सामाजिक >> कुली कुलीमुल्कराज आनंद
|
9 पाठकों को प्रिय 305 पाठक हैं |
हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा इलाके के एक अनाथ-विपन्न ग्रामीण किशोर के जीवन-संघर्ष की मार्मिक गाथा,जो सच के बहुत करीब है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कुली अन्तर्राष्टीय ख्याति के भारतीय लेखक डाँ मुल्कराज का युगान्तकारी उपन्यास है,जो अपने प्रथम प्रकाशन के कोई 60-65 साल बाद भी प्रांसगिक बना हुआ है। यह हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा इलाके के एक ऐसे अनाथ और विपन्न किशोर को केन्द्र में रखकर लिखा गया है, जिसे पेट भरने के लिए मुम्बई जैसे महानगर की खाक छाननी पड़ी, गलाजत की जिन्दगी जीनी पड़ी और तब भी वह दो दानों का मोहताज बना रहा। क्षयग्रस्त शरीर के बावजूद परिस्थितियाँ उसे हाथ-रिक्शा खींचने वाले कुली का पेशा करने को मजबूर कर देती हैं। तब भी क्या मुन्नू नाम का वह अनाथ-विपन्न किशोर भूख और दुर्भाग्य को पछाड़ने में कामयाब हो पाया.... स्थान काल-पात्रों की दृष्टि से बहुत विस्तृत फलक पर रचा गया यह उपन्यास यद्यपि ब्रिटिश भारत में घटित होता है,किन्तु अभावग्रस्त ग्रामीण जीवन को जिन सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों से टकराते-जूझते यहाँ दिखाया गया है वे पहले की तुलना में आज और अधिक गम्भीर और अधिक जटिल हुई हैं। प्रेमचन्द्र की परम्परा का एक महान उपन्यास कुली।
एक
‘‘मुन्नू ! हे मुन्नू ! ओ मुन्नू रे !’’ गुजरी ने झोंपड़े के बरामदे से आवाज़ दी।
यह नीचा-सा झोपड़ा गाँव से लगभग सौ गज़ हटकर पहाड़ के बग़लवाली घाटी में बिल्कुल अलग खड़ा था। गुजरी की बाज़ की-सी आँखें गाँव के मकानों की नीची-नीची छतों से भी दूर, सुनहली रेत की घूमती हुई पगडण्डी पर, दूर-दूर तक दृष्टि दौड़ा रही थीं। काँगड़े का तपता हुआ सूर्य अपनी निर्दयी किरणें बरसा रहा था। मुन्नू को वह कहीं देख न पाई।
‘‘मुन्नू ! हे मुन्नू ! ओ मुन्नू ! कहाँ मर गया रे ! किधर गायब हो गया अभागे ! चल, इधर ! तेरे चाचा को जाने की जल्दी है और तुझे भी उनके साथ जाना है।’’ वह कर्कश स्वर से फिर चिल्लाई। उसकी दृष्टि आम के बाग से भी दूर व्यास नदी के चमकीले चाँदी-जैसे किनारे तक पहुँची और फिर क्रोध में भरी हुई उस झाड़-झंखाड़ में उलझ कर रह गई, जो पानी के दोनों ओर काली-सी बैंगनी पहाड़ियों के सामने उगे हुए थे।
‘‘मुन्नू, ओ मुन्नू !’’ उसने परेशान होकर फिर पुकारा। तिरस्कार और क्रोध से वह अपने स्वर को जितने ऊँचे चढ़ा सकती थी, उतने ऊँचे चढ़ाकर उसने फिर पुकारा, ‘‘अरे कहाँ मर गया ? कम्बख्त, मनहूस, माँ-बाप को खाकर बैठा है ! चल, इधर आ और किसी तरह मुँह काला कर !’’
घाटी में यह ज़बरदस्त चीख़ अपनी पूरी ताक़त के साथ गूँजी और अपनी पूरी कड़वाहट के साथ मुन्नू के कानों से जा टकराई।
मुन्नू ने अपनी चाची की वह आवाज़ सुनी तो, पर जवाब नहीं दिया। उसने घनी छाँह वाले पेड़ की आड़ से, जहाँ वह छिपा बैठा था, झाँककर लाल लहँगे को झोपड़ी में ग़ायब होते देख भर लिया था। वह व्यास के तट पर जानवर चरा रहा था। उसकी भैंसे और गायें किनारे के गँदले, छिछले पानी में उतर, सवेरे के तपते सूर्य की गर्मी से बचने के लिए ठण्डे पानी में बैठी जुगाली करने लगी थीं, और वह खेल में लग गया था।
गाँव के ज़मींदार का लड़का जयसिंह, जिसके कपड़े और हाथ-मुँह सभी साफ़ सुथरे रहा करते थे, मुन्नू के नंगे बदन में कुहनी गड़ाकर बोला, ‘‘तुम्हारी चाची पुकार रही है। तुम्हें सुनाई नहीं देता ? कुछ तमीज़ भी है गँवार कहीं के ? चाची है कि चिल्ला-चिल्ला कर गला फाड़ रही है। और तुम हो कि जवाब तक नहीं देते।’’
जयसिंह और मुन्नू में वास्तव में गाँव के बालकों बिशुन, विशम्भर आदि-की नेतागिरी के समबन्ध में सदा से प्रतिद्वंद्विता का भाव रहा है। उसे यह बात भी मालूम हो गई थी कि मुन्नू आज गाँव से शहर चला जाएगा। इसलिए वह चाहता था कि जल्दी-से-जल्दी उसे अपने रास्ते से हटा दे।
मोटा विशुन बोला, ‘‘अरे अभी से जाकर क्या करेगा ? तेरी चाची जरूर किसी काम से भेजना चाहती होगी।’’ फिर वह जयसिंह की बात का प्रतिवाद करने के विचार से उसकी ओर मुड़ा और कहने लगा, ‘‘अच्छा ! तो वह अपनी चाची के पुकारने पर घर नहीं गया इससे तुम उसे गँवार कहने लगे। और अपनी तो कहो। जब तुम्हारी माँ तुम्हें दोपहर के बाद निकलने से मना करती है और घर में बैठने को कहती है, तो तुम क्यों उसे बुरा-भला कहते हो ? तुम्हारे पिता तो तुम्हें दो आने रोज़ ख़र्च करने को देते हैं, फिर भी तुम स्कूल जाने से जी चुराते हो ! और हम तो स्कूल भी जाते हैं और छुट्टियों में ढोर भी चराते हैं। अब यही बता दो कि यहाँ बैठे-बैठे तुम समय नहीं नष्ट कर रहे हो तो और क्या कर रहे हो ? तुममें तो इतना भी साहस नहीं, कि दो-चार आम ही तोड़ लाओ। मुन्नू ने ये आम तोड़े हैं तो घर जाने से पहले उसे दो-चार चूस लेने दो।’’
‘‘मैं दूसरों के वृक्षों से आम नहीं तोड़ा करता।’’ जयसिंह बोला, ‘‘मैं आम खरीदता हूँ।’’ और फिर वह बड़ी सिधाई दिखाते हुए बोला, ‘‘मैं तो केवल इसलिए कहता था कि उसे जाना चाहिए, क्योंकि उसकी चाची बड़ी चिड़चिड़ी है। वह हम सब को बुरा-भला कहेगी कि मुन्नू को क्यों रोक रखा। उसे अपने चाचा के साथ शहर जाना है न।’’
