बहुभागीय पुस्तकें >> सोना और खून - भाग 4 सोना और खून - भाग 4आचार्य चतुरसेन
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भारत में अंग्रेजी राज स्थापित होने की पूरी पृष्ठभूमि से आरंभ करके स्वतंत्रता प्राप्ति तक का संपूर्ण इतिहास....
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Sona Aur Khoon (4)
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सोना पूँजी का प्रतीक है और खून युद्ध का। युद्ध प्रायः पूँजी के लिए होते हैं और पूँजी से ही लड़े जाते हैं। सोना और खून पूँजी के लिए लड़े जाने वाले एक महान युद्ध की विशाल पृष्ठभूमि पर आधारित ऐतिहासिक उपन्यास है, आचार्य जी का सबसे बड़ा उपन्यास। इस उपन्यास के चार भाग है। 1.तूफान से पहले 2.तूफान 3.तूफान के बाद और 4.चिनगारियाँ। ये चारों भाग मुख्य कथा से सम्बद्ध होते हुए भी अपने में पूर्ण स्वतन्त्र हैं भारत में अंग्रेजी राज स्थापित होने की पूरी पृष्ठभूमि से आरम्भ होकर स्वतन्त्रता-प्राप्ति तक का सारा इतिहास सरस कथा के माध्यम से इसमें आ गया है। इसमें आचार्य जी ने प्रतिपादित किया है कि भारत को अंग्रेजों ने नहीं जीता और 1857 की क्रांति राष्ट्रीय भावना पर आधारित नहीं थी। साथ ही वतन की स्वतन्त्रता प्राप्ति पर उस क्रांति का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह उपन्यास एक अलग तरह की विशेषता लिए हुए हैं। इतिहास और कल्पना का ऐसा अद्भुत समन्वय आचार्यजी जैसे सिद्धहस्त कलाकार की लेखनी से ही सम्भव था।
उपन्यास के बारे में
‘सोना और खून’ आचार्य चतुरसेन का एक उत्कृष्ट उपन्यास है, जोकि उनकी अन्तिम कृतियों में से एक है। इस उपन्यास की एक उल्लेखनीय विशेषता यह कि यद्यपि यह कई-एक भागों में फैला हुआ है, तो भी जिस भाग को भी आप उठाकर पढ़ना शुरू करेंगे, उसे अपने-आप में पूर्ण पाएंगे।
आचार्यजी ‘सोना और खून’ उपन्यास को दस भागों एवं साठ खण्डों में समाप्त करना चाहते थे, जिसके लिए उनके अनुमान के अनुसार प्रस्तुत उपन्यास कोई पांच हजार पृष्ठों में समा पाता। किन्तु वे अपने जीवनकाल में केवल चार भाग ही पूर्ण कर पाए, जो हमारे यहां क्रमशः प्रकाशित हो चुके हैं।
‘सोना और खून’ का चतुर्थ भाग ‘चिनगारियां’ आपके समक्ष है। इसमें प्रथम स्वाधीनता-संग्राम का विशद वर्णन तथा बाद की घटनाओं की व्यापक दृष्टि से व्याख्या की गई है। उपन्यास में जो कुछ मुख्य पात्र उभरते हैं, वे ये हैं—तात्यां टोपे, नाना साहब, बहादुरशाह जफ़र, लक्ष्मीबाई आदि। हमारा विश्वास है, इससे पाठक स्वस्थ मनोरंजन के साथ-साथ ऐसी विश्वसनीय जानकारी पाएंगे जो अन्यत्र सहज-प्राप्य नहीं है।
आचार्यजी ‘सोना और खून’ उपन्यास को दस भागों एवं साठ खण्डों में समाप्त करना चाहते थे, जिसके लिए उनके अनुमान के अनुसार प्रस्तुत उपन्यास कोई पांच हजार पृष्ठों में समा पाता। किन्तु वे अपने जीवनकाल में केवल चार भाग ही पूर्ण कर पाए, जो हमारे यहां क्रमशः प्रकाशित हो चुके हैं।
