सांस्कृतिक >> पहाड़ चोर पहाड़ चोरसुभाष पन्त
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यह एक आंचलिक उपन्यास है जिसकी पृष्ठभूमि पर्वतीय प्रदेशों के जन-जीवन और उनके विशिष्ट समस्याओं पर आधारित है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘पहाड़ चोर’ मोचियों के एक छोटे से पहाड़ी गाँव को
पहाड़
चोरों से बचाने की एक ऐसी अविस्मरणीय गाथा जिसकी संघर्ष चेतना राजनैतिक
सिद्धांतों से नहीं, अपने दुःखों और संकटों से जागती है। ये समाज में
निम्न समझे जाने वाले वे महान लोग हैं जो इतिहास को थामकर बैठे ही नहीं
रहते बल्कि अपने जातीय गौरव के साथ आगे बढ़ते हैं और अगला इतिहास लिखते
हैं। यह आंचलिकता का अनायास वैश्वीकरण पहाड़ चोर की सबसे बड़ी विशेषता है।
उपन्यास यथार्थ से नीचे आत्मिक यथार्थ की महागाथा है, क्योंकि यह मोचियों
के सोलह परिवार वाले झण्डूखाल की ही त्रासदी नहीं, मानव विकास के क्रम में
तिरोहित हो गई कई सम्भ्यताओं की त्रासदी भी है। एकदम अछूते विषय पर
विचारोत्तेजक उपन्यास।
यह एक आंचलिक उपन्यास है जिसकी पृष्ठभूमि पर्वतीय प्रदेशों के जन-जीवन और उसकी विशिष्ट समस्याओं पर आधारित है। चरित्र-चित्रण और पत्रों के अन्तर्द्वन्द की सजीवता इस उपन्यास की विशेषता है।
यह एक आंचलिक उपन्यास है जिसकी पृष्ठभूमि पर्वतीय प्रदेशों के जन-जीवन और उसकी विशिष्ट समस्याओं पर आधारित है। चरित्र-चित्रण और पत्रों के अन्तर्द्वन्द की सजीवता इस उपन्यास की विशेषता है।
भूमिका
पहाड़ चोरः यथार्थ से भी नीचे आत्मिक यथार्थ की महागाथा
‘पहाड़ चोर’ मोचियों के एक छोटे से पहाड़ी गाँव को पहाड़ चोरों से अपने से बचाने की एक ऐसी अविस्मरणीय गाथा जिसकी संघर्ष चेतना राजनैतिक सिद्धांतों से नहीं, अपने दुःखों और संकटों से जागती है। ये समाज में निम्न समझे जाने वाले वे महान लोग हैं जो इतिहास को थामकर बैठे ही नहीं रहते बल्कि अपने जातीय गौरव के साथ आगे बढ़ते हैं और अगला इतिहास लिखते हैं।
आज़ादी के दस बरस बाद मोचियों के सभ्यता से निर्वासित और खोए हुए गाँव में जीपों में सवार होकर कम्पनी के कुछ लहीम-शहीम से लोग आते हैं और गाँव के लोगों के भीतर आशा की कोंपले लगती हैं कि ये लोग उनके गाँव में आज़ादी की दस्तक लेकर आए हैं। दरअसल ये लोग पहाड़ चोर हैं जो प्रगति का मुखौटा ओढ़कर उनके पहाड़ चुराने आए हैं। उसी तरह जैसे कभी ईस्ट इंडिया कम्पनी इस देश की सम्पदा लूटने आई थी। अपने आरंभ से ही उपन्यास कहानी की दो यात्राएँ एक साथ तय करता दिखाई देता है। पहली, अंग्रेज़ व्यवसायियों के दमनचक्र की इतिहास सम्मत कहानी, जिसे वह कहता नहीं, लेकिन जो छाया की तरह उसके साथ यात्रा करती है और दूसरी, चूना व्यवासियों के लूट की कहानी, जिसे लेखक इतिहास की इस कहानी के समानान्तर बुनता है और कहता है।
चूना कम्पनी गाँव में तरक्की के नाम पर सड़क का निर्माण करती है। गाँव के लोग इसके लिए अपनी ज़मीने देते हैं, जिसे वे अपने दिल से ज़्यादा प्यार करते हैं और यह उनके दिलों को चीरती हुई कच्चे माल की निकासी के लिए खनन क्षेत्र तक पहुँचती हैं। कम्पनी गाँव के कुछ लोगों की खदान पर नौकरी देकर गाँव को दो हिस्सों में तोड़ देती है। ठीक जैसे राज करने के लिए अंग्रेज़ों ने हिन्दू और मुसलमानों के बीच दरार पैदा की थी। गाँव का एक हिस्सा विध्वंस में प्रगति के सपने देखता है और खुद ही अपने पहाड़ को डायनामाइट लगाकर तोड़ देता है। और दूसरा हिस्सा वो जो टूटते पहाड़ की कराह सुनता है और इसके गर्दों-गुबार में काले भविष्य की आहटें सुन रहा है। इसके हाथों में कभी अदृश्य और कभी दिखाई पड़नेवाले खंजर हैं और इस आदर्श स्थिति में चूना व्यवसायी उनके जंगल और पहाड़ लूट रहे हैं। लेखक अपने उपन्यास के जरिए इस नंगी सच्चाई से साक्षात्कार कराता है और बहुत शिद्दत से भी कि अंग्रेज़ों ने शोषण के जो हथियार बनाए थे, आज़ादी के बाद भी उनकी धार कुंद नहीं हुई खास तौर से आज़ादी के बाद पनपा व्यवसायी वर्ग लूट के लिए उन्हें ही इस्तेमाल कर रहा है।
दोहन के लिए जब पहाड़ पर डायनामाइट लगाया जाता है तो वह सिर्फ पहाड के सीने पर ही नहीं, उन लोगों की आत्माओं में भी विस्फोट करता है जो पहाड़ से जीवन पाते हैं। पहाड़ का टूटना सबको दिखाई पड़ता है, आत्माओं का टूटना दिखाई नहीं देता है। सुभाष पन्त पहाड़ के साथ आत्माओं को टूटने को भी देखते हैं और इसके साथ उपन्यास की एक तीसरी यात्रा शुरू होती है, जो आत्माओं की राह से गुज़रती है।
जंगल, पहाड़ और मनुष्य के आपसी रिश्तों को उपन्यास संवेदना के धरातल पर स्थापित करते हुए उनके आपसी सम्बन्धों को अछूते ढंग से परिभाषित करता है। पहाड़, औरतों के हँसने के साथ हँसता है रोने के साथ रोता है और गाने के साथ गाता है। पहाड़ी औरतों और जंगल के साथ उनके रिश्तें की संवेदनशील व्याख्या इस उपन्यास को तमाम उपन्यासों से अलग खड़ा करती है।
