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उपन्यास >> काली आँधी

काली आँधी

कमलेश्वर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 671
आईएसबीएन :9789386534118

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प्रस्तुत उपन्यास में राजनीति में चलने वाली उठा-पटक को पूरी जीवन्तता के साथ प्रस्तुत किया गया है...

Kali Aandhi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सुप्रसिद्ध उपन्यासकार कमलेश्वर का यह उपन्यास उनके लेखन को एक नए परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करता है क्योंकि इसका कथानक देश की ऐसी सम-सामयिक राजनीति से प्रभावित हैं,जिसमें नैतिक मूल्यों का ह्रास हुआ है और भ्रष्टाचार पनपा है। राजनीति में चलने वाली उठक-पटक को पूरी जीवन्तता के साथ ‘काली आँधी’ के पात्रों ने किया है। ईमानदारी से कही गई यह कहानी यथार्थ के इतने नजदीक है कि पाठक आद्योपान्त इसका रस लेता है। इस उपन्यास पर फिल्म भी बन चुकी हैं, यह इसकी लोकप्रियता का एक और प्रमाण है।
जग्गी बाबू मेरे दोस्त हैं। होटल गोल्डन सन के मैनेजर। होटल के मैनेजरों के बारे में तरह-तरह की ऊँची-नीची बातें रहती हैं, पर जग्गी बाबू इस पेशे में अपनी तरह के अलग आदमी हैं। मुझे मालूम है कि उन्होंने अपनी ज़िन्दगी को क्यों एक जगह रोक रखा है। कहने के लिए कुछ भी कहा जा सकता है। पर आदमी की तकलीफ की असलियत जानना शायद बहुत मुश्किल होता है।

औरों से क्या कहूं, अब तक खुद अपने घर में मैं यह साबित नहीं कर पाया कि जग्गी बाबू के भीतर एक ऐसा इन्सान बैठा हुआ है जो अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए रोता है...सच कहूं, तो मालती के लिए रोता है। मालती के लिए यह आदमी अपनी ज़िन्दगी को पकड़कर बैठ गया है—न ज़िन्दगी को आगे बढ़ने देता है, न पीछे हटने देता है।
कभी आप जग्गी बाबू के कमरे में जाइए। होटल गोल्डन सन के टैरेस पर बने दो कमरों के अपार्टमेंट में वे अकेले रहते हैं। मैनेजर हैं, इसलिए उन्हें वहीं रहने के लिए जगह भी मिल गई है। उनके कमरे में दो खास चीज़ें हैं, एक डिब्बा, जिसमें उनकी प्यारी बिटिया लिली के खत रखे रहते हैं और दूसरी है एक घड़ी, जो हमेशा बंद रहती है। वक्त को नापते-नापते एक दिन अचानक वह रुक गई। जग्गी बाबू ने उसे चलाया नहीं न उसे चाबी दी।

मैंने एक दिन उनसे पूछा था—यह घड़ी खराब हो गई है ? जब आता हूं, हमेशा एक वक्त पर अटकी मिलती है !
जग्गी बाबू मुस्करा दिए थे। फिर बोले थे—क्या यह जरूरी है कि घड़ी खराब हो जाए, तभी रुके ! उसे किसी खास वक्त पर खुद भी तो रोका जा सकता है....
--तो इसे चलाया भी जा सकता है !
वे फिर फीकी-सी हंसी हंसे थे—तुम भी क्या बात करते हो ! वक्त चलता है...यह घड़ी चलते-बदलते हुए वक्त को सिर्फ नापती है। और वक्त को नापने की ख्वाहिश अब मुझमें नहीं...

