लेख-निबंध >> व्यक्तिगत निबंध और डायरी व्यक्तिगत निबंध और डायरीरामधारी सिंह दिनकर
|
8 पाठकों को प्रिय 39 पाठक हैं |
प्रस्तुत पुस्तक में संस्मरण और जीवन-प्रसंगो, विचारोत्तेजक निबन्धों का संग्रह किया गया है
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
व्यक्तिगत निबन्ध और डायरी में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के
संस्मरणों को संगृहीत किया गया है।
इस पुस्तक में दिनकर जी के वैचारिक निबन्धों के साथ-साथ नियमित रूप से लिखी जानेवाली उसकी डायरी भी है उसके साथ-साथ अनियमित रूप से लिखे जानेवाले जर्नल भी इसमें शामिल हैं जिसमें विचार, भावनाएँ, सम-सामयिक टिप्पणियाँ और वैयक्तिक बातों का लेखा-जोखा है।
यह पुस्तक युवा-पीढ़ी के लिए युगदृष्टा साहित्यकार का एक उद्बोधन है। उनके जीवन-प्रसंगों तथा निबंधों की ओजस्विता सभी के लिए प्रेरणा का पुंज है।
इस पुस्तक में दिनकर जी के वैचारिक निबन्धों के साथ-साथ नियमित रूप से लिखी जानेवाली उसकी डायरी भी है उसके साथ-साथ अनियमित रूप से लिखे जानेवाले जर्नल भी इसमें शामिल हैं जिसमें विचार, भावनाएँ, सम-सामयिक टिप्पणियाँ और वैयक्तिक बातों का लेखा-जोखा है।
यह पुस्तक युवा-पीढ़ी के लिए युगदृष्टा साहित्यकार का एक उद्बोधन है। उनके जीवन-प्रसंगों तथा निबंधों की ओजस्विता सभी के लिए प्रेरणा का पुंज है।
प्राक्कथन
राष्ट्रकवि स्वर्गीय रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का यह
शताब्दी वर्ष
है। उन्होंने अपनी वसीयत के द्वारा तैंतीस पुस्तकों का प्रकाशनाधिकार मुझे
दिया था। ये पुस्तकें अब ‘लोकभारती प्रकाशन’ से
प्रकाशित हो
रही हैं।
इसके पूर्व जो प्रकाशक पुस्तकें प्रकाशित कर रहे थे, उनसे मैंने प्रकाशनाधिकार वापस ले लिया है।
वर्तमान प्रकाशक श्री अशोक महेश्वरी चाहते थे कि पुस्तकें कुछ नए आकार में प्रकाशित की जाएँ तथा कुछ पुस्तकों को मिलाकर एक बड़े आकार में सजाया सँवारा जाए। इसमें सर्वश्री डॉ० नन्दकिशोर ‘नवल’ ने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आशा है पुस्तकों की इस नई व्यवस्था का हिन्दी साहित्य में स्वागत होगा।
‘दिनकर समग्र’ भी प्रकाशनाधीन है, इन पुस्तकों का नए जिल्द में आना उसकी पृष्ठभूमि के तौर पर देखा जा सकता है।
आज जब इन पुस्तकों का नवीन संस्करण प्रकाशित हो रहा है-मुझे शिद्दत से डॉ० लक्ष्मीमल्ल सिंघवी स्मरण आ रहे हैं।
इसके पूर्व जो प्रकाशक पुस्तकें प्रकाशित कर रहे थे, उनसे मैंने प्रकाशनाधिकार वापस ले लिया है।
वर्तमान प्रकाशक श्री अशोक महेश्वरी चाहते थे कि पुस्तकें कुछ नए आकार में प्रकाशित की जाएँ तथा कुछ पुस्तकों को मिलाकर एक बड़े आकार में सजाया सँवारा जाए। इसमें सर्वश्री डॉ० नन्दकिशोर ‘नवल’ ने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आशा है पुस्तकों की इस नई व्यवस्था का हिन्दी साहित्य में स्वागत होगा।
‘दिनकर समग्र’ भी प्रकाशनाधीन है, इन पुस्तकों का नए जिल्द में आना उसकी पृष्ठभूमि के तौर पर देखा जा सकता है।
आज जब इन पुस्तकों का नवीन संस्करण प्रकाशित हो रहा है-मुझे शिद्दत से डॉ० लक्ष्मीमल्ल सिंघवी स्मरण आ रहे हैं।
18-08-2008
-अरविन्द कुमार सिंह
प्रकाशकीय
एक नई योजना के अन्तर्गत राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह दिनकर की वे
पुस्तकें, जिनका स्वामित्व उनके पौत्र श्री अरविन्द कुमार सिंह के पास है,
नए ढंग से प्रकाशित की जा रही हैं। दिनकरजी ने कविता के साथ-साथ
गद्य-साहित्य की भी प्रचुर मात्रा में रचना की है। स्वभावत: वे पुस्तकें
गद्य की भी हैं और पद्य की भी। गद्य की पुस्तकों में से दो
पुस्तकें-‘‘शुद्ध कविता की खोज’ और
‘चेतना की
शिखा’ को यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है। सिर्फ उनके नाम में
कारणवश परिवर्तन किया गया है। ‘शुद्ध कविता की खोज’
