विशेष >> भारतीय विज्ञान कथाएँ -1 भारतीय विज्ञान कथाएँ -1शुकदेव प्रसाद
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प्रस्तुत खंड में भारतीय भाषाओं में विज्ञान गल्पों की सात दशकीय यात्रा की प्रस्तुति और विवेचना की गई है....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हिन्दी में ऐयारी और तिलिस्सी उपन्यासों के जनक देवकीनंदन खत्री जब
चंद्रकांता (1892) के साथ हिंदी में प्रकट हुए तो प्रायः उसी काल में
अंबिकादत्त व्यास विरचित’ आश्चर्य-वृत्तांत’ (1993)
ने भी हिंदी में विज्ञान गल्प लेखन की नयी सरणि निर्मित की।
उधर बंगला में जब पंच कौड़ी दे जासूसी साहित्य के निर्माण में प्रवृत्त थे तो उसी काल में विज्ञान कथाएं भी लिखी जा रही थीं। प्रख्यात विज्ञानी जगदीशचंद्र बसु ने ‘तूफान पर विजय’ शीर्षक से प्रथम बांग्ला विज्ञान गल्प लिखा। अनादिधन बंद्योपाध्याय ने ‘मंगल ग्रह’ (1915) प्रस्तुत किया। मराठी में श्रीधर बालकृष्ण रानाडे ने पहली विज्ञान कथा ‘तारे का रहस्य’ शीर्षक से 1915 में लिखा थी। इसी वर्ष नाथ माधव ने ‘श्रीनिवास राव’ नामक वैज्ञानिक उपन्यास मराठी में प्रस्तुत किया। और इस तरह भारतीय भाषाओं में विज्ञान कथाओं के बीज का वपन बीसवीं शती के आरंभ में हो चुका था।
विगत सौ वर्षों के विस्तृत फलक पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि इस दिशा में विशुद्ध विज्ञान लेखकों की तुलना में कहीं अधिक अवदान साहित्यकों का है। साहस करके कई साहित्यकारों ने विज्ञान गल्प साहित्य की रिक्तता को पूर्ति करने की चेष्टाएं कीं, लेकिन उससे विज्ञान गल्पों की निर्मिति को कितनी त्वरा मिली ? मात्र उसकी आधारपीठिका ही निर्मित हुई, गतिशीलता न आ सकी।
विज्ञान गल्प लेखन की बंडी विसंगतियां हैं। अच्छा विज्ञान गल्पकार वही हो सकता है जो मन से साहित्यकार हो, मानवीय संवेदनाओं, संस्पर्शों में रचा-बसा हो और उसे वैज्ञानिक तथ्यों की जानकारी भी हो। गल्प लेखन में वैज्ञानिक तथ्यों की अवहेलना, अब तक ज्ञात और सर्वमान्य तथ्यों से रंचमात्र विक्षेप की अनुमति उसे नहीं है। ऐसे विरल संयोग यदि विद्यमान हों तो फंतासी की सर्जना की जा सकती है।
विज्ञान गल्प रचना की यही त्रासदी है और चुनौती भी। प्रस्तुत खंड में भारतीय भाषाओं में विज्ञान गल्पों की सात दशकीय यात्रा की प्रस्तुति और विवेचना की गई हैं।
उधर बंगला में जब पंच कौड़ी दे जासूसी साहित्य के निर्माण में प्रवृत्त थे तो उसी काल में विज्ञान कथाएं भी लिखी जा रही थीं। प्रख्यात विज्ञानी जगदीशचंद्र बसु ने ‘तूफान पर विजय’ शीर्षक से प्रथम बांग्ला विज्ञान गल्प लिखा। अनादिधन बंद्योपाध्याय ने ‘मंगल ग्रह’ (1915) प्रस्तुत किया। मराठी में श्रीधर बालकृष्ण रानाडे ने पहली विज्ञान कथा ‘तारे का रहस्य’ शीर्षक से 1915 में लिखा थी। इसी वर्ष नाथ माधव ने ‘श्रीनिवास राव’ नामक वैज्ञानिक उपन्यास मराठी में प्रस्तुत किया। और इस तरह भारतीय भाषाओं में विज्ञान कथाओं के बीज का वपन बीसवीं शती के आरंभ में हो चुका था।
विगत सौ वर्षों के विस्तृत फलक पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि इस दिशा में विशुद्ध विज्ञान लेखकों की तुलना में कहीं अधिक अवदान साहित्यकों का है। साहस करके कई साहित्यकारों ने विज्ञान गल्प साहित्य की रिक्तता को पूर्ति करने की चेष्टाएं कीं, लेकिन उससे विज्ञान गल्पों की निर्मिति को कितनी त्वरा मिली ? मात्र उसकी आधारपीठिका ही निर्मित हुई, गतिशीलता न आ सकी।
विज्ञान गल्प लेखन की बंडी विसंगतियां हैं। अच्छा विज्ञान गल्पकार वही हो सकता है जो मन से साहित्यकार हो, मानवीय संवेदनाओं, संस्पर्शों में रचा-बसा हो और उसे वैज्ञानिक तथ्यों की जानकारी भी हो। गल्प लेखन में वैज्ञानिक तथ्यों की अवहेलना, अब तक ज्ञात और सर्वमान्य तथ्यों से रंचमात्र विक्षेप की अनुमति उसे नहीं है। ऐसे विरल संयोग यदि विद्यमान हों तो फंतासी की सर्जना की जा सकती है।
विज्ञान गल्प रचना की यही त्रासदी है और चुनौती भी। प्रस्तुत खंड में भारतीय भाषाओं में विज्ञान गल्पों की सात दशकीय यात्रा की प्रस्तुति और विवेचना की गई हैं।
ग्रंथ योजना
एक शती ही नहीं, एक सहस्त्राब्दि का अवसान और नव सहस्त्राब्दि का उन्मेष,
काल की अनंत यात्रा का एक विलक्षण संयोग है। दो शतियों की इस संधि बेला
में मेरे मन में विचार परपा कि विगत शती की समग्र वैज्ञानिक लब्धियों को
