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सोना और खून - भाग 2

भोलानाथ तिवारी

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :346
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 668
आईएसबीएन :9789386534248

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भारत में अंग्रेजी राज स्थापित होने की पूरी पृष्ठभूमि से आरंभ करके स्वतंत्रता प्राप्ति तक का संपूर्ण इतिहास...

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Sona Aur Khoon (2)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सोना पूँजी का प्रतीक है और खून युद्ध का। युद्ध प्रायः पूँजी के लिए होते हैं और पूँजी से ही लड़े जाते हैं। सोना और खून पूँजी के लिए लड़े जाने वाले एक महान युद्ध की विशाल पृष्ठभूमि पर आधारित ऐतिहासिक उपन्यास है, आचार्य जी का सबसे बड़ा उपन्यास। इस उपन्यास के चार भाग है। 1.तूफान से पहले 2.तूफान 3.तूफान के बाद और 4.चिनगारियाँ। ये चारों भाग मुख्य कथा से सम्बद्ध होते हुए भी अपने में पूर्ण स्वतन्त्र है भारत में अंग्रेजी राज स्थापित होने की पूरी पृष्ठभूमि से आरम्भ होकर स्वतन्त्रता-प्राप्ति तक का सारा इतिहास सरस कथा के माध्यम से इसमें आ गया है। इसमें आचार्य जी ने प्रतिपादित किया है कि भारत को अंग्रेजों ने नहीं जीता और 1857 की क्रांति राष्ट्रीय भावना पर आधारित नहीं थी। साथ ही वतन की स्वतन्त्रता प्राप्ति पर उस क्रांति का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह उपन्यास एक अलग तरह की विशेषता लिए हुए हैं। इतिहास और कल्पना का ऐसा अद्भुत समन्वय आचार्यजी जैसे सिद्धहस्त कलाकार की लेखनी से ही सम्भव था।

 

सोना और खून
पाँचवा खण्ड
1

 

सत्रहवीं शताब्दी में पहली बार भारत का ब्रिटेन से सम्पर्क हुआ। यह सम्पर्क दो परस्पर-विरोधी संस्कृतियों का परस्पर टकराना–मात्र था। उन दिनों समूचा ब्रिट्रेन अर्धसभ्य किसानों का उजाड़ देश था। उनकी झोपड़ियों नरसलों और सरकंडों की बनी होती थीं, जिनके ऊपर मिट्टी या गारा लगाया हुआ होता था। घास-फूस जलाकर घर में आग तैयार की जाती थी जिससे सारी झोपड़ी में धुआँ भर जाता था। धुँए को निकालने के कोई राह ही न थी। उनकी खुराक जौ, मटर, उड़द, कन्द और दरख्तों की छाल तथा मांस थी। उनके कपड़ों में जुएं भरी होती थीं।

आबादी बहुत कम थी, जो महामारी और दरिद्रता के कारण आए दिन घटती जाती थी। शहरों की हालत गाँवों से कुछ अच्छी न थी। शहरवालों का बिछौना भुस से भरा एक थैला होता था। तकिये की जगह लकडी का एक गोल टुकड़ा। शहरी लोग जो खुशहाल होते थे, चमड़े का कोट पहनते थे। गरीब लोग हाथ-पैरों पर पुआल लटेपकर सरदी से जान बचाते थे। न कोई कारखाना था, न कारीगर। न सफाई का इन्तजाम, न रोगी होने पर चिकित्सा की व्यवस्था। सड़कों पर डाकू फिरते थे और नदियां तथा समुद्री मुहाने समुद्री डाकुओं से भरे रहते थे। उन दिनो दुराचार का तमाम यूरोप में बोलबाला और आतशक-सिफलिस की बीमारी आम थी। विवाहित या अविवाहित, गृहस्थ पादरी, यहाँ कि पोप दसवें लुई तक भी इस रोग से बचे न थे। पादरियों का इंग्लैंड की एक लाख स्त्रियों को भ्रष्ट किया था। कोई पादरी बड़े से बड़ा अपराध करने पर भी केवल थोड़े-से जुर्माने की सज़ा पाता था। मनुष्य-हत्या करने पर भी केवल छः शिलिंग आठ पैंस- लगभग पांच रुपये-जुर्माना देना पड़ता था। ढोंग-पाखण्ड, जादू-टोना उनका व्यवसाय था।
 
सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लंदन नगर इतना गंदा था, और वहां के मकान इस कदर भद्दे थे कि उसे मुश्किल से शहर कहा जा सकता था। सड़कों की हालत ऐसी थी कि पहियेदार गाड़ियों का चलना खतरे से खाली न था लोग लद्दू टट्टुओं पर दाएं-बाएं पालनों में असबाब की भाँति लदकर यात्रा करते थे। उन दिनों तेज़ से तेज़ गाड़ी इंगलैंड में तीस से पचास मील का सफर एक दिन मे तय कर सकती थी। अधनंगी स्त्रियां जंगली और भद्दे गीत गाती फिरती थीं  और पुरुष कटार घुमा-घुमाकर लड़ाई के नाच नाचा करते थे। लिखना-पढ़ना बहुत कम लोग जानते थे। यहाँ तक कि बहुत-से लार्ड अपने हस्ताक्षर भी नहीं कर सकते थे। बहुदा पति कोड़ों से अपनी स्त्रियों को  पीटा करते थे। अपराधी को टिकटिकी से बाँधकर पत्थर मार-मारकर मार डाला जाता था। औरतों की टाँगों को सरेबाजार शिकंजों में कसकर तोड़ दिया जाता था। शाम होने के बाद लंदन की गलियां सूनी, डरावनी और अंधेरी हो जाती थीं। उस समय कोई जीवट का आदमी ही घर से बाहर निकलने का साहस कर सकता था। उसे लुट जाने या गला काट जाने का भय था। फिर उसके ऊपर खिड़की खोल कोई भी गन्दा पानी तो फेंक ही सकता था। गलियों में लालटेन थीं ही नहीं। लोगों को भयभीत करने के लिए टेम्स के पुराने पुल पर अपराधियों के सिर काट कर लटका दिए जाते थे। धार्मिक स्वतन्त्रता न थी। बादशाह के सम्प्रदाय से भिन्न दूसरे किसी सम्प्रदाय के गिरजाघर में जाकर उपदेश सुनने की सजा मौत थी। ऐसे अपराधियों के घुटने को शिकजे में कसकर तोड़ दिया जाता था। स्त्रियों को लड़कियों को सहतीरों में बाँधकर समुद्र के किनारे पर छोड़ देते थे कि धीरे-धीरे बढ़ती हुई समुद्र की लहरें उन्हें निगल जाएं। बहुधा उनके गालों को लाल लोहे से दागदार अमेरिका निर्वासित कर दिया जाता था। उन दिनों इंग्लैंड की रानी भी गुलामों के व्यापर में लाभ का भाग लेती थी।

इंग्लैंड के किसान की व्यवस्था उस ऊदबिलाव के समान थी जो नदी किनारे मांद बनाकर रहता हो। कोई ऐसा धंधा-रोजगार न था कि जिससे वर्षा न होने की सूरत में किसान दुष्काल से बच सकें। उस समय समूचे इंगलिस्तान की आबादी पचास लाख से अधिक न थी। जंगली जानवर हर जगह फिरते थे। सड़कों की हालत बहुत खराब थी। बरसात में तो सब रास्ते ही बन्द हो जाते थे। देहात में प्रायः लोग रास्ता भूल जाते थे और रात-रात भर ठण्डी हवा में ठिठुरते फिरते थे। दुराचार का दौरदौरा था। राजनीतिक और धार्मिक अपराधों पर भयानक अमानुषिक सजाएं दी जाती थीं।