का नाम इस
पुस्तक के पहले निबन्ध के आधार पर रखा गया है-‘कविता और शुद्ध
कविता’ और ‘चेतना की शिखा’ का नाम उसके
पहले निबन्ध के
आधार पर-‘श्री अरविन्द : मेरी दृष्टि में’। हमारा
खयाल है कि
इस नाम परिवर्तन से पुस्तक की विषय-वस्तु का परिचय प्राप्त करने में अधिक
स्पष्टता आ जाती है।
‘पंडित नेहरू और अन्य महापुरुष’ नामक पुस्तक में भी दिनकरजी की ‘लोकदेव नेहरू’ और ‘हे राम’ नामक दो पुस्तकें संकलित हैं। दूसरी पुस्तक में तीन महापुरुषों- विवेकानन्द, रमण और गांधी-पर दिनकरजी के तीन रेडियो-रूपक संगृहीत हैं, लेकिन उनकी आत्मा निबन्ध की है। कारण यह है कि उनमें उक्त महापुरुषों के विचार-दर्शन से ही श्रोताओं और पाठकों को परिचित कराने का प्रयास किया गया है। इसीलिए इन्हें साथ रखा गया है। ‘हे राम’ नामक पुस्तक संयुक्त करने के कारण ही संकलन के लिए नया नाम देना पड़ा, लेकिन पंडित नेहरू की प्रधानता के कारण उसमें उनके नाम का उल्लेख आवश्य माना गया है। ‘स्मरणांजलि’ नामक पुस्तक में भी दिनकरजी की मूल पुस्तक ‘मेरी यात्राएँ’ के चार निबन्ध संयुक्त किए गए हैं, क्योंकि यात्रा-वृत्तांत भी एक तरह से संस्मरण ही है। पहले उसे यात्रा-संस्मरण कहा भी जाता था। ‘स्मरणांजलि’ वस्तुत: दिनकरजी की पुस्तक ‘संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ’ का नया नाम है। इसमें सिर्फ निबन्धों को नई तरतीब दी गई है और उसमें यथास्थान ‘साहित्यमुखी’ से लेकर सिर्फ एक निबन्ध जोड़ा गया है-‘निराला जी को श्रद्धांजलि’। ‘व्यक्तिगत निबन्ध और डायरी’ नामक पुस्तक में भी दिनकरजी के निबन्धों का तो एकत्रीकरण है ही, ‘दिनकर की डायरी’ नामक पूरी पुस्तक यथावत् उसमें शामिल है, क्योंकि डायरी व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति का ही तो अतिशय घनीभूत रूप है।
बाकी जो नवनिर्मित गद्य की पुस्तकें हैं, वे हैं-‘कवि और कविता’, ‘साहित्य और समाज’, ‘चिन्तन के आयाम’ तथा ‘संस्कृति, भाषा और राष्ट्र’ इनमें इनके नामों से संबंधित निबन्ध विभिन्न पुस्तकों से लेकर क्रम से लगाए गए हैं। प्रत्येक निबन्ध के नीचे इस बात का उल्लेख अनिवार्य रूप से किया गया है कि वे किस पुस्तक से लिए गए हैं।
कविता-पुस्तकों में सभी पुस्तकों का मूल रूप सुरक्षित रखा गया है, सिर्फ कमोबेश कविताओं की प्रकृति को देखते हुए दो-दो तीन-तीन पुस्तकों को एक जिल्द में लाने की कोशिश की गई है। स्वभावत: संयुक्त पुस्तकों को एक नाम देना पड़ा है लेकिन वह नाम दिनकर जी कि कविताओं से ही इस सावधानी से चुना गया है कि वह कविताओं के मिजाज का सही ढंग से परिचय दे सके। उदाहरण के लिए ‘धूप और धुआँ’ नाम तय किया गया है, ‘नीम के पत्ते, ‘मृत्ति-तिलक’ और ‘दिनकर के गीत’ नामक पुस्तकों के संयुक्त रूप के लिए ‘अमृत-मंथन’ और ‘प्रणभंग तथा अन्य कविताएँ’, ‘कविश्री’ और ‘दिनकर की सूक्तियाँ’ के संयुक्त रूप के लिए ‘रश्मिमाला’। ‘अमृत-मंथन’ में एक छोटा-सा परिवर्तन यह किया गया है कि ‘मृत्ति-तिलक’ से ‘हे राम !’ शीर्षक कविता हटा दी गई है, क्योंकि वह ‘नीम के पत्ते’ में भी संगृहीत है। एक ही संकलन में पुनरावृत्ति से बचने के लिए यह करना जरूरी था। ‘रश्मिमाला’ नाम इसलिए पसंद किया गया कि इस नाम से दिनकरजी ‘प्रणभंग’ नामक काव्य के बाद अपनी स्फुट कविताओं का एक संकलन निकालना चाहते थे, जो निकल नहीं सका। उसकी तीन-चार कविताएँ उन्होंने ‘रेणुका’ में लेकर उसे छोड़ दिया था। काफी दिनों बाद उन्होंने बाकी कविताएँ ‘प्रणभंग’ के दूसरे संस्करण में, जो ‘प्रणभंग तथा अन्य कविताएँ’ के नाम से निकला, डाल दीं। ‘रश्मिमाला’ में ‘प्रणभंग तथा अन्य कविताएँ’ पूरी पुस्तक दी जा रही है, साथ में ‘कविश्री’ और ‘दिनकर की सूक्तियाँ’ नामक दो संकलन भी। दिनकर की कविताओं का कोई संकलन दिनकर की किरणों का हार ही तो है !
