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सोना और खून - भाग 3

भोलानाथ तिवारी

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :352
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 669
आईएसबीएन :9789386534255

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भारत में अंग्रेजी राज स्थापित होने की पूरी पृष्ठभूमि से आरंभ करके स्वतंत्रता प्राप्ति तक का संपूर्ण इतिहास...

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Sona Aur Khoon (3)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सोना पूँजी का प्रतीक है और खून युद्ध का युद्ध प्रायः पूँजी के लिए होते हैं और पूँजी से ही लड़े जाते हैं। सोना और खून पूँजी के लिए लड़े जाने वाले एक महान युद्ध की विशाल पृष्ठभूमि पर आधारित ऐतिहासिक उपन्यास है, आचार्य जी का सबसे बड़ा उपन्यास। इस उपन्यास के चार भाग है। 1.तूफान से पहले 2.तूफान 3.तूफान के बाद और 4.चिनगारियाँ। ये चारों भाग मुख्य कथा से सम्बद्ध होते हुए भी अपने में पूर्ण स्वतन्त्र है

भारत में अंग्रेजी राज स्थापित होने की पूरी पृष्ठभूमि से आरम्भ होकर स्वतन्त्रता-प्राप्ति तक का सारा इतिहास सरस कथा के माध्यम से इसमें आ गया है। इसमें आचार्य जी ने प्रतिपादित किया है कि भारत को अंग्रेजों ने नहीं जीता और 1857 की क्रांति राष्ट्रीय भावना पर आधारित नहीं थी। साथ ही वतन की स्वतन्त्रता प्राप्ति पर उस क्रांति का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह उपन्यास एक अलग तरह की विशेषता लिए हुए हैं। इतिहास और कल्पना का ऐसा अदभुत समन्वय आचार्यजी जैसे सिद्धहस्त कलाकार की लेखनी से ही सम्भव था।

 

उपन्यास के बारे में

 

 

‘सोना और खून’ आचार्य चतुरसेन का एक उत्कृष्ट उपन्यास है, जो कि उनकी अन्तिम कृतियों में से एक है। इस उपन्यास की एक उल्लेखनीय विशेषता यह कि यद्यपि यह कई-एक भागों में फैला हुआ है, तो भी जिस भाग को भी आप उठाकर पढ़ना शुरू करेंगे, उसे अपने-आप में पूर्ण पाएंगे।
आचार्य जी ‘सोना और खून’ उपन्यास को दस भागों एवं साठ खण्डों में समाप्त करना चाहते थे, जिसके लिए उनके अनुमान के अनुसार प्रस्तुत उपन्यास कोई पांच हजार पृष्ठों में समा पाता। किन्तु हमारा दुर्भाग्य है कि वे अपने जीवनकाल में केवल चार भाग ही पूर्ण कर पाए, जो हमारे यहां क्रमशः प्रकाशित किए जा रहे हैं।

‘सोना और खून’ के बारे में हां इतना संकेत कर देना आवश्यक है कि इस उपन्यास में लेखक की प्रमुख दृष्टि उपन्यास-तत्त्व की स्थापना करना नहीं है, अपितु मध्यम श्रेणी के साधारण पढ़े-लिखे भारतीयों के सम्मुख भारत से यूरोप के संपर्क, उसका समूचा सांस्कृतिक और आर्थिक प्रभाव वर्णन करना है। इसी पृष्ठभूमि में इस उपन्यास को रखकर देखा जाएगा तो इसे समझने में सुविधा रहेगी।

उपन्यास में जो राष्ट्रवाद का उदय और उसका विश्व पर प्रभाव अंकित हुआ है, वह मननीय है।
‘सोना और खून’ का तृतीय भाग ‘तूफान के बाद’ आपके कर-कमलों में है। इसमें प्रथम-स्वाधीनता-संग्राम का विशद वर्णन तथा बाद की घटनाओं की व्यापक दृष्टि से व्याख्या की गई है। हमारा विश्वास है, इसमें पाठक स्वस्थ मनोरंजन के साथ-साथ ऐसी विश्वसनीय जानकारी पाएंगे जो अन्यत्र सहज-प्राप्य नहीं है।