पन्नों में समेटा जाए। उसी विचारसरणि का सुफल है-बीसवी शती का विज्ञान
विश्वकोश।
ग्रंथ योजना के प्रारंभिक 4 खंड विज्ञान कथाओं पर आधृत हैं- भारतीय विज्ञान कथाएं (1-2), विश्व विज्ञान कथाएं और बाल-विज्ञान कथाएं। विगत सौ वर्षों में दुनिया-भर की भाषाओं में लिखी गई विज्ञान कथाओं में से प्रतिनिधि रचनाओं को इसमें समाहित किया गया है। इस प्रकार विज्ञान कथाओं के उत्स से लेकर आद्योपांत इतिवृत्ति प्रस्तुत है इस ग्रंथ योजना में। रचनाओं की प्रस्तुति कालक्रम से की गई हैं, जिससे विज्ञान-गल्पों की विकास-यात्रा, उनके पड़ावों औप बदलते स्वरूपों से पाठक परिचित हो सकें।
विज्ञान कथाओं पर मैंने आज से प्रायः 20 वर्ष पूर्व कार्य आरंभ किया था और उसका एक विस्तृत सर्वेक्षण भी प्रस्तुत किया था। तभी से इस दिशा में सचेष्ट हूं।
आरंभिक कथाओं की प्रस्तुति में भाषा-वर्तनी-व्याकरण यथावत हैं, इनमें रंचमात्र भी परिवर्तन नहीं है। ऐसा मैंने सायास किया है ताकि उस काल की भाषा-शैली से भी पाठकों को साक्षात्कार हो सके। यह हिन्दी की विकास-यात्रा भी तो है। ग्रंथ के अगले खंड़ो में पूरी शती की विज्ञान-यात्रा का संपूर्ण परिदृश्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
जिन लेखकों की कृतियों, पत्र-पत्रिकाओं से कथाएं संगृहीत की गई हैं, उनका उल्लेख यथास्थान है। मैं उन सभी लेखकों, प्रकाशनों के संचालकों का हृदय से आभारी हूं और उन लेखकों का भी, जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से मुझे उदारतापूर्वक अपनी सामग्रियां भेजी हैं और उनके प्रयोग की अनुमति दी है।
आशा है, मेरे इस एकल और विनम्र प्रयास को पाठक उत्साह से ग्रहण करेंगे। इसकी उपादेयता एक संदर्भ-ग्रंथ के रूप में होगी, ऐसी मुझे आशा है। मेरे संसाधनों और ज्ञान की सीमा है। संभव है, कुछ नाम छूट हए हों; लेकिन वह सिर्फ मेरी अज्ञानतावश ही, किसी के प्रति मेरा न तो कोई दुराव है और न पूर्वाग्रह ही। कोश की प्रस्तुति के निमित्त जिन ग्रंथों, पत्र-पत्रिकाओं का मैंने अवलोकन किया है, उन सभी का उल्लेख कर पाना नितांत असंभव है। तीन दशकीय लेखन-यात्रा के संदर्भों को सूचीबद्ध करना कोई सरल कार्य तो नहीं हैं !
ग्रंथ योजना के प्रारंभिक 4 खंड विज्ञान कथाओं पर आधृत हैं- भारतीय विज्ञान कथाएं (1-2), विश्व विज्ञान कथाएं और बाल-विज्ञान कथाएं। विगत सौ वर्षों में दुनिया-भर की भाषाओं में लिखी गई विज्ञान कथाओं में से प्रतिनिधि रचनाओं को इसमें समाहित किया गया है। इस प्रकार विज्ञान कथाओं के उत्स से लेकर आद्योपांत इतिवृत्ति प्रस्तुत है इस ग्रंथ योजना में। रचनाओं की प्रस्तुति कालक्रम से की गई हैं, जिससे विज्ञान-गल्पों की विकास-यात्रा, उनके पड़ावों औप बदलते स्वरूपों से पाठक परिचित हो सकें।
विज्ञान कथाओं पर मैंने आज से प्रायः 20 वर्ष पूर्व कार्य आरंभ किया था और उसका एक विस्तृत सर्वेक्षण भी प्रस्तुत किया था। तभी से इस दिशा में सचेष्ट हूं।
आरंभिक कथाओं की प्रस्तुति में भाषा-वर्तनी-व्याकरण यथावत हैं, इनमें रंचमात्र भी परिवर्तन नहीं है। ऐसा मैंने सायास किया है ताकि उस काल की भाषा-शैली से भी पाठकों को साक्षात्कार हो सके। यह हिन्दी की विकास-यात्रा भी तो है। ग्रंथ के अगले खंड़ो में पूरी शती की विज्ञान-यात्रा का संपूर्ण परिदृश्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
जिन लेखकों की कृतियों, पत्र-पत्रिकाओं से कथाएं संगृहीत की गई हैं, उनका उल्लेख यथास्थान है। मैं उन सभी लेखकों, प्रकाशनों के संचालकों का हृदय से आभारी हूं और उन लेखकों का भी, जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से मुझे उदारतापूर्वक अपनी सामग्रियां भेजी हैं और उनके प्रयोग की अनुमति दी है।
आशा है, मेरे इस एकल और विनम्र प्रयास को पाठक उत्साह से ग्रहण करेंगे। इसकी उपादेयता एक संदर्भ-ग्रंथ के रूप में होगी, ऐसी मुझे आशा है। मेरे संसाधनों और ज्ञान की सीमा है। संभव है, कुछ नाम छूट हए हों; लेकिन वह सिर्फ मेरी अज्ञानतावश ही, किसी के प्रति मेरा न तो कोई दुराव है और न पूर्वाग्रह ही। कोश की प्रस्तुति के निमित्त जिन ग्रंथों, पत्र-पत्रिकाओं का मैंने अवलोकन किया है, उन सभी का उल्लेख कर पाना नितांत असंभव है। तीन दशकीय लेखन-यात्रा के संदर्भों को सूचीबद्ध करना कोई सरल कार्य तो नहीं हैं !