‘समानांतर’ नामक पुस्तक में दिनकरजी की दो पुस्तकें एकत्र की गई हैं-‘सीपी और शंख’ और ‘आत्मा की आँखें’। मूल रूप से ये दोनों पुस्तकें अनूदित कविताओं का संग्रह हैं, लेकिन हमने उनके संयुक्त रूप का नाम ‘समानांतर’ दिया है। इसके पीछे तर्क यह है कि जब विदेशी विद्वानों ने यूरोपीय कवियों के दिनकरजी कृत अनुवाद को मूल कविताओं से मिलाकर देखा, तो उन्हें अनुवाद मानने से इनकार किया और उन्हें उनकी मौलिक कविताएँ मानकर अपने यहाँ से निकलने वाले संकलन में शामिल किया। अधिक से अधिक हम इन्हें मूल का पुनर्सृजन कह सकते हैं, उससे भी आगे बढ़कर इन्हें कवि की समानांतर सृष्टि मानें तो वह उसके गौरव के सर्वथा अनुरूप होगा। गद्य की ‘शुद्ध कविता की खोज’ नामक पुस्तक की तरह ही दिनकरजी की अन्तिम काव्यकृति ‘हारे को हरिनाम’ को भी यथावत् रखा गया है। सिर्फ उक्त पुस्तक की तरह ही इसके नाम में परिर्वतन है। नया नाम ‘भग्न वीणा’ पहले नाम की तरह अर्थ-व्यंजक है और यह पुस्तक की एक प्रतिनिधि कविता के शीर्षक से ही लिया गया है।
नई योजना को रूप देने में अनेक रचनावलियों और संकलनों के सम्पादक डॉ० नन्दकिशोर नवल और नए समीक्षक डॉ० तरुण कुमार ने विशेष रुचि ली है, जिनकी अत्यधिक सहायता पटना विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग, के शोधप्रज्ञ श्री योगेश प्रताप शेखर ने की है। हम इनके प्रति अपना हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं।
आशा है, हिन्दी का विशाल पाठक-वर्ग दिनकर-साहित्य के इस नए रूप में प्रकाशन को अपनाकर हमारा उत्साहवर्धन करेगा।
‘पंडित नेहरू और अन्य महापुरुष’ नामक पुस्तक में भी दिनकरजी की ‘लोकदेव नेहरू’ और ‘हे राम’ नामक दो पुस्तकें संकलित हैं। दूसरी पुस्तक में तीन महापुरुषों- विवेकानन्द, रमण और गांधी-पर दिनकरजी के तीन रेडियो-रूपक संगृहीत हैं, लेकिन उनकी आत्मा निबन्ध की है। कारण यह है कि उनमें उक्त महापुरुषों के विचार-दर्शन से ही श्रोताओं और पाठकों को परिचित कराने का प्रयास किया गया है। इसीलिए इन्हें साथ रखा गया है। ‘हे राम’ नामक पुस्तक संयुक्त करने के कारण ही संकलन के लिए नया नाम देना पड़ा, लेकिन पंडित नेहरू की प्रधानता के कारण उसमें उनके नाम का उल्लेख आवश्य माना गया है। ‘स्मरणांजलि’ नामक पुस्तक में भी दिनकरजी की मूल पुस्तक ‘मेरी यात्राएँ’ के चार निबन्ध संयुक्त किए गए हैं, क्योंकि यात्रा-वृत्तांत भी एक तरह से संस्मरण ही है। पहले उसे यात्रा-संस्मरण कहा भी जाता था। ‘स्मरणांजलि’ वस्तुत: दिनकरजी की पुस्तक ‘संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ’ का नया नाम है। इसमें सिर्फ निबन्धों को नई तरतीब दी गई है और उसमें यथास्थान ‘साहित्यमुखी’ से लेकर सिर्फ एक निबन्ध जोड़ा गया है-‘निराला जी को श्रद्धांजलि’। ‘व्यक्तिगत निबन्ध और डायरी’ नामक पुस्तक में भी दिनकरजी के निबन्धों का तो एकत्रीकरण है ही, ‘दिनकर की डायरी’ नामक पूरी पुस्तक यथावत् उसमें शामिल है, क्योंकि डायरी व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति का ही तो अतिशय घनीभूत रूप है।
बाकी जो नवनिर्मित गद्य की पुस्तकें हैं, वे हैं-‘कवि और कविता’, ‘साहित्य और समाज’, ‘चिन्तन के आयाम’ तथा ‘संस्कृति, भाषा और राष्ट्र’ इनमें इनके नामों से संबंधित निबन्ध विभिन्न पुस्तकों से लेकर क्रम से लगाए गए हैं। प्रत्येक निबन्ध के नीचे इस बात का उल्लेख अनिवार्य रूप से किया गया है कि वे किस पुस्तक से लिए गए हैं।
