कहानी संग्रह >> विश्व विज्ञान कथाएँ विश्व विज्ञान कथाएँशुकदेव प्रसाद
|
1 पाठकों को प्रिय 134 पाठक हैं |
बीसवीं शती का विज्ञान विश्वकोश-3 वैज्ञानिक तथ्यों की अतिशय अतिरंजना करने वाली कथाएं।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
विज्ञान कथाओं को कथा की एक विधा के रूप में मान्यता मिले, हयूगो
गर्न्सबैक ने इस दिशा में अग्रणी भूमिका निभाई और उन्होंने ही इसे
‘साइंटीफिक्शन’ नाम से अभिहित किए जाने का परामर्श
दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने इस विधा को अपनी तरह से परिभाषित भी किया।
अमेजिंग स्टोरीज’ के प्रथमांक में संपादकीय टिप्पणी में
गर्न्सबैक ने लिखा-‘साइंटीफिक्शन’ से मेरा अभिप्राय
जूल्स वर्न, एच.जी. वेल्स और एडगर एलन पो द्वारा लिखी गई ऐसी कहानियों से
है, जिसमें आकर्षक रोमांच के साथ वैज्ञानिक तथ्य और युगद्रष्टा की
दूरदर्शिता का सम्मिश्रण हो।... आज विज्ञान कथा-साहित्य में चित्रित किए
गए किसी आविष्कार के कल सत्य हो जाने में असंभव जैसा कुछ नहीं
हैं।’
गर्न्सबैंक की इसी परिभाषा के कारण विज्ञान-गल्पों को ‘भविष्यद्रष्टा साहित्य’ की कहा जाने लगा और लेखकों में ऐसी अपेक्षाएँ की जाने लगीं जो नितांत अव्यावहारिक थीं।
तो क्या विज्ञान कथाओं में आज के कल्पित आविष्कार कल के सच हैं ? जी नहीं! ऐसा कदापिं नहीं हो सकता। किसी भी गल्प मे परिकल्पित कोई भी आविष्कार तदनुरूप कभी भी साकार नहीं हुआ। ऐसे सारे दावे मिथ्या हैं। हां, आविष्कारकों ने विज्ञान-गल्पों से प्रेरणाएँ अवश्य ली हैं, इसकी स्वीकारोक्तियां हैं।
ऐसा इसलिए असभंव है कि गल्पकार आविष्कार नही हैं और आविष्कारक की गल्प-लेखक मे मति-गति नहीं है। विज्ञान-गल्प-लेखक एक विरल विधा है, जिसमें विज्ञानसिद्धि और रससिद्धि दोनों वांछनीय हैं। और ऐसा संयोग विरल ही है।
मैं इस बात को पूरी तरह से खारिज करता हूं कि विज्ञान कथाएं भविष्य की कथाएं हैं। हां, विज्ञान के भावी खतरों की इंगितिया तो विज्ञान कथाओं में की जा सकती है, वैज्ञानिक जीवन के सामाजिक सरोकार, नैतिक दायित्व भी विज्ञान कथाओं के प्रतिपाद्य हो सकते हैं, विज्ञानियों के मन के आवर्त-विवर्त भी कथाओं की भावभूमि बन सकते हैं, लेकिन विज्ञान कथाकार को भाविष्यद्रष्टा के सिंहासन पर आरूढ़ करना भारी भूल होगी, अतः समय आ गया है कि विज्ञान कथाओं को पुनः परिभाषित किया जाए।
गर्न्सबैंक की इसी परिभाषा के कारण विज्ञान-गल्पों को ‘भविष्यद्रष्टा साहित्य’ की कहा जाने लगा और लेखकों में ऐसी अपेक्षाएँ की जाने लगीं जो नितांत अव्यावहारिक थीं।
तो क्या विज्ञान कथाओं में आज के कल्पित आविष्कार कल के सच हैं ? जी नहीं! ऐसा कदापिं नहीं हो सकता। किसी भी गल्प मे परिकल्पित कोई भी आविष्कार तदनुरूप कभी भी साकार नहीं हुआ। ऐसे सारे दावे मिथ्या हैं। हां, आविष्कारकों ने विज्ञान-गल्पों से प्रेरणाएँ अवश्य ली हैं, इसकी स्वीकारोक्तियां हैं।
ऐसा इसलिए असभंव है कि गल्पकार आविष्कार नही हैं और आविष्कारक की गल्प-लेखक मे मति-गति नहीं है। विज्ञान-गल्प-लेखक एक विरल विधा है, जिसमें विज्ञानसिद्धि और रससिद्धि दोनों वांछनीय हैं। और ऐसा संयोग विरल ही है।
मैं इस बात को पूरी तरह से खारिज करता हूं कि विज्ञान कथाएं भविष्य की कथाएं हैं। हां, विज्ञान के भावी खतरों की इंगितिया तो विज्ञान कथाओं में की जा सकती है, वैज्ञानिक जीवन के सामाजिक सरोकार, नैतिक दायित्व भी विज्ञान कथाओं के प्रतिपाद्य हो सकते हैं, विज्ञानियों के मन के आवर्त-विवर्त भी कथाओं की भावभूमि बन सकते हैं, लेकिन विज्ञान कथाकार को भाविष्यद्रष्टा के सिंहासन पर आरूढ़ करना भारी भूल होगी, अतः समय आ गया है कि विज्ञान कथाओं को पुनः परिभाषित किया जाए।
भविष्य विज्ञान हैं ?