 

-प्रकाशक

 

सोना और खून

 

 

सातवां खण्ड

 

 

सूरज की आड़ी-तिरछी किरणें देवद्रुम की सघन छाया में छनकर समूची घाटी में सोना बिखेर रही थीं। तल में नैनीताल की तरल नीलरहित जल मरकत राशि-सा चमक रहा था। सामने की उंची पर्वतश्रृंखलाओं पर खड़े सीधे सुबुक-साधन देवद्रुम गगन स्पर्श की स्पर्धा कर रहे थे।
नूना एक शिलाखण्ड पर बैठी थी। एक बड़ा-सा घास का गट्ठर उसकी बगल में रखा था। उसकी सफेद बकरी चुपचाप उसके चरणों में खडी पूंछ हिला रही थी। उसने पीली ओढ़नी ओढ़ी थी—और लाल मखमल की कुर्ती। उस पर आसमानी घाघरा बहुत सुन्दर लग रहा था। कण्ठ में गुंजा-पोत और सोने के दानों की पचलड़ी उसके वक्ष पर खेल रही थी। दिन-भर के कड़े परिश्रम के कारण उसके माथे की ईंगुर की श्री कुछ धूमिल हो गई थी—पर वह उसके स्वस्थ स्वर्ण मुख पर बहुत प्रिय प्रतीत हो रही थी। उसका एक हाथ अपनी प्रिय बकरी के गले पर था और दूसरा वक्ष पर। वह उस स्वर में गा रही थी।

 

वेडू पाको चार मास, काफल पाको चैत। मेरे छैला।
रूड़ा–भूना दिन आया हो नरेण, पुजा मेरा मैत।
रौका रौनेली लै माछो मारो गीड़ा,
तेरा खुटा काना बुड़ो मेरा खुटा पीड़ा।
सवाई की बाल;
मेरा हिया भरी ऊंछ जसो नैनीताल।

 

पहाड़ के दूसरी ओर से किसी ने गाया—

 

बाकरे की बसी,
दिखा है छै पारा डाना, व्याण-तारा-जसी,
लड़ी-मरी के हुंछ, लड़ाई छ धोखा।
हरी-भरी रई चैंद्द धरती की कोखा।

 

(‘‘गूलर चौमासे में पकता है और काफल चैत में, मेरे छैला। ग्रीष्म के उदास दिन आ गए, नरेण, मुझे मेरे मैके पहुंचा दे। रोतेली मे मच्छी मारी, तेरे पर में कांटा चुभा, पीड़ा मेरे पैर में हुई है। सवाई की बाल, मेरा हृदय नैनीताल की भांति भर-भर आता है !!’’)
बकरी की वसा, उस पार के पर्वत पर तुम भोर के तारे-सी दीख पड़ती हो। लड़ाई–झगड़े से क्या काम ? लड़ाई धोखा है। धरती की कोश हरी-भरी ही रहनी चाहिए।
नूना का मुख सूरजमुखी की भांति खिल उठा। उसने उच्च स्वर से पुकारा—‘‘होऽहोऽहोऽ’’
घाटी में उसकी आवाज़ गूंज उठी। बकरी ने पूंछ हिलाकर कहा—‘‘मैं ऽऽऽ।’’ इसी समय उसके काम में एक अपरिचित शब्द सुनाई दिया—‘‘फेअर लेंडी ?’’

