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कविता और शुद्ध कविता

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6834
आईएसबीएन :978-81-8031-325

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प्रस्तुत पुस्तक में निबन्धों का संग्रह किया गया है।

Kavita Aur Shuddh Kavita - A Hindi Book - by Ramdhari Singh Dinkar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कविता और शुद्ध कविता राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के साहित्यिक निबन्धों का ही संग्रह नहीं है बल्कि इसके सभी निबन्ध एक ही ग्रन्थ के विभिन्न अध्याय हैं और वे विभिन्न दिशाओं से एक ही विषय पर प्रकाश डालते हैं।
पुस्तक हमें बताती है कि कविता की चर्चा केवल कविता की चर्चा नहीं है, वह समस्त जीवन की चर्चा है। ईश्वर, कविता और क्रान्ति-इन्हें जीवन के समुच्चय में प्रवेश किए बिना नहीं समझा जा सकता। कविता अगर यह व्रत ले ले कि वह केवल शुद्ध होकर जिएगी, तो उस व्रत का प्रभाव कविता के अर्थ पर भी पड़ेगा, कवि की सामाजिक स्थिति पर भी पड़ेगा, साहित्य के प्रयोजन पर भी पड़ेगा।

नई कविता का आन्दोलन यूरोप में लगभग सौ वर्षों से चल रहा है। आश्चर्य की बात यह है कि वह अब भी पुराना नहीं पड़ा है। उसके भीतर से बराबर नए आयाम प्रकट होते जा रहे हैं, बराबर नई चिनगारियाँ छिटकती जा रही हैं। रोमांटिक युग तक कविता किसी निश्चित चौखटे में जड़ी देखी जा सकती थी; किन्तु उसके बाद से वह दिनों-दिन हर प्रकार के चौखटे से घृणा करती आई है। आज अन्तर्राष्ट्रीय काव्य जहाँ खड़ा है, वहाँ केवल आसमान ही आसमान है, कहीं कोई क्षितिज नहीं देता। इसीलिए पुराने आलोचकों को नई कविता को छूने में अप्रियता और कुछ संकोच का भी अनुभव होता है।
नए कलेवर में प्रस्तुत यह पुस्तक सभी कविता-प्रेमियों के लिए सुखद अनुभव लेकर आएगी, ऐसा हमारा विश्वास है।

भूमिका

यह पुस्तक फुटकर साहित्यिक निबन्धों का संग्रह नहीं है। इसके सभी निबन्ध एक ही ग्रन्थ के विभिन्न अध्याय हैं और वे विभिन्न दिशाओं से एक ही विषय पर प्रकाश डालते हैं।
कविता की चर्चा केवल कविता की चर्चा नहीं रहती, वह समस्त जीवन की चर्चा बन जाती है। ईश्वर, कविता और क्रान्ति, ये जीवन के समुच्चय में प्रवेश किए बिना समझे नहीं जा सकते।
नई कविता का आन्दोलन यूरोप में लगभग सौ वर्षों से चल रहा है। आश्चर्य की बात यह है कि वह अब भी पुराना नहीं पड़ा है। उसके भीतर से बराबर नए आयाम प्रकट होते जा रहे हैं, बराबर नई चिनगारियाँ छिटकती जा रही हैं। रोमांटिक युग तक कविता किसी निश्चित चौखटे में जड़ी देखी जा सकती थी; किन्तु उसके बाद से वह दिनों-दिन हर प्रकार के चौखटे से घृणा करती आई है। आज अन्तर्राष्ट्रीय काव्य जहाँ खड़ा है, वहाँ केवल आसमान ही आसमान है, कहीं कोई क्षितिज नहीं देता। इसीलिए पुराने आलोचकों को नई कविता को छूने में अप्रियता और कुछ संकोच का भी अनुभव होता है।
वर्तमान पुस्तक इसी महान् आन्दोलन के समझने का विनम्र प्रयास है।
नई कविता का प्रवर्तन पिछली शताब्दी में फ्रांस में हुआ था। अंग्रेजी में, क्रमबद्ध रूप में, यह आन्दोलन प्रथम विश्वयुद्ध के आस-पास प्रारम्भ हुआ और भारतवर्ष में यह द्वितीय विश्वयुद्ध के आसपास पहुँचा है।

इस विलम्ब का मुख्य कारण यह रहा कि यूरोप की बौद्धिक विरासत तक पहुँचने का हमारा माध्यम अंग्रेजी भाषा थी और खुद अंग्रेजी भाषा में आन्दोलन काफी देर से पहुँचा। अंग्रेजी में बोदलेयर, रेम्बू और मलार्मे के अनुवाद प्रथम विश्वयु्द्ध के काफी बाद प्रकाशित होने लगे। जब तक अंग्रेजी के कवियों की दृष्टि नवीन नहीं हुई, भारत के लेखकों और कवियों को यह पता नहीं चला कि यूरोप में काव्य के क्षेत्र में बड़ी भारी क्रान्ति हो गई है। हम लोगों की पीढ़ी को रोमांटिक युग के साहित्य पर पली थी और कॉलेजों में हम आखिरी छींटे विक्टोरिया-युगीन काव्य के पड़े थे। यूरोपीय क्रान्ति के सन्देश हमें सीधे यूरोप से नहीं मिले। इस क्रान्ति की शिक्षा भी हमें अंग्रेजी के कवियों, विशेषत: इलियट और एजरा पौंड के द्वारा प्राप्त हुई।
यूरोप की साहित्यिक क्रान्ति इलियट में आकर समाप्त नहीं होती। इलियट पीछे छूट गए हैं और क्रान्ति आज भी आगे जा रही है। यह बात और है कि जिनका निर्माण रोमांटिक कविताओं के वातावरण में हुआ था, वे लोग रिल्के और इलियट के पास तो प्रेम से बैठते हैं, मगर उनके बाद वाली धारा को वे सहजता से स्वीकार नहीं कर सकते।
फिर भी, नया काव्य हमारी शान्ति भंग करने में समर्थ है, वह हमारी आत्मा के सरोवर में हिलकोर उठा सकता है। आत्मा के निस्पन्द सरोवर में जब हल्की-सी भी हिलकोर उठता है, आदमी बड़े ही सूक्ष्म आनन्द का अनुभव करता है। ऐसा आनन्द मैंने देश और विदेश के कितने ही नए कवियों से पाया है और मन-ही-मन मैं उन सबका कृतज्ञ रहा हूँ।