विज्ञान कथाएं
रात्रि के निविड़ अंधकार में अनंत आकाश में टिमटिमाते अनगिनत तारों को
देखकर आदिम मानव के मस्तिष्क मे भी इन अनजान लोकों के प्रति उत्कंठा जाग्रत
हुई होगी और वह उनके रहस्यों को जान लेना चाहता रहा होगा। दूर गगन में
उड़ते पक्षियों को देखकर मनुष्य ने भी उड़ने की आकांक्षा पाली और अन्यान्य
ग्रह लोकों की सैर करनी चाही। इसी भावना के वशीभूत कालांतर में वैमानिकी
अस्तित्व में आई। परिंदों की तरह उड़ने की आदमी की कल्पना आज से ठीक सौ
वर्ष पूर्व (सन् 1903 में) ही साकार हो पाई जबकि सदियों पूर्व से असंख्य
गल्पों की सर्जनाएं आरंभ हो चुकी थीं और उनमें आदमी के चांद पर भी पहुंचने
की परिकल्पनाएं कर डाली गई थी। सबसे पहले चंद्र अभियान विषयक
विज्ञान-गल्पों की रचना हुई। भले ही उसे अमली जामा अमेरिका ने 21 जुलाई,
1969 को पहनाया जब नील आर्मस्ट्रांग ने चंद्र तल का स्पर्श किया।
‘मानव का छोटा कदम और मानवता की विशाल छलांग (One small step for a man and a giant leap for mankind) शब्दों के साथ जब
आर्मस्ट्रांग ने चंद्र स्पर्श किया तो दुनिया दंग रह गयी थी मानव की
दिलेरी पर, उसके साहस और धैर्य पर।
विज्ञान गल्पों की सुदीर्घ परंपरा
बहरहाल, यह सब तो संभव हुआ बीसवीं शती में लेकिन परिकल्पनाएं अरसे से की जा
रही थी। ईसा की दूसरी शती (ईस्वी सन् 160) में यूरोप सीरिया निवासी लूसियन
ने ‘सत्य इतिहास’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी। चंद्र
यात्रा संबंधी यह पहली पुस्तक थी। कथानयक एक यूनानी जलयान में यात्रा कर
रहा था। अचानक समुद्र में भयंकर तूफान आ जाने से उनका यान हवा में पक्षी
की भांति उड़ने लगता है और वह सात दिन, सात रात की निरंतर उड़ान के बाद एक
चमकते हुए आकाशदीप पर उतर जाता है। यह आकाशदीप
‘चंद्रमा’ है।
इस पुस्तक की रचना के बाद लगभग 1500 वर्षों तक यूरोप में अंतिरक्ष यात्रा संबंधी कोई पुस्तक नहीं लिखी गई। इसी बीच वैज्ञानिक गैलीलियो (1564-1642) ने 1609) में एक शक्तिशाली दूरदर्शी बनायी और उसने आसमान में झांक कर देखा। मगर यह क्या ? गैलीलियों को अपनी आंखों पर विश्वास न हुआ लगा कि उसकी आंखे धोखा दे रही हैं क्योंकि उसने चंद्रमा को जिस रूप में देखा, वह विज्ञान-कथाओं मे वर्णित चंद्रमा से एकदम भिन्न था। उसकी आँखों के सामने तो एक ऐसा चंद्रमा था जिसकी सतह ऊबड़-खाबड़ थी, जिसमें पहाड़ थे, चट्टानें थीं और भी खुगदुरी सतह पर गैलीलियों की बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
प्रख्यात खगोलज्ञ जोहांस केप्लर (1571-1630) ने चंद्र यात्रा संबंधी दो पुस्तकें लिखीं। पहली पुस्तक ने उन्होंने विभिन्न ग्रहों के परिचालन का निर्देश करने वाले नियमों का प्रतिपादन किया तथा दूसरी पुस्तक ‘सोमनियम’, जो वैज्ञानिक उपन्यास था, में दूरदर्शी से प्राप्त जानकारियों का उल्लेख किया गया था।
1638 में इंग्लैंड के पादरी विल्किस ने चंद्रमा के बारे में एक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने चंद्रमा पर पहुँचने के चार उपाय सुझाये थे-
1. दिव्य आत्माएं मनुष्य को धरती से चांद तक ले जाएं।
2. मनुन्य पक्षियों की सहायता से चंद्र लोक तक पहुँच जाय।
3. मनुष्य बड़े-बड़े पक्षियों के पंख लगा ले और उड़ता हुआ चंद्र लोक तक पहुंच जा सके।
