लेख-निबंध >> कामसूत्र से कामसूत्र तक कामसूत्र से कामसूत्र तकमैरी ई. जॉन और जानकी नायर
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आधुनिक भारत में सेक्शुअलिटी के सरोकार, एक बेबाक निबंधों का संकलन
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सेक्शुअलिटी समाज की एक निर्धारक शक्ति है। इस पुस्तक के विद्वत्तापूर्ण
निबंध उस शक्ति का कोई सटीक चित्रण करने के बजाय सेक्शुअलिटी से संबंधित
कुछ विशिष्ट मुकामों पर नजर डालते हैं। इस प्रक्रिया में सेक्शुअलिटी कभी
तो स्केंडल की तरह उभरती है, कभी सत्ता के औजार की तरह, कभी हिंसा के एक
रूप के तौर पर और कभी आजादी के निशानों की तरह सामने आती है। इन निबंधों
में कोशिश की गई हैं कि सेक्शुअलिटी से संबंधित मुद्दों और उन्हें आपस में
जोड़ने वाले सूत्रों को उभारा जाए, ताकि समाज द्वारा अपनायी जाने वाली
चुप्पी प्रश्नांकित करते हुए सेक्शुअलिटी के बनते हुए भारतीय खाके की
रूपरेखा स्पष्ट हो सके।
इस किताब में पहली बार आधुनिक भारत की सेक्शुअलिटी का अध्ययन किया गया है। इसके पृष्ठों पर पाठकों को वामपंथी क्रांतिकारी आंदोलन में यौन दमन के खिलाफ जूझती स्त्रिया दिखेंगी, यौन मुक्ति का झंडा उठाने वाले स्त्री पात्रों से मुलाकात होगी और भारतीय सेक्शुअलिटी की स्वातंत्र्योत्तर राजनीति पर चर्चा मिलेगी। इन पृष्ठों पर वैवाहिक संबंधों में पुरुष की यौन हिंसा के खिलाफ संघर्ष करती स्त्रियों के साक्षात्कार होने के साथ-साथ मीडिया समर्थिन यौन शक्ति क्रांति का खाका भी दिखाई देगा।
आम तौर पर कहा जाता है कि भारतीय समाज में काम-यौन विषयक मामलों पर चुप्पी छाई रहती है, और हमारी सेक्शुअलिटी के विकास की कहानी वात्स्यायन रचित ‘कामसूत्र’ से शुरू होकर ‘कामसूत्र’ नाम कंडोम पर खत्म हो जाती है। माना जाता है कि इन दोनों ‘कामसूत्रों’ के बीच एक लंबा अंधकारमय अंतराल है। सवाल यह है कि क्या प्रचलित धारणा के विपरीत हमारी सेक्शुअलिटी यानी भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में रची-बनी यौन-व्यवस्था का एक वैकल्पिक इतिहास संभव है ? इस संकलन के निबंध इस बात के सबूत हैं कि भारतीय बुद्धिजीवियों का एक उभरता हिस्सा इस सवाल का जवाब ‘हाँ’ में देने को तैयार है।
एक अवधारणा के तौर पर सेक्शुअलिटी संबंधी अध्ययनों की शुरूआत पश्चिम में हुई थी। वहाँ फ्रॉयड से लेकर फूको तक सेक्शुअलिटी के विद्वानों की समृद्ध परंपरा है। इस संकलन की रचनाएँ भारतीय संदर्भ में पहली बार सेक्शुअलिटी को जीववैज्ञानिक विमर्श के दायरे से निकल कर वैध-अवैध सेक्शुअल संबंधों की जमीन पर लाती है; ‘सेक्स’ को एक विषय के रूप में उत्पादित, रचित, वितरित, और नियंत्रित करने वाली संस्थाओं, आचरण-संहिताओं, विमर्शों और निरूपण के रूपों की जाँच-पड़ताल करती हैं। सेक्शुअलिटी के सवाल पर किसी भी तरह के सुरक्षित विमर्श से परे जा कर ये रचनाएँ गैर-मानवीय यौनिकताओं की दुनिया में भी झाँकती हैं ताकि इतरलैंगिका मान्यताओं पर सवालिया निशान लगाए जा सकें। इन विद्वानों की मान्यता है कि आधुनिक भारत में कामनाओं और हिंसा की सेक्शुअल राजनीति की समझ बनाए बिना भारतीय सेक्शुअलिटी के साथ विषय के रूप में न्याय नहीं किया जा सकता।