उपन्यास, पहाड़ के पहले धमाके के साथ झण्डूखाल में आए सामाजिक-आर्थिक पर्यावरण और पारिस्थितिकीय परिवर्ततनों के साथ मानवीय रिश्तों में आए बदलाव, खनन से उपजे संकटों, बनते और टूटते छोटे-छोटे सपनों, संघर्षों पराजय और विजय का संवेदनशील बयान है। मनुष्य पर आस्था इस रचना की आत्मा है। वह कहीं भी नहीं डिगती। उसे विश्वास हो गया है कि विस्फोट पहाड़ की छाती फोड़ सकते हैं, कठोर से कठोर चट्टान को छितरे-छितरे कर उड़ा सकते हैं। लेकिन मानवीय रिश्तों में सेंध नहीं मार सकते। ऐसा कोई डायनामाइट तैयार नहीं हुआ और न ही हो सकता है जो मानवीय रिश्तों के नाजुक और कोमल धागे काट सके।
अपने मौन में भी यह उपन्यास बोलता है और हज़ारों आवाज़ों में बोलता है। उपन्यास सह-अस्तित्व की धारणा की पैरवी करते हुए निरन्तर बताता है कि धरती सिर्फ मनुष्य की ही नहीं है। इस पृथ्वी पर वृक्षों, पक्षी और पशुओं का भी उतना ही अधिकार है जितना मनुष्यों का है। यह आंचलिता का अनायास वैश्वीकरण ‘पहाड़ चोर’ की सबसे बड़ी विशेषता है। उपन्यास यथार्थ से नीचे आत्मिक यथार्थ की महागाथा है क्योंकि यह मोचियों के सोलह परिवार वाले झण्डूखाल की ही त्रासदी नहीं, मानव विकास के क्रम में तिरोहित हो गई कई सम्यताओं की त्रासदी भी है।
मैंने सुभाष पन्त की रचनाओं के लिए कहीं लिखा था कि ‘व्यंग्य’ और ‘करुणा’ का सैलाब लिए हैं। ‘पहाड़ चोर’ पढ़ने के बाद मुझे इसके साथ ‘अदम्य जिजीविषा’ और संघर्ष’ शब्द जोड़ने में अब भी खुशी हो रही है।
‘पहाड़ चोर’ मोचियों के एक छोटे से पहाड़ी गाँव को पहाड़ चोरों से अपने से बचाने की एक ऐसी अविस्मरणीय गाथा जिसकी संघर्ष चेतना राजनैतिक सिद्धांतों से नहीं, अपने दुःखों और संकटों से जागती है। ये समाज में निम्न समझे जाने वाले वे महान लोग हैं जो इतिहास को थामकर बैठे ही नहीं रहते बल्कि अपने जातीय गौरव के साथ आगे बढ़ते हैं और अगला इतिहास लिखते हैं।
आज़ादी के दस बरस बाद मोचियों के सभ्यता से निर्वासित और खोए हुए गाँव में जीपों में सवार होकर कम्पनी के कुछ लहीम-शहीम से लोग आते हैं और गाँव के लोगों के भीतर आशा की कोंपले लगती हैं कि ये लोग उनके गाँव में आज़ादी की दस्तक लेकर आए हैं। दरअसल ये लोग पहाड़ चोर हैं जो प्रगति का मुखौटा ओढ़कर उनके पहाड़ चुराने आए हैं। उसी तरह जैसे कभी ईस्ट इंडिया कम्पनी इस देश की सम्पदा लूटने आई थी। अपने आरंभ से ही उपन्यास कहानी की दो यात्राएँ एक साथ तय करता दिखाई देता है। पहली, अंग्रेज़ व्यवसायियों के दमनचक्र की इतिहास सम्मत कहानी, जिसे वह कहता नहीं, लेकिन जो छाया की तरह उसके साथ यात्रा करती है और दूसरी, चूना व्यवासियों के लूट की कहानी, जिसे लेखक इतिहास की इस कहानी के समानान्तर बुनता है और कहता है।
चूना कम्पनी गाँव में तरक्की के नाम पर सड़क का निर्माण करती है। गाँव के लोग इसके लिए अपनी ज़मीने देते हैं, जिसे वे अपने दिल से ज़्यादा प्यार करते हैं और यह उनके दिलों को चीरती हुई कच्चे माल की निकासी के लिए खनन क्षेत्र तक पहुँचती हैं। कम्पनी गाँव के कुछ लोगों की खदान पर नौकरी देकर गाँव को दो हिस्सों में तोड़ देती है। ठीक जैसे राज करने के लिए अंग्रेज़ों ने हिन्दू और मुसलमानों के बीच दरार पैदा की थी। गाँव का एक हिस्सा विध्वंस में प्रगति के सपने देखता है और खुद ही अपने पहाड़ को डायनामाइट लगाकर तोड़ देता है। और दूसरा हिस्सा वो जो टूटते पहाड़ की कराह सुनता है और इसके गर्दों-गुबार में काले भविष्य की आहटें सुन रहा है। इसके हाथों में कभी अदृश्य और कभी दिखाई पड़नेवाले खंजर हैं और इस आदर्श स्थिति में चूना व्यवसायी उनके जंगल और पहाड़ लूट रहे हैं। लेखक अपने उपन्यास के जरिए इस नंगी सच्चाई से साक्षात्कार कराता है और बहुत शिद्दत से भी कि अंग्रेज़ों ने शोषण के जो हथियार बनाए थे, आज़ादी के बाद भी उनकी धार कुंद नहीं हुई खास तौर से आज़ादी के बाद पनपा व्यवसायी वर्ग लूट के लिए उन्हें ही इस्तेमाल कर रहा है।
दोहन के लिए जब पहाड़ पर डायनामाइट लगाया जाता है तो वह सिर्फ पहाड के सीने पर ही नहीं, उन लोगों की आत्माओं में भी विस्फोट करता है जो पहाड़ से जीवन पाते हैं। पहाड़ का टूटना सबको दिखाई पड़ता है, आत्माओं का टूटना दिखाई नहीं देता है। सुभाष पन्त पहाड़ के साथ आत्माओं को टूटने को भी देखते हैं और इसके साथ उपन्यास की एक तीसरी यात्रा शुरू होती है, जो आत्माओं की राह से गुज़रती है।
जंगल, पहाड़ और मनुष्य के आपसी रिश्तों को उपन्यास संवेदना के धरातल पर स्थापित करते हुए उनके आपसी सम्बन्धों को अछूते ढंग से परिभाषित करता है। पहाड़, औरतों के हँसने के साथ हँसता है रोने के साथ रोता है और गाने के साथ गाता है। पहाड़ी औरतों और जंगल के साथ उनके रिश्तें की संवेदनशील व्याख्या इस उपन्यास को तमाम उपन्यासों से अलग खड़ा करती है।