‘‘तो क्या यह बात सच है कि तुम शहर जा रहे हो ?’’ नन्हें विशम्भर ने पूछा । वह बड़ा जोशीला था।
‘‘हाँ, बस आज ही जा रहा हूँ।’’ मुन्नू ने जवाब दिया। उसके पेट में उथल-पुथल-सी हो रही थी।
‘‘किन्तु तुम तो अभी कुल चौदह वर्ष के ही हो। और स्कूल में भी पाँचवें दर्जें ही तक पहुँचे हो ?’’ विशम्भर ने ज़ोर से कहा।
‘‘मेरी चाची चाहती है कि मैं पैसा कमाना शुरू कर दूँ।’’ मुन्नू बोला, ‘‘मेरा चाचा कहता है कि अब मैं बड़ा हो गया हूँ। मुझे अपनी रोटी खुद कमानी चाहिए। शामपुर में मेरा चाचा जिस बैंक में काम करता है, वहाँ के एक बाबू के घर में उसने मेरे लिए नौकरी ढूँढ ली है।’’
‘‘शामपुर में रहना तो बड़ा ही सुखदायक होगा।’’ जयसिंह बोला। उसे अब मुन्नू से ईर्ष्या होने लगी थी, क्योंकि मुन्नू उस समय इस भाव से ताक रहा था, मानो उसमें कुछ महत्त्व आ गया हो। अब वह शहर में रहेगा-जहाँ खाने के लिए बढ़िया चीज़ें, पहनने के लिए अच्छे कपड़े ओर खेलने के लिए सुन्दर खिलौने मिलते हैं।
मुन्नू ने मुस्करा दिया। पर उसकी मुस्कराहट से प्रकट होता था, मानो वह कह रहा हो कि यदि इस गाँव में मेरा यह अन्तिम दिन न होता, तो तुम्हारे जबड़े पर ऐसा घूँसा जमाता कि फिर कभी तुम गाँव के बालकों के नेतृत्व की कल्पना तक न करते।’’ यद्यपि मुन्नू की आयु अभी इतनी नहीं हो पाई थी कि वह परिवार से सम्बन्ध रखने वाले भिन्न-भिन्न विषयों पर विचार कर सके, पर उसे अच्छी तरह मालूम था कि जयसिंह का पिता ही उसके सारे संकटों और दुर्भाग्य का कारण है।
उसने सुना था कि ज़मींदार ने उसके पिता की पाँच एकड़ भूमि अपने अधिकार में कर ली थी, क्योंकि वर्षों के अभाव के कारण पैदावार अच्छी नहीं हुई थी और लगान पर पहले से जो ब्याज़ चढ़ रहा था वह अदा नहीं हो सका था। उसे यह भी मालूम था कि उसका पिता बेबसी ओर निराशा की दशा में एड़ियाँ रगड़-रगड़कर चल बसा था और उसकी माँ को एक अल्पवयस्क देवर तथा एक गोद के बच्चे-समेत पैसे-पैसे को मोहताज छोड़ गया था। उसे यह भी याद था कि किस तरह उसकी माँ चक्की पीसा करती थी और उस चक्की के पाट कितने भारी और खुरदरे थे। लकड़ी का हथेड़ पकड़ कर वह उसे रात-दिन चलाती रहती थी; कभी दाहिने हाथ से, कभी बायें हाथ से। यह तसवीर उसके दिमाग़ में अच्छी तरह जम चुकी थी। इसके अतिरिक्त एक और तसवीर भी उसके दिमाग़ में थी। वह उस समय की थी जब उसने माँ को ज़मीन पर मरी हुई पड़ी देखा था। उस के चेहरे से एक उदास पागलपन-सा टपक रहा था। उसके मुँह पर एक अजब बेबसी का भाव था और इस तसवीर की बेबसी और उदासी की दुनिया ने मुन्नू के विचारों को ढँक लिया था।
‘‘तो फिर अब तुम कभी नहीं आओगे क्या ?’’ जयसिंह ने ज़रा ज़ोर देकर पूछा।
‘‘नहीं, कभी नहीं। मैं चाहता हूँ कि कभी वापस न आऊँ।’’ उसके हृदय में झूठ बोलने की एक कटु इच्छा हो रही थी। यद्यपि वह मन में अच्छी तरह अनुभव कर रहा था कि यदि सच बात कह दी जाए तो जयसिंह अधिक दुःखी होगा, क्योंकि वास्तव में वह शहर नहीं जाना चाहता था, यद्यपि उसकी चाची उसे सदा ही बुरा-भला कहती रहती थी, हर वक्त इधर-उधर दौड़ाया करती थी, काम लेती थी और जितना वह गाय-भैसों को मारता था, उससे अधिक वह उसे मारती थी।
कम-से-कम अभी तो वह नहीं ही जाना चाहता था।
इसमें सन्देह नहीं कि मुन्नू उन विचित्र और नई चीज़ों के सपने देखता रहता था, जिनके सम्बन्ध में गाँव के लोग शहरों से वापस आकर बातचीत किया करते थे-शहर के वे बाबू, लाला और साहब लोग, जो सात समु्न्द्र पार से आया करते थे, उनके वे रेशमी कपड़े, जो वे पहना करते थे और वे स्वादिष्ट भोजन, जो वे खाया करते थे। मुन्नू को विशेष रूप से वे मशीनें देखने का शौक़ था, जिनका वर्णन उसने चौथी कक्षा की विज्ञान की प्रारम्भिक पुस्तक में पढ़ा था। परन्तु उसका विचार तो यह था कि वह जब गाँव के स्कूल की सारी पढ़ाई समाप्त कर ले तब शहर जाए जिससे वह स्वयं उस तरह की मशीनें बनाना सीख सके।
अभी तो मुन्नू को अपने साथियों के साथ, गाँव के उन छोटे-छोटे बालकों के साथ, जो मुन्नू के हमजोली थे, बैठने में बड़ा आनन्द आता था। वे लोग जब वे जानवर चराते-चराते इधर-उधर से काफ़ी फल तोड़कर इकट्ठा कर लेते थे, तब पीतल की घनी सुगन्धित छाया में बैठकर उन्हें खाने में बड़ा आनन्द आता था।
किसी-न-किसी फल की ऋतु सदा ही रहा करती थी। दर्जनों पके-पके, पीले-पीले आम टपका करते और उन्हें आसानी से घास में छिपाया जा सकता था। गर्मियों में लाल और बैंगनी जामुन और लम्बे-लम्बे रसीले शहतूत तो इतने होते थे कि केले के कितने ही चौड़े-चौड़े पत्ते उनसे भर जाते। जाड़ों में गन्ने के खेत तो मानो बाँस की टट्टियाँ थीं, जिनमें घुसने पर भी ऊँघते हु्ए रखवालों को ज़रा-सा सन्देह तक नहीं हो सकता था।
और फिर खेल भी तो वह ख़ूब खेल सकता था-जैसे छिलौट। इसमें एक पेड़ की एक डाली पर से दूसरी डाली पर कूदना पड़ता था और मुन्नू इसमें बहुत प्रवीण था। बन्दर की तरह उछल कर वह किसी पेड़ के तने से लिपट जाता। तने पर चारों हाथ-पाँव के बल सरकता हुआ बड़ी डालों पर पहुँचता और उछलकर पतली डालियों में टपक जाता, जैसे नाच की कोई मुद्रा दिखा रहा हो और फिर वहाँ से जो छलाँग मारता तो सन्न से शून्य को पार कर दूसरे पेड़ पर पहुँचता !