कविता-पुस्तकों में सभी पुस्तकों का मूल रूप सुरक्षित रखा गया है, सिर्फ कमोबेश कविताओं की प्रकृति को देखते हुए दो-दो तीन-तीन पुस्तकों को एक जिल्द में लाने की कोशिश की गई है। स्वभावत: संयुक्त पुस्तकों को एक नाम देना पड़ा है लेकिन वह नाम दिनकर जी कि कविताओं से ही इस सावधानी से चुना गया है कि वह कविताओं के मिजाज का सही ढंग से परिचय दे सके। उदाहरण के लिए ‘धूप और धुआँ’ नाम तय किया गया है, ‘नीम के पत्ते, ‘मृत्ति-तिलक’ और ‘दिनकर के गीत’ नामक पुस्तकों के संयुक्त रूप के लिए ‘अमृत-मंथन’ और ‘प्रणभंग तथा अन्य कविताएँ’, ‘कविश्री’ और ‘दिनकर की सूक्तियाँ’ के संयुक्त रूप के लिए ‘रश्मिमाला’। ‘अमृत-मंथन’ में एक छोटा-सा परिवर्तन यह किया गया है कि ‘मृत्ति-तिलक’ से ‘हे राम !’ शीर्षक कविता हटा दी गई है, क्योंकि वह ‘नीम के पत्ते’ में भी संगृहीत है। एक ही संकलन में पुनरावृत्ति से बचने के लिए यह करना जरूरी था। ‘रश्मिमाला’ नाम इसलिए पसंद किया गया कि इस नाम से दिनकरजी ‘प्रणभंग’ नामक काव्य के बाद अपनी स्फुट कविताओं का एक संकलन निकालना चाहते थे, जो निकल नहीं सका। उसकी तीन-चार कविताएँ उन्होंने ‘रेणुका’ में लेकर उसे छोड़ दिया था। काफी दिनों बाद उन्होंने बाकी कविताएँ ‘प्रणभंग’ के दूसरे संस्करण में, जो ‘प्रणभंग तथा अन्य कविताएँ’ के नाम से निकला, डाल दीं। ‘रश्मिमाला’ में ‘प्रणभंग तथा अन्य कविताएँ’ पूरी पुस्तक दी जा रही है, साथ में ‘कविश्री’ और ‘दिनकर की सूक्तियाँ’ नामक दो संकलन भी। दिनकर की कविताओं का कोई संकलन दिनकर की किरणों का हार ही तो है !
‘समानांतर’ नामक पुस्तक में दिनकरजी की दो पुस्तकें एकत्र की गई हैं-‘सीपी और शंख’ और ‘आत्मा की आँखें’। मूल रूप से ये दोनों पुस्तकें अनूदित कविताओं का संग्रह हैं, लेकिन हमने उनके संयुक्त रूप का नाम ‘समानांतर’ दिया है। इसके पीछे तर्क यह है कि जब विदेशी विद्वानों ने यूरोपीय कवियों के दिनकरजी कृत अनुवाद को मूल कविताओं से मिलाकर देखा, तो उन्हें अनुवाद मानने से इनकार किया और उन्हें उनकी मौलिक कविताएँ मानकर अपने यहाँ से निकलने वाले संकलन में शामिल किया। अधिक से अधिक हम इन्हें मूल का पुनर्सृजन कह सकते हैं, उससे भी आगे बढ़कर इन्हें कवि की समानांतर सृष्टि मानें तो वह उसके गौरव के सर्वथा अनुरूप होगा। गद्य की ‘शुद्ध कविता की खोज’ नामक पुस्तक की तरह ही दिनकरजी की अन्तिम काव्यकृति ‘हारे को हरिनाम’ को भी यथावत् रखा गया है। सिर्फ उक्त पुस्तक की तरह ही इसके नाम में परिर्वतन है। नया नाम ‘भग्न वीणा’ पहले नाम की तरह अर्थ-व्यंजक है और यह पुस्तक की एक प्रतिनिधि कविता के शीर्षक से ही लिया गया है।
नई योजना को रूप देने में अनेक रचनावलियों और संकलनों के सम्पादक डॉ० नन्दकिशोर नवल और नए समीक्षक डॉ० तरुण कुमार ने विशेष रुचि ली है, जिनकी अत्यधिक सहायता पटना विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग, के शोधप्रज्ञ श्री योगेश प्रताप शेखर ने की है। हम इनके प्रति अपना हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं।
आशा है, हिन्दी का विशाल पाठक-वर्ग दिनकर-साहित्य के इस नए रूप में प्रकाशन को अपनाकर हमारा उत्साहवर्धन करेगा।
मन्दिर और राजभवन
मन्दिर है उपासना का स्थल, जहाँ मनुष्य अपने आपको ढूँढ़ता है।
राजभवन है दंड-विधान का आवास, जहाँ मनुष्यों को शान्त रहने का पाठ पढ़ाया जाता है।
मन्दिर कहता है, आओ, हमारी गोद में आते समय आवरण की क्या आवश्यकता ? पारस और लोहे के बीच कागज का एक टुकड़ा भी नहीं रहना चाहिए; अन्यथा लोहा लोहा ही रह जाएगा।