‘सोना और खून’ का चतुर्थ भाग ‘चिनगारियां’ आपके समक्ष है। इसमें प्रथम स्वाधीनता-संग्राम का विशद वर्णन तथा बाद की घटनाओं की व्यापक दृष्टि से व्याख्या की गई है। उपन्यास में जो कुछ मुख्य पात्र उभरते हैं, वे ये हैं—तात्यां टोपे, नाना साहब, बहादुरशाह जफ़र, लक्ष्मीबाई आदि। हमारा विश्वास है, इससे पाठक स्वस्थ मनोरंजन के साथ-साथ ऐसी विश्वसनीय जानकारी पाएंगे जो अन्यत्र सहज-प्राप्य नहीं है।
प्रकाशक
सोना और खून
दसवां खण्ड
1
मेरठ और दिल्ली में निश्चित तिथि से तीन सप्ताह पूर्व विद्रोह फूट निकला था। इससे क्रान्ति के नेता विमूढ़ हो गए। वे यह तय नहीं कर सके कि वे इसी समय उठ खड़े हों या निश्चित तिथि की प्रतीक्षा करें। उनकी यह अनिश्चितता उनकी विफलता का एक कारण बन गई। फिर भी देश-भर के अंग्रेज़ घबरा उठे और उन्हें चारों ओर संकट ही संकट दिखाई पड़ने लगा। सबसे अधिक भय कलकत्ता में छाया हुआ था, जहां यह अफवाह गर्म थी कि बरकपुर की हिन्दुस्तानी सेना कलकत्ता आ रही है। कलकत्ते के अंग्रेजों में भगदड़ मच गई। सब स्त्री पुरुष बच्चे भाग-भागकर फोर्ट विलियम में एकत्र हो मोर्चाबन्दी करने लगे। कुछ अंग्रेज़ ज़हाज मिलते ही इंग्लैंड को प्रस्थान कर गए। बहुत-से बोरिया-बिस्तर बांधकर जहाज की प्रतीक्षा करने लगे। परन्तु जनरल मैकडानल्ड और शुभदादेवी सत्प्रयत्न से बैरक पुर की सेनाएं शान्त रहीं। शुभदादेवी रानी रासमणि के राज-महल में शरणापन्न नहीं हुईं। बैरकपुर सब के सब अंग्रेज़ स्त्री बच्चों को उन्होंने अपने यहां शरण दी। गोपाल पाण्डे बैरकपुर के सिपाहियों से भी शुभदादेवी की आज्ञा-पालन का और उनकी रक्षा करने का वचन ले गए थे—इस कारण भी वहां के सिपाहियों ने शुभदादेवी की प्रतिष्ठा का ख्याल रखा।
गवर्नर-जनरल लार्ड कैनिंग को मेरठ और दिल्ली के समाचार 15 मई को मिले। लार्ड डलहौजी ने यद्यपि अपने कार्यकाल में राज्य का बहुत विस्तार किया था, परन्तु शासन में स्थिरता अभी भी नहीं आई थी। शासन निर्बल और अव्यवस्थित था। लार्ड कैनिंग यह बात जानते थे। अब वे तन-मन से अंग्रेज़ी राज्य को उलट देने के इस प्रयत्न को निष्फल बनाने में जुट गए। इस समय हिन्दुस्तान में कुल मिलाकर दो लाख अड़तालीस हजार सिपाही अंग्रेजों के अधीन थे, जिनमें केवल 18 हजार गोरे थे। इस प्रकार गोरों से हिन्दुस्तानी सेना की संख्या तेरह गुनी थी। बैरकपुर से आगरे तक केवल दानापुर में गोरी फौज थी। 750 मील की व्यववस्था बनाए रखने के लिए यह सेना बिलकुल अपर्यापर्त थी। फिर यही क्षेत्र अशान्ति का केन्द्र बना हुआ था। ग्राण्ड ट्रक रोड इसी स्थान को पार करती जाती थी। इसलिए यह मार्ग सैनिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण था।