वहाँ की ठण्डी हवा भी कितनी सुखदायक थी जिससे शरीर की थकावट फ़ौरन दूर हो जाती थी, शरीर की गर्मी भी शान्त हो जाती थी। वह बरफ़ में झली हुई हवा, जो उस समय भी वहाँ बैठे-बैठे उसे लग रही थी, जो कीकर के पेड़ों को हिला रही थी, टिड्डे झाड़ियों में फुदक रहे थे, दलदलों और गड्ढों में मेढक टर्र-टर्र कर रहे थे, चिड़िया गा रही थी, तितलियाँ जंगली फूलों पर नाचती फिर रही थीं, शहद की तलाश में मक्खियों की भनभनाहट फूलों पर सुनाई दे रही थी और अपार सौन्दर्य के इस वातावरण से मुन्नू के हृदय का स्पन्दन भी अपनी लय मिला रहा था। उसका मन चाहता था कि सारी मशीनें खिंच कर यही चली आएँ और उसे अपने आपको इस शान्त और निस्तब्ध नीलवर्ण जल के रेतीले किनारे से ज़बरदस्ती अलग न होना पड़े।–यह रेतीला किनारा, जहाँ वह खेला करता था ! किन्तु....
‘‘मुन्नू ! ओ मुन्नू ! मुन्नू हो !!’’ उसकी चाची की आवाज़ फिर गूँजी। मुन्नू की दृष्टि के सामने उसकी चाची की सूरत फिरने लगी। उसका वह सख़्त जबड़ा, उसकी वे आँखें, जिनके कोने सदा लाल रहा करते थे, नुकीली नाक, ओर पतले-पतले होंठ-और ये सब काले बालों की लटो से घिरे हुए मु्न्नू की आँखों के सामने आ गए।
वह उठ खड़ा हुआ।
सब लड़के उठ खड़े हुए, यहाँ तक कि जयसिंह भी उठे बिना न रह सका।
मुन्नू ने अपने जानवरों को आवाज़ दी। दूसरे लड़कों ने भी अपने-अपने ढोर इकट्ठे किए। बड़े-बड़े बालों वाली भैंसे, जिनकी कोखें भीतर को धँसी हुई थीं और कूल्हों की हड्डियाँ उभड़ रही थीं, पानी में से एक-एक कर के निकलने लगीं। पोखरों से कीचड़ उछालती, मुँह से झाग टपकाती हुई वे अपने छोटे-छोटे चरवाहों के आगे चलने लगीं। आज वे उन्हें प्रतिदिन की अपेक्षा कहीं अधिक तेज़ी से घर की ओर हाँक रहे थे, पर भैंसे उनकी गालियों और मार की परवाह किए बिना धीरे-धीरे चली जा रही थीं।
यह नीचा-सा झोपड़ा गाँव से लगभग सौ गज़ हटकर पहाड़ के बग़लवाली घाटी में बिल्कुल अलग खड़ा था। गुजरी की बाज़ की-सी आँखें गाँव के मकानों की नीची-नीची छतों से भी दूर, सुनहली रेत की घूमती हुई पगडण्डी पर, दूर-दूर तक दृष्टि दौड़ा रही थीं। काँगड़े का तपता हुआ सूर्य अपनी निर्दयी किरणें बरसा रहा था। मुन्नू को वह कहीं देख न पाई।
‘‘मुन्नू ! हे मुन्नू ! ओ मुन्नू ! कहाँ मर गया रे ! किधर गायब हो गया अभागे ! चल, इधर ! तेरे चाचा को जाने की जल्दी है और तुझे भी उनके साथ जाना है।’’ वह कर्कश स्वर से फिर चिल्लाई। उसकी दृष्टि आम के बाग से भी दूर व्यास नदी के चमकीले चाँदी-जैसे किनारे तक पहुँची और फिर क्रोध में भरी हुई उस झाड़-झंखाड़ में उलझ कर रह गई, जो पानी के दोनों ओर काली-सी बैंगनी पहाड़ियों के सामने उगे हुए थे।
‘‘मुन्नू, ओ मुन्नू !’’ उसने परेशान होकर फिर पुकारा। तिरस्कार और क्रोध से वह अपने स्वर को जितने ऊँचे चढ़ा सकती थी, उतने ऊँचे चढ़ाकर उसने फिर पुकारा, ‘‘अरे कहाँ मर गया ? कम्बख्त, मनहूस, माँ-बाप को खाकर बैठा है ! चल, इधर आ और किसी तरह मुँह काला कर !’’
घाटी में यह ज़बरदस्त चीख़ अपनी पूरी ताक़त के साथ गूँजी और अपनी पूरी कड़वाहट के साथ मुन्नू के कानों से जा टकराई।
मुन्नू ने अपनी चाची की वह आवाज़ सुनी तो, पर जवाब नहीं दिया। उसने घनी छाँह वाले पेड़ की आड़ से, जहाँ वह छिपा बैठा था, झाँककर लाल लहँगे को झोपड़ी में ग़ायब होते देख भर लिया था। वह व्यास के तट पर जानवर चरा रहा था। उसकी भैंसे और गायें किनारे के गँदले, छिछले पानी में उतर, सवेरे के तपते सूर्य की गर्मी से बचने के लिए ठण्डे पानी में बैठी जुगाली करने लगी थीं, और वह खेल में लग गया था।
गाँव के ज़मींदार का लड़का जयसिंह, जिसके कपड़े और हाथ-मुँह सभी साफ़ सुथरे रहा करते थे, मुन्नू के नंगे बदन में कुहनी गड़ाकर बोला, ‘‘तुम्हारी चाची पुकार रही है। तुम्हें सुनाई नहीं देता ? कुछ तमीज़ भी है गँवार कहीं के ? चाची है कि चिल्ला-चिल्ला कर गला फाड़ रही है। और तुम हो कि जवाब तक नहीं देते।’’
जयसिंह और मुन्नू में वास्तव में गाँव के बालकों बिशुन, विशम्भर आदि-की नेतागिरी के समबन्ध में सदा से प्रतिद्वंद्विता का भाव रहा है। उसे यह बात भी मालूम हो गई थी कि मुन्नू आज गाँव से शहर चला जाएगा। इसलिए वह चाहता था कि जल्दी-से-जल्दी उसे अपने रास्ते से हटा दे।
मोटा विशुन बोला, ‘‘अरे अभी से जाकर क्या करेगा ? तेरी चाची जरूर किसी काम से भेजना चाहती होगी।’’ फिर वह जयसिंह की बात का प्रतिवाद करने के विचार से उसकी ओर मुड़ा और कहने लगा, ‘‘अच्छा ! तो वह अपनी चाची के पुकारने पर घर नहीं गया इससे तुम उसे गँवार कहने लगे। और अपनी तो कहो। जब तुम्हारी माँ तुम्हें दोपहर के बाद निकलने से मना करती है और घर में बैठने को कहती है, तो तुम क्यों उसे बुरा-भला कहते हो ? तुम्हारे पिता तो तुम्हें दो आने रोज़ ख़र्च करने को देते हैं, फिर भी तुम स्कूल जाने से जी चुराते हो ! और हम तो स्कूल भी जाते हैं और छुट्टियों में ढोर भी चराते हैं। अब यही बता दो कि यहाँ बैठे-बैठे तुम समय नहीं नष्ट कर रहे हो तो और क्या कर रहे हो ? तुममें तो इतना भी साहस नहीं, कि दो-चार आम ही तोड़ लाओ। मुन्नू ने ये आम तोड़े हैं तो घर जाने से पहले उसे दो-चार चूस लेने दो।’’
‘‘मैं दूसरों के वृक्षों से आम नहीं तोड़ा करता।’’ जयसिंह बोला, ‘‘मैं आम खरीदता हूँ।’’ और फिर वह बड़ी सिधाई दिखाते हुए बोला, ‘‘मैं तो केवल इसलिए कहता था कि उसे जाना चाहिए, क्योंकि उसकी चाची बड़ी चिड़चिड़ी है। वह हम सब को बुरा-भला कहेगी कि मुन्नू को क्यों रोक रखा। उसे अपने चाचा के साथ शहर जाना है न।’’