उपन्यास, पहाड़ के पहले धमाके के साथ झण्डूखाल में आए सामाजिक-आर्थिक पर्यावरण और पारिस्थितिकीय परिवर्ततनों के साथ मानवीय रिश्तों में आए बदलाव, खनन से उपजे संकटों, बनते और टूटते छोटे-छोटे सपनों, संघर्षों पराजय और विजय का संवेदनशील बयान है। मनुष्य पर आस्था इस रचना की आत्मा है। वह कहीं भी नहीं डिगती। उसे विश्वास हो गया है कि विस्फोट पहाड़ की छाती फोड़ सकते हैं, कठोर से कठोर चट्टान को छितरे-छितरे कर उड़ा सकते हैं। लेकिन मानवीय रिश्तों में सेंध नहीं मार सकते। ऐसा कोई डायनामाइट तैयार नहीं हुआ और न ही हो सकता है जो मानवीय रिश्तों के नाजुक और कोमल धागे काट सके।
अपने मौन में भी यह उपन्यास बोलता है और हज़ारों आवाज़ों में बोलता है। उपन्यास सह-अस्तित्व की धारणा की पैरवी करते हुए निरन्तर बताता है कि धरती सिर्फ मनुष्य की ही नहीं है। इस पृथ्वी पर वृक्षों, पक्षी और पशुओं का भी उतना ही अधिकार है जितना मनुष्यों का है। यह आंचलिता का अनायास वैश्वीकरण ‘पहाड़ चोर’ की सबसे बड़ी विशेषता है। उपन्यास यथार्थ से नीचे आत्मिक यथार्थ की महागाथा है क्योंकि यह मोचियों के सोलह परिवार वाले झण्डूखाल की ही त्रासदी नहीं, मानव विकास के क्रम में तिरोहित हो गई कई सम्यताओं की त्रासदी भी है।
मैंने सुभाष पन्त की रचनाओं के लिए कहीं लिखा था कि ‘व्यंग्य’ और ‘करुणा’ का सैलाब लिए हैं। ‘पहाड़ चोर’ पढ़ने के बाद मुझे इसके साथ ‘अदम्य जिजीविषा’ और संघर्ष’ शब्द जोड़ने में अब भी खुशी हो रही है।
कमलेश्वर
एक
आज़ादी के दस साल बाद पहाड़ की तलहटी में बसे मोचियों के सोलह परिवार के
गाँव झण्डूखाल में एक अनहोनी हो गई। उस झण्डूखाल में जो चारों ओर
पहाड़ियों से घिरा अंगूठी में जड़े नग की तरह चमकता था और जिसके पहाड़ में
तुन, सांधन, भिमल, विंडर, सुनधा, ककडाल, गुरियाल, जंगली खजूर और चीड़ के
आसमान से होड़ लेते दरख़्तों के पैरों में भालू, बेर, करौंदे, तिलवाड़ा,
अरण्डी, सेमला, बांसा, हंसराज के झाड़ घुंघरू की तरह बँधे थे, जो हवा चलने
पर संगीत सिरजते और बारिश के साथ नाचने लगते। यह अनहोनी उसी झण्डूखाल में
हुई जिसके मधुमक्खी के आकारवाले उत्तर-पूर्वी पहाड़ से हर समय, अविराम जल
की झालरें टपकाती रहती और वहाँ सूरज की किरणों में हज़ारों-हज़ारों
इन्द्रधनुष काँपते रहते। हुआ यह कि जीपों का एक काफिला उस ओर आता दिखाई
पड़ा जो सहस्रधारा के डाकबँगले की ओर नहीं गाँव की ओर मुड़ रहा था। जीपों
को सबसे पहले वहाँ के बच्चों ने देखा। वे कालीडंडा खेल रहे थे। उन्होंने
खेल को बीच में ही रोका और इस महत्त्वपूर्ण सूचना को लेकर गाँव की ओर दौड़
पड़े। उनकी सूचना से गाँव में खलबली मच गई। वहाँ के घर, दरवाज़े और आँगन
जाग गए और लोग जीपों की आकुल प्रतीक्षा में डूब गए।
उस वक़्त गाँव का बुज़ुर्ग और ज्ञानी रामपत आँगन में बैठा चिलम पी रहा था। समाचार सुनते ही उसने दम लगाकर कश खींचा, बूढा़ होने की वजह से आँगनों में लौ नहीं उठी लेकिन वह उछलकर खड़ा हो गया और आतुर दृष्टि से सिवान की ओर देखने लगा। समय की मार से उसकी आँखें कमज़ोर हो गई थीं। लेकिन ऐनक जैसी विलासिता उसके बित्ते से बाहर की बात थी। उनकी आँखें फैलीं और डबडबाईं पर उसे जीपें दिखाई नहीं पड़ीं। उसने अपनी उँगलियाँ जोड़कर ओट बनाई। पुतलियां नाचीं और सीना खांसने लगा लेकिन दिखाई फिर भी कुछ नहीं दिया।
वह जीपों को अपने गाँव घुसते देखना चाहता था, और सबसे पहले देखना चाहता था। बुजुर्गियत के लिहाज़ से पहला अधिकार उसका ही था, पर कैसी विडंबना थी कि वे उसे दिखाई ही नहीं पड़ीं।
‘‘कहाँ रे ? कुछ दिखाई नी पड़ रा।’’ उसने झुंझलाहट-भरी उत्सुकता से कहा। ‘‘वो री दद्दा.....वो....वो....पर वे हियां क्यूं आ री ?’’
‘‘लगता है म्हारे गाँव में आजाद्दी आ री है।’’ रामपत ने कहा। आशा-भरे भविष्य की पतली और चमकीली रेखा उसके चेहरे की झुर्रियों में कौंधने लगी।
‘‘आजाद्दी ! जे क्या बला है ?’’ रम्मे ने उत्सुकता ज़ाहिर की।
रामपत गड़बड़ा गया।
लेकिन समझाना तो होगा ही। उम्र, अनुभव और नाक का सावाल है। बहुत लम्बी नाक है रामपत की। संभाले नहीं संभलती। उसने कहना चाहा-बैल खूंटे से बंधा है या हल में जुता है तो वो है भई गुलाम। खूंटे से छूटकर सांड बना लोगों की हरी में मूँ मारनेवाला हुआ अज़ाद। लेकिन उसे लगा आज़ादी की उसकी इस मौलिक परिकल्पना में कहीं कोई खोट है। बच्चे इस महान देश के भावी खेवनहार हैं। उनका आज़ादी से ही ऐसा परिचय कराना निरापद नहीं होगा।
बैल खूंटे से छूटकर आज़ाद हो सकता है। पर गाँव या देश खूंटे से छुटकर आज़ाद रह सकते हैं ?