लार्ड कैनिंग यद्यपि देश की परिस्थिति से अभी अनभिज्ञ ही था—पर वह बुद्धिमान और धैर्यवान् था। उसने तुरन्त ताड़ लिया कि उसके साथियों ने उसे धोखे में रखा है। परन्तु वह कमर कसकर संकट का सामना करने को तैयार हो गया। उसने 20 मई को एक घोषणा-पत्र निकाला। उसमें उसने उन सौदों समझाने की चेष्टा की कि वे भ्रम में हैं ! पर उसका कोई असर नहीं हुआ। कैनिंग भी जानता था कि नैतिक अपील से अब काम नहीं चलेगा। उसने तेजी से अन्य उपायों को काम में लाना शुरू किया। जि़म्मेदार पदों से सब छावनियों के देशी सिपाही हटा दिए गए। महत्त्वपूर्ण स्थानों, शास्त्रागारों, खजनों आदि पर गोरों का पहरा तैनात कर दिया। हिन्दुस्तानी सेना की गतिविधि पर कड़ी नजर रखने के आदेश सर्वत्र जारी कर दिए। स्वामिभक्त सैनिकों को इनाम और विद्रोहियों को दण्ड देने की व्यवस्था की। उसने एक कानून बनाकर कमांडिंग अफसरों को अधिकार दे दिए कि वे बिना ही ऊपर से आदेश प्राप्त किए विद्रेही सैनिकों को कोर्ट-मार्शल कर दण्ड दें। उसने ईस्ट इण्डिया कंपनी के बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर के अध्यक्ष के नाम से जो खत लिखा उसमें लिखा था कि मैं इस समय दो काम करने में अपनी पूरी शक्ति लगा रहा हूं। एक तो जितनी जल्दी हो सके विद्रोहियों को दिल्ली से निकाल कर बाहर करना और दूसरे अशांतिग्रस्त क्षेत्रों में यूरोपियनों को एकत्र करना। वह यह भली-भांति जानता था कि भारतीयों की दृष्टि और बादशाह दोनों का अत्यन्त महत्त्व है। अंग्रेज़ों ने भले ही कलकत्ते को अपनी राजधानी बना लिया था।—परन्तु भारतीयों के नज़र में उसका कोई महत्त्व न था। कैनिंग खूब जानता था कि यदि दिल्ली देर तक विद्रोहियों के हाथों में रही तो देश के लोगों की नज़र में अंग्रेज़ों की प्रतिष्ठा गिर जाएगी।
उसने दिल्ली को जल्द-से-जल्द वापस लेने के सब सम्भव उपाय किए। उसने बम्बई के गवर्नर लार्ड एलफिस्टन को ईरान से लौटी हुई गोरी पलटन को तत्काल भेजने का तार दिया। अंग्रेजों के सौभाग्य से ईरान का युद्ध समाप्त हो चुका था वह भी अभी कलकत्ता में थी। मद्रास से भी गोरी पल्टन मँगाई गई और इंग्लैण्ड से जो एक गोरी फौज चीन जा रही थी उसे भी बुलाने का आदेश दे दिया। इस प्रकार उसने धैर्य से संकट का सामना करने का प्रबन्ध किया। अब वह एक और गोरी सेना के आने की राह देख रहा था, तो दूसरी ओर अशांत क्षेत्रों से आनेवाले समाचार पर उसके कान लगे थे।
इस समय लार्ड एनसन भारत का प्रधान सेनापति था, जो उस समय शिमला की ठण्डी हवा खा रहा था। घटनाओं की सूचना उसे 12 मई को मिली थी। उसने तुरन्त मसूरी से एक पलटन को मेरठ पहुंचने की आज्ञा दे दी। 