और राजभवन कहता है, हम और तुम समान नहीं हैं। हम प्रताप की पोशाक पहने हुए हैं; तुम अधीनता की चादर लपेटे आओ; क्योंकि हम शासक हैं और तुम शासित। हम तुम्हें गोद में नहीं बिठा सकते, अधिक-से-अधिक अपनी कुर्सी के पास स्थान दे सकते हैं।
मन्दिर कहता है, लोग संसार में लिप्त हैं; वासना के रोगों से पीडित हैं; हम उन्हें संसार से विरक्त करेंगे जिससे दंड-विधान की जरूरत ही नहीं रह जाए।
राजभवन कहता है, लोग संसार में अनुरक्त हैं। और जब तक वे अनुरक्त हैं, तब तक उन पर पहरा देने के लिए एक सत्ता की जरूरत है ? वह सत्ता हम हैं।
मन्दिर कहता है, हम मनुष्यों को सुधारेंगे।
राजभवन कहता है, हम मनुष्यों पर शासन करेंगे।
गांधीजी अंहिसा सिखाते-सिखाते स्वयं हिंसा के शिकार हो गए। मन्दिर गिर गया और राजभवन का दंड-विधान अपनी जन्मपत्री में अपनी अपना भविष्य देख रहा है।
गांधीजी की मृत्यु के साथ संसार की एक पुरातन समस्या, मनुष्य-जाति का एक प्राचीन प्रश्न फिर अपनी विकरालता के साथ हमारे सामने आया है।
सन्तों, अवतारों और भविष्य को देखनेवालों की दृष्टि कानून बनाने वालों, शासकों और राजपुरुषों के कार्यों से किस प्रकार सम्बद्ध है ? दोनों के बीच कौन-सा नाता है ? जो मनुष्य के स्वभाव पर पहरा देते हैं, क्या उनकी आत्मा का मेल उन लोगों से कभी नहीं बैठेगा, जो मनुष्य के स्वभाव को बदलने के लिए आया करते हैं ? मन्दिर की स्थापना क्या राजभवन में नहीं ही होगी ? अथवा राजभवन क्या मन्दिर में कभी भी नहीं समाएगा ?
मन्दिर और राजभवन के बीच कोई संघर्ष है जो बहुत दिनों से चल रहा है और जिसका कोई-न-कोई हल निकालना ही होगा; क्योंकि मनुष्य को बदलना भी जरूरी है और उसे अनुशासन के भीतर रखना भी आवश्यक है।
जो कानून बनाते हैं, जो शासन करते हैं, उनका दृष्टिकोण वर्तमान से सम्बद्ध रहता है। उनको कार्यों की भूमि ही वर्तमान काल है। मनुष्य अभी जैसा है, उसके सम्बन्ध में उनकी जैसी धारणा है, अपनी भावना, इच्छा और प्रवृत्तियों से शासक उसे जैसा समझते हैं, उसके साथ वैसा ही व्यवहार भी करते हैं। वे अदृश्य में प्रवेश नहीं कर सकते हैं, वही उनके अंकुश का लक्ष्य होता है।
इसके विपरीत, जो नबी और अवतार हैं, जो भविष्य-द्रष्टा, सुधारक और सन्त हैं, वे मनुष्य के उसी रूप को नहीं देखते, जो उसका वर्तमान रूप है। वरन् उनकी दृ्ष्टि मनुष्य के भीतर छिपी हुई सम्भावनाओं पर भी जाती है। भ्रमों और मलों का केंचुल उतार फेंकने पर मनुष्य कितना नवीन और मोहक हो सकता है, यह उनकी सहानुभूति के फैलने का कारण हो जाता है। नबी और अवतार उन अनुभूतियों को जगाना चाहते हैं जो अभी इंसानों को मिल नहीं सकी हैं। जो हाथ से दूर हैं, जो तुरन्त पकड़ में नहीं आ सकती, जो अदृश्य और अनुपलब्ध है, भविष्य को देखनेवाले सन्त उसे ही समीप लाना चाहते हैं और उसे समीप लाने के प्रयास में वे जो कुछ करते या बोलते हैं, वह साधारण मनुष्य की समझ में ठीक से नहीं आता। रहस्यवादियों की वामी धुँधली और क्रिया आलोचना से परे होती है, जैसा कि बापू की थी। और इतर मनुष्य इस क्रिया और इस वाणी के सामने किंकर्त्तव्यविमूढ़-से खड़े रहते हैं।
राजमहल चाहता है कि प्रतिरोध और प्रताप, सम्पत्ति, शक्ति और विशालता। हम कुबेर हैं, हम सूर्य हैं, हम अर्जुन और भीम हैं, हम दहकते हुए अंगारे हैं और जो कोई हमारा स्पर्श करेगा, वह जल जाएगा। भला कौन कह सकता है कि राजमहल के उद्देश्य हीन हैं ?
