामलेवा भी नहीं बचा था। मुख्यमन्त्री के साथ पूरे मन्त्रिमण्डल ने उन दिनों उनका बहिष्कार कर रखा था। कहीं जाने के लिए, कुछ करने के लिए उनके पास नहीं था। बरुआ साहब ने उनकी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखा तब वह निराश हो गये। बेहद उदास होकर उस दिन राजभवन फिर कभी न आने के निश्चय के साथ वह लौट रहे थे तभी उनकी मुलाकात भाटी से हो गयी। कई दिनों से भीमसिंह अपने कुर्ते की जेब में इत्र की छोटी-छोटी चार शीशियाँ लेकर घूम रहे थे। इत्र की यह शीशियाँ उन्होंने, बड़े चाव से बरुआ साहब के लिए ही खरीदी थीं। कई बार वह बरुआ साहब के सामने गये जरूर, लेकिन उनके आग्नेय नेत्रों को, देखकर उनका हाथ कुर्ते के अन्दर से कभी बाहर नहीं निकल सका और वह शीशियाँ वहीं पड़ी रहीं। उस दिन भीमसिंह की वह राजभवन की अन्तिम यात्रा थी। उसके बाद उनको राजभवन तो आना नहीं था। उधर भाटी अपने मालिक की सेवा में तल्लीन था।
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