14 को वह स्वयं भी अम्बाला पहुंच गया। अम्बाले की सेना भड़की हुई थी, और पंजाब का चीफ कमिश्नर सर जॉन लारेंस चाहता था कि देशी पल्टनों के हथियार रखा लिए जाएं। परंतु एनसन ने उसकी यह सलाह नहीं मानी। इस समय सतलज प्रान्त के चीफ कमिश्नर जार्ज वारनेस ने, जो हिन्दुस्तानी सिपाहियों पर भरोसा नहीं करता था, सिखों पर निर्भर रहना ठान लिया। अम्बाला एक महत्त्वपूर्ण सामरिक स्थान था। यही स्थान पंजाब को भारत के अन्य भागों से मिलाता है। एक तौर पर यह पंजाब का द्वार था, दिल्ली के भी यह निकट था। सेनापति ने वारनेस को इस नगर की रक्षा का भार सौंपा। उसने सिखों की एक विशेष पुलिस बनाई, और पटियाला जींद, नाभा आदि सिख रियासतों से सहायता मांगी, जो उसे मिल गई। कैनिंग एनसन को बराबर दिल्ली पर आक्रमण करने का जोर डाल रहा था। पर वह अपनी स्थिति ठीक करता रहा। उसने 25 मई को दिल्ली की ओर अम्बाले से सेनाएं लेकर प्रस्थान किया, पर राह में करनाल आते-आते हैज़े से उसका देहान्त हो गया।
गवर्नर-जनरल लार्ड कैनिंग को मेरठ और दिल्ली के समाचार 15 मई को मिले। लार्ड डलहौजी ने यद्यपि अपने कार्यकाल में राज्य का बहुत विस्तार किया था, परन्तु शासन में स्थिरता अभी भी नहीं आई थी। शासन निर्बल और अव्यवस्थित था। लार्ड कैनिंग यह बात जानते थे। अब वे तन-मन से अंग्रेज़ी राज्य को उलट देने के इस प्रयत्न को निष्फल बनाने में जुट गए। इस समय हिन्दुस्तान में कुल मिलाकर दो लाख अड़तालीस हजार सिपाही अंग्रेजों के अधीन थे, जिनमें केवल 18 हजार गोरे थे। इस प्रकार गोरों से हिन्दुस्तानी सेना की संख्या तेरह गुनी थी। बैरकपुर से आगरे तक केवल दानापुर में गोरी फौज थी। 750 मील की व्यववस्था बनाए रखने के लिए यह सेना बिलकुल अपर्यापर्त थी। फिर यही क्षेत्र अशान्ति का केन्द्र बना हुआ था। ग्राण्ड ट्रक रोड इसी स्थान को पार करती जाती थी। इसलिए यह मार्ग सैनिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण था।
लार्ड कैनिंग यद्यपि देश की परिस्थिति से अभी अनभिज्ञ ही था—पर वह बुद्धिमान और धैर्यवान् था। उसने तुरन्त ताड़ लिया कि उसके साथियों ने उसे धोखे में रखा है। परन्तु वह कमर कसकर संकट का सामना करने को तैयार हो गया। उसने 20 मई को एक घोषणा-पत्र निकाला। उसमें उसने उन सौदों समझाने की चेष्टा की कि वे भ्रम में हैं ! पर उसका कोई असर नहीं हुआ। कैनिंग भी जानता था कि नैतिक अपील से अब काम नहीं चलेगा। उसने तेजी से अन्य उपायों को काम में लाना शुरू किया। जि़म्मेदार पदों से सब छावनियों के देशी सिपाही हटा दिए गए। महत्त्वपूर्ण स्थानों, शास्त्रागारों, खजनों आदि पर गोरों का पहरा तैनात कर दिया। हिन्दुस्तानी सेना की गतिविधि पर कड़ी नजर रखने के आदेश सर्वत्र जारी कर दिए। स्वामिभक्त सैनिकों को इनाम और विद्रोहियों को दण्ड देने की व्यवस्था की। उसने एक कानून बनाकर कमांडिंग अफसरों को अधिकार दे दिए कि वे बिना ही ऊपर से आदेश प्राप्त किए विद्रेही सैनिकों को कोर्ट-मार्शल कर दण्ड दें। उसने ईस्ट इण्डिया कंपनी के बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर के अध्यक्ष के नाम से जो खत लिखा उसमें लिखा था कि मैं इस समय दो काम करने में अपनी पूरी शक्ति लगा रहा हूं। एक तो जितनी जल्दी हो सके विद्रोहियों को दिल्ली से निकाल कर बाहर करना और दूसरे अशांतिग्रस्त क्षेत्रों में यूरोपियनों को एकत्र करना। वह यह भली-भांति जानता था कि भारतीयों की दृष्टि और बादशाह दोनों का अत्यन्त महत्त्व है। अंग्रेज़ों ने भले ही कलकत्ते को अपनी राजधानी बना लिया था।—परन्तु भारतीयों के नज़र में उसका कोई महत्त्व न था। कैनिंग खूब जानता था कि यदि दिल्ली देर तक विद्रोहियों के हाथों में रही तो देश के लोगों की नज़र में अंग्रेज़ों की प्रतिष्ठा गिर जाएगी।
उसने दिल्ली को जल्द-से-जल्द वापस लेने के सब सम्भव उपाय किए। उसने बम्बई के गवर्नर लार्ड एलफिस्टन को ईरान से लौटी हुई गोरी पलटन को तत्काल भेजने का तार दिया। अंग्रेजों के सौभाग्य से ईरान का युद्ध समाप्त हो चुका था वह भी अभी कलकत्ता में थी। मद्रास से भी गोरी पल्टन मँगाई गई और इंग्लैण्ड से जो एक गोरी फौज चीन जा रही थी उसे भी बुलाने का आदेश दे दिया। इस प्रकार उसने धैर्य से संकट का सामना करने का प्रबन्ध किया। अब वह एक और गोरी सेना के आने की राह देख रहा था, तो दूसरी ओर अशांत क्षेत्रों से आनेवाले समाचार पर उसके कान लगे थे।
इस समय लार्ड एनसन भारत का प्रधान सेनापति था, जो उस समय शिमला की ठण्डी हवा खा रहा था। घटनाओं की सूचना उसे 12 मई को मिली थी। उसने तुरन्त मसूरी से एक पलटन को मेरठ पहुंचने की आज्ञा दे दी। 14 को वह स्वयं भी अम्बाला पहुंच गया। अम्बाले की सेना भड़की हुई थी, और पंजाब का चीफ कमिश्नर सर जॉन लारेंस चाहता था कि देशी पल्टनों के हथियार रखा लिए जाएं। परंतु एनसन ने उसकी यह सलाह नहीं मानी। इस समय सतलज प्रान्त के चीफ कमिश्नर जार्ज वारनेस ने, जो हिन्दुस्तानी सिपाहियों पर भरोसा नहीं करता था, सिखों पर निर्भर रहना ठान लिया। अम्बाला एक महत्त्वपूर्ण सामरिक स्थान था। यही स्थान पंजाब को भारत के अन्य भागों से मिलाता है। एक तौर पर यह पंजाब का द्वार था, दिल्ली के भी यह निकट था। सेनापति ने वारनेस को इस नगर की रक्षा का भार सौंपा। उसने सिखों की एक विशेष पुलिस बनाई, और पटियाला जींद, नाभा आदि सिख रियासतों से सहायता मांगी, जो उसे मिल गई। कैनिंग एनसन को बराबर दिल्ली पर आक्रमण करने का जोर डाल रहा था। पर वह अपनी स्थिति ठीक करता रहा। उसने 25 मई को दिल्ली की ओर अम्बाले से सेनाएं लेकर प्रस्थान किया, पर राह में करनाल आते-आते हैज़े से उसका देहान्त हो गया।
2