नूना ने मुंह फेर कर देखा—एक फिरंगी था। लाल-लाल मुंह, कंजी आंखें, लाल बाल, मुंह पर छोटी-सी दाढ़ी, अधेड़ उम्र, लम्बा कद, अंग पर टखनों तक ढीला-ढीला अंगा, हाथ में लम्बी-पहाड़ी लकड़ी, पैर में भारी जूते। फिरंगी न जाने कब से खड़ा मुग्ध-भाल से नूना का गीत सुन रहा था।
‘‘हे कोण !’’ नूना ने धड़कते हुए हृदय से कहा। वह एक झटके के साथ उठ खड़ी हुई।
फिरंगी और दो कदम आगे बढ गया, उसने सामने आकर कहा—‘‘फेयर लेडी, एक्सक्यूज मी प्लीज।’’
‘‘तुम कौन हो ?’’
‘‘अम परडेसी हाय।’’
‘‘पर यहाँ क्यों आया ?’’

‘‘साम हो गया, फेयर लेडी, अम भूका और टायर्ड हाय। अम खाना और रात भर पनाह मांगता।’’
नूना ने क्षण भर उस आगंतुक की ओर देखा। और कहा—‘‘मेरी पीछे आओ।’’ उसने घास का गट्ठर सिर पर रखा, और तेजी से नीचे की ओर चल दी। उसके पीछे-पीछे बकरी और बकरी के पीछे वह फिरंगी।
सूरज अस्त हो रहा था। घाटी में अंधकार फैल रहा था। अब नूना अपने घर के सामने पहुंची तो मानसिंह घर के बाहर पैर में बैठा तमाखू पी रहा था। फिरंगी को देखकर बोला—‘‘इस बंदर को कहाँ से ले आई नूना ?’’
यह जंगल में घूम रहा था। कहता है, भूखा हूं।’’

तब तक फिरंगी ने आगे बढ़कर कहा—‘अम दोस्त हाय बाबा, भोत ठक गया है, हम मनी दे देगा टुम कू।’’
उसने जेब से कुछ सिक्के निकाले। मानसिंह ने कहा—‘‘पैसा रहने दो साब, आओ यहां बैठो। तम्बाखू पीते हो ?’’
नूना घर के भीतर चली गई। फिरंगी अलाव के पास पैर पसारकर बैठ गया। उसने अपना पाइप निकाला और बढ़िया वर्जिनिया तमाखू निकालकर मानसिंह को देकर कहा—‘‘यह तम्बाकू पिओ, बाबा।’
मानसिंह ने हंसकर तम्बाकू लेकर चिलम चढ़ाई। फिरंगी ने भी पाइप भरा। दोनों मज़े में तम्बाखू पीने गप्पें उड़ाने लगे। मानसिंह ने पूछा—
‘‘तुम्हारा नाम क्या है साब ?’’
‘‘अम फ्रेजर साब हाय।’’
‘‘यहां पहाड़ में तुम क्यों आया ?’’
‘‘सैर करने आया। अम कैलकटा से आया हाय। ये पहाड़ का मुलक ठंडा हाय। हम यहां रहना मांगटा।’’
मानसिंह ने हंसकर कहा—‘‘यहां रहकर क्या करेगा साब ?’’
‘‘अम यहां खेती करेगा। बाबा लोग का माफक।’’

‘‘काहे का खेती ?’’
‘‘पोटाटो का खेती।’’
‘‘पोटाटो क्या होता है ?’’
फिरंगी ने झोली से थोड़े आलू निकालकर मानसिंह के हाथ में रख दिए। मानसिंह ने उलट-पलट कर आलुओं को देखकर कहा—
‘‘यह क्या है ?’’
‘‘पोटाटो हाय।’’
 ‘‘इसे क्या करते हैं ?’’
‘‘खाता हाय।’’

मानसिंह ने एक आलू दांत से काटा फिर थूंक दिया। उसने कहा—‘‘बिलकुल फीका है।’’
‘‘ऐसा नहीं बाबा, आग पर पकाकर खाना होता हाय।’’
मानसिंह ने नूना को पुकारकर वे आलू उसे देकर कहा—‘‘नूना, यह फिरंगी कहता है—इसे आग पर पकाकर खाते हैं—ले, पकाकर देख।’’ नूना ने भी आलुओं को हाथ में लेकर उलट-पलट करके देखा। फिर वह हंसती हुई भीतर चली गई।
मानसिंह ने कहा—‘‘तुम अपने मुल्क में क्या करते हो, साब ?’’
‘‘अम खेती करता टुमारा माफक। इहां रहकर अम खेती करना मांगटा।
‘‘तुम जमीन खरीदोगे ?’’

