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शकुन्तला

मैथिलीशरण गुप्त

प्रकाशक : साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6732
आईएसबीएन :0000000000

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शकुन्तला के जीवन को काव्यरूप में प्रस्तुत किया गया है

Shakuntla - A hindi book by Maithili Sharan Gupt

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्री गणेशाय नमः

शकुन्तला

मंगलाचरण


पञ्चवटी की छाया में जो
खेल खगों से करती हैं,
ममता-मूर्ति-समान मृगों के
मध्य समोद विचरती हैं।
मुसका रहे देखकर राघव
जिनकी यह अद्भुत लीला-
वही विदेह-नन्दिनी हम पर
रहें सदा करुणाशीला।


उपक्रम



मृगया-रत दुष्यन्त भूप को
एक कृष्ण-मृग-मन भाया-
होम-धूम-धूसरित कण्व के
पुण्याश्रम में ले आया।
मृग के बदले मृगनयनी को
वहाँ महीपति ने पाया-
और यहाँ श्री कालिदास ने-
श्रवण-सुधा-रस बरसाया।

करके उस रस का आस्वादन
हुए विरस भी सरस अहा !
भारत में क्या सभी जगत में
जिसका सौरभ फैल रहा।
प्रस्तुत नीतन पद्य-पात्र यह
उसी सु-रस-हित किया गया,
अहोभाग्य है यदि इसमें वह
एक बूँद भी लिया गया।


जन्म और बाल्यकाल


 
एक बार मुनिवर कौशिक के
तप से सुरपति त्रस्त हुआ,
इन्द्रासन ले लें न कहीं मुनि,
यह विचार कर व्यस्त हुआ।
भेजी तब अप्सरा मेनका
उसने ऐसी रूपवती-
जिसे देखकर अपना संयम
रख न सके वे महायती !

यथा समय इस छलबल का फल
शकुन्तला का जन्म हुआ;
शुक्ल द्वितीया में प्रदोष से
चन्द्रकला का जन्म हुआ।
किन्तु साथ ले गई तपोधन-
मात्र मेनका मोदमयी,
और हाय ! उस कुसुम कली को
वहीं विपिन में छोड़ गई !
ज़िस पर निज पक्षों की छाया
की थी शकुन्त द्विजवर ने-
मृदु कोंपल-सी वह मुनिकन्या
देखी कण्व मुनीश्वर ने।
दयाशील थे, उसे उठाकर
निज आश्रम में ले आये;
हुई सुता तब से शकुन्तला,
और पिता वे कहलाये।
वहाँ गौतमी तपस्विनी ने
उसे प्रेमपूर्वक पाला;
दीप-शिखा की भाँति कुटी में
फैसा उससे उजियाला।
त्यागी तथा तपस्वी मुनिवर
कुछ गृहस्थ-से जान पड़े;
जग से उदासीन होकर भी
होते हैं मुनि सदय बड़े।

पुण्य तपोवन की रज में वह
खेल खेलकर खड़ी हुई;
आश्रम की नवलितकाओं के
साथ साथ कुछ बड़ी हुई।
पर समता कर सकीं न उसकी
राजोद्यान-मल्लियाँ भी,
लज्जित हुई देखकर उसको
नन्दन-विपिन-वल्लियाँ भी !

उसके रूप-रंग-सौरभ से
महक उठा वह वन सारा;
जीवन की धारा थी मानो
मञ्जु मालिनी की धारा।
रखती थी प्रोमार्द्र सभी को
वह अपने व्यवहारों से;
पशु-पक्षी भी सुख पाते थे
उसके शुद्धाचारों से।
कभी घोड़ों में भर भरकर वह
पौधों को जल देती थीं;
कभी खगों के, कभी मृगों के
बच्चों की सुध लेती थी !
सुग्गे कभी पढ़ाती थी वह,
कभी मयूर नचाती थी;
सहचरियों के साथ छाँह में
क्रीड़ा कभी रचाती थी।

सीमा-रहित अनन्त-गगन-सा
विस्तृत उसका प्रेम हुआ;
औरों का कल्याण-कार्य्य ही
उसका अपना क्षेम हुआ।

हिंसक पशु भी उसे देखकर
पैरों में पड़ जाते थे,
मुँह में हाथ दबाकर धीरे
मीठी थपकी पाते थे !

बुद्धि कुशाग्र-भाग-सी उसकी
शिक्षा पाने में पैठी !
पाठ कण्ठ कर लेती थी वह
अनायास बैठी-बैठी।
देव-देवियों के चरित्र जब
प्रेम रहित वह गाती थी-
तब मालिनी नदी भी मानो
क्षण भर को थम जाती थी !








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