--बदलने की ताकत सबमें नहीं होती...जिनमें होती है वे भी वक्त को बदलते-बदलते खुद बदल जाते हैं...वे, जिनके पास यह शक्ति है, शायद वक्त को बदलना भी नहीं चाहते...सिर्फ वक्त का इस्तेमाल करना चाहते हैं।
मैं जान रहा था कि जग्गी बाबू के भीतर की कौन-सी चोट बोल रही थी। एक तरह से कहें तो यह बहुत व्यक्तिगत चोट है पर खुली आँखों से देखें तो यह सबकी चोट है।

एक तरह से अब मैं भी राजनीति में हूं। करीब-करीब उन्हीं दिनों से, जब से मालती जी राजनीति में आईं। यों मैं मालती को बचपन से जानता रहा हूं। मैं मालती जी के पिता बैरिस्टर प्रतापराय के दफ्तर में असिस्टेंट था और वहीं से मालती जी के परिवार के साथ हमारा एक रिश्ता शुरू हुआ था। प्रतापराय जी की मृत्यु के बाद, या कहूं मालती जी की शादी के बाद मेरा संबंध कुछ टूट गया। प्रतापराय जी की मृत्यु के बाद मैं उनकी जायदाद की देख-भाल करता रहा। जब मालती जी राजनीति में आईं तो उन्होंने एक सहायक के रूप में मुझे फिर से अपने साथ बुला लिया था। तब से मैं मालती जी के साथ हूं।

जग्गी बाबू राजनीति की बातों में नहीं पड़ते। समझते सब हैं, पर बात कीजिए तो कतराते हैं। एक बार कुरेद दिया तो चिढ़कर बोले थे—यार, तुम्हारी, यह राजनीति बड़ी घटिया चीज़ है...तुम लोगों ने इसे निहायत बेहूदा बना दिया है। तुम लोग सिर्फ चीज़ों का बखूबी इस्तेमाल करना जानते हो !...बाढ़ आई तो उसे इस्तेमाल करो, सूखा पड़े तो उसे इस्तेमाल करो, कहीं कोई लड़की भाग गई तो उसके भागने का इस्तेमाल करो...कहीं कोई मर गया तो उसकी मौत को इस्तेमाल करो....तुम लोगों ने आदमी के आंसुओं जज़बातों को तक को नहीं छोड़ा...उसकी आशाओं और सपनों तक को नहीं बख्शा...इससे ज्यादा घटिया बात और क्या हो सकती है कि दुःखी और मुसीबतज़दा इन्सानों के सपनों तक का इस्तेमाल तुमने कर लिया...खुदा के लिए, उसके सपने तो उसके लिए छोड़ दिए होते...ताकि वह अपनी बदहाली और मुसीबतों के बीच सपनों के सहारे तो जी लेता....तुमने....तुमने उसके सपनों को नारे बनाकर निचोड़ लिया ! अब क्या बचा है आदमी के पास ? खैर छोड़ो...कहां की बातें ले बैठे....

ज्यादातर जग्गी बाबू बातों को टाल देते हैं। मालती जी की बात करो तो भी शामिल नहीं होते, ऐसे जताते रहते हैं जैसे मालती जी से उन्हें कुछ लेना-देना न हो। जैसे वे उनकी ज़िन्दगी में कभी आए ही न हों।
मालती जी एक धमाके के साथ राजनीति में आईं। सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई। जहाँ से उन्होंने शुरू किया, वहां से पीछे मुड़कर देखने की जरूरत उन्हें नहीं पड़ी। पहला चुनाव उन्होंने म्युनिस्पल बोर्ड कमेटी का लड़ा...हंगामा बहुत हुआ। तरह-तरह की अफवाहें फैलीं। शायद इसलिए और भी ज़यादा कि जग्गी बाबू खजुराहो में एक टूरिस्ट होटल चलाते थे। जब पहली बार मालती जी ने घर से बाहर कदम रखा तो जग्गी बाबू बहुत खुश थे। कोई बहस करने लगे और कहने लगे—जग्गी बाबू, इस चुनाव में तो आपको खड़ा होना चाहिए था ! तो वे तपाक से कहते थे—देश के निर्माण में औरतों को भी आगे आना चाहिए। औरतों यानी हमारी आधी जनसंख्या जब तक इस तामीर में हाथ नहीं बंटाएगी, तब तक हर काम की स्पीड आधी रहेगी...यह बेहद ज़रूरी है कि हमारे घरों की औरतें आगे आएं और हर काम में मर्दों का हाथ बंटाएं...