4. अगर किसी के पास काफी समय हो तो वह एक ऐसी मशीन बनाये जिसकी सहायता से चंद्र लोक पहुंचा जा सके।
पादरी विल्किंस की कल्पना ठीक ही थी। वस्तुतः आदमी मशीन के सहारे ही चंद्रमा तक पहुंच सका।
1638 में ही विशप गाडविन ने चंद्र यात्रा के बारे में एक कथानक लिखा- ‘चंद्रमा में मनुष्य’ इस पुस्तक में सर्वप्रथम बताया गया था कि पृथ्वी को छोड़ने के बाद मनुष्य भारहीन (गुरुत्वाकर्षण विहीन) स्थिति में आ जाता है और चंद्रमा का गुरुत्व पृथ्वी से कम है।
उपन्यास के नायक डोमिन्गों गांजेलिस के विमान को हंसों का झुंड बारह दिन में चंद्रमा तक पहुँचा देता हैं। इतना ही नहीं, गाडविन ने चंद्रमा पर सुविकसित जीवन की परिकल्पना की है मानों धरती की ही तरह चांद भी हो।
इस काल के उपन्यासों में सत्यता का पुट तो नहीं था लेकिन आगे की दो सदियों बाद जो गल्प-साहित्य सामने आया, उनमें कल्पित कुछेक बातें सच साबित हुई।
1656 में फ्रांसीसी द्वंद्व योद्धा साइरेनों द वर्जेराक ने चंद्रयात्रा विषयक दो विज्ञान गल्प लिखे- ‘हिस्टोएरे कॉमिक देस एट्टस एट एंपायरेस द ला लुने’ और ‘हिस्टोएरे कॉमिक देस एट्टस एक एंपायरेट दयू सोलेइल’। इन दोनों वैज्ञानिक उपन्यासों में पहली बार राकेट द्वारा चंद्र यात्रा का वर्णन किया गया था जो आगे चलकर सत्य सिद्ध हुआ। वर्जेराक ने एक ग्रह से अन्य ग्रहों के बीच उड़ान के लिए बहु चरणीय राकेटों (Multi staged Rockets). भारहीनता की स्थिति और पैराशूट से उतरने की परिकल्पनाएं की हैं। स्मरण रहे कि इन गल्पों की परिकल्पना वर्जेराक ने आज से प्रायः 350 पूर्व की थी।
वर्जेराक के बाद, प्राय, दो शतियों बाद, 1865 में जूल्स वर्न ने ‘फ्राम दि अर्थ टू दि मून’, 1870 में ‘एराउंड द मून’ लिखा और बीसवीं शती के अरूणोदय की बेला में, 1901 में, वेल्स ने ‘फर्स्ट मैंन ऑन दि मून’ की परिकल्पना की। तात्पर्य यह कि वर्न और वेल्स विज्ञान गल्पों के अधिष्ठाता नहीं हैं, उनसे बहुत-बहुत पहले यह विधा उदित हो चुकी थी। हां, वर्न और वेल्स के प्रयासों से यह विधा लेखन की परंपरा में शुमार हो गई और अनेकानेक लोगों को इस दिशा में कार्य करने की प्ररेणा मिली। उक्त दोनों लेखकों ने विज्ञान गल्पों की ऐठी ठोस आधारशिला निर्मित कर दी कि शीघ्र ही इसे परिभाषित करने की जरूरत आ पड़ी और इसका श्रेय अमेरिकी विज्ञान कथाकार ह्यूगों गेर्न्सबैक को मिला, जिसकी चर्चा आगे की गई है।
इस पुस्तक की रचना के बाद लगभग 1500 वर्षों तक यूरोप में अंतिरक्ष यात्रा संबंधी कोई पुस्तक नहीं लिखी गई। इसी बीच वैज्ञानिक गैलीलियो (1564-1642) ने 1609) में एक शक्तिशाली दूरदर्शी बनायी और उसने आसमान में झांक कर देखा। मगर यह क्या ? गैलीलियों को अपनी आंखों पर विश्वास न हुआ लगा कि उसकी आंखे धोखा दे रही हैं क्योंकि उसने चंद्रमा को जिस रूप में देखा, वह विज्ञान-कथाओं मे वर्णित चंद्रमा से एकदम भिन्न था। उसकी आँखों के सामने तो एक ऐसा चंद्रमा था जिसकी सतह ऊबड़-खाबड़ थी, जिसमें पहाड़ थे, चट्टानें थीं और भी खुगदुरी सतह पर गैलीलियों की बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