आज़ादी की व्याख्या उसे बहुत कठिन लगी तो वह समझने लगा कि देश में आज़ादी कैसे आई। और दस वर्ष पहले के अतीत में डूब गया।
‘‘दस साल पैहले की बात है। सन् सिंतालिस में म्हारा देस आजाद हुआ था। महात्मा गांधी ने इसे फिरंगियों के हाथ से छुड़ाया था। बड़ी मार-काट मची थी। हिन्दू, मुसलमानों को मार रे थे। मुसलमान, हिन्दुओं को। आजाद्दी तो सहुरी हिंया नी पहौंची, हतियारे मार-काट लेके पहौंच गए। जे धरती निरदोह आदमियों के खून से लाल हो गई। जभी से रुठी हुई है जे धरती माता। कितने हाथ-गोड़ तोड़ो पेट नी भरती। बड़ी बाट जोही इस आज़द्दी की। बाल पक गए...दाँत गिर गए,.....आँखों की जोत मंद पड़ गई जे हियां नी पहौंची।’’ रामपत ने बताया।
सवाल फिर वहीं टंगा रह गया, आज़ादी क्या बला है ? ‘‘ओरे घुन्ने आजाद्दी तेरे बैल के माफिक़ है, ’’ रम्मे ने घुन्ने को कोहनी मारते हुए कहा, ‘‘लंगडच्च होर फिसड्डी।’’
घुन्ने नाराज़ हो गया आज़ादी की अपने बैल से तुलना उसे कतई नहीं सुहाई। आज़ादी का क्या ? वह ठहरी पराई चीज़। बैल उसका अपना है जो खेत बाहते समय किनारा काटते हुए खाई में फिसलकर लंगड़ा हुआ था। लंगड़ाकर चलता है, फिर भी खेत जोतता है। उसे देखता है तो अपनी पनीली आँखें उठाकर उसका अभिवादन करता है। इस सुसरी आज़ादी के कौन दो पैर हैं। जीपों पे चढ़कर आ रही है और यहाँ तक आने में लग गए दस साल।
‘‘मेरे बैल के बारे में कुछ कहा तो बत्तीसी झाड़कर हाथ में रख दूँगा।’’
रम्मे हो हो हँसने लगा। साथ के दूसरे भी उसकी हँसी में शामिल हो गए। घुन्ने ने गुस्से में उछलकर रम्मे का गला दबोच लिया।
‘‘लड़ो मत रे,’’ रामपत ने समझाया, ‘‘आज़ादी भौत अच्छी चीज़ है, जिसने इसका सुवाद चख लिया, वोई इसे समझ सके है। जो समझो म्हारे भाग चेत गए। हियां पंचैतघर बनेगा, दवाखाना खुलेगा तुम लोग पढ़कर जिनावरों की जिनगी से निकलोगे होर बड़े आदमी बनोगे।’’
बड़े आदमी।
यानी पटवारी और फारेस्टगार्ड
वाह ! क्या रुतबा है जनाब। गाँव हर समय उनके पैरों में लोटने को बेताब। सभ्यता से निर्वासित इस गाँव के लिए ये कल्पनाएं बड़ी मनोहारी थीं। गाँव के मन में जीवन बदलने की चाह कोंपले फोड़ने लगी है। सब मासूम उत्साह से भर गए। सिवाय बीरे के।
बीरे उदास हो गया। सर्दियों की काली रात उसके दिमाग में थरथराने लगी। घमासान पानी बरस रहा था और तेज़ बर्फीली हवा थी। वह पीपल के पत्ते-सा काँप रहा था। ठंड से और भय से। माँ खाट पर पड़ी तड़प रही थी और बाप हारे जुआरी-सा उसके पैंदवाने बैठा उसे मौत से लड़ता देख रहा था। लालटेन की पीली रोशनी अँधेरे से लड़ने की नाकाम कोशिश कर रही थी। उसकी झुर्रियों से धुआँ लपकता रहा था और उसकी परछाईं के साँप मिट्टी की दीवार पर हिल रहे थे।
‘‘कलेसुर कुछ कर.....मुझे तो लच्छन ठीक नी दिखरे....’’ भिक्खन ने कहा।
कलेसुर के चेहरे पर राख पुत गई। क्या करे ? बाहर झमाझम पानी बरस रहा था। बैलगाड़ी जोड़कर उसे शहर कैसे ले जाए ? पूस की इस बरसती रात में तेरह-चौदह मील। न मरती हो तो रास्ते की ठंड खाकर मर जाएगी।
वह याचना-भरे स्वर में कुछ बुदबुदाने लगा, जो बरखा की आवाज़ में बिला गया। उसके स्वर सुनाई नहीं दिए, सिर्फ हिलते हुए होठ दिखाई पड़े। उसने धीरज बँधने के लिए रोगिणी का हाथ थाम लिया, पर यह कैसा धीरज बँधना था, खुद तो वह टप- टप रो रहा था। फिर वह चुपचाप दरवाज़े के पास खड़ा होकर बरसते पानी को देखने लगा।
‘‘जैहरदिवान के नाम का दिवा बाल कलेसुर। वोई म्यारा रच्छक है, उसी कू रसन में जा।’’
उसने दिया नहीं बाला और जड़बुद्धि की तरह खड़ा रहा।
‘‘बीरे.....बीरे....’’ माँ की आवाज़ थी। टूटती-सी।
‘‘आ बीरे माँ के पास आ।’’ भिक्खन ने उसे उत्साहित किया। शायद ममता मौत से जीत जाए। न भी जीत सके फिर भी उसकी अंतिम इच्छा तो पूरी होनी ही चाहिए। वह डर गया था। पैर जमीन से उठे ही नहीं।
माँ बिन पानी मीन-सी तड़पने लगी। फिर उसे बाहों में भरने के लिए प्रार्थाना करता उसका हाथ लुढ़क गया।
सब कुछ खतम हो गया बस।
बीरे की आँखों के सामने सारा दृश्य काँपने लगा। तबीयत हुई कि बुक्का फाड़कर रोने लगे। गाँव में आज़ादी आनी थी, तो पहले आती। अब दवाखाना खुलने का क्या मतलब ? आज़ादी उसकी माँ की निवाती गोद तो उसे नहीं लौटा सकती। उसके फूल और राख लेकर तो अब तक बिडालना का जल पता नहीं किस ठौर पहुँच गया होगा।
पेड़ों पर फुदकती चिड़ियाँ असहज होकर चिचियाने लगीं। खेतों में चरते जानवर बिदककर इधर-उधर भागने लगे और गाँव के सजग प्रहरी कुत्ते घेरा बांधकर भौंकने लगे।
मतलब साफ़ था, जीपों का धड़धड़ाता हुआ काफिला गाँव की छाती में घुस गया है।
‘‘दुर्र...दुर्र...चौप्प....चौप्प......’’ रामपद ने कुत्तों को धमकाया। मेहमानों का और ख़ासकर उन मेहमानों का, जो उसके ख़याल से गाँव में आज़ादी लेकर आ रहे हैं, ऐसा स्वागत उसे कतई नहीं भाया।
उसके धमकाने के बावजूद कुत्तों का भौंकना नहीं रुका, बल्कि कुछ और उग्र हो गया तो उसके गालों की झुर्रियां शर्मिंदगी से काली पड़ गईं।
जीपों से कुछ लोग बाहर निकल आए। वे इतने लहीम-शहीम थे कि उन्हें देखकर कुत्तों की घिग्घी बंध गई। मानो अपने ही व्यवहार पर पछता रहें हों। कैसी मत मारी गई थी जो आप जैसे सम्मानित भद्रलोगों की अवमानना कर दी। माफ़ करना हज़ूर। आखिर जानवर ठहरे.....