और पहली बार जग्गी बाबू और मालती जी के पैर घर की दहलीज से साथ-साथ बाहर आए थे।
नौकर बिंदा बताता था कि मालकिन बहुत डर रही थीं और जग्गी बाबू उन्हें हिम्मत बंधा रहे थे—और स्पीच देने में क्या रखा है ? ये देखो मैंने तुम्हारी स्पीच लिख दी है...इसे रट लो, बस...
मालती जी कमरे में घूम-घुमकर स्पीच रटती रही थीं और जगह-जगह पर अटककर पूछती जाती थीं—यह क्या लफ़्ज है ?
-ये ऑक्टराय, यानी महसूल...चुंगी जो टैक्स लगाती है। पूरा सेंटेंस इस तरह बोलना—गावों से शहर आने वाले माल पर जो ऑक्टराय यानी चुंगी का महसूल लगता है, वह आखिर तो वही गरीब किसान देता है जो हमें ज़िंदा रखता है ! मेरा वादा है कि मैं अपने गरीब किसान और गांववाले भाइयों के हित से इस चुंगी के महसूल को खत्म करूंगी....समझीं, यहां पर तालियां बजेंगी, तब एक मिनट तक रुकना और आगे यों शुरू करना...तो मेरे इस गरीब खजुराहो शहर के भाइयों और बहनों !

और यह क्रम जो चला तो रुकने को नहीं आया। सफलता मालती जी के कदम चूमती चली गई। आवाज़ गूंजती रही, एक चुनाव से दूसरे चुनाव तक। चुंगी की मेम्बरी से पार्लियामेंट के चुनाव तक। मैंने मालती जी के हर चुनाव अभियान में हाथ बँटाया है और वे आवाजें अब तक मेरे कानों में गूंजती हैं जो एक दिन खजुराहो म्युनिस्पल बोर्ड के चुनाव से शुरू हुई थीं—मेरे इस गरीब खजुराहो शहर के भाइयों और बहनों ! मेरे ज़िले के भाइयों और बहनों ! मेरे प्रदेश के भाइयों और बहनों ! मेरे देश के भाइयों और बहनों !
यह आवाज़ फैलती गई। आवाज़ का दायरा बढ़ता गया। आवाज़ की गूंज गहराती गई। और जग्गी बाबू हर बार इस फैलती आवाज़ के साथ-साथ बैठकर आए थे। मंच पर मालती जी और जग्गी बाबू एक साथ ही बैठे थे। बिंदा मालाएं संभाले हुए था।

ज़िला परिषद वाला चुनाव जीतने पर फिर स्वागत समारोह हुआ था। कारों की कतार में इस बार जग्गी बाबू पीछे वाली कार में थे और मालाएं गोद में रखे बैठे थे। असेम्बली चुनाव में जीतने के बाद मालती जी बेतरह घिरी हुई थीं। जग्गी बाबू कारों की कतार में सबसे पीछे वाली कार पर थे और मंच पर जब चढ़ने लगे तो एक वार्लिटियर ने उन्हें रोक लिया था। वे अचकचाकर बोले—अरे भाई, मैं, मैं मालती जी का....

वार्लिटियर ने अपने जोम में जवाब दे दिया था—हां, हां, यहां सभी मालती जी के घरवाले ही हैं। हटिए....नीचे उतरिए।
मेरी निगाह न पड़ती तो जग्गी बाबू अपमानित होकर सीढ़ियों से उतर ही गए होते। वार्लिटियर को डांट कर मैं उन्हें मंच पर ले आया था। कुर्सियां नहीं थीं तो एक मोढ़े का इंतजाम करके उन्हें बैठा दिया था। वे बैठे तो रहे, पर बेहद बुझे हुए थे। सफलहोने वाले के चारों तरफ कैसा मजमा जुटता है और सही लोग कैसे उससे दूर होते जाते हैं, इसका जीता-जागता उदाहरण जग्गी बाबू हैं।