‘‘तो क्या यह बात सच है कि तुम शहर जा रहे हो ?’’ नन्हें विशम्भर ने पूछा । वह बड़ा जोशीला था।
‘‘हाँ, बस आज ही जा रहा हूँ।’’ मुन्नू ने जवाब दिया। उसके पेट में उथल-पुथल-सी हो रही थी।
‘‘किन्तु तुम तो अभी कुल चौदह वर्ष के ही हो। और स्कूल में भी पाँचवें दर्जें ही तक पहुँचे हो ?’’ विशम्भर ने ज़ोर से कहा।
‘‘मेरी चाची चाहती है कि मैं पैसा कमाना शुरू कर दूँ।’’ मुन्नू बोला, ‘‘मेरा चाचा कहता है कि अब मैं बड़ा हो गया हूँ। मुझे अपनी रोटी खुद कमानी चाहिए। शामपुर में मेरा चाचा जिस बैंक में काम करता है, वहाँ के एक बाबू के घर में उसने मेरे लिए नौकरी ढूँढ ली है।’’
‘‘शामपुर में रहना तो बड़ा ही सुखदायक होगा।’’ जयसिंह बोला। उसे अब मुन्नू से ईर्ष्या होने लगी थी, क्योंकि मुन्नू उस समय इस भाव से ताक रहा था, मानो उसमें कुछ महत्त्व आ गया हो। अब वह शहर में रहेगा-जहाँ खाने के लिए बढ़िया चीज़ें, पहनने के लिए अच्छे कपड़े ओर खेलने के लिए सुन्दर खिलौने मिलते हैं।
मुन्नू ने मुस्करा दिया। पर उसकी मुस्कराहट से प्रकट होता था, मानो वह कह रहा हो कि यदि इस गाँव में मेरा यह अन्तिम दिन न होता, तो तुम्हारे जबड़े पर ऐसा घूँसा जमाता कि फिर कभी तुम गाँव के बालकों के नेतृत्व की कल्पना तक न करते।’’ यद्यपि मुन्नू की आयु अभी इतनी नहीं हो पाई थी कि वह परिवार से सम्बन्ध रखने वाले भिन्न-भिन्न विषयों पर विचार कर सके, पर उसे अच्छी तरह मालूम था कि जयसिंह का पिता ही उसके सारे संकटों और दुर्भाग्य का कारण है।
उसने सुना था कि ज़मींदार ने उसके पिता की पाँच एकड़ भूमि अपने अधिकार में कर ली थी, क्योंकि वर्षों के अभाव के कारण पैदावार अच्छी नहीं हुई थी और लगान पर पहले से जो ब्याज़ चढ़ रहा था वह अदा नहीं हो सका था। उसे यह भी मालूम था कि उसका पिता बेबसी ओर निराशा की दशा में एड़ियाँ रगड़-रगड़कर चल बसा था और उसकी माँ को एक अल्पवयस्क देवर तथा एक गोद के बच्चे-समेत पैसे-पैसे को मोहताज छोड़ गया था। उसे यह भी याद था कि किस तरह उसकी माँ चक्की पीसा करती थी और उस चक्की के पाट कितने भारी और खुरदरे थे। लकड़ी का हथेड़ पकड़ कर वह उसे रात-दिन चलाती रहती थी; कभी दाहिने हाथ से, कभी बायें हाथ से। यह तसवीर उसके दिमाग़ में अच्छी तरह जम चुकी थी। इसके अतिरिक्त एक और तसवीर भी उसके दिमाग़ में थी। वह उस समय की थी जब उसने माँ को ज़मीन पर मरी हुई पड़ी देखा था। उस के चेहरे से एक उदास पागलपन-सा टपक रहा था। उसके मुँह पर एक अजब बेबसी का भाव था और इस तसवीर की बेबसी और उदासी की दुनिया ने मुन्नू के विचारों को ढँक लिया था।
‘‘तो फिर अब तुम कभी नहीं आओगे क्या ?’’ जयसिंह ने ज़रा ज़ोर देकर पूछा।
‘‘नहीं, कभी नहीं। मैं चाहता हूँ कि कभी वापस न आऊँ।’’ उसके हृदय में झूठ बोलने की एक कटु इच्छा हो रही थी। यद्यपि वह मन में अच्छी तरह अनुभव कर रहा था कि यदि सच बात कह दी जाए तो जयसिंह अधिक दुःखी होगा, क्योंकि वास्तव में वह शहर नहीं जाना चाहता था, यद्यपि उसकी चाची उसे सदा ही बुरा-भला कहती रहती थी, हर वक्त इधर-उधर दौड़ाया करती थी, काम लेती थी और जितना वह गाय-भैसों को मारता था, उससे अधिक वह उसे मारती थी।
कम-से-कम अभी तो वह नहीं ही जाना चाहता था।
इसमें सन्देह नहीं कि मुन्नू उन विचित्र और नई चीज़ों के सपने देखता रहता था, जिनके सम्बन्ध में गाँव के लोग शहरों से वापस आकर बातचीत किया करते थे-शहर के वे बाबू, लाला और साहब लोग, जो सात समु्न्द्र पार से आया करते थे, उनके वे रेशमी कपड़े, जो वे पहना करते थे और वे स्वादिष्ट भोजन, जो वे खाया करते थे। मुन्नू को विशेष रूप से वे मशीनें देखने का शौक़ था, जिनका वर्णन उसने चौथी कक्षा की विज्ञान की प्रारम्भिक पुस्तक में पढ़ा था। परन्तु उसका विचार तो यह था कि वह जब गाँव के स्कूल की सारी पढ़ाई समाप्त कर ले तब शहर जाए जिससे वह स्वयं उस तरह की मशीनें बनाना सीख सके।
अभी तो मुन्नू को अपने साथियों के साथ, गाँव के उन छोटे-छोटे बालकों के साथ, जो मुन्नू के हमजोली थे, बैठने में बड़ा आनन्द आता था। वे लोग जब वे जानवर चराते-चराते इधर-उधर से काफ़ी फल तोड़कर इकट्ठा कर लेते थे, तब पीतल की घनी सुगन्धित छाया में बैठकर उन्हें खाने में बड़ा आनन्द आता था।
किसी-न-किसी फल की ऋतु सदा ही रहा करती थी। दर्जनों पके-पके, पीले-पीले आम टपका करते और उन्हें आसानी से घास में छिपाया जा सकता था। गर्मियों में लाल और बैंगनी जामुन और लम्बे-लम्बे रसीले शहतूत तो इतने होते थे कि केले के कितने ही चौड़े-चौड़े पत्ते उनसे भर जाते। जाड़ों में गन्ने के खेत तो मानो बाँस की टट्टियाँ थीं, जिनमें घुसने पर भी ऊँघते हु्ए रखवालों को ज़रा-सा सन्देह तक नहीं हो सकता था।
और फिर खेल भी तो वह ख़ूब खेल सकता था-जैसे छिलौट। इसमें एक पेड़ की एक डाली पर से दूसरी डाली पर कूदना पड़ता था और मुन्नू इसमें बहुत प्रवीण था। बन्दर की तरह उछल कर वह किसी पेड़ के तने से लिपट जाता। तने पर चारों हाथ-पाँव के बल सरकता हुआ बड़ी डालों पर पहुँचता और उछलकर पतली डालियों में टपक जाता, जैसे नाच की कोई मुद्रा दिखा रहा हो और फिर वहाँ से जो छलाँग मारता तो सन्न से शून्य को पार कर दूसरे पेड़ पर पहुँचता !