भारतीय सेक्शुअलिटी की रूपरेखा बनाने वाले इन निबंधों में उत्तर भारतीय ग्रामीण समाज से लेकर दिल्ली के महानगरीय परिदृश्य तक सेक्शुअलिटी के मुद्दों का संधान करते हुए सेक्शुअलिटी के विमर्श को दोनों सिरों पर खोल दिया गया है। प्रति-विचार के पैंतरे से भारतीय सेक्शुअलिटी के विमर्श को बचाते हुए ये निबंध किसी खास सरोकार के शिंकजे में नहीं फंसते। बजाय इसके वे यह पता लगाने की कोशिश करते हैं कि पितृसत्ता की हमारी समझ सेक्शुअलिटी के आईने का इस्तेमाल करने से समृद्ध होती है या नहीं।
इस किताब में पहली बार आधुनिक भारत की सेक्शुअलिटी का अध्ययन किया गया है। इसके पृष्ठों पर पाठकों को वामपंथी क्रांतिकारी आंदोलन में यौन दमन के खिलाफ जूझती स्त्रिया दिखेंगी, यौन मुक्ति का झंडा उठाने वाले स्त्री पात्रों से मुलाकात होगी और भारतीय सेक्शुअलिटी की स्वातंत्र्योत्तर राजनीति पर चर्चा मिलेगी। इन पृष्ठों पर वैवाहिक संबंधों में पुरुष की यौन हिंसा के खिलाफ संघर्ष करती स्त्रियों के साक्षात्कार होने के साथ-साथ मीडिया समर्थिन यौन शक्ति क्रांति का खाका भी दिखाई देगा।
आम तौर पर कहा जाता है कि भारतीय समाज में काम-यौन विषयक मामलों पर चुप्पी छाई रहती है, और हमारी सेक्शुअलिटी के विकास की कहानी वात्स्यायन रचित ‘कामसूत्र’ से शुरू होकर ‘कामसूत्र’ नाम कंडोम पर खत्म हो जाती है। माना जाता है कि इन दोनों ‘कामसूत्रों’ के बीच एक लंबा अंधकारमय अंतराल है। सवाल यह है कि क्या प्रचलित धारणा के विपरीत हमारी सेक्शुअलिटी यानी भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में रची-बनी यौन-व्यवस्था का एक वैकल्पिक इतिहास संभव है ? इस संकलन के निबंध इस बात के सबूत हैं कि भारतीय बुद्धिजीवियों का एक उभरता हिस्सा इस सवाल का जवाब ‘हाँ’ में देने को तैयार है।
एक अवधारणा के तौर पर सेक्शुअलिटी संबंधी अध्ययनों की शुरूआत पश्चिम में हुई थी। वहाँ फ्रॉयड से लेकर फूको तक सेक्शुअलिटी के विद्वानों की समृद्ध परंपरा है। इस संकलन की रचनाएँ भारतीय संदर्भ में पहली बार सेक्शुअलिटी को जीववैज्ञानिक विमर्श के दायरे से निकल कर वैध-अवैध सेक्शुअल संबंधों की जमीन पर लाती है; ‘सेक्स’ को एक विषय के रूप में उत्पादित, रचित, वितरित, और नियंत्रित करने वाली संस्थाओं, आचरण-संहिताओं, विमर्शों और निरूपण के रूपों की जाँच-पड़ताल करती हैं। सेक्शुअलिटी के सवाल पर किसी भी तरह के सुरक्षित विमर्श से परे जा कर ये रचनाएँ गैर-मानवीय यौनिकताओं की दुनिया में भी झाँकती हैं ताकि इतरलैंगिका मान्यताओं पर सवालिया निशान लगाए जा सकें। इन विद्वानों की मान्यता है कि आधुनिक भारत में कामनाओं और हिंसा की सेक्शुअल राजनीति की समझ बनाए बिना भारतीय सेक्शुअलिटी के साथ विषय के रूप में न्याय नहीं किया जा सकता।