प्रख्यात खगोलज्ञ जोहांस केप्लर (1571-1630) ने चंद्र यात्रा संबंधी दो पुस्तकें लिखीं। पहली पुस्तक ने उन्होंने विभिन्न ग्रहों के परिचालन का निर्देश करने वाले नियमों का प्रतिपादन किया तथा दूसरी पुस्तक ‘सोमनियम’, जो वैज्ञानिक उपन्यास था, में दूरदर्शी से प्राप्त जानकारियों का उल्लेख किया गया था।
1638 में इंग्लैंड के पादरी विल्किस ने चंद्रमा के बारे में एक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने चंद्रमा पर पहुँचने के चार उपाय सुझाये थे-
1. दिव्य आत्माएं मनुष्य को धरती से चांद तक ले जाएं।
2. मनुन्य पक्षियों की सहायता से चंद्र लोक तक पहुँच जाय।
3. मनुष्य बड़े-बड़े पक्षियों के पंख लगा ले और उड़ता हुआ चंद्र लोक तक पहुंच जा सके।
4. अगर किसी के पास काफी समय हो तो वह एक ऐसी मशीन बनाये जिसकी सहायता से चंद्र लोक पहुंचा जा सके।
पादरी विल्किंस की कल्पना ठीक ही थी। वस्तुतः आदमी मशीन के सहारे ही चंद्रमा तक पहुंच सका।
1638 में ही विशप गाडविन ने चंद्र यात्रा के बारे में एक कथानक लिखा- ‘चंद्रमा में मनुष्य’ इस पुस्तक में सर्वप्रथम बताया गया था कि पृथ्वी को छोड़ने के बाद मनुष्य भारहीन (गुरुत्वाकर्षण विहीन) स्थिति में आ जाता है और चंद्रमा का गुरुत्व पृथ्वी से कम है।
उपन्यास के नायक डोमिन्गों गांजेलिस के विमान को हंसों का झुंड बारह दिन में चंद्रमा तक पहुँचा देता हैं। इतना ही नहीं, गाडविन ने चंद्रमा पर सुविकसित जीवन की परिकल्पना की है मानों धरती की ही तरह चांद भी हो।
इस काल के उपन्यासों में सत्यता का पुट तो नहीं था लेकिन आगे की दो सदियों बाद जो गल्प-साहित्य सामने आया, उनमें कल्पित कुछेक बातें सच साबित हुई।
1656 में फ्रांसीसी द्वंद्व योद्धा साइरेनों द वर्जेराक ने चंद्रयात्रा विषयक दो विज्ञान गल्प लिखे- ‘हिस्टोएरे कॉमिक देस एट्टस एट एंपायरेस द ला लुने’ और ‘हिस्टोएरे कॉमिक देस एट्टस एक एंपायरेट दयू सोलेइल’। इन दोनों वैज्ञानिक उपन्यासों में पहली बार राकेट द्वारा चंद्र यात्रा का वर्णन किया गया था जो आगे चलकर सत्य सिद्ध हुआ। वर्जेराक ने एक ग्रह से अन्य ग्रहों के बीच उड़ान के लिए बहु चरणीय राकेटों (Multi staged Rockets). भारहीनता की स्थिति और पैराशूट से उतरने की परिकल्पनाएं की हैं। स्मरण रहे कि इन गल्पों की परिकल्पना वर्जेराक ने आज से प्रायः 350 पूर्व की थी।
वर्जेराक के बाद, प्राय, दो शतियों बाद, 1865 में जूल्स वर्न ने ‘फ्राम दि अर्थ टू दि मून’, 1870 में ‘एराउंड द मून’ लिखा और बीसवीं शती के अरूणोदय की बेला में, 1901 में, वेल्स ने ‘फर्स्ट मैंन ऑन दि मून’ की परिकल्पना की। तात्पर्य यह कि वर्न और वेल्स विज्ञान गल्पों के अधिष्ठाता नहीं हैं, उनसे बहुत-बहुत पहले यह विधा उदित हो चुकी थी। हां, वर्न और वेल्स के प्रयासों से यह विधा लेखन की परंपरा में शुमार हो गई और अनेकानेक लोगों को इस दिशा में कार्य करने की प्ररेणा मिली। उक्त दोनों लेखकों ने विज्ञान गल्पों की ऐठी ठोस आधारशिला निर्मित कर दी कि शीघ्र ही इसे परिभाषित करने की जरूरत आ पड़ी और इसका श्रेय अमेरिकी विज्ञान कथाकार ह्यूगों गेर्न्सबैक को मिला, जिसकी चर्चा आगे की गई है।
प्रथम आधुनिक विज्ञान गल्प
पहले ही विवृत्ति दी जा चुकी हैं जिससे ज्ञात होता है कि विज्ञान की विश्व
की भाषाओं में एक सुदीर्घ परंपरा रही है, भले ही अस्फूट रूप में। आधुनिक
काल का प्रथम विज्ञान गल्प कौन है ?