वहाँ की ठण्डी हवा भी कितनी सुखदायक थी जिससे शरीर की थकावट फ़ौरन दूर हो जाती थी, शरीर की गर्मी भी शान्त हो जाती थी। वह बरफ़ में झली हुई हवा, जो उस समय भी वहाँ बैठे-बैठे उसे लग रही थी, जो कीकर के पेड़ों को हिला रही थी, टिड्डे झाड़ियों में फुदक रहे थे, दलदलों और गड्ढों में मेढक टर्र-टर्र कर रहे थे, चिड़िया गा रही थी, तितलियाँ जंगली फूलों पर नाचती फिर रही थीं, शहद की तलाश में मक्खियों की भनभनाहट फूलों पर सुनाई दे रही थी और अपार सौन्दर्य के इस वातावरण से मुन्नू के हृदय का स्पन्दन भी अपनी लय मिला रहा था। उसका मन चाहता था कि सारी मशीनें खिंच कर यही चली आएँ और उसे अपने आपको इस शान्त और निस्तब्ध नीलवर्ण जल के रेतीले किनारे से ज़बरदस्ती अलग न होना पड़े।–यह रेतीला किनारा, जहाँ वह खेला करता था ! किन्तु....
‘‘मुन्नू ! ओ मुन्नू ! मुन्नू हो !!’’ उसकी चाची की आवाज़ फिर गूँजी। मुन्नू की दृष्टि के सामने उसकी चाची की सूरत फिरने लगी। उसका वह सख़्त जबड़ा, उसकी वे आँखें, जिनके कोने सदा लाल रहा करते थे, नुकीली नाक, ओर पतले-पतले होंठ-और ये सब काले बालों की लटो से घिरे हुए मु्न्नू की आँखों के सामने आ गए।
वह उठ खड़ा हुआ।
सब लड़के उठ खड़े हुए, यहाँ तक कि जयसिंह भी उठे बिना न रह सका।
मुन्नू ने अपने जानवरों को आवाज़ दी। दूसरे लड़कों ने भी अपने-अपने ढोर इकट्ठे किए। बड़े-बड़े बालों वाली भैंसे, जिनकी कोखें भीतर को धँसी हुई थीं और कूल्हों की हड्डियाँ उभड़ रही थीं, पानी में से एक-एक कर के निकलने लगीं। पोखरों से कीचड़ उछालती, मुँह से झाग टपकाती हुई वे अपने छोटे-छोटे चरवाहों के आगे चलने लगीं। आज वे उन्हें प्रतिदिन की अपेक्षा कहीं अधिक तेज़ी से घर की ओर हाँक रहे थे, पर भैंसे उनकी गालियों और मार की परवाह किए बिना धीरे-धीरे चली जा रही थीं।
दो
‘‘चल बे ! जल्दी चल ! जल्दी नहीं चला जाता तुझसे सुअर के बच्चे !’’ इम्पीरियल बैंक के चपरासी दयाराम ने कड़ककर कहा। वह सुनहले काम का लाल कोट पहने, ढंग से बँधा हुआ सफ़ेद साफ़ा सिर पर जमाए, बड़ी शान से फ़ौजी क़दम उठाता चक्करदार पहाड़ी सड़क पर जा रहा था। यह सड़क उस अँगरेज़ी सरकार की बनावाई हुई थी, जिसका एक आदर्श अंग वह अपने आपको समझता था और इसी अकड़ में उसने अपने भतीजे मुन्नू पर क्रुद्ध होकर उसे मारने के लिए हाथ उठाया था।
दस मील ख़ूब तेज़ी से चलने के बाद मुन्नू के नंगे पाँव सूजकर दुखने लगे थे और वह उन्हें सहलाने के लिए ज़रा-सा रुक गया था। सूर्य भगवान् प्रचण्ड वेग से आकाश पर उदित थे और मुन्नू अपने मोटे सूती कुरते में पसीने से तर हो रहा था। यह कुरता भी वास्तव में उसके चाचा का ही था और मुन्नू के बदन पर तो वह ऐसा लगता था, जैसे उसे कोई गिलाफ उढ़ा दिया गया हो। बादामी रंग की रेत, जो नुक्कड़ों पर बैलगाड़ियों के पीछे उड़ती जा रही थी, उसकी नाक में घुसकर खुजली पैदा कर रही थी। उसका साँवला चेहरा तप कर लाल हो रहा था। भूरी-भूरी आँखों में थकान थी। उसे ऐसा लगता था, मानो उसका लचकीला बदन सूख गया हो और सारा ख़ून पसीना बनकर उड़ गया हो।
‘‘जल्दी चल; वरना मुझे आफ़िस को देर हो जाएगी।’’ दयाराम फिर पंचम स्वर में बोला। वास्तव में आफ़िस में देर हो जाने या जल्दी पहुँचने का तो प्रश्न ही नहीं था, क्योंकि आज उस चपरासी की छुट्टी थी। किन्तु वह अपने भतीजे और देहाती राहगीरों पर यह जता कर रोब जमाना चाहता था कि वह अँगरेज़ी सरकार के एक महत्त्वपूर्ण पद पर आसीन है।
मुन्नू ने अपने छाले पड़े हुए पैरों की ओर देखा और उसकी आँखें डबडबा आईं। उसे अपने-आप पर तरस आने लगा।
चाचा की डाँट के जवाब में उसने सिसकी भर कर कहा, ‘‘मेरे पाँव बहुत दुःख रहे हैं।’’
‘‘चल, चल।’’ दयाराम चिड़चिड़ा कर बोला।
उसका हृदय तो चाहता था कि ज़रा नरमी और प्यार से बोले, किन्तु वह अपने लम्बे और पतले शरीर को तान कर बोला, ‘‘चल, चल। अगले महीने मुझे तनख़्वाह मिलेगी तो जूते ले दूँगा।’’
मुन्नू ने कहा, ‘‘मुझसे नहीं चला जाता।’’ उसने एक गाड़ी के रुकने की चर्र-चूँ सुन ली थी। गाड़ी उनसे ज़रा आगे जाकर मोड़ पर रुक गई थी। यहाँ सड़क एकदम मुड़ गई थी और सात सौ फुट नीचे व्यास नदी लहरें मार रही थी।
‘‘इस गाड़ीवान से कहो न कि मुझे बैठा ले।’’
‘‘नहीं, नहीं, मुझे क्या वह मुफ्त बैठा लेगा ? पैसे माँगेगा, पैसे।’’ दयाराम ने इतने ज़ोर से कहा कि गाड़ीवान सुनले और फिर उन्हें अपने-आप मुफ्त बैठा ले। क्योंकि यह शानदार वर्दी पहनने के बाद एक गाड़ीवान से कोई अनुरोध या प्रार्थना करने में उसकी शान में बट्टा लगता था।