मगर मन्दिर सिखाता है अनवरोध; मन्दिर सिखाता है विनयशीलता; मन्दिर सिखाता है अपरिग्रह, दीनता और ब्रह्मचर्य।
शंकालु कहते है; ब्रह्मचर्य के अखंड पालन से मनुष्य-जाति समाप्त हो जाएगी।
अपरिग्रह और दीनता की प्रशंसा करते-करते हम ऐसी विपत्तियों में पड़ जाएँगे, जिनसे निस्तार पाना कठिन होगा।
विनयशीलता और अनवरोध को अगर हमने अपना जीवन-सिद्धान्त बनाया तो इसका परिणाम तो जघन्य शक्तियों की विजय और विकास ही होगा।
तब क्या सन्तों, नबियों, अवतारों और सुधारकों ने इस अत्यन्त स्पष्ट सत्य को ही नहीं समझा और आँख मूँदकर अपने प्रभाव में आए हुए मानव-समुदाय को आत्मघात करने की शिक्षा दे दी ?
हम नहीं मानते कि एक मोटी बात जो सबकी समझ में आती है, सिर्फ सन्तों की ही समझ में नहीं आई। और न हम यही मानते हैं कि नबियों ने हमसे यह आग्रह किया है कि जो कुछ मैं कहता हूँ, तुम उसे अपने आचरण का कठोर नियम बना लो।
जब बापू चान्दपुर (नोआखाली) गए, उनसे कुछ बंगाली नवयुवकों ने वहाँ कि विपत्ति की कहानियाँ सुनाईं और कहा कि आप जो अहिंसा सिखाते हैं, वह यहाँ एकदम असफल होगी। कोई युवती जीभ काटकर मर जाए या जहर खा ले, इससे दूसरी युवती का सतीत्व नहीं बच सकता और न अनुनय, विनय और अहिंसा तथा प्रेम का साँपों और भेड़ियों पर कोई प्रभाव ही पड़ता है।
राजमहल ने समझा था कि मन्दिर पराजित और निरुत्तर हो जाएगा। मगर मन्दिर निरुत्तर कैसे हो ? जो भविष्य को देखता और समझता है, वह क्या वर्तमान को ही नहीं समझ सकता ?
हठ और जिद तो अधकचरे दिमाग के लक्षण हैं। सत्य को खोजनेवाला पुरुष तो बराबर यही सोचता है कि सम्भव है, किसी बात में मैं ही गलत और दूसरे लोग ठीक हों। जब हम सत्य की ओर बढ़ने वाली सीधी राह पर आ जाते हैं, तब हमारी भावना उदार हो जाती है और हम किसी बात पर जिद नहीं करते। 1942 में गांधीजी ने लुई फिशर से कहा था कि ‘‘मैं प्रधानत: समझौतों में विश्वास करनेवाला जीव हूँ; क्योंकि मुझे कभी भी यकीन नहीं रहता कि जो कुछ मैं कर रहा हूँ, वह ठीक ही है।’’
किसी समय चटगाँव के शास्त्रागार पर छापा मारनेवाले नोआखाली के इन नौजवानों से बापू ने कहा, ‘‘मैं यह हठ करने के लिए नहीं आया हूँ कि तुम उसी वीरता का प्रयोग करो, जिसका मैं अभ्यासी हूँ, तुम परंपरागत वीरता से भी काम ले सकते हो। किन्तु स्मरण रहे कि मैं चटगाँव के शस्त्रागार पर छाया मारनेवालों के बीच हथियार बाँटने को यहाँ नहीं आया हूँ।’’
मन्दिर हठ नहीं करता। मन्दिर यह नहीं कहता कि मेरी तमाम लकीरें तुम्हारे जीवन की पगडंडियाँ हैं और उन्हें छोड़कर तुम्हें और कहीं नहीं जाना चाहिए। ये तो रोशनी की छोटी-बड़ी शलाकाएँ हैं जिन्हें, लेकर हमें जीवन के मर्म को समझना है।
ज्ञान और साधना के चरण शिखर पर बैठा सन्त यह नहीं कहता कि मैं तुम्हारे दैनिक जीवन के क्षण-क्षण के आचरणों के नियम बोलता हूँ, वरन् यह कि मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे सोच-समझकर तुम यह निश्चय करो कि जीवन के ये कौन-से उद्देश्य हैं, कौन-सी दिशाएँ हैं, जिनके प्रति तुम्हें वफादार रहना चाहिए।
राजभवन है दंड-विधान का आवास, जहाँ मनुष्यों को शान्त रहने का पाठ पढ़ाया जाता है।
मन्दिर कहता है, आओ, हमारी गोद में आते समय आवरण की क्या आवश्यकता ? पारस और लोहे के बीच कागज का एक टुकड़ा भी नहीं रहना चाहिए; अन्यथा लोहा लोहा ही रह जाएगा।