क्या रुतबा है पढ़े-लिखे आदमी और कीमती लिबास का कि गाँववाले सम्मान में झुक गए ‘‘जै रामजी।’’ और खूंख्वार कुत्ते विनम्र होकर दुम हिलाने लगे।
आगन्तुकों ने उनकी ओर नहीं देखा। गाँव का अभिवादन निरुत्तर हो गया। उनकी निगाह उन पर नहीं, पहाड़ पर टिकी थी। झण्डूखाल पर आशीर्वाद की मुद्रा में फैले अक्षत कौमार्य से भरे पहाड़ पर।
उस पर विहंगम दृष्टि डालकर वे उसकी ओर चले गए।
बच्चे जीप के गिर्द जमा हो गए और उत्सुकता से उसका निरीक्षण करने लगे। वे डर भी रहे थे लेकिन इस दुर्गम सुयोग का लाभ भी उठाना चाहते थे। रम्मे अपनी मित्रमंडली का सबसे दुस्साहसी लड़का था। उड़ती चिड़िया को गुलेल के अंटे से मारकर गिरा देने वाला। उसने कमान अपने हाथों में सम्भाली और सीटी बजाते हुए एक जीप का चक्कर लगाया। उसे आँखों ही आँखों में तौला और फिर उचकर उसने उसकी विंडस्क्रीन पर अपनी हथेली टिका दी।
जीप का ड्राइवर उसकी इस हरकत से भड़क गया। वह उछलकर चीखा, ’’क्या करता है बे हरामी के पिल्ले ? शीशा टूट गया तो इसे बदलवाने में तेरा बाप बिक जाएगा।’’
रम्मे मित्रगणों में अपने को छोटा साबित नहीं होने दे सकता था। वह आँखें तरेरकर उसे देखने लगा। ज़्यादा चीं चपट की तो आज़ादी नहीं आने देगा अपने गाँव में। लटकाए रहना अपना थोबड़ा। बाहर तुम जो भी हो, यहाँ तो उसका राज चलता है।
इसी समय बड़े नाटकीय और वीरोचित अंदाज में भीड़ को चीरता सात सदस्यों और सात बीघे खेतों का स्वामी उसका बाप बरेली, जो आज़ादी के इन संवेशवाहाकों की अविश्वनीय उपस्थिति से अपनी गलीज जिन्दगी को बदलने के भयानक आशावाद से झनझना रहा था, प्रकट हुआ और उसने भड़ाक से रस्मे के गाल पर दो झापड़ रसीद कर दिए। ‘‘मादर्च हर बखत कोई न कोई बखेड़ा खड़ा कर देता है।’’ वह बड़ब़डाया और फिर याचना के स्वर में ड्राइवर से बोला, ‘‘माफ करना डरेबर साहब, जे स्साला बेकूफ है।’’ और अपनी कमीज़ से विंडसिक्रीन साफ करने के लिए आगे आया, जिस पर रम्मे की पाँचों उंगलियों की मय हथेली के छाप अंकित थी।
ड्राइवर ने उसे भी घुड़क दिया, ‘‘दूर हट, शीशे को मत छूना।’’ फिर वह खुद डस्टर से विंडस्क्रीन साफ़ करने लगा। सिर पर गोल कैप के कारण वह चुस्त और गर्वीला लग रहा था और झाण्डूखाल की निर्दोष धूप में उसकी ब्रास की नेमप्लेट और पीपल के बटनोंवाली वर्दी चमक रही थी। कुछ ऐसे कि उसे अपलक निहारती पुनिया का दिल धुकुड़-धुड़ुक करने लगा। ओह ! है कोई चार कोस में उसके चक्कर का बांका !
रम्मे की आँखों में आँसू छलछला गए। ये मार की पीड़ा के आँसू नहीं थे। मार उसके साथ घटित होने वाला कोई नया प्रकरण नहीं था, यह तो उसकी दिनचर्या में अविकल हिस्सा था। ये अपमान की पीड़ा के आँसू थे। वह भीड़ से निकलकर एक पेड़ के नीचे बैठ गया और कुपित दृष्टि से जीपों को देखने लगा। क्षणभर पहले जो चीज़ अलादीन के जादुई चिराग़ की तरह दिखाई दे रही थी, वह अब जंगली भैसों में बदल गई थी। उसकी मुठ्ठियाँ कसमसाने लगीं और भीतर से जलता हुआ लावा अन्तस को तोड़कर बाहर निकलने को छटपटाने लगा।
जीपवाले पहाड़ की ओर चले गए। वे औरतों के स्तन टटोलते कामुक आदमी की तरह पहाड़ को टटोलने लगे और शाम को पत्थरों के अनेक नमूने और पहाड़ के नक्शे लेकर वापस लौटे।
अब कोई घोषणा होने वाली है।
दस बरस बाद ही सही...इस बीच कितने आदमी उनका इंतज़ार करते हुए कालकवलित हो गए..लेकिन आखिरकार इस भाग्यावान पीढ़ी के सामने उस चिरप्रतीक्षित आज़ादी की दस्तक होने जा रही है। वक़्त तो बहुत लगा लेकिन अन्ततः आज़ादी पहाड़ की तलहटी में विस्मृत तक पहुँच ही गई। उत्सव रचो। जश्न मनाओ। आज़ादी का स्वागत करो झण्डूखालियों।
लेकिन यह क्या ? ये तो उनका पहाड़ टटोलकर
चुपचाप अपनी गाड़ियों में बैठ गए। ये कुछ बोलते क्यों नहीं ?
झण्डूखाल उदास हो गया।
झण्डूखालियों के मुँह पर धूल और धुएँ का थप्पड़ मारकर गाड़ियाँ लौट गईं।
गाँववाले भी उदास मन से वापस हो गए। पर इतने लहीम-शलीम लोग आए हैं, कुछ-न-कुछ बात तो जरूर होगी। मन में आशा भी जाग रही थी, संदेह भी हो रहा था। चलो, जहाँ इतनी प्रतीक्षा की, वहाँ कुछ और सही।
पुनिया के मन में जोत जल रही थी। पीतल के बटनवाले, गोल के छैने ने जलाई यह जोत ।
सब लौट गए। रम्मे नहीं लौटा। वह उछलकर खड़ा हुआ और धूल-धुएँ की चादर को चीरता हुआ गाड़ियों के पीछे दौड़ने लगा। दौड़ते हुए उसने एक पत्थर गाड़ियों की ओर फेंका जो सन्नाते हुए हवा में तैरा लेकिन अपनी कोई पहचान बनाए बगैर ज़मीन पर गिरकर पत्थरों के बीच खो गया।
हालांकि जीपवाले ने गाँव के साथ कोई सम्वाद स्थपित नहीं किया था, फिर भी वहाँ सुगबुगाहट थी कि जल्दी ही कुछ होने वाला है और इस सुगबुगाहट की आर्द्रता ने उनके भीतर आशा-आकाँक्षा के सोए हुए बीजों में कोपलें फोड़ दी थीं।
रामपत को तो पूरा यक़ीन हो गया था कि उनके गाँव में आज़ादी की दस्तक हो चुकी है।
उसे मलाल था तो सिर्फ़ यही कि यह दस्तक तब हुई जब उसकी आँखों की जोत मंद पड़ गयी। वह लिचपिचे ढ़ंग से नहीं, पूरी शिद्दत के साथ उनका स्वागत करना चाहता था।
झण्डूखाल की औरतों को लगा कि उनके जीवन में भी एक नया विहान दरवाज़े खोलने की तैयारी कर रहा है। गौंत-गोबर से लिथड़ी जिन्दगियाँ और लकड़ी घास के बोझ से दबे सिर उस पल का इंतज़ार करने लगे जब सहायता का कोई अनचिन्हा हाथ उसका बोझ हरने को आगे बढ़ेगा। कैसा होगा वह क्षण ! कितना आह्लादभरा और गर्वीला।
बच्चे भी उत्साह के अश्व पर सवार थे। एक नया जीवन पंख पसारने की तैयारी कर रहा है।
लेकिन बीरे उदास था। उसकी माँ तो अब लौट नहीं सकती। क्या मतलब है इस आज़ादी का ?