उनका एलबम उठाकर देखिए। इस दुःखद सच्चाई की दास्तान तस्वीरें ही बता देंगी। तस्वीरों में से झांकता जग्गी बाबू का हंसता–खिलखिलाता और खुशी से भरा चेहरा खामोश और उदास होते-होते एक दिन बिलकुल गायब हो जाता है।
और तब वे सारा वक़्त अपने खजुराहो वाले होटल पर ही गुज़ारने लगे थे। अफवाहें भी फैली थीं कि जग्गी बाबू का होटल होटल नहीं, वह तो लोगों को पटाने का शिकारगाह है। कि जग्गी बाबू ने अपनी बीवी को औरों को लिए छोड़ दिया है...आखिर पैसा बनाने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा...यह साला अपनी बीवी को दांव पर लगा बैठा है !

खजुराहो वाले होटल में उन दिनों कई बार जग्गी बाबू से मेरी बातें हुईं। वे दोनों तरफ से दुखी थे। मालती को लेकर भी और इन अफवाहों को लेकर भी। और एक दिन मालती जी से उनका झगड़ा हुआ था। मालती ने उनसे कहा था—आप यह होटल बंद कर दीजिए।
‘‘लेकिन क्यों ? जग्गी बाबू चीखे थे।
-इसलिए कि मैं पब्लिक में यह नहीं सुनना चाहती कि हम लोगों ने होटल को बहाना बना रखा है। कि यह होटल हमारी काली आमदनी का जरिया है....कि यह गंदे कामों के लिए इस्तेमाल होता है....इससे मेरी पब्लिक इमेज पर धक्का लगता है।
--लेकिन मालती...जीने के लिए आमदनी का यह एक इज़्ज़तदार ज़रिया है।...
-और मेरी बदनामी का भी यही एक ज़रिया है।
--आखिर मैं कुछ करूंगा या नहीं ? मुझे जीने और काम करने का हक है या नहीं...तुम समझती क्यों नहीं...

-समझती तो हूं पर राजनीति की इस दुनिया में साफ चेहरे रखने के लिए बहुत नुकसान उठाने पड़ते हैं। और होटल का बंद होना कोई इतना बड़ा नुकसान नहीं है कि....आप मेरी खातिर इतना भी न कर सकें।
-फिर मैं करूंगा क्या ?
-क्यों, मेरे साथ मेरे काम में हाथ नहीं बंटा सकते ? इतने गैर लोग साथ रहकर काम करते हैं। कितनी चीजों को संभालना पड़ता है। आप दस कमेटियों के मेम्बर हो सकते हैं...गैर लोग मुझसे फायदा उठा सकते हैं पर आपके लिए मैं किसी लायक नहीं ?
-मैं तुम्हारा पति हूं....फायदा उठा सकने वाला गैर आदमी नहीं...मैं तुमसे फायदा उठाऊंगा ? सोचो, क्या बात कही है तुमने ?
-कोई गलत बात तो नहीं कही। अगर एक औरत इस लायक हो जाए तो इसमें पति-पत्नी का रिश्ता...
-क्या कह रही हो तुम ?

-रिश्ते कामों को आसान करने के लिए होते हैं...बेड़ियां डालने के लिए नहीं। सही बात यह है कि आप अभी तक मेरी इस सेवा और त्याग की ज़िन्दगी, पब्लिक सर्विस की ज़िन्दगी से अपने को जोड़ ही नहीं पाए हैं।
-सही बात कहूं मालती। अब तुम्हें रिश्तों की ज़रूरत ही नहीं रह गई है।...खामख्वाह इन्हें ढोते जाने से अब तुम्हें कुछ हासिल होनेवाला नहीं है।
मालती ने उन्हें गुस्से से भरी आंखों से देखा था। और इतना ही बोली थीं—खैर....यह सब डिस्कस करने का वक्त मेरे पास नहीं है। चीफ मिनिस्टर छतरपुर आनेवाले हैं और उनके आने से पहले मुझे तमाम काम पूरे करने हैं...सात-आठ दिन छतरपुर में रहकर मैं पन्ना चली जाऊंगी।
-मुझे ज़रूरत होगी तो तुम्हारे सेक्रेटरी से सब प्रोग्राम मालूम कर लूंगा।
और चलते-चलते मालती जी ने इतना ही कहा था—‘‘मैं होटल वाले की बीवी कहलाती रहूं...यह आपको गवारा है तो ठीक है !