शुकदेव प्रसाद
विज्ञान कथाओं के उत्स की खोज
मैं इस बात से कतई सहमत नहीं हूँ कि भारतीय विज्ञान कथाओं के उत्स की खोज
तिलस्मी या कि जासूसी साहित्य में करनी चाहिए। यह ठीक है कि हिंदी और
हिंदीतर भारतीय भाषाओं में आधुनिक कथा साहित्य के उद्भव काल में
ऐयारी-तिलस्मी-जासूसी कथाओं का प्राबल्य था लेकिन इनसे सर्वथा अप्रभावित
विज्ञान गल्प का भी समांतर रूप से प्रस्फुटन हो चुका था।
हिंदी में ऐयारी और तिलस्मी उपन्यासों के जनक देवकी नंदन खन्नी जब चंद्रकांता (1892) के साथ हिंदी में प्रकट हुए तो प्रायः उसी काल में अंबिका दत्त व्यास विरचित आश्चर्य-वृत्तांत ने भी हिंदी में विज्ञान गल्प लेखन की नयी सरणि निर्मित की। ‘पीयूस प्रवाह’ पत्रिका में 1884-88 के मध्य धारावाहिक रूप से इसका प्रकाशन हो चुका था। ‘आश्चर्यवृत्तांत’ विशुद्ध रूप से विज्ञान गल्प था जो तिलस्मी और जासूसी प्रभावों से सर्वथा उन्मुक्त था।
उधर बंगला में पंच कौड़ी दे जब जासूसी साहित्य-‘घटना-घटाटोप’ (1913), ‘जय-पराजय’ (1913), ‘जीवन रहस्य’ (1913), ‘नील वसना सुंदरी’ (1913), ‘मायावी’ (1913), ‘-के निर्माण में प्रवृत्त थे तो उसी काल में विज्ञान कथाएं भी लिखी जा रही थी, बल्कि कहना यह चाहिए कि बंगला में विज्ञान गल्प का उन्मेष इससे पूर्व हो चुका था। पौधों में जीवन के विश्लेषक और बेतार के आविष्कारक आचार्य जगदीश चंद्र बसु ने ‘तूफान पर विजय’ शीर्षक से प्रथम बांग्ला विज्ञान गल्प 1897 में ही लिखा था। अनादिधन बैनरजी (बंद्योपाध्याय) ने ‘वन कुसुम’ (1914), ‘चंपा फूल’ (1916), ‘चोर’ (1920) जैसे उपन्यासों के साथ साथ ‘मंगल ग्रह’ (1915) जैसा विज्ञान गल्प भी प्रस्तुत किया। मराठी मे श्रीधर बालकृष्ण रानाडे ने पहली विज्ञान कथा ‘तरेचे हास्य’ (तारे के रहस्य’) शीर्षक से 1915 में लिखी थी। प्रायः इसी समय नाथ माधव ने ‘श्रीनिवास राव’ नामक वैज्ञानिक उपन्यास मराठी में प्रस्तुत किया।
देवकी नंदन खन्नी ने मिर्जापूर के अरण्यों की पृष्ठभूमि में जो ऐंद्रजालिक संसार रचा, उससे हिंदी पाठक विस्मित और विमूढ़ रह गया और उसने खत्री जी को हाथों हाथ लिया। खन्नी प्रणीत ‘नरेन्द्रमोहिनी’ (1993) ‘वीरेन्द्र वीर’ (1895), ‘चंद्रकांता संतति’ (1896), ‘कुसुम कुमारी’ (1899), ‘नौलखा हार’ (1899), ‘गुप्तगोदना’ (1902). ‘कागज की कोठरी’ (1902) ‘अनूठी बेगम’ (1905), ‘भूतनाथ’ (1909) ने लोकप्रियता की सारी हदें पार कर लीं। देवकी नंदन खन्नी खन्नी के इंद्रजाल का जादू पाठकों के सिर पर चढ़कर बोलने लगा। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में लिखा है कि खत्री के तिलस्मी साहित्य का आनंद लेने के लिए उर्दूभाषियों ने हिंदी सीखी। तो ऐसा था खत्री का ऐंद्रजालिक संसार !