भारतीय सेक्शुअलिटी की रूपरेखा बनाने वाले इन निबंधों में उत्तर भारतीय ग्रामीण समाज से लेकर दिल्ली के महानगरीय परिदृश्य तक सेक्शुअलिटी के मुद्दों का संधान करते हुए सेक्शुअलिटी के विमर्श को दोनों सिरों पर खोल दिया गया है। प्रति-विचार के पैंतरे से भारतीय सेक्शुअलिटी के विमर्श को बचाते हुए ये निबंध किसी खास सरोकार के शिंकजे में नहीं फंसते। बजाय इसके वे यह पता लगाने की कोशिश करते हैं कि पितृसत्ता की हमारी समझ सेक्शुअलिटी के आईने का इस्तेमाल करने से समृद्ध होती है या नहीं।
आभार
इस किताब की आधारशिला 1999 में उस सेमिनार से पड़ी थी जो मैंने और जानकी
नायर ने मिल कर मद्रास इंस्ट्रीट्यूट ऑव डिवेलपमेंट स्टडीज़ में आयोजित
किया था। इसी सेमिनार में पेश किए गए आलेखों का पहला संस्करण अंग्रेजी में
संपादित संकलन के रूप में प्रकाशित हुआ। ‘ए क्लेश्चन ऑव साइलेंस
?’ शीर्षक से काली फॉर वुमॅन द्वारा छापे गए इस संकलन का
अंग्रेजी
पाठकों के दायरें में उल्लेखनीय प्रभाव पड़ा। इसी के बाद कई लोगों ने इसके
अनुवाद की जरूरत पर बल देना शुरू किया। मैं अभय कुमार दुबे की शुक्रगुज़ार
हूँ कि उन्होंने इस सिलसिले में पहलकदमी ली। पुस्तक के इस हिंदी संस्करण
में मूल पुस्तक के परिचय और उसके कई लेखों के साथ-साथ कुछ नए लेख भी शामिल
हैं। में काली फॉर वुमॅन की कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने मूल संस्करण को हिंदी
पाठकों की जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल करने की इजाजत दी। मैं वाणी प्रकाशन
के अरुण माहेश्वरी की भी कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने इसे हिंदी में प्रकाशित
करने में दिलचस्पी दिखाई। अंग्रेजी में लिखे गए निबंधों का हिंदी अनुवाद
करने का श्रेय अभय कुमार दुबे को है। निश्चित रूप से उनके लिए यह काम विषय
में दिलचस्पी रखने वाले पाठकों को तो आकर्षित करेगा ही, साथ ही इस
विकासमान अध्ययन-क्षेत्र में नए विचारों और बहसों का भी समावेश होगा।
-मैरी ई० जॉन
शरद, 2007
शरद, 2007
परिचय
हमारी सेक्शुअलिटी : मौन या मुखर
मैरी ई० जॉन और जानकी नायर
सुरक्षित कहलाने वाले भारतवासियों की समझ में हमारी सेक्शुअलिटी के विकास
की कहानी वात्स्यायन रचित ‘कामसूत्र’ से शुरू हो कर
‘कामसूत्र’ नाम कंडोम पर खत्म हो जाती है। इन दोनों
‘कामसूत्रों’ के बीच एक लंबा अधंकारमय अंतराल है
जिसमें हमारे
प्राचीन मंदिरों का श्रम व श्रद्धा ‘काम शिल्प’ रोशनी
के
क्षणिक द्वीपों की तरह उभरता है। शिक्षित मानस में भारतीय सेक्शुअलिटी के
लंबे सफर के ये जाने-जाने पड़ाव प्रभावशाली तो हैं, लेकिन अंतत: इनकी
हैसियत अपवाद या विसंगति की ही रह जाती है। कलात्मक स्वतंत्रता के ये
प्रतीक कुल मिलाकर यौन-दमन के महा-आख्यान के तले दू कर रह जाते हैं।