-तो तुम किसकी बीवी कहलाना पसन्द करोगी ?
-कैसी बातें करते हैं आप...मेरा मतलब है कि आप अच्छी तरह समझ रहे हैं। मुझे उम्मीद है कि आप...
-कोशिश करूंगा।...पर जाने से पहले एक बात और कह देना चाहता हूं। मैं सोचता हूं लिली को किसी होस्टल में डाल दूं ताकि हमारी रोज़-रोज़ की चटखती और टूटती ज़िन्दगी की तकलीफ की छाया से वह अलग रह सके।
-यह हर बार लिली का वास्ता देकर मुझे कमज़ोर बनाने का ज़रिया आपने खूब ढूंढ़ रखा है ? जब देखो तब लिली ! अपनी मर्ज़ी की बात मनवाने के लिए आप हर बार लिली को आगे कर देते हैं। आइन्दा से आप लिली को पासंग बनाना बंद कीजिए !
-मैं लिली को पासंग बनाता हूं ?
-और नहीं तो क्या ?

-मालती तुम समझती हो...मैं धमकी देता हूं ! मैं बेचारा हूं...पर मैं कहे देता हूं, मैं तो जाऊंगा ही, लिली को भी तुम्हारी ज़िन्दगी से कहीं बहुत दूर लेकर चला जाऊंगा....
-हूं, फिर वही दलील ! वही वास्ता देने की आदत !
-इस बारह मैं करके दिखा दूंगा...तुम समझती हो, मुझमें कुछ भी करने की शक्ति नहीं रह गई है !
‘काश ! वह दिन देखने को मिलता !
‘ठीक है ! ठीक है !...जग्गी बाबू गुस्से से उफन रहे थे—मैं लाचार नहीं हूं ! मेरी बच्ची लाचार नहीं है...
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई थी। मालती जी समझ गई थीं कि उनका सेक्रेटरी जगतसिंह होगा। घड़ी पर नज़र डालकर उन्होंने इतना ही जग्गी बाबू से कहा था—अब ये नाटक बंद कीजिए...बहुत बार देख चुकी हूं...और एक दम प्रकृतिस्थ होकर उन्होंने जगतसिंह को आवाज़ दी थी—यस कम इन...और ऐसे हो गई थी जैसे कुछ हुआ ही न हो।
जगतसिंह कुछ ज़रूरी तार लेकर आया था। डायरी उसके हाथ में थी। मालती जी तारों को देखती रही थीं और जग्गी बाबू कमरे से बाहर निकल गए थे।

और इस दिन के बाद सब कुछ एकदम तहस नहस हो गया था हम छतरपुर पहुँचे थे। मालती जी का दो हफ्ते का दौरा था। उन्हें महिला सेवादल का गठन करना था। तारीफ करूंगा मालती जी की भी। पूरे दौरे में कभी पता नहीं लगा कि कि वे कितना बड़ा तूफान मन में दबाए हैं। आखिर अपनी बच्ची का खयाल तो उन्हें आता ही होगा।
उनके नौकर बिंदा ने छतरपुर आकर खबर दी थी कि जग्गी बाबू ने खजुराहो होटल में तीसरे दिन ही ताला डाल दिया था और लिली को लेकर कहीं चले गए थे। एक क्षण के लिए वे उदास हुई थीं। उन्होंने आंखें बंद करके अपने आंसू छुपाए थे और बच्चों के अनाथाश्रम की नई इमारत का उद्घाटन करने चली गई थीं।

अनाथाश्रम में तीस-चालीस बच्चे थे। खपरैल की छोटी-सी इमारत थी। अनाथ बच्चों का अपना बैण्ड था और वे बच्चे मालती जी के स्वागत में, उनके पहुंचते ही प्रार्थना करने लगे थे—
वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग पर डट जावें
परसेवा, पर उपकार में हम जगजीवन सफल बना जावें
हम दीन दुखी, निबलों,. विकलों के सेवक बन संताप हरें
जे हैं अटके, भूले-भटक, उनको तारे हम तर जावें...