पाठक ही क्या, समकालीन लेखक भी इस जादू के मोहपाश में आबद्ध हुए बिना न रह सके। फिर तिलस्मी साहित्य रचने के सार्थक प्रयास आरंभ हुए और प्रभूत मात्रा में ऐसी चीजें सामने आने लगीं और हिंदी पाठक उसमें सराबोर हो गया। इस काल खंड (1892-1915) में ऐसे लेखकों की समृद्ध परंपरा दिखाई पड़ती है। देवी प्रसाद उपाध्याय कृत ‘माया-विलास’ (1899), जगन्नाथ चतुर्वेदी कृत ‘वसंत-मालती’ (1899), हरे कृष्ण जौहर कृत ‘कुसुम लता’ (1899), ‘भयानक प्रेम’ (1900), सरस्वती गुप्ता कृत ‘राजकुमार’ (1900), बाल मुकुंद वर्मा कृत ‘कामिनी’ (1900), राजेन्द्र मोहिनी (1901), हरे कृष्ण जौहर कृत ‘नारी-पिशाच’ (1901), ‘मंयक-मोहिनी’ (1901), ‘जादूगर’ (1901) तथा ‘कमल कुमारी’ (1902), मदन मोहन पाठक कृत ‘आनंद सुंदरी’ (1902), मुन्नी लाल खन्नी कृत ‘सच्चा बहादुर’ (1902), हरे कृष्ण जौहर कृत ‘निराला नकाबपोश’ (1902) तथा ‘भयानक खून’ (1903), किशोरी लाल गोस्वामी कृत ‘कटे मूड़ की दो-दो बातें’ (1905), विश्वेश्वर प्रसाद वर्मा कृत, ‘वीरेन्द्र कुमार’ (1906), किशोरी लाल गोस्वामी कृत ‘याकूती तख्ती’ (1906), राम लाल वर्मा कृत ‘पुतलीमहल’ (1908), रूप किशोर जैन कृत ‘सूर्य कुमार संभव’ (1915) आदि इसी साहित्य की प्रतिनिध रचनाएं हैं। आगे भी यह परंपरा चलती रही लेकिन यहीं से तिलस्मी साहित्य का प्रायः अवसान माना जाना चाहिए।
यह भी एक विचित्र संयोग है कि तिलस्मी साहित्य के साथ-साथ जासूसी की भी अचानक बाढ़ आ गयी और भी पाठकों ने सराहा और अपनाया। हिंदी में जासूसी उपन्यासों के प्रेणता गोपाल राम गहमरी हैं। देवकी नंदन की ‘चंद्रकांता’ (1892) और ‘नरेन्द्र मोहिनी’ (1893) के थोड़े समयांतराल बाद ‘ अदभुत लाश’ (1896) और ‘गुप्तचर’ (1899) के साथ गहमरी भी उदित हुए। इन जासूसी उपन्यासों की बढ़ती लोकप्रियता से प्रेरित होकर गहमरी ने प्रभूत मात्रा में ऐसा साहित्य रचा-‘बेकसूर की फांसी’ (1900), ‘सरकती लाश’ (1900), ‘खूनी कौन है ?’ (1900), ‘बेगुनाह का खून’ (1900), ‘जमुना का खून’ (1900), ‘डबल जासूस’ (1900), ‘मायाविनी’ (1901), ‘जादूगरनी मनोरमा’ 1901), ‘लड़की चोरी’ (1901), ‘जासूस की भूल’ (1901), ‘थाना की चोरी’ (1901), भंयकर चोरी’ (1901), ‘अंधे की आंख’ (1902), ‘जाल राजा’ (1902), ‘जाली काका’ (1902), ‘जासूस की चोरी, (1902), ‘मालगोदाम में चोरी’ (1902), ‘डाके पर डाका’ (1903), ‘डाक्टर की कहानी’ (1903), ‘घर का भेदी’ (1903), ‘जासूस पर जासूस’ (1903), ‘देवी सिंह’ (1904). ‘लड़का गायब’ (1904), ‘जासूस चक्कर में ’ (1906), ‘खूनी का भेद’ (1910), ‘भोजपुर की ठंगी’ (1911). ‘बलिहारी बुद्धि’ (1912), ‘योग महिमा’ (1912) और ‘गुप्तभेद’ (1913) आदि। जासूसी साहित्य के प्रभाव से समकालीन हिंदी लेखक भी अपने को विरत न रख सके और इसी अवधि में ऐसी अनेकानेक रचनाएं सामने आई। यथा-रूद्रदत्त शर्मा कृत ‘वर सिंह दारोगा’ (1900), ‘किशोरी लाल गोस्वामी कृत ‘जिंदे की लाश’ (1906), ‘जयराम गुप्त कृत ‘लंगड़ा खूनी’ (1908), जंग बहादुर सिंह कृत ‘विचित्र खून’ (1909) शेर सिंह कृत ‘विलक्षण जासूस’ (1911), ‘चंद्रशेखर पाठक कृत ‘अमीर अली ठंग’ (1911), ‘शशि बाला’ (1911) और शिव नारायण द्विवेदी कृत ‘अमर दत्त’ (1915) आदि।
लेकिन यहीं से यह परंपरा समाप्तप्राय है। कारण यह कि हिंदी में यह परंपरा नवीन थी और आंग्ल साहित्य से पूर्णतः प्रभावित। भारतीय वातावरण के अनुरूप न होने के कारण पाठक जल्दी इससे ऊब गया। पाठकों की अरूचि ने तिलस्मी, ऐयारी और जासूसी साहित्य का अचिर में ही गर्भलोपन भी कर दिया। प्रेमचंद के अवतरण के साथ ही चित्रपट पूरी तरह परिवर्तित हो चुका था। 1917-18 के आस-पास तिलस्मी और जासूसी साहित्य नेपथ्य में चले गये।
बीसवीं शती के तीसरे दशक में मनोवैज्ञानिक और घटना प्रधान उपन्यासों ने दस्तक दी। पाठकवर्ग नयेपन की तलाश में था। वह फार्मूलाबद्ध साहित्य से निजात पाना चाहता था। ऐसे में किशोरी लाल गोस्वामी के ‘गुप्त गोदना’ (1923) ने संजीवनी का काम किया। यह एक ऐतिहासिक उपन्यास है। औरगंजेब द्वारा उसके भाइयों के विरूद्ध किए गए षड़यंत्रों की कथा है। विश्वंभर नाथ शर्मा ने ‘तुर्क तरूणी’ (1925) नामक श्रृंगारिक उपन्यास प्रस्तुत किया तो भगवती चरण वर्मा ने ‘पतन’ (1927) में वाजिद अली शाह की विलासिता को अपनी कथा का आधार बनाया। ऋषभचरण का ‘गदर’ (1930) हिंदी उपन्यासों में एक नयी करवट का प्रतीक है। इस परंपरा को आगे बढ़ाया वृंदा लाल वर्मा ने। उन्होंने ‘विराटा की पद्यिनी’ (1930) और ‘गढ़ं कुंडार’ (1930) जैसे ऐतिहासिक उपन्यासों के सृजन के लिए बुंदेलखंड के भूखंडो, संस्कृति और वहाँ के वीरों के परस्पर वैमनस्य, प्रेम-प्रसंगों को अपना आधार बनाया। कृष्णा नंद गुप्त की ‘केन’ (1930) भी इसी कोटि की रचना है। भगवती चरण वर्मा ने ‘चित्रलेखा’ (1934) में पाप और पुण्य की विशद व्याख्या की। प्रेमचंद के ‘दुर्गादास’ (1938) और चतुर सेन शास्त्री के ‘राणा राज सिंह’ (1939) ने तो ऐयारी-तिलस्मी-जासूसी साहित्य का तिरोधान करा दिया और यहीं से यह परंपरा समाप्त हो गयी।
प्रथम हिंदी-विज्ञान गल्प ?