‘‘अलबट खरीडेगा। अम पैसा डेगा।’’
‘‘तुम्हारे मुल्क में किस-किस चीज़ की खेती होती है ?’’
‘‘पोटाटो, टम्बाकू का अम खेती करता हाय।’’
‘‘गेहूं नहीं बोता ?’’
‘‘नई बाबा, हमारा मुलक भौत ठण्डा हाय। गेहूं वहां नहीं होता।’’ दोनों आदमी देर तक गप्पे लड़ाते रहे। तम्बाकू पीते रहे। सरल-तरल हृदय तरुण मानसिंह तुरन्त आगंतुक फ़िरंगी का दोस्त बन गया। नूना गर्मागर्म रोटियां और दाल ले आई। दोनों आदमी खाने बैठे। आलू को भी उसने उबालकर नमक मिलाकर उन्हें दिया। मानसिंह ने खाकर कहा—‘‘मज़ेदार तरकारी है यह, क्या नाम है इसका ?’’

‘‘पोटाटो।’’
‘‘मैं तो इसे आलू कहूंगा। नूना, थोड़ा आलू और दे। मज़े की तरकारी है।’’
‘‘तुम अपना खेत में इसका खेती करो बाबा। अम बीज देगा। साथ काम करेगा भौत फायदा होगा।’’
‘‘बाबा से पूछकर कहूंगा साब, बाबा नीचे हलद्वानी गया है; कल आएगा।’’
‘‘भौत फायदा होगा बाबा, अम तुम साथ काम करेगा।’’
मानसिंह ने कहा—‘‘तुम हल चलाएगा साब ?’’
‘‘ज़रूर चलाएगा। आम टुमको एपिल पीच का बीज देगा।’’
‘‘वह क्या होता है ?’’

‘‘फ्रूट होता है। भौत अच्छा। भौत फायदा।’’
खाना खाकर दोनों नये दोस्त फिर वर्जिनिया तमाखू का मज़ा लेते रहे और गप्पें उड़ाते रहे। इसके बाद मानसिंह ने बांसुरी निकाली। वह बांसुरी बजाने लगा। फिरंगी ने झोले से एक बाजा निकाल उसके साथ बजाना आरम्भ किया। उस अनोखे बाजे को देख नूना आ खड़ी हुई। अभी कुछ ही घंटे फिरंगी को आये यहां हुए थे, परंतु इस बीच इस परिवार का मित्र हो गया था—मानसिंह और नूना दोनों बहुत खुश थे। बहुत रात तक उनका गाना-बजाना चलता रहा। फिरंगी ने भी एक अंग्रेजी गीत गया। सुनकर नूना बहुत हंसी। मानसिंह ने कहा—‘‘अब सो जाओ साहब, पहर रात बीत गई।’’ वह उसे अपनी कोठरी में ले गया। जहां पुआल पर बिछौना लगा था। उसी कोठरी में फिरंगी ने भी अपना कम्बल बिछाकर पैर फैला दिए।

 

2

 

गुमानसिंह समझदार और जहांदीदा आदमी था। दूसरे दिन आकर उसने नये मेहमान को देखा। देखकर माथा ठनका, वह बेटे को एकान्त में ले गया और उससे बात की। उसने कहा—
‘‘मानू, तूने यह क्या इल्लत गले बांधी, निकाल इस बन्दर को घर से ।’’

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