आधुनिक काल का प्रथम विज्ञान गल्प मेरी डब्ल्यू. शेली (1797-1851) कृत ‘फ्रैंकेंस्टाइन’ (1818) है, अभी तक ऐसा ही अभिमत है। मेरी का जन्म ही एक साहित्यिक परिवार में हुआ था। 30 अगसत, 1797 को लंदन में जन्मी मेरी के पिता विलियम गॉडविन कुशल संपादक और ‘स्वतंत्र विवाह सिद्धांत के प्रचारक के रूप में खासे चर्चित थे तो उसकी मां पोलस्टोन क्रैफ्ट ‘द राइट्स ऑफ वीमेन’ पुस्तक लिखकर ब्रिटिश समाज में प्रख्यात हो चुकी थी।
महाकवि शेली का गॉडविन परिवार में आना-जाना था, वही पर शेली ने मेरी को देखा और दोनों एक-दूसरे के मोहपाश मे आबद्ध हो गए। अपनी पत्नी हैरियट से शेली का पूर्व ही संबंध विच्छेद हो चुका था। हैरियट के देहांत के उपरांत 30 दिसंबर, 1816 को शेली और मेरी परिणय सूत्र में बंध गए। 1822 में शेली नहीं रहे और मेरी के जीवन में महाशून्य परिव्याप्त हो गया, सो उसने नैराश्य से बचने के लिए शेली की कृतियों पर काम करना आरंभ कर दिया और उसने स्वयं भी कई कृतियां साहित्य जगत को भेंट की। साहित्यिक संस्पर्श तो उसे शेली के साहचर्य के पूर्व बचपन में मिल चुके थे। जब उसने ‘फ्रैकेंस्टाइन’ नामक अपना उपन्यास प्रस्तुत किया तो साहित्यानुरागियों ने इसमें नवीन परंपरा का उद्भव एक देखा। साहित्य और विज्ञान का अद्भुत समन्वयकारी यह उपन्यास मेरी की अद्भुतेय है। जिसे आधुनिक काल का प्रथम विज्ञान गल्प होने का भी श्रेय है। आगे चलकर इसी उपन्यास के नाम पर साहित्य में ‘फैंकेंस्टाइन-ग्रंथो’ मुहावरा भी चल पड़ा थे मानवीय काम वासना और नारी व्यामोह के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त है।
कथानायक फैंकेस्टाइन रसायन विज्ञान का जिज्ञासु छात्र है- ‘जन्म और मरण के कार्य कारण संबंधों पर कार्य करते हुए एक दिन एकाएक मुझे इस गूढ़ अंधकार में प्रकाश की ऐसी किरण दिखायी पड़ गयी कि जिसने मेरे सामने मृत्यु के रहस्य को स्पष्ट कर दिया। मैं वह रहस्य जान गया था कि जिसकी सहायता से मैं एक नये जीवधारी का निर्माण कर सकता था।’
फिर हमारा कथानायक निश्चय करता है कि वह आधुनिक विश्वामित्र बनेगा, एक निष्प्राण देह में प्राण प्रतिष्ठा का उपक्रम करेगा। लेकिन क्या उसका उपक्रम सफलीभूत हुआ ? इसी का रोमांचक वृत्तांत हैं ‘फ्रैंकेंस्टाइन।’ नवंबर मास की एक डरावनी रात को फ्रैंकेंस्टाइन अपने सपने को अंजाम देने को उद्यत हुआ। उसके हाथ में संजीवनी-मंत्र था और पास में ही थी एक निष्पाण देह जिसके शारीरिक अवयव उसने कब्रे खोद-खोद कर अलग-अलग से लाकर एकत्रकिये थे। उसका उपक्रम रूपाकार लेने लगा लेकिन मृत देह जब जागृतावस्था में आयी तो फ्रैकेंस्टाइन ने अपने सामने एक नर पिशाच को देखा। उसे देखते ही युवा रसायनज्ञ की रूह फना हो गई, मारे भय के उसके रोंगटे खड़े हो गए। ऐसी भयावह कल्पना तो उसके सृजनकर्त्ता फ्रैकेंस्टाइन ने की भी नहीं थी।
भावी अनिष्ट की आशंका और भयवश फ्रैंकेंस्टाइन उस पिशाच से बचने के लिए घर से भाग खड़ा हुआ। लेकिन कई बार नर पिशाच और फैंकेंस्टाइन, की भेंटे होती हैं। हद तो तब हो गई जब उस पिशाच ने अपने लिए एक स्त्री की मांग कर डाली।
‘सुनों फ्रैंकेंस्टाइन, मैं तुम्हारी सृष्टि हूँ। मुझे तुम्हारा ‘आदम’ होना चाहिए ताकि मैं एक संसृति चला सकूं। हर ओर सुख और हर्ष है लेकिन मेरे भाग्य मे कुछ भी नहीं लिखा है।.... आखिरी बार सुन लो फ्रैंकेंस्टाइन ! तुम मेरे लिए मेरी ही जैसी एक स्त्री बना दो ! यह सिर्फ तुम्हीं कर सकते हो।’
इस प्रकरण के पूर्व पिशाच कथानायक के छोटे भाई विलियम की हत्या कर चुका होता है, भावी आशंकाओं से भयग्रस्त फ्रैंकेंस्टाइन उसके लिए स्त्री बनाने को तैयार भी हो जाता है। कब्रों से विभिन्न शारीरिक अवयवों को एकत्र करके जैसे ही फ्रैंकेस्टाइन उसमें जान फूंकने वाला होता है, तभी उसके मस्तिष्क में बिजली सी कौंधती है- ‘फ्रैंकेस्टाइन, अपनी भलाई के लिए तुम जो यह कुत्सित सृष्टि कर रहे हो, वह समस्त मनुष्य सृष्टि के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। आगे आने वाली पीढ़ियां तुम्हारे नाम पर रोयेंगी और तुम्हें कलंकित करेंगी।’ फलतः वह अपना विचार त्याग देता है। सामने बैठे, एक पिशाचिनी पाने को उत्कंठित पिशाच के क्रोध का कोई पारावार नहीं- ‘हर आदमी को पत्नी मिल सकती है। हर नर-पशु के लिए मादा है। तो क्या मैं ही अकेला रहूँगा ? सुन ओ आदमी ! तू मुझसे घृणा कर लेकिन अब मैं तुझे नहीं छोड़ूंगा। अब मैं तेरा स्वामी हूं। तेरा भाग्य मेरी इन अंगुलियों के सहारे नाचेगा। मैं तुझे इतनी निरीह बना दूंगा कि दिन की रोशनी भी तुझसे घृणा करेंगी।’
और प्रतिशोध की ज्वाला में सुलगता पिशाच ऐन सुहागरात की रात्रि को फ्रैंकेंस्टाइन की नई-नवेली दुल्हन एलिज़ावेथ की हत्या कर देता है जब कि फ्रैंकेंस्टाइन पूरी तरह चाक-चौबंद था। फिर दोनों के बीच भयानक प्रतिद्वंद्विता आरंभ होती है, दोनों एक दूसरे की जान के पीछे पड़ जाते हैं। लुकते-छिपते और एक दूसरे को खोजते हुए उत्तरी ध्रुव तक जा पहुँचते हैं। जीर्ण-शीर्ण, कृशकाय और मृतप्राय फ्रैकेंस्टाइन को संयोगवशात वाल्टन नामक सैलानी देख लेता है और मानवीय करूणावश उसका त्राता बनकर अपने जहाज के केबिल में उसे शरण दे देता है। लेकिन फ्रैंकेंस्टाइन के प्राणों का प्यासा पिशाच उस अभेद्य कवच के भीतर भी उसकी हत्या कर देता है। इसके बाद उसे भी जीने का कोई मकसद नज़र नहीं आता। फ्रैंकेंस्टाइन के सिवा कोई दूसरा उसके लिए नारी की सर्जना भी तो नहीं कर सकता था ?