हिंदी की विज्ञान कथाओं के बारे में लिखते समय लोग प्रायः केशव प्रसाद सिंह की ‘चंद्रलोक की यात्रा’ (1900) का प्रथम विज्ञान गल्प के रूप में उल्लेख करते हैं। अभी तक ऐसा ही अभिमत है। कदाचित इसका कारण पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी की वह टिप्पणी है जो उन्होंने ‘सरस्वती’ पत्रिका के 60 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में प्रकाशित ‘हीरक जयंती विशेषांक’ के कहानी खंड के आरंभ में दी थी। ‘सरस्वती’ के भाग 1, संख्या 6 (जून, 1900), में पहिली बार दो कहानियां एक साथ प्रकाशित हुई। किशोरी लाल गोस्वामी की ‘इंदुमती’ और केशव प्रसाद सिंह की ‘चद्रलोक की यात्रा’। चतुर्वेदी जी इन पर टिप्पणी करते हैं-दूसरी कहानी किसी अंग्रेजी कहानी के आधार पर लिखी हुई मालूम होती है। वह लंबी है और धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुई थी। ‘इंदुमती’ सरस्वती ही मे नहीं, हिंदी में आधुनिक शैली की प्रथम कहानी है।’
‘चंद्रलोक की यात्रा’ को तो उन्होंने आंग्ल-आधृत कहकर महत्वहीन कर दिया लेकिन ‘इंदुमती’ को पहिली हिन्दी कहानी घोषित किया। ‘इससे पहिले ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ और ‘पीयूष प्रावह’ में एक-दो कहानियां छपी थीं। पं. अंबिका दत्त व्यास की ‘आश्चर्य-वृत्तांत’ नाम की, और पं. बाल कृष्ण भट्ट की ‘नूतन ब्रह्यचारी’ नामक कहानियां संभवतः इसके पहिले की प्रकाशित हो चुकी थीं। किंतु ‘इंदुमती’ को ही हिन्दी की पहिली आधुनिक कहानी होने का श्रेय दिया जाता है।’
संभवतः कहकर उन्होंने अपनी बात समाप्त कर दी लेकिन यदि इसकी पड़ताल करने की चेष्टा ही गई होती तो यह विभ्रम समाप्त हो गया होता कि प्रथम हिंदी विज्ञान गल्प कौन-सा है ? यद्यपि हिंदी में यह विमर्श आज भी जारी है कि हिंदी की पहली आधुनिक कहानी कौन सी है....‘इंदुमती’ ? इंशा अल्ला खां की 1803 में प्रकाशित ‘रानी केतकी की कहानी ? या फिर 1870 में प्रकाशित मेरठ में पं. गौरी दत्त प्रणीत ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ जो वस्तुतः एक लघु सामाजिक उपन्यास है। इस विमर्श मे प्रतिभाग करने का यहां न तो मुझे अवकाश है और न ही यह चर्चा प्रासंगिक ही है।
अंबिका दत्त व्यास ने स्व-संपादित पत्रिका ‘पीयूसी-प्रवाह’ में धारावाहिक रूप से ‘आश्चर्यवृत्तांत’ का प्रकाशन किया था (1884-1888) जिसका प्रथम मुद्रण व्यास यंत्रालय, भागलपुर से 1893 में हुआ था। यह हिंदी का प्रथम विज्ञान गल्प है।
अंबिका दत्त व्यास (1858-1900) अत्यल्प वय में गोलोकवासी हो गए लेकिन वे अत्यंत प्रातिभ कलाकार थे, उन्होंने अल्प वय में प्रौढ़ प्रज्ञा प्राप्त की थी। इनकी काव्य प्रतिभा से अभिभूत हो भारतेंदु ने ‘कविवचन सुधा’ में इनकी कविता प्रकाशित करते हुए टिप्पणी की थी- ‘इस विलक्षण बालक की बुद्धि भी विलक्षण ही है और अवस्था इसकी केवल बारह वर्ष है। हम इसके और समाचार भी लिखेगें।’ बाल्य काल में इन्होंने कई अवसरों पर अपनी काव्य शक्ति का परिचय देकर विद्वत् जनों को आश्चर्यचकित कर दिया था। ऐसे ही एक अवसर पर भारतेंदु ने इन्हें ‘सुकवि’ की उपाधि दी थी।