गाड़ीवान दयाराम का बरताव देखकर स्वयं ही मुँहफट तरीक़े से बोला, ‘‘बस, बस अपनी चपरासियत की शान रहने दो। बच्चे को यहाँ पीछे बैठा दो और आओ तुम भी बैठ जाओ। इस मोटे लाल ऊनी कोट में गर्मी के मारे तुम्हारा बुरा हाल हो रहा होगा।’’
‘‘बको मत जी ?’’ दयाराम बोला, ‘‘मैंने तुमसे बात ही कब की है ? जाओ अपने रास्ते, नहीं तो जेल में डलवा दूँगा। जानते भी हो, मैं सरकारी अफ़सर हूँ।’’
‘‘अच्छा तो फिर मज़े करो। और इस बेचारे बच्चे को भी नंगे पैर घसीटो ! जालिम कहीं का !’’ गाड़ीवान बोला और उसने गाड़ी आगे बढ़ा दी।
‘‘उठ बे हरामी ! तेरे कारण मेरी इतनी हेठी हुई। उठ, नहीं तो जान से मार डालूँगा।’’ दयाराम मुन्नू की ओर मुड़कर और दाँत पीस कर कहने लगा।
मुन्नू एकदम उठ खड़ा हुआ। उसे मालूम था कि चाचा मारने की धमकी देता है, तब सचमुच वह धमकी घूँसे बनकर बरसने लगती है। उसने अपनी बाँह से आँसू पोंछे और मन-ही-मन गालियाँ देता हुआ अपने चाचा के पीछे-पीछे चलने लगा।
बल खाई हुई सड़क अब नीचे जाकर बिल्कुल सीधी हो गई थी और विशालकाय उजाड़ पहाड़ियों की गोद से निकलकर नीचे के असीम विस्तार में विलीन होती जा रही थी।
यद्यपि मुन्नू का हृदय डर के मारे सिकुड़ता जा रहा था, दिमाग़ तरह-तरह के विचारों से फटा जा रहा था, किन्तु दो-चार सौ गज़ ही जाने के बाद उसे ऐसा लगा, मानो उसके पाँव अब सहज ही गर्मी को सहन कर सकते हैं। कभी वह नुकीले पत्थरों से बचने के लिए इधर-उधर कूदता, कभी अपने तलवों को ज़रा-सा आराम देने के लिए पंजों के बल चलने लगता। इतने में सुरंग आ गई और आधी मील का रास्ता अच्छी तरह कट गया। और फिर तो उसे सचमुच प्रसन्नता होने लगी, क्योंकि पहाड़ की तलहटी के पास लाल पत्थरों की मसजिदों के गुम्बद और मन्दिरों के कलश दिखाई दे रहे थे और उनके आसपास बहुत से ऊँचे-ऊँचे, सपाट छतों के मकान बेतरतीबी से बिखरे हुए दिखाई दे रहे थे। लक्ष्य तक पहुँचने की प्रसन्नता के कारण यात्रा का क्लेश वह बिल्कुल भूल गया।
अभी वह पहाड़ी से नीचे उतर ही रहा था कि सूर्यदेव ने पठार के ऊपर से निकलकर पूरे नगर को अपनी रक्तिम आभा से ढकना आरम्भ कर दिया। चमकदार रोशनी से प्रकाशमान होकर नगर के विभिन्न दृश्य अपनी पूरी शान से प्रकट होने लगे। मुन्नू की दृष्टि से क्षितिज तक फैले पहाड़ों का क्रम विलीन हो गया और वह अपने नए वातावरण से प्रभावित होकर अपने चारों ओर फैली हुई हर एक वस्तु को ध्यानपूर्वक देखने लगा।
भाँति-भाँति की गाड़ियों को देखकर तो वह मुँह खोले हैरान रह गया। कहीं दो पहियोंवाली बक्सनुमा बेंत की गाड़ियाँ, कहीं ताँगे कहीं चार पहियोंवाली फिटनें और लेंडो और सब से बढ़कर तो वे बड़े-बड़े रबड़ के पहियोंवाली फटफटिया जो बिना घोड़े के चौड़े-चौड़ी सड़कों पर दनदनाती हुई उसे कैसी अजीब लग रही थीं। और तो और सबसे बढ़ कर तमाशा तो यह था कि एक बड़ी-सी लोहे की गाड़ी, जिसमें रेगिस्तानी ऊँट के-से दो कूबड़ जुड़े थे, और जिसमें बहुत-शीशे की खिड़कियों वाले छोटे-छोटे कत्थई रंग के घर जुड़े थे, तेज़ी से दौड़ रही थी। उसमें से बहुत-सा बदबूदार धुआँ निकल रहा था और वह ऐसी चीख़ें मार रही थी कि कानों के पर्दे तक फट जाते थे। उसने ज़ोर से एक चीख़ मारी और मुन्नू का कलेजा बल्लियों उछलने लगा।
वह दौड़कर अपने चाचा के ज़रा पास हो लिया कि हृदय की धड़कन कम हो और पूछा, ‘‘यह कौन जानवर है ?’’
किसी वस्तु को जान लेने से मनुष्य को अपने-आप पर अधिक भरोसा हो जाता है, इसीलिए मुन्नू इस विचित्र प्रकार के जानवर के सम्बन्ध में जानना चाहता था।
‘‘यह रेलगाड़ी का अंजन है।’’ उसके चाचा ने ज़रा नरमी से जवाब दिया, क्योंकि वह अब ऐसी दुनिया में आ गया था, जहाँ अपने को हाकिम और मालिक के रूप में नहीं प्रकट कर सकता था, जैसा कि उसने पहाड़ पर किया था। यहाँ तो वह भी इम्मीरियल बैंक के अफ़सरों का नौकर था।
मुन्नू ने उस काले देव को फिर एक बार ध्यान से देखा। देव ने एक सीटी दी और शोर मचाता भकभक करता एक छोटे-से मकान के पास एक ख़ूब लम्बे-से चबूतरे से लगकर खड़ा हो गया। बहुत-से पुरुष और स्त्रियाँ बारीक मलमल, दूध की तरह सफ़ेद लट्ठे तथा तरह-तरह के रंगीन रेशम के कपड़े पहने हुए उसमें से उतरने लगे। काँगड़ा की पहाड़ी पर मुन्नू ने जीवन में इतने प्रकार के कपड़े न देखे थे और उसने मन-ही-मन सोचा, ‘‘वाह भई वाह ! कैसा अजीब, खूब है भई।’’ और फिर अपने चाचा की ओर देखकर बोला, ‘चाचा, ये लोग जो जानवर चराते होंगे, वे कहाँ हैं, और इनके खेत कहां हैं, जिनमें ये हल चलाते हैं ?’’