हताश-निराश पिशाच अपनी आत्माहुति दे देता है और इसी के साथ सिरजनहार और उसकी सर्जना दोनों काल के गाल में जा समाते हैं।
उसने शव की ओर इशारा करते हुए मुझसे कहा- ‘इसकी मौत भी मैंने ही बुलायी है। यह मेरी अंतिम छाया थी। फिर फ्रैंकेंस्टाइन के शव की ओर झुककर कहा- ‘फैकेंस्टाइन ! मेरे इस अपराध के लिए मुझे माफ कर दे !’
मैंने मुश्किल से शब्द जोड़कर कहा- ‘अब तुम्हारे पश्चाताप का कोई अर्थ नहीं। अगर तुम्हें भले-बुरे का ऐसा ही ज्ञान था तो तुमने इतनी हत्याएं क्यों की ?’’
‘इसलिए कि मुझे बनाने वाले ने मेरी इच्छाओं की हत्या कर दी थी। मुझे सब की घृणा का पात्र और सामान्य पशु से भी अधम बना कर छोड़ दिया था। खैर, अब उन बातों से कोई लाभ नहीं। मेरा प्रण पूरा हुआ। मैं तुमसे विदा लेता हूँ। सारे मनुष्य समाज से विदा लेता हूँ। विश्वास करो, अब मैं किसी को भी नहीं दिखाई दूंगा। शीघ्र ही अपने हाथों चिता बना कर भस्म हो जाऊंगा। इन लहरों में मेरी राख बह जायेगी। अच्छा विदा ! फ्रैंकेंस्टाइन !!’
इतना कहकर वह ‘केबिन’ की खिड़की से कूद गया और क्षण में लहरों ने उसे हमारी नज़रों से ओझल कर दिया।
और इस तरह हमारे आधुनिक विश्वामित्र की परिणति पराजय में हुई। इतिहास गवाह है कि जब-जब मनुष्य ने निसर्ग को चुनौती दी, उसकी हार हुई है। मेरी शेली ने आज से प्रायः दो शतियों पूर्व इस शाश्वत सत्य की अपनी कृति में सफल स्थापना की है। मानव-क्लोन बनाने के दुष्चक्र में फंसे विज्ञानियों ले लिए यह कथा पथ-प्रदर्शक की भूमिका का कुशल निर्वाह करती है। रक्त बीजो की फौज खड़ी करके आखिर हम मानवता का कौन सा कल्याण करने को उद्यत है। आधुनिक विश्वामित्रों के क्षुद्रतम साफल्य कहीं समूची मानवता का ही विनाश न कर दें, ऐसी आशंका है।
विज्ञान गल्पों की चर्चा करते समय जब भी लोग मेरी शैली के ‘फ्रैकेंस्टाइन’ की चर्चा करते हैं तो ‘पिशाच’ को ही फ्रैंकेंस्टाइन मान बैठते हैं। मूल कथा को बिना पढ़े ही समीक्षा लिखने की भूल करने वाले लोगों का यह विभ्रम अब समाप्त हो जाना चाहिए।
आधुनिक काल का प्रथम विज्ञान गल्प मेरी डब्ल्यू. शेली (1797-1851) कृत ‘फ्रैंकेंस्टाइन’ (1818) है, अभी तक ऐसा ही अभिमत है। मेरी का जन्म ही एक साहित्यिक परिवार में हुआ था। 30 अगसत, 1797 को लंदन में जन्मी मेरी के पिता विलियम गॉडविन कुशल संपादक और ‘स्वतंत्र विवाह सिद्धांत के प्रचारक के रूप में खासे चर्चित थे तो उसकी मां पोलस्टोन क्रैफ्ट ‘द राइट्स ऑफ वीमेन’ पुस्तक लिखकर ब्रिटिश समाज में प्रख्यात हो चुकी थी।
महाकवि शेली का गॉडविन परिवार में आना-जाना था, वही पर शेली ने मेरी को देखा और दोनों एक-दूसरे के मोहपाश मे आबद्ध हो गए। अपनी पत्नी हैरियट से शेली का पूर्व ही संबंध विच्छेद हो चुका था। हैरियट के देहांत के उपरांत 30 दिसंबर, 1816 को शेली और मेरी परिणय सूत्र में बंध गए। 