और रम्मे बौखलाया हुआ था। उसके गाल पर चपत मारकर आ रही है ये आज़ादी।
चूना-व्यवसाइयों में पहाड़ हथियाने की होड़ मच गई।
पहाड़ से प्राप्त पत्थरों के रासायनिक विश्लेषण के परिणाम बहुत संतोषजनक थे और उनमें चूने की मात्रा आश्चर्जनक रूप से ज़्यादा थी। थैलियों के मुँह खुल गए और राजनीतिक समीकरण बिछाए जाने लगे। पहाड़ को खनन के लिए लीज़ पर देने में सबसे बड़ी बाधा थी उसकी तलहटी में बसा मोचियों का गाँव झण्डूखाल। वह खनन से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था।
उस वक़्त गाँव का बुज़ुर्ग और ज्ञानी रामपत आँगन में बैठा चिलम पी रहा था। समाचार सुनते ही उसने दम लगाकर कश खींचा, बूढा़ होने की वजह से आँगनों में लौ नहीं उठी लेकिन वह उछलकर खड़ा हो गया और आतुर दृष्टि से सिवान की ओर देखने लगा। समय की मार से उसकी आँखें कमज़ोर हो गई थीं। लेकिन ऐनक जैसी विलासिता उसके बित्ते से बाहर की बात थी। उनकी आँखें फैलीं और डबडबाईं पर उसे जीपें दिखाई नहीं पड़ीं। उसने अपनी उँगलियाँ जोड़कर ओट बनाई। पुतलियां नाचीं और सीना खांसने लगा लेकिन दिखाई फिर भी कुछ नहीं दिया।
वह जीपों को अपने गाँव घुसते देखना चाहता था, और सबसे पहले देखना चाहता था। बुजुर्गियत के लिहाज़ से पहला अधिकार उसका ही था, पर कैसी विडंबना थी कि वे उसे दिखाई ही नहीं पड़ीं।
‘‘कहाँ रे ? कुछ दिखाई नी पड़ रा।’’ उसने झुंझलाहट-भरी उत्सुकता से कहा। ‘‘वो री दद्दा.....वो....वो....पर वे हियां क्यूं आ री ?’’
‘‘लगता है म्हारे गाँव में आजाद्दी आ री है।’’ रामपत ने कहा। आशा-भरे भविष्य की पतली और चमकीली रेखा उसके चेहरे की झुर्रियों में कौंधने लगी।
‘‘आजाद्दी ! जे क्या बला है ?’’ रम्मे ने उत्सुकता ज़ाहिर की।
रामपत गड़बड़ा गया।
लेकिन समझाना तो होगा ही। उम्र, अनुभव और नाक का सावाल है। बहुत लम्बी नाक है रामपत की। संभाले नहीं संभलती। उसने कहना चाहा-बैल खूंटे से बंधा है या हल में जुता है तो वो है भई गुलाम। खूंटे से छूटकर सांड बना लोगों की हरी में मूँ मारनेवाला हुआ अज़ाद। लेकिन उसे लगा आज़ादी की उसकी इस मौलिक परिकल्पना में कहीं कोई खोट है। बच्चे इस महान देश के भावी खेवनहार हैं। उनका आज़ादी से ही ऐसा परिचय कराना निरापद नहीं होगा।
बैल खूंटे से छूटकर आज़ाद हो सकता है। पर गाँव या देश खूंटे से छुटकर आज़ाद रह सकते हैं ?
आज़ादी की व्याख्या उसे बहुत कठिन लगी तो वह समझने लगा कि देश में आज़ादी कैसे आई। और दस वर्ष पहले के अतीत में डूब गया।
‘‘दस साल पैहले की बात है। सन् सिंतालिस में म्हारा देस आजाद हुआ था। महात्मा गांधी ने इसे फिरंगियों के हाथ से छुड़ाया था। बड़ी मार-काट मची थी। हिन्दू, मुसलमानों को मार रे थे। मुसलमान, हिन्दुओं को। आजाद्दी तो सहुरी हिंया नी पहौंची, हतियारे मार-काट लेके पहौंच गए। जे धरती निरदोह आदमियों के खून से लाल हो गई। जभी से रुठी हुई है जे धरती माता। कितने हाथ-गोड़ तोड़ो पेट नी भरती। बड़ी बाट जोही इस आज़द्दी की। बाल पक गए...दाँत गिर गए,.....आँखों की जोत मंद पड़ गई जे हियां नी पहौंची।’’ रामपत ने बताया।
सवाल फिर वहीं टंगा रह गया, आज़ादी क्या बला है ? ‘‘ओरे घुन्ने आजाद्दी तेरे बैल के माफिक़ है, ’’ रम्मे ने घुन्ने को कोहनी मारते हुए कहा, ‘‘लंगडच्च होर फिसड्डी।’’
घुन्ने नाराज़ हो गया आज़ादी की अपने बैल से तुलना उसे कतई नहीं सुहाई। आज़ादी का क्या ? वह ठहरी पराई चीज़। बैल उसका अपना है जो खेत बाहते समय किनारा काटते हुए खाई में फिसलकर लंगड़ा हुआ था। लंगड़ाकर चलता है, फिर भी खेत जोतता है। उसे देखता है तो अपनी पनीली आँखें उठाकर उसका अभिवादन करता है। इस सुसरी आज़ादी के कौन दो पैर हैं। जीपों पे चढ़कर आ रही है और यहाँ तक आने में लग गए दस साल।
‘‘मेरे बैल के बारे में कुछ कहा तो बत्तीसी झाड़कर हाथ में रख दूँगा।’’
रम्मे हो हो हँसने लगा। साथ के दूसरे भी उसकी हँसी में शामिल हो गए। घुन्ने ने गुस्से में उछलकर रम्मे का गला दबोच लिया।
‘‘लड़ो मत रे,’’ रामपत ने समझाया, ‘‘आज़ादी भौत अच्छी चीज़ है, जिसने इसका सुवाद चख लिया, वोई इसे समझ सके है। जो समझो म्हारे भाग चेत गए। हियां पंचैतघर बनेगा, दवाखाना खुलेगा तुम लोग पढ़कर जिनावरों की जिनगी से निकलोगे होर बड़े आदमी बनोगे।’’
बड़े आदमी।
यानी पटवारी और फारेस्टगार्ड
वाह ! क्या रुतबा है जनाब। गाँव हर समय उनके पैरों में लोटने को बेताब। सभ्यता से निर्वासित इस गाँव के लिए ये कल्पनाएं बड़ी मनोहारी थीं। गाँव के मन में जीवन बदलने की चाह कोंपले फोड़ने लगी है। सब मासूम उत्साह से भर गए। सिवाय बीरे के।
बीरे उदास हो गया। सर्दियों की काली रात उसके दिमाग में थरथराने लगी। घमासान पानी बरस रहा था और तेज़ बर्फीली हवा थी। वह पीपल के पत्ते-सा काँप रहा था। ठंड से और भय से। माँ खाट पर पड़ी तड़प रही थी और बाप हारे जुआरी-सा उसके पैंदवाने बैठा उसे मौत से लड़ता देख रहा था। लालटेन की पीली रोशनी अँधेरे से लड़ने की नाकाम कोशिश कर रही थी। उसकी झुर्रियों से धुआँ लपकता रहा था और उसकी परछाईं के साँप मिट्टी की दीवार पर हिल रहे थे।