‘यौन-दमन के महा-आख्यान’ से हमारा तात्पर्य उस
सुपरिचित दावे
से है जो सेक्शुअलिटी से संबंधित हर संदर्भ में यंत्रवत् दुहराया जाता है
कि आधुनिक भारतीय समाज काम-यौनविषयक मामलों में कुंठित-निरोधित रहा है और
इसीलिए हमारे यहाँ इन सवालों पर अक्सर चुप्पी छाई रहती है।
सवाल यह है कि क्या यौन-दमन के महा-आख्यान द्वारा किए जा रहे दमन से बचा जा सकता है ? क्या हमारी सेक्शुअलिटी यानी भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में रची-बनी यौन-व्यवस्था का एक वैकल्पिक इतिहास संभव है ? इस संकलन के निबंध इस बात के सबूत हैं कि भारतीय बुद्धिजीवियों का एक उभरता हिस्सा इन दोनों सवालों का जवाब ‘हाँ’ में देने को तैयार है।
लेकिन, यौन-दमन के इस सर्वमान्य तर्क से- इसके सहज बोध से- इतना परहेज क्यों ? इस प्रश्न के सबसे प्रभावशाली उत्तर फ्रांसीसी चिंतक स्वर्गीय मिशेल फूको ने दिया है। अपनी सुप्रसिद्ध रचना ‘हिस्ट्री ऑव सेक्शुअलिटी’ में उन्होंने दिखाया है कि पश्चिमी सभ्यता के जिन युगों को सेक्शुअलिटी के लिहाज से रूढ़िवादी, निरोधात्मक या दमनकारी माना जाता था। उन्हीं से सेक्स संबंधी चिंतन विमर्शोंत्तेजन के दौर से गुजरा। अंग्रेजों की रानी विक्टोरिया के नाम से प्रचलित विक्टोरियायी युग अपने अतिनैतिकतावाद या शुद्धतावाद के लिए मशहूर है। लेकिन, इसी युग ने अपूर्व ढंग से यौन-विमर्श प्रोत्साहित किया, इसके उद्भव के नए संदर्भ स्थापित किए और उसके विकास की व्यापक प्रक्रियाओं को जन्म दिया। जाहिर है कि यौन-दमन का दावा एकतरफा और एकयामी होता है, जबकि समाज का इतिहास बहुआयामी होने के कारण इसमें अनेकानेक पहलू शामिल होते हैं। इसी वजह से यौन-दमन का एकछत्र तर्क किसी विशाल वैचारिक रोड रोलर के तरह समाज के जीवंत, विरोधाभासी वैविध्य को अर्थात उसकी सच्चाई को कुचल कर एक सपाट. सुगम और सर्वथा भ्रामक इतिहास रचता है। ऐसे अतिसरलीकृत इतिहास में हमारी सेक्शुअलिटी को हमेशा और हर संदर्भ में मूक ही माना जाता है, भले ही वह मुखर क्यों न हो।
यही कारण है कि उन दायरों पर भी प्रकाश नहीं पड़ जाता जिनमें सेक्शुअलिटी सन्निहित है। मिसाल के लिए कानून, चिकित्सा (आयुर्विज्ञान) और जनसंख्याशास्त्र में सेक्शुअलिटी की खासी मौजूदगी है और उसकी चर्चा पर प्रतिबंध भी नहीं हैं। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि इस अहम लेकिन उपेक्षित क्षेत्र का संधान करने का क्या तरीका हो सकता है, क्योंकि बंबइया सिनेमा के संदर्भ में अश्लीलता पर होने वाली बहस को अगर छोड़ दिया जाए तो यह विषय विद्वतापूर्ण जाँच-पड़ताल के योग्य ही नहीं माना जाता। हमारा ख्याल है इसके लिए हमें सेक्शुअलिटी को जीववैज्ञानिक विमर्श के दायरे से निकाल कर वैध-अवैध सेक्शुअल संबंधों की जमीन पर लाना होगा। ‘सेक्स’ को एक विषय के रूप में उत्पादित, रचित, वितरित और नियंत्रित करने वाली संस्थाओं, आचरण-संहिताओं, विमर्शों और निरूपण के रूपों की जाँच-पड़ताल करनी होगी। दरअसल, हमें सेक्शुअलिटी के सवाल पर किसी भी तरह के सुरक्षित विमर्श से परे जा कर गैर-मानकीय यौनिकताओं की दुनिया में भी झाँकना होगा ताकि इतरलैंगिक मान्यताओं पर सवालिया निशान लगाए जा सकें। दरअसल, आधुनिक भारत में कामनाओं और हिंसा की सेक्शुअल राजनीति की समझ बनाए बिना हम भारतीय सेक्शुअलिटी के साथ एक विषय के रूप में न्याय नहीं कर पाएँगे।