1822 में शेली नहीं रहे और मेरी के जीवन में महाशून्य परिव्याप्त हो गया, सो उसने नैराश्य से बचने के लिए शेली की कृतियों पर काम करना आरंभ कर दिया और उसने स्वयं भी कई कृतियां साहित्य जगत को भेंट की। साहित्यिक संस्पर्श तो उसे शेली के साहचर्य के पूर्व बचपन में मिल चुके थे। जब उसने ‘फ्रैकेंस्टाइन’ नामक अपना उपन्यास प्रस्तुत किया तो साहित्यानुरागियों ने इसमें नवीन परंपरा का उद्भव एक देखा। साहित्य और विज्ञान का अद्भुत समन्वयकारी यह उपन्यास मेरी की अद्भुतेय है। जिसे आधुनिक काल का प्रथम विज्ञान गल्प होने का भी श्रेय है। आगे चलकर इसी उपन्यास के नाम पर साहित्य में ‘फैंकेंस्टाइन-ग्रंथो’ मुहावरा भी चल पड़ा थे मानवीय काम वासना और नारी व्यामोह के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त है।
कथानायक फैंकेस्टाइन रसायन विज्ञान का जिज्ञासु छात्र है- ‘जन्म और मरण के कार्य कारण संबंधों पर कार्य करते हुए एक दिन एकाएक मुझे इस गूढ़ अंधकार में प्रकाश की ऐसी किरण दिखायी पड़ गयी कि जिसने मेरे सामने मृत्यु के रहस्य को स्पष्ट कर दिया। मैं वह रहस्य जान गया था कि जिसकी सहायता से मैं एक नये जीवधारी का निर्माण कर सकता था।’
फिर हमारा कथानायक निश्चय करता है कि वह आधुनिक विश्वामित्र बनेगा, एक निष्प्राण देह में प्राण प्रतिष्ठा का उपक्रम करेगा। लेकिन क्या उसका उपक्रम सफलीभूत हुआ ? इसी का रोमांचक वृत्तांत हैं ‘फ्रैंकेंस्टाइन।’ नवंबर मास की एक डरावनी रात को फ्रैंकेंस्टाइन अपने सपने को अंजाम देने को उद्यत हुआ। उसके हाथ में संजीवनी-मंत्र था और पास में ही थी एक निष्पाण देह जिसके शारीरिक अवयव उसने कब्रे खोद-खोद कर अलग-अलग से लाकर एकत्रकिये थे। उसका उपक्रम रूपाकार लेने लगा लेकिन मृत देह जब जागृतावस्था में आयी तो फ्रैकेंस्टाइन ने अपने सामने एक नर पिशाच को देखा। उसे देखते ही युवा रसायनज्ञ की रूह फना हो गई, मारे भय के उसके रोंगटे खड़े हो गए। ऐसी भयावह कल्पना तो उसके सृजनकर्त्ता फ्रैकेंस्टाइन ने की भी नहीं थी।
भावी अनिष्ट की आशंका और भयवश फ्रैंकेंस्टाइन उस पिशाच से बचने के लिए घर से भाग खड़ा हुआ। लेकिन कई बार नर पिशाच और फैंकेंस्टाइन, की भेंटे होती हैं। हद तो तब हो गई जब उस पिशाच ने अपने लिए एक स्त्री की मांग कर डाली।
‘सुनों फ्रैंकेंस्टाइन, मैं तुम्हारी सृष्टि हूँ। मुझे तुम्हारा ‘आदम’ होना चाहिए ताकि मैं एक संसृति चला सकूं। हर ओर सुख और हर्ष है लेकिन मेरे भाग्य मे कुछ भी नहीं लिखा है।.... आखिरी बार सुन लो फ्रैंकेंस्टाइन ! तुम मेरे लिए मेरी ही जैसी एक स्त्री बना दो ! यह सिर्फ तुम्हीं कर सकते हो।’
इस प्रकरण के पूर्व पिशाच कथानायक के छोटे भाई विलियम की हत्या कर चुका होता है, भावी आशंकाओं से भयग्रस्त फ्रैंकेंस्टाइन उसके लिए स्त्री बनाने को तैयार भी हो जाता है। कब्रों से विभिन्न शारीरिक अवयवों को एकत्र करके जैसे ही फ्रैंकेस्टाइन उसमें जान फूंकने वाला होता है, तभी उसके मस्तिष्क में बिजली सी कौंधती है- ‘फ्रैंकेस्टाइन, अपनी भलाई के लिए तुम जो यह कुत्सित सृष्टि कर रहे हो, वह समस्त मनुष्य सृष्टि के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। आगे आने वाली पीढ़ियां तुम्हारे नाम पर रोयेंगी और तुम्हें कलंकित करेंगी।’ फलतः वह अपना विचार त्याग देता है। सामने बैठे, एक पिशाचिनी पाने को उत्कंठित पिशाच के क्रोध का कोई पारावार नहीं- ‘हर आदमी को पत्नी मिल सकती है। हर नर-पशु के लिए मादा है। तो क्या मैं ही अकेला रहूँगा ? सुन ओ आदमी ! तू मुझसे घृणा कर लेकिन अब मैं तुझे नहीं छोड़ूंगा। अब मैं तेरा स्वामी हूं। तेरा भाग्य मेरी इन अंगुलियों के सहारे नाचेगा। मैं तुझे इतनी निरीह बना दूंगा कि दिन की रोशनी भी तुझसे घृणा करेंगी।’