सन् 1956 के अन्तिम महीनों में अंग्रेजों का चीन के साथ विग्रह का सूत्रपात हुआ चीनियों का एक दल ‘एरो’ नामर जहाज़ पर, जो हाल ही में हांगकांग के आर्डिनेंस के अन्तर्गत रजिस्टर्ड हो चुका था, चढ़ आया और ज़हाज के आदमियों को ‘जहाजी लुटेरे’ कहकर गिरफ्तार कर लिया, और उस पर लगा हुआ ब्रिटिश झण्डा फाड़कर फेंक दिया। उन दिनों यूरोप की सभी जातियों के लुटेरे समुद्र में डाका डालते फिरते थे, और वास्तव में यह जहाज़ भी समुद्री लुटेरों का ही काम करता था—जहाज पर कप्तान द्वारा ब्रिटिश झण्डा फहराना भी अवैध था, क्योंकि रजिस्ट्री की अवधि बीत चुकी थी। परन्तु सर जान ब्रानिंग ने, जो इस समय हांगकांग में ब्रिटिश उच्चायुक्त थे, चीन के इस काम को अपराध ठहराया उन्होंने एडमिरल सेमूर को आज्ञा दी कि वह नदी के तट पर स्थित सब चीनी किलों को ध्वस्त कर दे। एडमिरल ने इतना ही नहीं किया बल्कि उसने कुछ चीनी टापुओं तथा डच फौज़ों के किले पर भी अधिकार कर लिया। इसकी प्रतिक्रिया-स्वरूप चीन के गवर्नर येह ने ब्रानिंग का सिर काट लाने के लिए इनाम की घोषणा कर दी। ब्रानिंग तथा उनके साथी अन्य ब्रिटिश अफसरों को विष देकर मारने का प्रयत्न किया गया।
इस झगड़े को उठाने के मूल कारण का दायित्व ब्रिटिश सरकार पर आरोपित किया गया और लन्दन में हाउस ऑफ कामन्स में कौवडन ने एक प्रस्ताव निन्दामूलक उपस्थित किया। कंजरवेटिव, पाइलट्स तथा पीस पार्टी ने प्रस्ताव का समर्थन किया। लार्ड जॉन रसेल ने भी इस अवसर पर सरकार का विरोध किया।
इसका परिणाम यह हुआ कि पार्लियामेंट भंग कर दी गई। जब नया चुनाव हुआ तो पीस पार्टी खण्डित होकर बिखर गई। ब्राइट, मिलनेर, विक्सन्स, कौवडन अपनी-अपनी सीटें हार बैठे। नई पार्लियामेंट में लार्ड पामर्स्टन को बहुमत प्राप्त हुआ और वे इंग्लैंण्ड के प्रधानमंत्री चुन लिए गए। इसके बाद चीन के गवर्नर येह को एक अल्टीमेटम भेजा गया, जिसका आशय यह था कि वह नानकिंग संधि का पालन करें। परन्तु इसके तत्काल बाद ही कैण्डन पर गोले बरसाए गए, और अंग्रेज तथा फ्रेंच दोनों ने मिलकर कैण्ट अधिकृत कर लिया।
यह सन् 1857 की जनवरी या फरवरी में किया गया। इसी समय पेरिस में एक सन्धिपत्र पर हस्ताक्षर हुए जिसके आधार पर पर्शिया की शत्रुता को समाप्त कर दिया गया। साथ ही पार्शिया के शाह को अफगानिस्तान में दस्तंदाजी करने का अधिकार न रहा। हिरात को एक बिलकुल स्वतंत्र प्रदेश घोषित कर दिया गया। इस प्रकार ईरान का युद्ध समाप्त हो गया।
अब ब्रिटेन ने चीन की ओर रूख किया। ईरान से जो सेना खाली हुई थी उसे चीन जाने की आज्ञा हुई। सेना चीन की ओर रवाना हुई ही थी और अभी वह अफगानिस्तान तक पहुंची ही थी कि दिल्ली और मेरठ में विद्रोह फूट उठा। इसकी सूचना पाते ही लार्ड एलगिन ने इस सेना को भारत की ओर मोड़ दिया। अभी यह पहली ही टुकड़ी थी और इसमें 14 हज़ार ब्रिटिश सिपाही थे। परन्तु इसी समय 40 हज़ार ब्रिटिश सेना केप आफ गुड होप के चारों ओर फैली हुई थी, जो पूर्वीय समस्याओं को सुलझाने को इंग्लैंड से भेजी गई थी और जिसके कमाण्डर-इन-चीफ सर कोलिन कैम्पबेल थे। सर कैम्पबेल को आज्ञा भेज दी गई कि वह आवश्यकता पड़ने पर तुरन्त ही भारत की ओर यथेष्ट सहायता भेज दें। यह पहली ब्रिटिश सेना थी जो भारत में ब्रिटिश सरकार ने भारत-विजय के लिए भेजी थी।