‘‘कलेसुर कुछ कर.....मुझे तो लच्छन ठीक नी दिखरे....’’ भिक्खन ने कहा।
कलेसुर के चेहरे पर राख पुत गई। क्या करे ? बाहर झमाझम पानी बरस रहा था। बैलगाड़ी जोड़कर उसे शहर कैसे ले जाए ? पूस की इस बरसती रात में तेरह-चौदह मील। न मरती हो तो रास्ते की ठंड खाकर मर जाएगी।
वह याचना-भरे स्वर में कुछ बुदबुदाने लगा, जो बरखा की आवाज़ में बिला गया। उसके स्वर सुनाई नहीं दिए, सिर्फ हिलते हुए होठ दिखाई पड़े। उसने धीरज बँधने के लिए रोगिणी का हाथ थाम लिया, पर यह कैसा धीरज बँधना था, खुद तो वह टप- टप रो रहा था। फिर वह चुपचाप दरवाज़े के पास खड़ा होकर बरसते पानी को देखने लगा।
‘‘जैहरदिवान के नाम का दिवा बाल कलेसुर। वोई म्यारा रच्छक है, उसी कू रसन में जा।’’
उसने दिया नहीं बाला और जड़बुद्धि की तरह खड़ा रहा।
‘‘बीरे.....बीरे....’’ माँ की आवाज़ थी। टूटती-सी।
‘‘आ बीरे माँ के पास आ।’’ भिक्खन ने उसे उत्साहित किया। शायद ममता मौत से जीत जाए। न भी जीत सके फिर भी उसकी अंतिम इच्छा तो पूरी होनी ही चाहिए। वह डर गया था। पैर जमीन से उठे ही नहीं।
माँ बिन पानी मीन-सी तड़पने लगी। फिर उसे बाहों में भरने के लिए प्रार्थाना करता उसका हाथ लुढ़क गया।
सब कुछ खतम हो गया बस।
बीरे की आँखों के सामने सारा दृश्य काँपने लगा। तबीयत हुई कि बुक्का फाड़कर रोने लगे। गाँव में आज़ादी आनी थी, तो पहले आती। अब दवाखाना खुलने का क्या मतलब ? आज़ादी उसकी माँ की निवाती गोद तो उसे नहीं लौटा सकती। उसके फूल और राख लेकर तो अब तक बिडालना का जल पता नहीं किस ठौर पहुँच गया होगा।
पेड़ों पर फुदकती चिड़ियाँ असहज होकर चिचियाने लगीं। खेतों में चरते जानवर बिदककर इधर-उधर भागने लगे और गाँव के सजग प्रहरी कुत्ते घेरा बांधकर भौंकने लगे।
मतलब साफ़ था, जीपों का धड़धड़ाता हुआ काफिला गाँव की छाती में घुस गया है।
‘‘दुर्र...दुर्र...चौप्प....चौप्प......’’ रामपद ने कुत्तों को धमकाया। मेहमानों का और ख़ासकर उन मेहमानों का, जो उसके ख़याल से गाँव में आज़ादी लेकर आ रहे हैं, ऐसा स्वागत उसे कतई नहीं भाया।
उसके धमकाने के बावजूद कुत्तों का भौंकना नहीं रुका, बल्कि कुछ और उग्र हो गया तो उसके गालों की झुर्रियां शर्मिंदगी से काली पड़ गईं।
जीपों से कुछ लोग बाहर निकल आए। वे इतने लहीम-शहीम थे कि उन्हें देखकर कुत्तों की घिग्घी बंध गई। मानो अपने ही व्यवहार पर पछता रहें हों। कैसी मत मारी गई थी जो आप जैसे सम्मानित भद्रलोगों की अवमानना कर दी। माफ़ करना हज़ूर। आखिर जानवर ठहरे.....
क्या रुतबा है पढ़े-लिखे आदमी और कीमती लिबास का कि गाँववाले सम्मान में झुक गए ‘‘जै रामजी।’’ और खूंख्वार कुत्ते विनम्र होकर दुम हिलाने लगे।
आगन्तुकों ने उनकी ओर नहीं देखा। गाँव का अभिवादन निरुत्तर हो गया। उनकी निगाह उन पर नहीं, पहाड़ पर टिकी थी। झण्डूखाल पर आशीर्वाद की मुद्रा में फैले अक्षत कौमार्य से भरे पहाड़ पर।
उस पर विहंगम दृष्टि डालकर वे उसकी ओर चले गए।
बच्चे जीप के गिर्द जमा हो गए और उत्सुकता से उसका निरीक्षण करने लगे। वे डर भी रहे थे लेकिन इस दुर्गम सुयोग का लाभ भी उठाना चाहते थे। रम्मे अपनी मित्रमंडली का सबसे दुस्साहसी लड़का था। उड़ती चिड़िया को गुलेल के अंटे से मारकर गिरा देने वाला। उसने कमान अपने हाथों में सम्भाली और सीटी बजाते हुए एक जीप का चक्कर लगाया। उसे आँखों ही आँखों में तौला और फिर उचकर उसने उसकी विंडस्क्रीन पर अपनी हथेली टिका दी।
जीप का ड्राइवर उसकी इस हरकत से भड़क गया। वह उछलकर चीखा, ’’क्या करता है बे हरामी के पिल्ले ? शीशा टूट गया तो इसे बदलवाने में तेरा बाप बिक जाएगा।’’
रम्मे मित्रगणों में अपने को छोटा साबित नहीं होने दे सकता था। वह आँखें तरेरकर उसे देखने लगा। ज़्यादा चीं चपट की तो आज़ादी नहीं आने देगा अपने गाँव में। लटकाए रहना अपना थोबड़ा। बाहर तुम जो भी हो, यहाँ तो उसका राज चलता है।
इसी समय बड़े नाटकीय और वीरोचित अंदाज में भीड़ को चीरता सात सदस्यों और सात बीघे खेतों का स्वामी उसका बाप बरेली, जो आज़ादी के इन संवेशवाहाकों की अविश्वनीय उपस्थिति से अपनी गलीज जिन्दगी को बदलने के भयानक आशावाद से झनझना रहा था, प्रकट हुआ और उसने भड़ाक से रस्मे के गाल पर दो झापड़ रसीद कर दिए। ‘‘मादर्च हर बखत कोई न कोई बखेड़ा खड़ा कर देता है।’’ वह बड़ब़डाया और फिर याचना के स्वर में ड्राइवर से बोला, ‘‘माफ करना डरेबर साहब, जे स्साला बेकूफ है।’’ और अपनी कमीज़ से विंडसिक्रीन साफ करने के लिए आगे आया, जिस पर रम्मे की पाँचों उंगलियों की मय हथेली के छाप अंकित थी।
ड्राइवर ने उसे भी घुड़क दिया, ‘‘दूर हट, शीशे को मत छूना।’’ फिर वह खुद डस्टर से विंडस्क्रीन साफ़ करने लगा। सिर पर गोल कैप के कारण वह चुस्त और गर्वीला लग रहा था और झाण्डूखाल की निर्दोष धूप में उसकी ब्रास की नेमप्लेट और पीपल के बटनोंवाली वर्दी चमक रही थी। कुछ ऐसे कि उसे अपलक निहारती पुनिया का दिल धुकुड़-धुड़ुक करने लगा। ओह ! है कोई चार कोस में उसके चक्कर का बांका !