और राजभवन कहता है, हम और तुम समान नहीं हैं। हम प्रताप की पोशाक पहने हुए हैं; तुम अधीनता की चादर लपेटे आओ; क्योंकि हम शासक हैं और तुम शासित। हम तुम्हें गोद में नहीं बिठा सकते, अधिक-से-अधिक अपनी कुर्सी के पास स्थान दे सकते हैं।
मन्दिर कहता है, लोग संसार में लिप्त हैं; वासना के रोगों से पीडित हैं; हम उन्हें संसार से विरक्त करेंगे जिससे दंड-विधान की जरूरत ही नहीं रह जाए।
राजभवन कहता है, लोग संसार में अनुरक्त हैं। और जब तक वे अनुरक्त हैं, तब तक उन पर पहरा देने के लिए एक सत्ता की जरूरत है ? वह सत्ता हम हैं।
मन्दिर कहता है, हम मनुष्यों को सुधारेंगे।
राजभवन कहता है, हम मनुष्यों पर शासन करेंगे।
गांधीजी अंहिसा सिखाते-सिखाते स्वयं हिंसा के शिकार हो गए। मन्दिर गिर गया और राजभवन का दंड-विधान अपनी जन्मपत्री में अपनी अपना भविष्य देख रहा है।
गांधीजी की मृत्यु के साथ संसार की एक पुरातन समस्या, मनुष्य-जाति का एक प्राचीन प्रश्न फिर अपनी विकरालता के साथ हमारे सामने आया है।
सन्तों, अवतारों और भविष्य को देखनेवालों की दृष्टि कानून बनाने वालों, शासकों और राजपुरुषों के कार्यों से किस प्रकार सम्बद्ध है ? दोनों के बीच कौन-सा नाता है ? जो मनुष्य के स्वभाव पर पहरा देते हैं, क्या उनकी आत्मा का मेल उन लोगों से कभी नहीं बैठेगा, जो मनुष्य के स्वभाव को बदलने के लिए आया करते हैं ? मन्दिर की स्थापना क्या राजभवन में नहीं ही होगी ? अथवा राजभवन क्या मन्दिर में कभी भी नहीं समाएगा ?
मन्दिर और राजभवन के बीच कोई संघर्ष है जो बहुत दिनों से चल रहा है और जिसका कोई-न-कोई हल निकालना ही होगा; क्योंकि मनुष्य को बदलना भी जरूरी है और उसे अनुशासन के भीतर रखना भी आवश्यक है।
जो कानून बनाते हैं, जो शासन करते हैं, उनका दृष्टिकोण वर्तमान से सम्बद्ध रहता है। उनको कार्यों की भूमि ही वर्तमान काल है। मनुष्य अभी जैसा है, उसके सम्बन्ध में उनकी जैसी धारणा है, अपनी भावना, इच्छा और प्रवृत्तियों से शासक उसे जैसा समझते हैं, उसके साथ वैसा ही व्यवहार भी करते हैं। वे अदृश्य में प्रवेश नहीं कर सकते हैं, वही उनके अंकुश का लक्ष्य होता है।
इसके विपरीत, जो नबी और अवतार हैं, जो भविष्य-द्रष्टा, सुधारक और सन्त हैं, वे मनुष्य के उसी रूप को नहीं देखते, जो उसका वर्तमान रूप है। वरन् उनकी दृ्ष्टि मनुष्य के भीतर छिपी हुई सम्भावनाओं पर भी जाती है। भ्रमों और मलों का केंचुल उतार फेंकने पर मनुष्य कितना नवीन और मोहक हो सकता है, यह उनकी सहानुभूति के फैलने का कारण हो जाता है। नबी और अवतार उन अनुभूतियों को जगाना चाहते हैं जो अभी इंसानों को मिल नहीं सकी हैं। जो हाथ से दूर हैं, जो तुरन्त पकड़ में नहीं आ सकती, जो अदृश्य और अनुपलब्ध है, भविष्य को देखनेवाले सन्त उसे ही समीप लाना चाहते हैं और उसे समीप लाने के प्रयास में वे जो कुछ करते या बोलते हैं, वह साधारण मनुष्य की समझ में ठीक से नहीं आता। रहस्यवादियों की वामी धुँधली और क्रिया आलोचना से परे होती है, जैसा कि बापू की थी। और इतर मनुष्य इस क्रिया और इस वाणी के सामने किंकर्त्तव्यविमूढ़-से खड़े रहते हैं।
राजमहल चाहता है कि प्रतिरोध और प्रताप, सम्पत्ति, शक्ति और विशालता। हम कुबेर हैं, हम सूर्य हैं, हम अर्जुन और भीम हैं, हम दहकते हुए अंगारे हैं और जो कोई हमारा स्पर्श करेगा, वह जल जाएगा। भला कौन कह सकता है कि राजमहल के उद्देश्य हीन हैं ?