चपरासी दयाराम ने अपनी गर्दन ऊँची करके और जरा तनकर कहा, ‘‘इनके खेत और जानवर थोड़े ही हैं ! जानवर चराने और खेत जोतने का काम केवल गँवार करते हैं।’’
‘‘तो फिर इनको खाने को कहाँ से मिलता होगा चाचा ?’’ मुन्नू ने पूछा।
‘‘अरे इनके पास रुपया है, रुपया।’’ दयाराम ने शान से जवाब दिया। मेरे बैंक में उनके करोड़ो रुपये जमा हैं। ये लोग तो इस तरह रुपये कमाते हैं कि गेहूँ ख़रीदा और उसका मैदा बनाकर अँगरेज़ी सरकार के हाथ बेंच दिया। या रुई खरीदी, कपड़ा बनाया और फिर अधिक लाभ पर उसे बेच दिया। इनमें से कितने ही बाबू हैं, जो दफ़्तरों में काम करते हैं। ऐसे ही एक बाबू के यहाँ तुझे नौकरी करनी है।’’
‘‘कैसा विचित्र मालूम पड़ता है !’’ मुन्नू बोला और फिर पीछे-पीछे चलने लगा। उसका ध्यान नानबाइयों की दूकानों की तरफ गया, जहाँ बड़ी-बड़ी देगचियाँ खदबदा रही थीं और उनमें से ऐसी सुगन्ध आ रही थी, जैसी मुन्नू ने आज तक कभी न सूँघी थी। मिठाइयों की दूकानों में रसीली मिठाइयाँ नीचे से ऊपर तक थालों में सजा-सजा कर रक्खीं हुई थीं। बिसातियों की दूकानों पर रबर के गुब्बारे, नन्हीं-नन्हीं गुलाबी गुड़ियाँ और फूले-फूले खिलौने के ख़रगोश सजे हुए थे। एक दूकानदार ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगा रहा था, ‘‘ठण्डा मीठा बरफ़।’’ वह छोटी-छोटी कुल्फ़ियाँ टीन के साँचों से पत्तों पर उलट-उलट कर ग्राहकों को देता जा रहा था। सामने लकड़ी की बेंचों पर ग्राहक लाइन में बैठे थे।
दस मील ख़ूब तेज़ी से चलने के बाद मुन्नू के नंगे पाँव सूजकर दुखने लगे थे और वह उन्हें सहलाने के लिए ज़रा-सा रुक गया था। सूर्य भगवान् प्रचण्ड वेग से आकाश पर उदित थे और मुन्नू अपने मोटे सूती कुरते में पसीने से तर हो रहा था। यह कुरता भी वास्तव में उसके चाचा का ही था और मुन्नू के बदन पर तो वह ऐसा लगता था, जैसे उसे कोई गिलाफ उढ़ा दिया गया हो। बादामी रंग की रेत, जो नुक्कड़ों पर बैलगाड़ियों के पीछे उड़ती जा रही थी, उसकी नाक में घुसकर खुजली पैदा कर रही थी। उसका साँवला चेहरा तप कर लाल हो रहा था। भूरी-भूरी आँखों में थकान थी। उसे ऐसा लगता था, मानो उसका लचकीला बदन सूख गया हो और सारा ख़ून पसीना बनकर उड़ गया हो।
‘‘जल्दी चल; वरना मुझे आफ़िस को देर हो जाएगी।’’ दयाराम फिर पंचम स्वर में बोला। वास्तव में आफ़िस में देर हो जाने या जल्दी पहुँचने का तो प्रश्न ही नहीं था, क्योंकि आज उस चपरासी की छुट्टी थी। किन्तु वह अपने भतीजे और देहाती राहगीरों पर यह जता कर रोब जमाना चाहता था कि वह अँगरेज़ी सरकार के एक महत्त्वपूर्ण पद पर आसीन है।
मुन्नू ने अपने छाले पड़े हुए पैरों की ओर देखा और उसकी आँखें डबडबा आईं। उसे अपने-आप पर तरस आने लगा।
चाचा की डाँट के जवाब में उसने सिसकी भर कर कहा, ‘‘मेरे पाँव बहुत दुःख रहे हैं।’’
‘‘चल, चल।’’ दयाराम चिड़चिड़ा कर बोला।
उसका हृदय तो चाहता था कि ज़रा नरमी और प्यार से बोले, किन्तु वह अपने लम्बे और पतले शरीर को तान कर बोला, ‘‘चल, चल। अगले महीने मुझे तनख़्वाह मिलेगी तो जूते ले दूँगा।’’
मुन्नू ने कहा, ‘‘मुझसे नहीं चला जाता।’’ उसने एक गाड़ी के रुकने की चर्र-चूँ सुन ली थी। गाड़ी उनसे ज़रा आगे जाकर मोड़ पर रुक गई थी। यहाँ सड़क एकदम मुड़ गई थी और सात सौ फुट नीचे व्यास नदी लहरें मार रही थी।
‘‘इस गाड़ीवान से कहो न कि मुझे बैठा ले।’’
‘‘नहीं, नहीं, मुझे क्या वह मुफ्त बैठा लेगा ? पैसे माँगेगा, पैसे।’’ दयाराम ने इतने ज़ोर से कहा कि गाड़ीवान सुनले और फिर उन्हें अपने-आप मुफ्त बैठा ले। क्योंकि यह शानदार वर्दी पहनने के बाद एक गाड़ीवान से कोई अनुरोध या प्रार्थना करने में उसकी शान में बट्टा लगता था।
गाड़ीवान दयाराम का बरताव देखकर स्वयं ही मुँहफट तरीक़े से बोला, ‘‘बस, बस अपनी चपरासियत की शान रहने दो। बच्चे को यहाँ पीछे बैठा दो और आओ तुम भी बैठ जाओ। इस मोटे लाल ऊनी कोट में गर्मी के मारे तुम्हारा बुरा हाल हो रहा होगा।’’
‘‘बको मत जी ?’’ दयाराम बोला, ‘‘मैंने तुमसे बात ही कब की है ? जाओ अपने रास्ते, नहीं तो जेल में डलवा दूँगा। जानते भी हो, मैं सरकारी अफ़सर हूँ।’’
‘‘अच्छा तो फिर मज़े करो। और इस बेचारे बच्चे को भी नंगे पैर घसीटो ! जालिम कहीं का !’’ गाड़ीवान बोला और उसने गाड़ी आगे बढ़ा दी।
‘‘उठ बे हरामी ! तेरे कारण मेरी इतनी हेठी हुई। उठ, नहीं तो जान से मार डालूँगा।’’ दयाराम मुन्नू की ओर मुड़कर और दाँत पीस कर कहने लगा।
मुन्नू एकदम उठ खड़ा हुआ। उसे मालूम था कि चाचा मारने की धमकी देता है, तब सचमुच वह धमकी घूँसे बनकर बरसने लगती है। उसने अपनी बाँह से आँसू पोंछे और मन-ही-मन गालियाँ देता हुआ अपने चाचा के पीछे-पीछे चलने लगा।
बल खाई हुई सड़क अब नीचे जाकर बिल्कुल सीधी हो गई थी और विशालकाय उजाड़ पहाड़ियों की गोद से निकलकर नीचे के असीम विस्तार में विलीन होती जा रही थी।
