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रश्मिमाला

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :311
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6848
आईएसबीएन :978-81-8031-337

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प्रस्तुत पुस्तक में श्रेष्ठ कविताओ, क्षणिकाओं और सूक्तियों का संकलन किया गया है।

Rashmimala - A Hindi Book - by Ramdhari Singh Dinkar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रश्मिमाला राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की श्रेष्ठ कविताओं, क्षणिकाओं और सूक्तियों का संकलन है।
इस पुस्तक में महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण के प्रण-भंग के चित्रण से लेकर अपने राष्ट्र, समाज तथा मानव-कल्याण-कामना की मंगल-भावना के दर्शन होते हैं। राष्ट्रकवि का प्रखर चिन्तन उनकी विचारोत्तेजक, मार्गदर्शक सूक्तियों में मिलता है तथा क्षणिकाओं के रूप में महाकवि की दार्शनिकता की झाँकी भी हमें मिलती है, जैसे-

जो बहुत बोलता हो,
उसके साथ कम बोलो।
जो हमेशा चुप रहे।
उसके सामने हृदय मत खोलो।

दिनकर जी की श्रेष्ठ कविताओं, क्षणिकाओं और सूक्तियों से सजी-सँवरी सरल, सहज भाषा-शैली में यह कृति हिन्दी काव्य-साहित्य की अमूल्य निधि है।

भूमिका

मेरी पहली कविता सन् 1924 ई. में जबलपुर से प्रकाशित होनेवाले पाक्षिक पत्र ‘छात्र सहोदर’ में छपी थी जिसके सम्पादक श्री नरसिंह दास थे। जब ‘छात्र सहोदर’ मासिक था, उसका सम्पादन श्री रामेश्वर शुक्ल अंचल के पिता पंडित मातादीन शुक्ल किया करते थे। उसके बाद मेरी बहुत-सी कविताएँ कलकत्ते से निकलने वाले साप्ताहिक पत्र ‘सेनापति’ और ‘विश्वमित्र’ में तथा मासिक पत्र ‘नारायण’ और ‘सरोज’ में छपीं। पटना से निकलने वाले पत्र ‘देश’ और ‘महावीर’ में भी मेरी आरम्भिक रचनाएँ छपी थीं।

गुजरात में बारदोली का सत्याग्रह-संग्राम सरदार वल्लभ भाई पटेल ने चलाया था। जब इस संग्राम में जीत किसानों की हुई मैंने उससे प्रेरणा लेकर दस-बारह गीत लिखे थे,  जिनका संग्रह ‘बारदोली-विजय’ के नाम से सन् 1928 ई० में निकला था। खेद की बात है कि इस पुस्तिका की एक भी प्रति मेरे पास नहीं है।
तब मैंने ‘जयद्रथ-वध’ के अनुकरण पर एक छोटा-सा खण्डकाव्य सन् 1929 ई० में लिखा, जो ‘प्रण-भंग’ नाम से उसी वर्ष प्रकाशित भी हो गया। संयोगवश इस पुस्तक पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की दृष्टि पड़ी और उन्होंने उसका उल्लेख अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में कर दिया। शायद इसी कारण मेरे पाठक इस पुस्तक के बारे में जिज्ञासु हो उठे और उन्होंने बार-बार मुझे पूछा है कि यह पुस्तक कहाँ मिलेगी। इस जिज्ञासा का आदर करने के लिए ही यह उचित जान पड़ा कि ‘प्रण-भंग’ का नया संस्करण निकाल दिया जाये।