व्याज जी संस्कृत के असाधारण विद्वान् थे। व्यास प्रणीत ‘शिव राज विजय’ नामक संस्कृत उपन्यास संस्कृत साहित्य का अमर ग्रंथ हैं। इनके कवित्व का उत्कृष्टतम् मीमांसा’, ‘मूर्ति पूजा’, ‘सुकवि सतसई’, ‘सामवतम्’ आदि हैं। आपने ‘वैष्णव पत्रिका’, ‘पीयूष प्रवाह’ और ‘सारन-सरोज’ नामक पत्रों का अनेक वर्षों तक सफलतापूर्वक संपादक किया। आप के वैदुष्य और काव्य चातुर्य से प्रभावित होकर कांकरौली नरेश ने ‘भारत-रत्न’ और अयोध्या नरेश ने ‘शतावधानी’ की उपाधियों से आपको संलंकृत किया था।
हिंदी में ऐयारी और तिलस्मी उपन्यासों के जनक देवकी नंदन खन्नी जब चंद्रकांता (1892) के साथ हिंदी में प्रकट हुए तो प्रायः उसी काल में अंबिका दत्त व्यास विरचित आश्चर्य-वृत्तांत ने भी हिंदी में विज्ञान गल्प लेखन की नयी सरणि निर्मित की। ‘पीयूस प्रवाह’ पत्रिका में 1884-88 के मध्य धारावाहिक रूप से इसका प्रकाशन हो चुका था। ‘आश्चर्यवृत्तांत’ विशुद्ध रूप से विज्ञान गल्प था जो तिलस्मी और जासूसी प्रभावों से सर्वथा उन्मुक्त था।
उधर बंगला में पंच कौड़ी दे जब जासूसी साहित्य-‘घटना-घटाटोप’ (1913), ‘जय-पराजय’ (1913), ‘जीवन रहस्य’ (1913), ‘नील वसना सुंदरी’ (1913), ‘मायावी’ (1913), ‘-के निर्माण में प्रवृत्त थे तो उसी काल में विज्ञान कथाएं भी लिखी जा रही थी, बल्कि कहना यह चाहिए कि बंगला में विज्ञान गल्प का उन्मेष इससे पूर्व हो चुका था। पौधों में जीवन के विश्लेषक और बेतार के आविष्कारक आचार्य जगदीश चंद्र बसु ने ‘तूफान पर विजय’ शीर्षक से प्रथम बांग्ला विज्ञान गल्प 1897 में ही लिखा था। अनादिधन बैनरजी (बंद्योपाध्याय) ने ‘वन कुसुम’ (1914), ‘चंपा फूल’ (1916), ‘चोर’ (1920) जैसे उपन्यासों के साथ साथ ‘मंगल ग्रह’ (1915) जैसा विज्ञान गल्प भी प्रस्तुत किया। मराठी मे श्रीधर बालकृष्ण रानाडे ने पहली विज्ञान कथा ‘तरेचे हास्य’ (तारे के रहस्य’) शीर्षक से 1915 में लिखी थी। प्रायः इसी समय नाथ माधव ने ‘श्रीनिवास राव’ नामक वैज्ञानिक उपन्यास मराठी में प्रस्तुत किया।
देवकी नंदन खन्नी ने मिर्जापूर के अरण्यों की पृष्ठभूमि में जो ऐंद्रजालिक संसार रचा, उससे हिंदी पाठक विस्मित और विमूढ़ रह गया और उसने खत्री जी को हाथों हाथ लिया। खन्नी प्रणीत ‘नरेन्द्रमोहिनी’ (1993) ‘वीरेन्द्र वीर’ (1895), ‘चंद्रकांता संतति’ (1896), ‘कुसुम कुमारी’ (1899), ‘नौलखा हार’ (1899), ‘गुप्तगोदना’ (1902). ‘कागज की कोठरी’ (1902) ‘अनूठी बेगम’ (1905), ‘भूतनाथ’ (1909) ने लोकप्रियता की सारी हदें पार कर लीं। देवकी नंदन खन्नी खन्नी के इंद्रजाल का जादू पाठकों के सिर पर चढ़कर बोलने लगा। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में लिखा है कि खत्री के तिलस्मी साहित्य का आनंद लेने के लिए उर्दूभाषियों ने हिंदी सीखी। तो ऐसा था खत्री का ऐंद्रजालिक संसार !