यह दशा केवल ब्रिटेन की ही न थी, समूचे यूरोप की थी। प्रायः सब देशों में वंश-क्रम से आए हुए एकतन्त्र, स्वेच्छाचारी निरंकुश राजा राज्य करते थे। उनका शासन-सम्बन्धी मुख्य सिद्दान्त था-हम पृथ्वी पर ईश्वर के प्रतिनिधि हैं, और हमारी इच्छा ही कानून है। जनता की दो श्रेणियां थी। जो कुलीन थे वे ऊँचे समझे जाते थे; जो जन्म से नीच थे वे दलितवर्गी थे। ऐसा एक भी राजा न था जो प्रजा के सुख-दुख से सहानुभूति रखता हो। विलाश और शान-शौकत ही में वे मस्त रहते थे। वे अपनी सब प्रजा के जानोमाल के स्वामी थे। राजा होना उनका जन्मसिद्ध अधिकार था। उनकी प्रजा को बिना सोचे-समझे उनकी आज्ञा का पालन करना ही चाहिए। फ्रांस का चौदहवां लुई ऐसा ही बादशाह था। यूरोप में वह सबसे अधिक काल तक तख्तनशीन रहा। वह औरंगजेब से बारह वर्ष पूर्व गद्दी पर बैठा और उसके मरने के आठ वर्ष बाद तक गद्दी पर बैठा रहा। पूरे बहत्तर वर्ष। वह सभ्य, बुद्धिमान और महत्वाकांक्षी था। और चाहता था कि फ्रांस दुनिया का सबसे अधिक शक्ति-सम्पन्न राष्ट्र बन जाए।

परन्तु जब-जब वह फ्रांस की शक्ति और उन्नति की बात सोचता था, तब-तब वह फ्रांस की जनता के सम्बन्ध में नहीं, केवल अपने और अपने सामन्तों के सम्बन्ध में। वह अपने ही को राज्य कहता था, और यह उसका तकिया-कलाम बन गया था। उसने अपनी दरबारी तड़क-भड़क से सारे संसार को चकित कर दिया था और फ्रांस सारे तत्कालीन सभ्य संसार में फैशन के लिए प्रसिद्ध हो गया था। उसने प्रजा पर भारी–भारी टैक्स लगाए थे तथा प्रजा की गाढ़ी कमायी से बड़े-बड़े राजमहल बनाए थे। उसने वसाई और पेरिस की शान बनाई कि जिसकी उपमा यूरोप में न थी। उसने अजेय सेना का संगठन किया था, जिसे यूरोप के सब राष्ट्रों ने मिलकर बड़ी ही कठिनाई से परास्त किया। सन् 1715 में जब वह मरा तो पेरिस अपनी शान-फैशन साहित्य, सौन्दर्य और बड़े-बड़े महलों तथा फव्वारों से सुसज्जित था और फ्रांस यूरोप की प्रधान राजनीतिक और सैनिक शक्ति बन गया था। परन्तु सारा देश भूखा और सन्तुष्ट था। उस काल में यूरोप का मुख्य प्रतिद्वन्द्वी आस्ट्रिया था जिसके राजा हाशबुर्ग के थे। पवित्र रोमन साम्राज्य के सम्राट का गौरवपूर्ण पद इसी राजवंश को प्राप्त था। यद्यपि इस पद के कारण आस्ट्रिया के राजाओं की शक्ति मे कोई वृद्ध नहीं हुई थी पर उसका सम्मान और प्रभाव तथा प्रभुत्व समूचे यूरोप पर था।

उस समय जर्मन न कोई एक राष्ट्र था, न एक राज्य का नाम ही जर्मनी था। तब जर्मनी लगभग तीन सौ साठ छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था, जिनमें तनिक भी राजनीतिक एकता न थी। वे नाममात्र को आस्ट्रिया के धर्मसम्राट की अधीनता मानते थे।
 यही दशा इटली की थी। इटली का राष्ट्र है, यह कोई न जानता था। वहाँ भी अनेक छोटे-छोटे स्वतन्तत्र राज्य थे, जिसके राजा निरंकुश स्वेच्छाचारी थे। जनता को शासन में कहीं कोई अधिकार प्राप्त न था।