‘प्रण-भंग’ के प्रकाशन की बात निश्चित होते ही मन में यह विचार आया कि मेरी जो अन्य पचास-साठ कविताएँ अप्रकाशित अथवा असंगृहीत पड़ी हुई हैं, उनका भी उद्धार ‘प्रण-भंग’ के साथ ही क्यों नहीं कर दिया जाये।
‘प्रण-भंग’ के प्रथम प्रकाशन के बाद मैंने अपनी कविताओं का एक संग्रह ‘रश्मिमाला’ नाम से निकालना चाहा था; किन्तु अच्छा हुआ कि उसके प्रकाशन में बाधा पड़ गयी। परिणाम यह हुआ कि सन् 1935 ई० में जब ‘रेणुका’ प्रकाशित होने लगी, ‘रश्मिमाला’ की केवल तीन या चार कविताएँ ही उसमें जा सकीं। जो कविताएँ उस समय रोक ली गयी थीं, वे अब वर्तमान संग्रह में जा रही हैं। जिन्हें ‘रश्मिमाला’ की पांडुलिपि देखना या उस पर काम करना हो, वे उसे भारत कला भवन, काशी के संग्रहालय में देख सकते हैं।

मैं वर्तमान संग्रह को अपनी प्रारम्भिक रचनाओं का संग्रह बनाना चाहता था और इसका मुख्य रूप वही है भी। किन्तु पुरानी बहियों को उलटते-पलटते समय कुछ कविताएँ और मिल गयीं, जिन्हें प्रारम्भिक रचनाएँ तो नहीं कहा सकता; किन्तु जो उसी न्याय से प्रकाश में आने के योग्य हैं, जिस न्याय से कवि की प्रारम्भिक रचनाएँ प्रकाशित की जाती हैं।
कवि अक्सर रेंगता-रेंगता अपनी सही शैली पर पहुँचता है। प्रारम्भिक रचनाओं का ऐतिहासिक महत्त्व भी यही है कि उनमें कवि के रंगने की रेखाएँ दिखायी देती हैं। सुधा, माधुरी और मतवाला में मैंने प्रसाद जी और निराला जी के आरम्भिक प्रयास के प्रमाण देखे हैं। मैथिलीशरण जी के रेंगने के प्रमाण तो सरस्वती की फाइलों में ही मौजूद हैं। केवल पन्त जी के बारे में मैं यह कह सकता हूँ कि उनके रेंगने के निशान मुझे अब तक नहीं मिले हैं। मेरी कुछ ऐसी ही धारणा महादेवी जी के बारे में भी है।

‘प्रण-भंग’ के बारे में जो अनेक पाठक मुझे वर्षों से पत्र लिखते रहे थे, आशा है, वे उसे पढ़े लेंगे। किन्तु पढ़ लेने पर उनका केवल कौतूहल ही शान्त होगा।
इस पुस्तक के प्रकाशन का बहाना तो प्रारम्भिक रचनाएँ ही बनीं, किन्तु प्रवेश इसमें अनेक ऐसी रचनाओं का भी हो गया जिनकी रचना मैंने इधर हाल में की है। पुस्तक के अन्त में ‘क्षणिकाएँ’ नाम से जो अट्ठाईस कविताएँ संगृहीत हैं, उनमें ज्यादा तो ऐसी ही हैं, जिनका रचनाकाल 1969-70 ई० है। अतएव ‘रश्मिलोक’ के समान यह संग्रह रत्नों को काल के करतल पर रखता है। वराटिकाओं को वह रास्ते में ही छोड़ देता है। मैंने इस बिखरी वराटिकाओं की भी एक मन्जूषा बना दी, यह धृष्टता हो सकती है; किन्तु साहित्य के इतिहास की इससे थोड़ी सेवा हो जाना भी संभव है।

नयी दिल्ली
-रामधारी सिंह दिनकर
1-4-1974

प्रण-भंग

पूर्वाभास

[1]

विश्व-विभव की अमर वेलि पर
फूलों-सा खिलना तेरा।
शक्ति-यान पर चढ़कर वह
उन्नति-रवि से मिलना तेरा।
भारत ! क्रूर समय की मारों
से न जगत सकता है भूल।
अब भी उस सौरभ से सुरभित
हैं कालिन्दी के कल-कूल।

[2]


हाय ! विभव के उस पद में
नियति-भीषिका की मुसकान
जान न सकी भोग में भूली-
सी तेरी प्यारी सन्तान।
सुन न सका कोई भी उसका
छिपा हुआ वह ध्वंसक राग-
‘‘हरे-भरे, डहडहे विपिन में
शीघ्र लगाऊँगी मैं आग।’’


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