पाठक ही क्या, समकालीन लेखक भी इस जादू के मोहपाश में आबद्ध हुए बिना न रह सके। फिर तिलस्मी साहित्य रचने के सार्थक प्रयास आरंभ हुए और प्रभूत मात्रा में ऐसी चीजें सामने आने लगीं और हिंदी पाठक उसमें सराबोर हो गया। इस काल खंड (1892-1915) में ऐसे लेखकों की समृद्ध परंपरा दिखाई पड़ती है। देवी प्रसाद उपाध्याय कृत ‘माया-विलास’ (1899), जगन्नाथ चतुर्वेदी कृत ‘वसंत-मालती’ (1899), हरे कृष्ण जौहर कृत ‘कुसुम लता’ (1899), ‘भयानक प्रेम’ (1900), सरस्वती गुप्ता कृत ‘राजकुमार’ (1900), बाल मुकुंद वर्मा कृत ‘कामिनी’ (1900), राजेन्द्र मोहिनी (1901), हरे कृष्ण जौहर कृत ‘नारी-पिशाच’ (1901), ‘मंयक-मोहिनी’ (1901), ‘जादूगर’ (1901) तथा ‘कमल कुमारी’ (1902), मदन मोहन पाठक कृत ‘आनंद सुंदरी’ (1902), मुन्नी लाल खन्नी कृत ‘सच्चा बहादुर’ (1902), हरे कृष्ण जौहर कृत ‘निराला नकाबपोश’ (1902) तथा ‘भयानक खून’ (1903), किशोरी लाल गोस्वामी कृत ‘कटे मूड़ की दो-दो बातें’ (1905), विश्वेश्वर प्रसाद वर्मा कृत, ‘वीरेन्द्र कुमार’ (1906), किशोरी लाल गोस्वामी कृत ‘याकूती तख्ती’ (1906), राम लाल वर्मा कृत ‘पुतलीमहल’ (1908), रूप किशोर जैन कृत ‘सूर्य कुमार संभव’ (1915) आदि इसी साहित्य की प्रतिनिध रचनाएं हैं। आगे भी यह परंपरा चलती रही लेकिन यहीं से तिलस्मी साहित्य का प्रायः अवसान माना जाना चाहिए।
यह भी एक विचित्र संयोग है कि तिलस्मी साहित्य के साथ-साथ जासूसी की भी अचानक बाढ़ आ गयी और भी पाठकों ने सराहा और अपनाया। हिंदी में जासूसी उपन्यासों के प्रेणता गोपाल राम गहमरी हैं। देवकी नंदन की ‘चंद्रकांता’ (1892) और ‘नरेन्द्र मोहिनी’ (1893) के थोड़े समयांतराल बाद ‘ अदभुत लाश’ (1896) और ‘गुप्तचर’ (1899) के साथ गहमरी भी उदित हुए। इन जासूसी उपन्यासों की बढ़ती लोकप्रियता से प्रेरित होकर गहमरी ने प्रभूत मात्रा में ऐसा साहित्य रचा-‘बेकसूर की फांसी’ (1900), ‘सरकती लाश’ (1900), ‘खूनी कौन है ?’ (1900), ‘बेगुनाह का खून’ (1900), ‘जमुना का खून’ (1900), ‘डबल जासूस’ (1900), ‘मायाविनी’ (1901), ‘जादूगरनी मनोरमा’ 1901), ‘लड़की चोरी’ (1901), ‘जासूस की भूल’ (1901), ‘थाना की चोरी’ (1901), भंयकर चोरी’ (1901), ‘अंधे की आंख’ (1902), ‘जाल राजा’ (1902), ‘जाली काका’ (1902), ‘जासूस की चोरी, (1902), ‘मालगोदाम में चोरी’ (1902), ‘डाके पर डाका’ (1903), ‘डाक्टर की कहानी’ (1903), ‘घर का भेदी’ (1903), ‘जासूस पर जासूस’ (1903), ‘देवी सिंह’ (1904). ‘लड़का गायब’ (1904), ‘जासूस चक्कर में ’ (1906), ‘खूनी का भेद’ (1910), ‘भोजपुर की ठंगी’ (1911). ‘बलिहारी बुद्धि’ (1912), ‘योग महिमा’ (1912) और ‘गुप्तभेद’ (1913) आदि। जासूसी साहित्य के प्रभाव से समकालीन हिंदी लेखक भी अपने को विरत न रख सके और इसी अवधि में ऐसी अनेकानेक रचनाएं सामने आई। यथा-रूद्रदत्त शर्मा कृत ‘वर सिंह दारोगा’ (1900), ‘किशोरी लाल गोस्वामी कृत ‘जिंदे की लाश’ (1906), ‘जयराम गुप्त कृत ‘लंगड़ा खूनी’ (1908), जंग बहादुर सिंह कृत ‘विचित्र खून’ (1909) शेर सिंह कृत ‘विलक्षण जासूस’ (1911), ‘चंद्रशेखर पाठक कृत ‘अमीर अली ठंग’ (1911), ‘शशि बाला’ (1911) और शिव नारायण द्विवेदी कृत ‘अमर दत्त’ (1915) आदि।
लेकिन यहीं से यह परंपरा समाप्तप्राय है। कारण यह कि हिंदी में यह परंपरा नवीन थी और आंग्ल साहित्य से पूर्णतः प्रभावित। भारतीय वातावरण के अनुरूप न होने के कारण पाठक जल्दी इससे ऊब गया। पाठकों की अरूचि ने तिलस्मी, ऐयारी और जासूसी साहित्य का अचिर में ही गर्भलोपन भी कर दिया। प्रेमचंद के अवतरण के साथ ही चित्रपट पूरी तरह परिवर्तित हो चुका था। 1917-18 के आस-पास तिलस्मी और जासूसी साहित्य नेपथ्य में चले गये।
बीसवीं शती के तीसरे दशक में मनोवैज्ञानिक और घटना प्रधान उपन्यासों ने दस्तक दी। पाठकवर्ग नयेपन की तलाश में था। वह फार्मूलाबद्ध साहित्य से निजात पाना चाहता था। ऐसे में किशोरी लाल गोस्वामी के ‘गुप्त गोदना’ (1923) ने संजीवनी का काम किया। यह एक ऐतिहासिक उपन्यास है। औरगंजेब द्वारा उसके भाइयों के विरूद्ध किए गए षड़यंत्रों की कथा है। विश्वंभर नाथ शर्मा ने ‘तुर्क तरूणी’ (1925) नामक श्रृंगारिक उपन्यास प्रस्तुत किया तो भगवती चरण वर्मा ने ‘पतन’ (1927) में वाजिद अली शाह की विलासिता को अपनी कथा का आधार बनाया। ऋषभचरण का ‘गदर’ (1930) हिंदी उपन्यासों में एक नयी करवट का प्रतीक है। इस परंपरा को आगे बढ़ाया वृंदा लाल वर्मा ने। उन्होंने ‘विराटा की पद्यिनी’ (1930) और ‘गढ़ं कुंडार’ (1930) जैसे ऐतिहासिक उपन्यासों के सृजन के लिए बुंदेलखंड के भूखंडो, संस्कृति और वहाँ के वीरों के परस्पर वैमनस्य, प्रेम-प्रसंगों को अपना आधार बनाया। कृष्णा नंद गुप्त की ‘केन’ (1930) भी इसी कोटि की रचना है। भगवती चरण वर्मा ने ‘चित्रलेखा’ (1934) में पाप और पुण्य की विशद व्याख्या की। प्रेमचंद के ‘दुर्गादास’ (1938) और चतुर सेन शास्त्री के ‘राणा राज सिंह’ (1939) ने तो ऐयारी-तिलस्मी-जासूसी साहित्य का तिरोधान करा दिया और यहीं से यह परंपरा समाप्त हो गयी।
प्रथम हिंदी-विज्ञान गल्प ?