मालती जी की आंखों में रह-रहकर आंसू आ रहे थे और वे छोटे-छोटे बच्चों को प्यार से रह-रहकर चिपका लेती थीं। एक फोटोग्राफर बार-बार फोटो ले रहा था....और वहां जमा हुए लोग मालती जी की ममता देख-देखकर द्रवित और प्रसन्न हो रहे थे। उनके चेरहों पर मालती जी की ममता के लिए प्रशंसा की चमक थी। पर मैं जान रहा था कि यह कौन-सी हलचल थी...और मालती जी की आँखें रह-रहकर क्यों नम हो जाती थीं ! पर तारीफ करूंगा उनकी...कि कितना उन्होंने अपने को संभाला था और अपने एकांतिक दुख को वे कैसे चुपचाप पी रही थीं।

मुझे दिखाई दे रही थी—एक ट्रेन ! उसमें बैठे हुए जग्गी बाबू और मासूम लिली ! यह तो पता नहीं, वह ट्रेन कहाँ जा रही थी, पर इतना मालूम था कि वह ट्रेन मालती जी से कहीं दूर, और दूर भागती जा रही थी।
और शाम को ही महिला सेवादल का गठन होना था। दोपहर का अनाथाश्रम वाला वह क्षण गुजर चुका था। और मालती जी ने अपने को संभाल लिया था। मैं एक कुर्सी पर बैठा चुपचाप सब देख रहा था।

महिलाओं की मीटिंग में वे बोल रही थीं—आप बहने कहती हैं कि आपको वक्त नहीं मिलता ! मैं खुद कभी नहीं कहती कि आप अपने घर-परिवार और पति की खुशियों की कीमत पर राजनीति का काम करें। यह ज़रूरी है कि परिवार और पति की पूरी परवाह की जाए...समाज की खुशी का असली आधार यही है...अगर मैं अपना उदाहरण पेश करूं तो आप क्या कहिएगा ! कौन कह सकता है कि मेरा परिवार और पति सुखी नहीं हैं ! और मैं समाज के कामों के लिए भी पूरा वक्त निकालती हूं—तो बहनों, हमें एक महिला सेवादल बनाना है...मुख्यमंत्री महोदय कल नगर में आ रहे हैं और उन्हें दिखाना है कि हम महिलाएं भी अपना मोर्चा संभाले हुए हैं...आनेवाले चुनावों में हमें बहुत काम करना है...मैं चाहूंगी कि कम से कम तीस महिलाएं आगे आएं और दल का निर्माण करें...तो पहला नाम किसका लिखा जाए ?

कई हाथ एकाएक उठे थे मालती जी ने एक ही इशारा करके पूछा था—आपका नाम ? उत्तर मिल था—लक्ष्मी अग्रवाल !
और मैंने वहीं बैठे-बैठे जैसे देखा था—पंचमंडी पब्लिक स्कूल की प्रिंसिपल के सामने जग्गी बाबू और लिली बैठे थे ? प्रिंसिपल ने पूछा था—यस माई चाइल्ड, वाट्स योर नेम !
-लिली !...लिली ने तुतलाते हुए कहा था।
-वेरी स्वीट नेम ! लिली ! सो यू विल लिव विद अस हियर ?
-यस ! लिली बोली थी।
और वापसी का सफर। जग्गी बाबू लिली को स्कूल में दाखिल करा के लौट आए थे। उनकी आंखें नम थीं। वे बार-बार खिड़की के शीशे को साफ कर रहे थे ताकि बाहर देख सकें, पर पानी की परत खिड़की के शीशे पर नहीं उनकी आंखों पर छाई हुई थी। उन्होंने आस्तीन से आंखें सुखा ली थीं। लेकिन वह वापसी का सफर घर-वापसी का नहीं था। वे खजुराहो लौटकर नहीं आए थे। सीधे भोपाल चले गए थे।
  

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