इस प्रकार एक ओर जहां अंग्रेजों को भारत से निकाल बाहर करने के लिए भारत में प्रचण्ड बवण्डर उठ रहा था—दूसरी ओर भारत में ब्रिटिश सत्ता की जड़ पाताल तक जमाए रखने के लिए ब्रिटेन पूरी ताकत लगा रहा था। अब विचारने की यहां दो बातें हैं—
इस झगड़े को उठाने के मूल कारण का दायित्व ब्रिटिश सरकार पर आरोपित किया गया और लन्दन में हाउस ऑफ कामन्स में कौवडन ने एक प्रस्ताव निन्दामूलक उपस्थित किया। कंजरवेटिव, पाइलट्स तथा पीस पार्टी ने प्रस्ताव का समर्थन किया। लार्ड जॉन रसेल ने भी इस अवसर पर सरकार का विरोध किया।
इसका परिणाम यह हुआ कि पार्लियामेंट भंग कर दी गई। जब नया चुनाव हुआ तो पीस पार्टी खण्डित होकर बिखर गई। ब्राइट, मिलनेर, विक्सन्स, कौवडन अपनी-अपनी सीटें हार बैठे। नई पार्लियामेंट में लार्ड पामर्स्टन को बहुमत प्राप्त हुआ और वे इंग्लैंण्ड के प्रधानमंत्री चुन लिए गए। इसके बाद चीन के गवर्नर येह को एक अल्टीमेटम भेजा गया, जिसका आशय यह था कि वह नानकिंग संधि का पालन करें। परन्तु इसके तत्काल बाद ही कैण्डन पर गोले बरसाए गए, और अंग्रेज तथा फ्रेंच दोनों ने मिलकर कैण्ट अधिकृत कर लिया।
यह सन् 1857 की जनवरी या फरवरी में किया गया। इसी समय पेरिस में एक सन्धिपत्र पर हस्ताक्षर हुए जिसके आधार पर पर्शिया की शत्रुता को समाप्त कर दिया गया। साथ ही पार्शिया के शाह को अफगानिस्तान में दस्तंदाजी करने का अधिकार न रहा। हिरात को एक बिलकुल स्वतंत्र प्रदेश घोषित कर दिया गया। इस प्रकार ईरान का युद्ध समाप्त हो गया।
अब ब्रिटेन ने चीन की ओर रूख किया। ईरान से जो सेना खाली हुई थी उसे चीन जाने की आज्ञा हुई। सेना चीन की ओर रवाना हुई ही थी और अभी वह अफगानिस्तान तक पहुंची ही थी कि दिल्ली और मेरठ में विद्रोह फूट उठा। इसकी सूचना पाते ही लार्ड एलगिन ने इस सेना को भारत की ओर मोड़ दिया। अभी यह पहली ही टुकड़ी थी और इसमें 14 हज़ार ब्रिटिश सिपाही थे। परन्तु इसी समय 40 हज़ार ब्रिटिश सेना केप आफ गुड होप के चारों ओर फैली हुई थी, जो पूर्वीय समस्याओं को सुलझाने को इंग्लैंड से भेजी गई थी और जिसके कमाण्डर-इन-चीफ सर कोलिन कैम्पबेल थे। सर कैम्पबेल को आज्ञा भेज दी गई कि वह आवश्यकता पड़ने पर तुरन्त ही भारत की ओर यथेष्ट सहायता भेज दें। यह पहली ब्रिटिश सेना थी जो भारत में ब्रिटिश सरकार ने भारत-विजय के लिए भेजी थी।
इस प्रकार एक ओर जहां अंग्रेजों को भारत से निकाल बाहर करने के लिए भारत में प्रचण्ड बवण्डर उठ रहा था—दूसरी ओर भारत में ब्रिटिश सत्ता की जड़ पाताल तक जमाए रखने के लिए ब्रिटेन पूरी ताकत लगा रहा था। अब विचारने की यहां दो बातें हैं—
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