और प्रतिशोध की ज्वाला में सुलगता पिशाच ऐन सुहागरात की रात्रि को फ्रैंकेंस्टाइन की नई-नवेली दुल्हन एलिज़ावेथ की हत्या कर देता है जब कि फ्रैंकेंस्टाइन पूरी तरह चाक-चौबंद था। फिर दोनों के बीच भयानक प्रतिद्वंद्विता आरंभ होती है, दोनों एक दूसरे की जान के पीछे पड़ जाते हैं। लुकते-छिपते और एक दूसरे को खोजते हुए उत्तरी ध्रुव तक जा पहुँचते हैं। जीर्ण-शीर्ण, कृशकाय और मृतप्राय फ्रैकेंस्टाइन को संयोगवशात वाल्टन नामक सैलानी देख लेता है और मानवीय करूणावश उसका त्राता बनकर अपने जहाज के केबिल में उसे शरण दे देता है। लेकिन फ्रैंकेंस्टाइन के प्राणों का प्यासा पिशाच उस अभेद्य कवच के भीतर भी उसकी हत्या कर देता है। इसके बाद उसे भी जीने का कोई मकसद नज़र नहीं आता। फ्रैंकेंस्टाइन के सिवा कोई दूसरा उसके लिए नारी की सर्जना भी तो नहीं कर सकता था ?
हताश-निराश पिशाच अपनी आत्माहुति दे देता है और इसी के साथ सिरजनहार और उसकी सर्जना दोनों काल के गाल में जा समाते हैं।
उसने शव की ओर इशारा करते हुए मुझसे कहा- ‘इसकी मौत भी मैंने ही बुलायी है। यह मेरी अंतिम छाया थी। फिर फ्रैंकेंस्टाइन के शव की ओर झुककर कहा- ‘फैकेंस्टाइन ! मेरे इस अपराध के लिए मुझे माफ कर दे !’
मैंने मुश्किल से शब्द जोड़कर कहा- ‘अब तुम्हारे पश्चाताप का कोई अर्थ नहीं। अगर तुम्हें भले-बुरे का ऐसा ही ज्ञान था तो तुमने इतनी हत्याएं क्यों की ?’’
‘इसलिए कि मुझे बनाने वाले ने मेरी इच्छाओं की हत्या कर दी थी। मुझे सब की घृणा का पात्र और सामान्य पशु से भी अधम बना कर छोड़ दिया था। खैर, अब उन बातों से कोई लाभ नहीं। मेरा प्रण पूरा हुआ। मैं तुमसे विदा लेता हूँ। सारे मनुष्य समाज से विदा लेता हूँ। विश्वास करो, अब मैं किसी को भी नहीं दिखाई दूंगा। शीघ्र ही अपने हाथों चिता बना कर भस्म हो जाऊंगा। इन लहरों में मेरी राख बह जायेगी। अच्छा विदा ! फ्रैंकेंस्टाइन !!’
इतना कहकर वह ‘केबिन’ की खिड़की से कूद गया और क्षण में लहरों ने उसे हमारी नज़रों से ओझल कर दिया।
और इस तरह हमारे आधुनिक विश्वामित्र की परिणति पराजय में हुई। इतिहास गवाह है कि जब-जब मनुष्य ने निसर्ग को चुनौती दी, उसकी हार हुई है। मेरी शेली ने आज से प्रायः दो शतियों पूर्व इस शाश्वत सत्य की अपनी कृति में सफल स्थापना की है। मानव-क्लोन बनाने के दुष्चक्र में फंसे विज्ञानियों ले लिए यह कथा पथ-प्रदर्शक की भूमिका का कुशल निर्वाह करती है। रक्त बीजो की फौज खड़ी करके आखिर हम मानवता का कौन सा कल्याण करने को उद्यत है। आधुनिक विश्वामित्रों के क्षुद्रतम साफल्य कहीं समूची मानवता का ही विनाश न कर दें, ऐसी आशंका है।
विज्ञान गल्पों की चर्चा करते समय जब भी लोग मेरी शैली के ‘फ्रैकेंस्टाइन’ की चर्चा करते हैं तो ‘पिशाच’ को ही फ्रैंकेंस्टाइन मान बैठते हैं। मूल कथा को बिना पढ़े ही समीक्षा लिखने की भूल करने वाले लोगों का यह विभ्रम अब समाप्त हो जाना चाहिए।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book