यद्यपि मुन्नू का हृदय डर के मारे सिकुड़ता जा रहा था, दिमाग़ तरह-तरह के विचारों से फटा जा रहा था, किन्तु दो-चार सौ गज़ ही जाने के बाद उसे ऐसा लगा, मानो उसके पाँव अब सहज ही गर्मी को सहन कर सकते हैं। कभी वह नुकीले पत्थरों से बचने के लिए इधर-उधर कूदता, कभी अपने तलवों को ज़रा-सा आराम देने के लिए पंजों के बल चलने लगता। इतने में सुरंग आ गई और आधी मील का रास्ता अच्छी तरह कट गया। और फिर तो उसे सचमुच प्रसन्नता होने लगी, क्योंकि पहाड़ की तलहटी के पास लाल पत्थरों की मसजिदों के गुम्बद और मन्दिरों के कलश दिखाई दे रहे थे और उनके आसपास बहुत से ऊँचे-ऊँचे, सपाट छतों के मकान बेतरतीबी से बिखरे हुए दिखाई दे रहे थे। लक्ष्य तक पहुँचने की प्रसन्नता के कारण यात्रा का क्लेश वह बिल्कुल भूल गया।
अभी वह पहाड़ी से नीचे उतर ही रहा था कि सूर्यदेव ने पठार के ऊपर से निकलकर पूरे नगर को अपनी रक्तिम आभा से ढकना आरम्भ कर दिया। चमकदार रोशनी से प्रकाशमान होकर नगर के विभिन्न दृश्य अपनी पूरी शान से प्रकट होने लगे। मुन्नू की दृष्टि से क्षितिज तक फैले पहाड़ों का क्रम विलीन हो गया और वह अपने नए वातावरण से प्रभावित होकर अपने चारों ओर फैली हुई हर एक वस्तु को ध्यानपूर्वक देखने लगा।
भाँति-भाँति की गाड़ियों को देखकर तो वह मुँह खोले हैरान रह गया। कहीं दो पहियोंवाली बक्सनुमा बेंत की गाड़ियाँ, कहीं ताँगे कहीं चार पहियोंवाली फिटनें और लेंडो और सब से बढ़कर तो वे बड़े-बड़े रबड़ के पहियोंवाली फटफटिया जो बिना घोड़े के चौड़े-चौड़ी सड़कों पर दनदनाती हुई उसे कैसी अजीब लग रही थीं। और तो और सबसे बढ़ कर तमाशा तो यह था कि एक बड़ी-सी लोहे की गाड़ी, जिसमें रेगिस्तानी ऊँट के-से दो कूबड़ जुड़े थे, और जिसमें बहुत-शीशे की खिड़कियों वाले छोटे-छोटे कत्थई रंग के घर जुड़े थे, तेज़ी से दौड़ रही थी। उसमें से बहुत-सा बदबूदार धुआँ निकल रहा था और वह ऐसी चीख़ें मार रही थी कि कानों के पर्दे तक फट जाते थे। उसने ज़ोर से एक चीख़ मारी और मुन्नू का कलेजा बल्लियों उछलने लगा।
वह दौड़कर अपने चाचा के ज़रा पास हो लिया कि हृदय की धड़कन कम हो और पूछा, ‘‘यह कौन जानवर है ?’’
किसी वस्तु को जान लेने से मनुष्य को अपने-आप पर अधिक भरोसा हो जाता है, इसीलिए मुन्नू इस विचित्र प्रकार के जानवर के सम्बन्ध में जानना चाहता था।
‘‘यह रेलगाड़ी का अंजन है।’’ उसके चाचा ने ज़रा नरमी से जवाब दिया, क्योंकि वह अब ऐसी दुनिया में आ गया था, जहाँ अपने को हाकिम और मालिक के रूप में नहीं प्रकट कर सकता था, जैसा कि उसने पहाड़ पर किया था। यहाँ तो वह भी इम्मीरियल बैंक के अफ़सरों का नौकर था।
मुन्नू ने उस काले देव को फिर एक बार ध्यान से देखा। देव ने एक सीटी दी और शोर मचाता भकभक करता एक छोटे-से मकान के पास एक ख़ूब लम्बे-से चबूतरे से लगकर खड़ा हो गया। बहुत-से पुरुष और स्त्रियाँ बारीक मलमल, दूध की तरह सफ़ेद लट्ठे तथा तरह-तरह के रंगीन रेशम के कपड़े पहने हुए उसमें से उतरने लगे। काँगड़ा की पहाड़ी पर मुन्नू ने जीवन में इतने प्रकार के कपड़े न देखे थे और उसने मन-ही-मन सोचा, ‘‘वाह भई वाह ! कैसा अजीब, खूब है भई।’’ और फिर अपने चाचा की ओर देखकर बोला, ‘चाचा, ये लोग जो जानवर चराते होंगे, वे कहाँ हैं, और इनके खेत कहां हैं, जिनमें ये हल चलाते हैं ?’’
चपरासी दयाराम ने अपनी गर्दन ऊँची करके और जरा तनकर कहा, ‘‘इनके खेत और जानवर थोड़े ही हैं ! जानवर चराने और खेत जोतने का काम केवल गँवार करते हैं।’’
‘‘तो फिर इनको खाने को कहाँ से मिलता होगा चाचा ?’’ मुन्नू ने पूछा।
‘‘अरे इनके पास रुपया है, रुपया।’’ दयाराम ने शान से जवाब दिया। मेरे बैंक में उनके करोड़ो रुपये जमा हैं। ये लोग तो इस तरह रुपये कमाते हैं कि गेहूँ ख़रीदा और उसका मैदा बनाकर अँगरेज़ी सरकार के हाथ बेंच दिया। या रुई खरीदी, कपड़ा बनाया और फिर अधिक लाभ पर उसे बेच दिया। इनमें से कितने ही बाबू हैं, जो दफ़्तरों में काम करते हैं। ऐसे ही एक बाबू के यहाँ तुझे नौकरी करनी है।’’
‘‘कैसा विचित्र मालूम पड़ता है !’’ मुन्नू बोला और फिर पीछे-पीछे चलने लगा। उसका ध्यान नानबाइयों की दूकानों की तरफ गया, जहाँ बड़ी-बड़ी देगचियाँ खदबदा रही थीं और उनमें से ऐसी सुगन्ध आ रही थी, जैसी मुन्नू ने आज तक कभी न सूँघी थी। मिठाइयों की दूकानों में रसीली मिठाइयाँ नीचे से ऊपर तक थालों में सजा-सजा कर रक्खीं हुई थीं। बिसातियों की दूकानों पर रबर के गुब्बारे, नन्हीं-नन्हीं गुलाबी गुड़ियाँ और फूले-फूले खिलौने के ख़रगोश सजे हुए थे। एक दूकानदार ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगा रहा था, ‘‘ठण्डा मीठा बरफ़।’’ वह छोटी-छोटी कुल्फ़ियाँ टीन के साँचों से पत्तों पर उलट-उलट कर ग्राहकों को देता जा रहा था। सामने लकड़ी की बेंचों पर ग्राहक लाइन में बैठे थे।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book