मगर मन्दिर सिखाता है अनवरोध; मन्दिर सिखाता है विनयशीलता; मन्दिर सिखाता है अपरिग्रह, दीनता और ब्रह्मचर्य।
शंकालु कहते है; ब्रह्मचर्य के अखंड पालन से मनुष्य-जाति समाप्त हो जाएगी।
अपरिग्रह और दीनता की प्रशंसा करते-करते हम ऐसी विपत्तियों में पड़ जाएँगे, जिनसे निस्तार पाना कठिन होगा।
विनयशीलता और अनवरोध को अगर हमने अपना जीवन-सिद्धान्त बनाया तो इसका परिणाम तो जघन्य शक्तियों की विजय और विकास ही होगा।
तब क्या सन्तों, नबियों, अवतारों और सुधारकों ने इस अत्यन्त स्पष्ट सत्य को ही नहीं समझा और आँख मूँदकर अपने प्रभाव में आए हुए मानव-समुदाय को आत्मघात करने की शिक्षा दे दी ?
हम नहीं मानते कि एक मोटी बात जो सबकी समझ में आती है, सिर्फ सन्तों की ही समझ में नहीं आई। और न हम यही मानते हैं कि नबियों ने हमसे यह आग्रह किया है कि जो कुछ मैं कहता हूँ, तुम उसे अपने आचरण का कठोर नियम बना लो।
जब बापू चान्दपुर (नोआखाली) गए, उनसे कुछ बंगाली नवयुवकों ने वहाँ कि विपत्ति की कहानियाँ सुनाईं और कहा कि आप जो अहिंसा सिखाते हैं, वह यहाँ एकदम असफल होगी। कोई युवती जीभ काटकर मर जाए या जहर खा ले, इससे दूसरी युवती का सतीत्व नहीं बच सकता और न अनुनय, विनय और अहिंसा तथा प्रेम का साँपों और भेड़ियों पर कोई प्रभाव ही पड़ता है।
राजमहल ने समझा था कि मन्दिर पराजित और निरुत्तर हो जाएगा। मगर मन्दिर निरुत्तर कैसे हो ? जो भविष्य को देखता और समझता है, वह क्या वर्तमान को ही नहीं समझ सकता ?
हठ और जिद तो अधकचरे दिमाग के लक्षण हैं। सत्य को खोजनेवाला पुरुष तो बराबर यही सोचता है कि सम्भव है, किसी बात में मैं ही गलत और दूसरे लोग ठीक हों। जब हम सत्य की ओर बढ़ने वाली सीधी राह पर आ जाते हैं, तब हमारी भावना उदार हो जाती है और हम किसी बात पर जिद नहीं करते। 1942 में गांधीजी ने लुई फिशर से कहा था कि ‘‘मैं प्रधानत: समझौतों में विश्वास करनेवाला जीव हूँ; क्योंकि मुझे कभी भी यकीन नहीं रहता कि जो कुछ मैं कर रहा हूँ, वह ठीक ही है।’’
किसी समय चटगाँव के शास्त्रागार पर छापा मारनेवाले नोआखाली के इन नौजवानों से बापू ने कहा, ‘‘मैं यह हठ करने के लिए नहीं आया हूँ कि तुम उसी वीरता का प्रयोग करो, जिसका मैं अभ्यासी हूँ, तुम परंपरागत वीरता से भी काम ले सकते हो। किन्तु स्मरण रहे कि मैं चटगाँव के शस्त्रागार पर छाया मारनेवालों के बीच हथियार बाँटने को यहाँ नहीं आया हूँ।’’
मन्दिर हठ नहीं करता। मन्दिर यह नहीं कहता कि मेरी तमाम लकीरें तुम्हारे जीवन की पगडंडियाँ हैं और उन्हें छोड़कर तुम्हें और कहीं नहीं जाना चाहिए। ये तो रोशनी की छोटी-बड़ी शलाकाएँ हैं जिन्हें, लेकर हमें जीवन के मर्म को समझना है।
ज्ञान और साधना के चरण शिखर पर बैठा सन्त यह नहीं कहता कि मैं तुम्हारे दैनिक जीवन के क्षण-क्षण के आचरणों के नियम बोलता हूँ, वरन् यह कि मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे सोच-समझकर तुम यह निश्चय करो कि जीवन के ये कौन-से उद्देश्य हैं, कौन-सी दिशाएँ हैं, जिनके प्रति तुम्हें वफादार रहना चाहिए।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book