धर्म एवं दर्शन >> श्रीमद्भगवद्गीता रहस्य श्रीमद्भगवद्गीता रहस्यबाल गंगाधर तिलक
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केवल सात सौ श्लोकों में गीता ने सारे शास्त्रों का और उपनिषदों का सार-गागर में सागर भर दिया है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बाल्यावस्था में ही मुझे ऐसे शास्त्रीय ग्रन्थ की आवश्यकता प्रतीत होने लगी, जो कि जीवितावस्था के मोह तथा कसौटी के समय उचित मार्ददर्शक हो।
मैंने कहीं पढ़ा था कि केवल सात सौ श्लोकों में गीता ने सारे शास्त्रों का
और उपनिषदों का सार-गागर में सागर भर दिया है। मेरे मन का निश्चय हुआ।
गीतापठन सुविधाजनक होने की दृष्टि रखकर मैंने संस्कृत का अध्ययन किया।
वर्तमान अवस्था में तो गीता मेरा बाइबल या कुरान ही नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष
माता ही हुई हैं। अपनी लौकिक माता से तो कई दिनों से मैं बिछुड़ा हूँ,
किन्तु तभी से गीतामैया ने ही मेरे जीवन में उसका स्थान ग्रहण कर लिया है
और उसकी त्रुटि नहीं के बराबर कर दी। आपत्काल में वही मेरा सहारा है।
स्वर्गीय लोकमान्य तिलक जी अपने अभ्यास एवं विद्वता के ज्ञानसागर से ‘गीता-प्रसाद’ के बल पर ही यह दिव्य टीका मौक्तिक पा चुके। बुद्धि से आविष्कार करने के व्यापक सत्य का भण्डार ही उन्हें गीता में प्राप्त हुआ।
गीता पर तिलकजी की टीका ही उनका शाश्वत स्मारक है। स्वराज्य के युद्ध में विजयश्री प्राप्त होने पर भी सदा के लिये बना रहेगा। तिलकजी का विशुद्ध चारित्र्य और गीता पर उनकी महान् टीका-दोनों बातों से उनकी स्मृति चिरप्रेरत होगी। उनके जीवनकाल में अथवा साम्प्रत भी ऐसा कोई व्यक्ति मिलना असम्भव है, जिसका उनसे अधिक व्यापक और गहरा शास्त्रज्ञान हो। गीता पर उनकी जो अधिकारयुक्त टीका है, उससे अधिक मौलिक ग्रन्ध की निर्मिति न अभी तक हुई है और न निकट के भविष्यकाल में होने की सम्भावना है। गीता और वेद से निर्मित समस्याओं का जो सुचारू रूप से संशोधन तिलकजी ने किया है, उससे अधिक अभी तक और किसी ने नहीं किया है। अथाह विद्वत्ता, असीम स्वार्थत्याग और आजन्म देशसेवा के कारण जनता जनार्दन के हृ-मन्दिर में तिलकजी ने अद्वितीय स्थान पा लिया है।
स्वर्गीय लोकमान्य तिलक जी अपने अभ्यास एवं विद्वता के ज्ञानसागर से ‘गीता-प्रसाद’ के बल पर ही यह दिव्य टीका मौक्तिक पा चुके। बुद्धि से आविष्कार करने के व्यापक सत्य का भण्डार ही उन्हें गीता में प्राप्त हुआ।
गीता पर तिलकजी की टीका ही उनका शाश्वत स्मारक है। स्वराज्य के युद्ध में विजयश्री प्राप्त होने पर भी सदा के लिये बना रहेगा। तिलकजी का विशुद्ध चारित्र्य और गीता पर उनकी महान् टीका-दोनों बातों से उनकी स्मृति चिरप्रेरत होगी। उनके जीवनकाल में अथवा साम्प्रत भी ऐसा कोई व्यक्ति मिलना असम्भव है, जिसका उनसे अधिक व्यापक और गहरा शास्त्रज्ञान हो। गीता पर उनकी जो अधिकारयुक्त टीका है, उससे अधिक मौलिक ग्रन्ध की निर्मिति न अभी तक हुई है और न निकट के भविष्यकाल में होने की सम्भावना है। गीता और वेद से निर्मित समस्याओं का जो सुचारू रूप से संशोधन तिलकजी ने किया है, उससे अधिक अभी तक और किसी ने नहीं किया है। अथाह विद्वत्ता, असीम स्वार्थत्याग और आजन्म देशसेवा के कारण जनता जनार्दन के हृ-मन्दिर में तिलकजी ने अद्वितीय स्थान पा लिया है।
महात्मा गाँधी (बनारस-कानपुर के अभिभाषण से साभार)
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