हिंदी की विज्ञान कथाओं के बारे में लिखते समय लोग प्रायः केशव प्रसाद सिंह की ‘चंद्रलोक की यात्रा’ (1900) का प्रथम विज्ञान गल्प के रूप में उल्लेख करते हैं। अभी तक ऐसा ही अभिमत है। कदाचित इसका कारण पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी की वह टिप्पणी है जो उन्होंने ‘सरस्वती’ पत्रिका के 60 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में प्रकाशित ‘हीरक जयंती विशेषांक’ के कहानी खंड के आरंभ में दी थी। ‘सरस्वती’ के भाग 1, संख्या 6 (जून, 1900), में पहिली बार दो कहानियां एक साथ प्रकाशित हुई। किशोरी लाल गोस्वामी की ‘इंदुमती’ और केशव प्रसाद सिंह की ‘चद्रलोक की यात्रा’। चतुर्वेदी जी इन पर टिप्पणी करते हैं-दूसरी कहानी किसी अंग्रेजी कहानी के आधार पर लिखी हुई मालूम होती है। वह लंबी है और धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुई थी। ‘इंदुमती’ सरस्वती ही मे नहीं, हिंदी में आधुनिक शैली की प्रथम कहानी है।’
‘चंद्रलोक की यात्रा’ को तो उन्होंने आंग्ल-आधृत कहकर महत्वहीन कर दिया लेकिन ‘इंदुमती’ को पहिली हिन्दी कहानी घोषित किया। ‘इससे पहिले ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ और ‘पीयूष प्रावह’ में एक-दो कहानियां छपी थीं। पं. अंबिका दत्त व्यास की ‘आश्चर्य-वृत्तांत’ नाम की, और पं. बाल कृष्ण भट्ट की ‘नूतन ब्रह्यचारी’ नामक कहानियां संभवतः इसके पहिले की प्रकाशित हो चुकी थीं। किंतु ‘इंदुमती’ को ही हिन्दी की पहिली आधुनिक कहानी होने का श्रेय दिया जाता है।’
संभवतः कहकर उन्होंने अपनी बात समाप्त कर दी लेकिन यदि इसकी पड़ताल करने की चेष्टा ही गई होती तो यह विभ्रम समाप्त हो गया होता कि प्रथम हिंदी विज्ञान गल्प कौन-सा है ? यद्यपि हिंदी में यह विमर्श आज भी जारी है कि हिंदी की पहली आधुनिक कहानी कौन सी है....‘इंदुमती’ ? इंशा अल्ला खां की 1803 में प्रकाशित ‘रानी केतकी की कहानी ? या फिर 1870 में प्रकाशित मेरठ में पं. गौरी दत्त प्रणीत ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ जो वस्तुतः एक लघु सामाजिक उपन्यास है। इस विमर्श मे प्रतिभाग करने का यहां न तो मुझे अवकाश है और न ही यह चर्चा प्रासंगिक ही है।
अंबिका दत्त व्यास ने स्व-संपादित पत्रिका ‘पीयूसी-प्रवाह’ में धारावाहिक रूप से ‘आश्चर्यवृत्तांत’ का प्रकाशन किया था (1884-1888) जिसका प्रथम मुद्रण व्यास यंत्रालय, भागलपुर से 1893 में हुआ था। यह हिंदी का प्रथम विज्ञान गल्प है।
अंबिका दत्त व्यास (1858-1900) अत्यल्प वय में गोलोकवासी हो गए लेकिन वे अत्यंत प्रातिभ कलाकार थे, उन्होंने अल्प वय में प्रौढ़ प्रज्ञा प्राप्त की थी। इनकी काव्य प्रतिभा से अभिभूत हो भारतेंदु ने ‘कविवचन सुधा’ में इनकी कविता प्रकाशित करते हुए टिप्पणी की थी- ‘इस विलक्षण बालक की बुद्धि भी विलक्षण ही है और अवस्था इसकी केवल बारह वर्ष है। हम इसके और समाचार भी लिखेगें।’ बाल्य काल में इन्होंने कई अवसरों पर अपनी काव्य शक्ति का परिचय देकर विद्वत् जनों को आश्चर्यचकित कर दिया था। ऐसे ही एक अवसर पर भारतेंदु ने इन्हें ‘सुकवि’ की उपाधि दी थी।
व्याज जी संस्कृत के असाधारण विद्वान् थे। व्यास प्रणीत ‘शिव राज विजय’ नामक संस्कृत उपन्यास संस्कृत साहित्य का अमर ग्रंथ हैं। इनके कवित्व का उत्कृष्टतम् मीमांसा’, ‘मूर्ति पूजा’, ‘सुकवि सतसई’, ‘सामवतम्’ आदि हैं। आपने ‘वैष्णव पत्रिका’, ‘पीयूष प्रवाह’ और ‘सारन-सरोज’ नामक पत्रों का अनेक वर्षों तक सफलतापूर्वक संपादक किया। आप के वैदुष्य और काव्य चातुर्य से प्रभावित होकर कांकरौली नरेश ने ‘भारत-रत्न’ और अयोध्या नरेश ने ‘शतावधानी’ की उपाधियों से आपको संलंकृत किया था।
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