रम्मे की आँखों में आँसू छलछला गए। ये मार की पीड़ा के आँसू नहीं थे। मार उसके साथ घटित होने वाला कोई नया प्रकरण नहीं था, यह तो उसकी दिनचर्या में अविकल हिस्सा था। ये अपमान की पीड़ा के आँसू थे। वह भीड़ से निकलकर एक पेड़ के नीचे बैठ गया और कुपित दृष्टि से जीपों को देखने लगा। क्षणभर पहले जो चीज़ अलादीन के जादुई चिराग़ की तरह दिखाई दे रही थी, वह अब जंगली भैसों में बदल गई थी। उसकी मुठ्ठियाँ कसमसाने लगीं और भीतर से जलता हुआ लावा अन्तस को तोड़कर बाहर निकलने को छटपटाने लगा।
जीपवाले पहाड़ की ओर चले गए। वे औरतों के स्तन टटोलते कामुक आदमी की तरह पहाड़ को टटोलने लगे और शाम को पत्थरों के अनेक नमूने और पहाड़ के नक्शे लेकर वापस लौटे।
अब कोई घोषणा होने वाली है।
दस बरस बाद ही सही...इस बीच कितने आदमी उनका इंतज़ार करते हुए कालकवलित हो गए..लेकिन आखिरकार इस भाग्यावान पीढ़ी के सामने उस चिरप्रतीक्षित आज़ादी की दस्तक होने जा रही है। वक़्त तो बहुत लगा लेकिन अन्ततः आज़ादी पहाड़ की तलहटी में विस्मृत तक पहुँच ही गई। उत्सव रचो। जश्न मनाओ। आज़ादी का स्वागत करो झण्डूखालियों।
लेकिन यह क्या ? ये तो उनका पहाड़ टटोलकर
चुपचाप अपनी गाड़ियों में बैठ गए। ये कुछ बोलते क्यों नहीं ?
झण्डूखाल उदास हो गया।
झण्डूखालियों के मुँह पर धूल और धुएँ का थप्पड़ मारकर गाड़ियाँ लौट गईं।
गाँववाले भी उदास मन से वापस हो गए। पर इतने लहीम-शलीम लोग आए हैं, कुछ-न-कुछ बात तो जरूर होगी। मन में आशा भी जाग रही थी, संदेह भी हो रहा था। चलो, जहाँ इतनी प्रतीक्षा की, वहाँ कुछ और सही।
पुनिया के मन में जोत जल रही थी। पीतल के बटनवाले, गोल के छैने ने जलाई यह जोत ।
सब लौट गए। रम्मे नहीं लौटा। वह उछलकर खड़ा हुआ और धूल-धुएँ की चादर को चीरता हुआ गाड़ियों के पीछे दौड़ने लगा। दौड़ते हुए उसने एक पत्थर गाड़ियों की ओर फेंका जो सन्नाते हुए हवा में तैरा लेकिन अपनी कोई पहचान बनाए बगैर ज़मीन पर गिरकर पत्थरों के बीच खो गया।
हालांकि जीपवाले ने गाँव के साथ कोई सम्वाद स्थपित नहीं किया था, फिर भी वहाँ सुगबुगाहट थी कि जल्दी ही कुछ होने वाला है और इस सुगबुगाहट की आर्द्रता ने उनके भीतर आशा-आकाँक्षा के सोए हुए बीजों में कोपलें फोड़ दी थीं।
रामपत को तो पूरा यक़ीन हो गया था कि उनके गाँव में आज़ादी की दस्तक हो चुकी है।
उसे मलाल था तो सिर्फ़ यही कि यह दस्तक तब हुई जब उसकी आँखों की जोत मंद पड़ गयी। वह लिचपिचे ढ़ंग से नहीं, पूरी शिद्दत के साथ उनका स्वागत करना चाहता था।
झण्डूखाल की औरतों को लगा कि उनके जीवन में भी एक नया विहान दरवाज़े खोलने की तैयारी कर रहा है। गौंत-गोबर से लिथड़ी जिन्दगियाँ और लकड़ी घास के बोझ से दबे सिर उस पल का इंतज़ार करने लगे जब सहायता का कोई अनचिन्हा हाथ उसका बोझ हरने को आगे बढ़ेगा। कैसा होगा वह क्षण ! कितना आह्लादभरा और गर्वीला।
बच्चे भी उत्साह के अश्व पर सवार थे। एक नया जीवन पंख पसारने की तैयारी कर रहा है।
लेकिन बीरे उदास था। उसकी माँ तो अब लौट नहीं सकती। क्या मतलब है इस आज़ादी का ?
और रम्मे बौखलाया हुआ था। उसके गाल पर चपत मारकर आ रही है ये आज़ादी।
चूना-व्यवसाइयों में पहाड़ हथियाने की होड़ मच गई।
पहाड़ से प्राप्त पत्थरों के रासायनिक विश्लेषण के परिणाम बहुत संतोषजनक थे और उनमें चूने की मात्रा आश्चर्जनक रूप से ज़्यादा थी। थैलियों के मुँह खुल गए और राजनीतिक समीकरण बिछाए जाने लगे। पहाड़ को खनन के लिए लीज़ पर देने में सबसे बड़ी बाधा थी उसकी तलहटी में बसा मोचियों का गाँव झण्डूखाल। वह खनन से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था।
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लोगों की राय
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