स्पेन इस काल में यूरोप का सबसे अधिक समर्थ राज्य था। पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में ही उसने अमेरिका मे उपनिवेश स्थापित करके अपनी अपार समृद्धि बढ़ा ली थी। स्पेन के राजा यूरोप के अनेकों देशों के अधिपति थे।
पोलैण्ड सोलहवीं शताब्दी तक यूरोप का एक समर्थ राज्य था। सत्रहवीं शताब्दी में पीटर के अभियानों ने उसे जर्जर और अव्यवस्थिपित कर दिया था और फिर वहाँ किसी शक्तिशाली केन्द्रीय शासन का विकास नहीं हो पाया।
स्वीडन, डेनमार्क, नार्वें, हालैण्ड और स्विटज़लैण्ड का विकास अभी हुआ ही नहीं था। अभी ये देश पिछड़े  हुए थे।
आज का सोवियत रूस संसार का सबसे बड़ा और समर्थ प्रतातन्त्र है। आज उसका एक छोर बाल्टिक सागर से पैसिफिक सागर तक फैला हुआ और दूसरा आर्कटिक सागर से भारत और चीन की सीमाओं को छू रहा है। परन्तु उन दिनों वह छोटा-सा प्रदेश था, मास्को नगर के आसपास के इलाकों तक ही सीमित था और जिसका अधिकांश जंगल था। समुद्र से उसका सम्बन्ध विच्छिन्न था। एक भी समुद्र-तट उसके पास न था। तब बाल्टिक सागर का सारा तट स्वीडन के बाद शाह के अधीन और सागर तथा कास्पियन सागर तट का सारा दक्षिण भू-भाग तातारी और तुर्क राजाओं के सरदारों के अधिकार में था।
 
चौदहवीं शताब्दी के अंतिम चरण में पीटर ने ज़ार के सिंहासन पर बैठकर रूस की कायापलट करने का उपक्रम किया। उन दिनों रूस के लोग लम्बी-लम्बी दाढ़ियाँ रखते और ढीले-ढीले लबादे पहनते थे। एक दिन उसने अपने सब दरबारियों को अपने दरबार में बुलाया, और सबकी दाढ़ी अपने हाथ से मूंड दीं। और चुस्त पोशाकें पहना दीं। उसने स्वीडन के बादशाह के हाथों से बाल्टिक तट छीन लिया और समुद्र-तट पर अपनी नई राजधानी सेण्ट पीटर्सबर्ग जो आज लेनिन ग्राड के नाम से विख्यात है।

परन्तु यह महान सुधारक पीटर भी उन दोषों से मुक्त न था, जो उन दिनों संसार के बादशाहों में थे। वह स्वेच्छाचारी था। वह जो चाहता था वही करता था उनकी आज्ञा का पालन करने में किसे कितना कष्ट झेलना पड़ेगा, इसकी उसे परवाह न थी।

उन दिनों भारत मुगल-प्रताप से तप रहा था। संसार के सबसे बड़े और सबसे धनी बादशाह शाहजहाँ और औंरंगजेब पचास-पचास साल सिंहासन पर विराजमान रह चुके थे। अकबर और जहांगीर के महान सांस्कृतिक प्रभाव भारत में पनप चुके थे। अकबर की उदारता जहांगीर का न्यायशासन, शाहजहां की सुख-समृद्धि और तत्कालीन भारत के कला-कौशल ने भारत को इस युग में नया मोड दिया था। दिल्ली और आगरा के किले बन चुके थे। ताजमहल अपनी धवल छटा के चन्द्र-ज्योत्स्ना को उज्जवल कर रहा था। कुतुब की लाट, ऊँचा सिर उटाए गौरव गाथा कह रही थी। फतहपुर सीकरी का नगर यद्यपि सो रहा था, पर एक शान उनकी भी थी। आगरा और दिल्ली के बाद जयपुर, मथुरा, अजमेर, पटना, काशी आदि दर्नों नगर बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं से सुसज्जित और आश्चर्यकारक धन-वैभव से परिपूर्ण बसे हुए थे।

और औरंगजैब ने सिंहासन पर कदम रखा था, उस समय-भारत में उत्तर से दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक चारों ओर, अलौकिक सुख-समृद्धि व्याप रही थी। इस समय दादू, कबीर और नानक ने धर्मों  के बीच महत्त्वपूर्ण समन्वय का वातावरण उत्पन्न कर दिया था। सूर और तुलसी, रहीम और रसखान, मीरां और ताज एक अविच्छिन्न साहित्य की रस-धार बहा रहे थे।  

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