नई कविता हमेशा शुद्ध कविता नहीं होती, न सभी श्रेष्ठ काव्य शुद्ध काव्य के उदाहरण होते हैं। फिर भी, मुझे यही दिखाई पड़ा कि शुद्धता को लक्ष्य मानकर चलने से काव्य का नया आन्दोलन समझ में कुछ ज्यादा आता है। इसीलिए मैंने जहाँ-तहाँ से सामग्रियाँ बटोरकर शुद्धतावादी आन्दोलन का इतिहास खड़ा किया है और कविता की अनेक समस्याओं पर उसी दृष्टिकोण से विचार किया है। कविता लिखने की बनिस्बत कविता के बारे में लिखना कहीं मुश्किल काम है। उस पर भी कविता के लिए आन्दोलन की व्याप्तियाँ इतनी पिच्छल; दूरगामी और दुरूह हैं कि उन्हें एक पुस्तक के भीतर समेटने का काम असम्भव पाया गया है। अतएव, यह पुस्तक भी विद्वानों को अधूरी प्रतीत हो, तो कोई अचरज की बात नहीं होगी।
कविता अगर यह व्रत ले ले कि वह केवल शुद्ध होकर जिएगी, तो उस व्रत का प्रभाव कविता के अर्थ पर भी पड़ेगा, कवि की सामाजिक स्थिति पर भी पड़ेगा, साहित्य के प्रयोजन पर भी पड़ेगा। ऐसे जो भी प्रश्न मुझे सूझ सके, उनका विवेचन, अपने जानते, मैंने स्पष्टता से किया है। अप्रीतिकर बात यह है कि दो-चार तर्को का उपयोग कई प्रसंगों में मुझे बार-बार करना पड़ा है। आशा है, पाठकों को यह बात उतनी नहीं अखरेगी, जितनी मुझे आशंका है।
हिन्दी के जो लेखक, कवि और पाठक अंग्रेजी अथवा किसी अन्य विदेशी भाषा के द्वारा पाश्चात्य साहित्य के सीधे सम्पर्क में नहीं हैं, इस पुस्तक का उद्देश्य विशेषत: उन्हीं के साथ वार्तालाप करना है।

8 सितम्बर, 1966 ई०
रामधारी सिंह ‘दिनकर’

कविता और शुद्ध कविता


जिसे हम शुद्ध कविता कहते हैं, वह साहित्य की कोई सर्वथा नवीन विधा नहीं है। जब से मनुष्य ने काव्यकला का आविष्कार किया, शुद्ध कविता की रचना वह तभी से करता आ रहा है। किन्तु, पहले उसे यह पता नहीं था कि जो कुछ वह लिखता है, उसमें दो प्रकार की कविताएँ होती हैं। एक वे, जिनका उद्देश्य केवल आनन्द-दान होता है; और दूसरी वे, जिनमें आनन्द के साथ कुछ ज्ञान भी रहता है, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कुछ उपदेश भी रहते हैं तथा, दूर पर कहीं, किसी कर्तव्य की प्रेरणा भी रहती है। शुद्ध कविता को अब शुद्ध कविता कहने का रिवाज है किन्तु जो, कविताएँ परिभाषा के अनुसार ठीक-ठीक शुद्ध नहीं हैं, उन्हें क्या कहा जाना चाहिए ? उनका एक ढीला-ढाला सामान्य नाम सोद्देश्य काव्य चलता है।
जब कविता का आविष्कार हुआ था, विद्या का विभाजन शाखाओं में नहीं हो पाया था न आदमी को यही मालूम था कि ज्ञान और भाव के बीच भी भेद है। किन्तु, कुछ समय बीतने पर साहित्य-शास्त्र के आचार्यों का आविर्भाव हुआ और उन्होंने यह अनुभव किया कि कविता का काम ज्ञान का कथन नहीं, केवल भावों का आख्यान है। इसलिए उन्होंने भावों की छानबीन की, उनका नौ जातियों में वर्गीकरण किया (जो साहित्य के नौ मूल भावों के रूप में प्रसिद्ध हैं) और कितने ही ऐसे क्षणस्थायी भावों को भी स्वीकार किया, जो साहित्य के संचारी भाव कहलाते हैं।

यदि आचार्यों का बस चलता तो साहित्य में केवल भाव-ही-भाव होते, उसमें उपदेश अथवा ज्ञान की बातें कभी आती ही नहीं। किन्तु, यह सम्भव नहीं हुआ। कुछ कवि तो मुख्यत: भावों तक ही सीमित रहे (जैसे हाल, गोवर्धन, अमरुक, जयदेव, बिहारीलाल, ग़ालिब आदि) किन्तु, बाकी कवियों के भावों के साथ ज्ञान को भी मिला दिया और आचार्यों के बनाए हुए नियमों के विरुद्ध वे ही अधिक शक्तिशाली भी निकले। फिर आचार्यों ने उनकी महिमा को भी स्वीकार किया और साहित्य में एक मान्यता चल पड़ी कि कविता का प्रयोजन सद्य: आनन्द-दान भी है और वह उपदेश भी देती है।


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