सवाल यह है कि क्या यौन-दमन के महा-आख्यान द्वारा किए जा रहे दमन से बचा जा सकता है ? क्या हमारी सेक्शुअलिटी यानी भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में रची-बनी यौन-व्यवस्था का एक वैकल्पिक इतिहास संभव है ? इस संकलन के निबंध इस बात के सबूत हैं कि भारतीय बुद्धिजीवियों का एक उभरता हिस्सा इन दोनों सवालों का जवाब ‘हाँ’ में देने को तैयार है।
लेकिन, यौन-दमन के इस सर्वमान्य तर्क से- इसके सहज बोध से- इतना परहेज क्यों ? इस प्रश्न के सबसे प्रभावशाली उत्तर फ्रांसीसी चिंतक स्वर्गीय मिशेल फूको ने दिया है। अपनी सुप्रसिद्ध रचना ‘हिस्ट्री ऑव सेक्शुअलिटी’ में उन्होंने दिखाया है कि पश्चिमी सभ्यता के जिन युगों को सेक्शुअलिटी के लिहाज से रूढ़िवादी, निरोधात्मक या दमनकारी माना जाता था। उन्हीं से सेक्स संबंधी चिंतन विमर्शोंत्तेजन के दौर से गुजरा। अंग्रेजों की रानी विक्टोरिया के नाम से प्रचलित विक्टोरियायी युग अपने अतिनैतिकतावाद या शुद्धतावाद के लिए मशहूर है। लेकिन, इसी युग ने अपूर्व ढंग से यौन-विमर्श प्रोत्साहित किया, इसके उद्भव के नए संदर्भ स्थापित किए और उसके विकास की व्यापक प्रक्रियाओं को जन्म दिया। जाहिर है कि यौन-दमन का दावा एकतरफा और एकयामी होता है, जबकि समाज का इतिहास बहुआयामी होने के कारण इसमें अनेकानेक पहलू शामिल होते हैं। इसी वजह से यौन-दमन का एकछत्र तर्क किसी विशाल वैचारिक रोड रोलर के तरह समाज के जीवंत, विरोधाभासी वैविध्य को अर्थात उसकी सच्चाई को कुचल कर एक सपाट. सुगम और सर्वथा भ्रामक इतिहास रचता है। ऐसे अतिसरलीकृत इतिहास में हमारी सेक्शुअलिटी को हमेशा और हर संदर्भ में मूक ही माना जाता है, भले ही वह मुखर क्यों न हो।
यही कारण है कि उन दायरों पर भी प्रकाश नहीं पड़ जाता जिनमें सेक्शुअलिटी सन्निहित है। मिसाल के लिए कानून, चिकित्सा (आयुर्विज्ञान) और जनसंख्याशास्त्र में सेक्शुअलिटी की खासी मौजूदगी है और उसकी चर्चा पर प्रतिबंध भी नहीं हैं। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि इस अहम लेकिन उपेक्षित क्षेत्र का संधान करने का क्या तरीका हो सकता है, क्योंकि बंबइया सिनेमा के संदर्भ में अश्लीलता पर होने वाली बहस को अगर छोड़ दिया जाए तो यह विषय विद्वतापूर्ण जाँच-पड़ताल के योग्य ही नहीं माना जाता। हमारा ख्याल है इसके लिए हमें सेक्शुअलिटी को जीववैज्ञानिक विमर्श के दायरे से निकाल कर वैध-अवैध सेक्शुअल संबंधों की जमीन पर लाना होगा। ‘सेक्स’ को एक विषय के रूप में उत्पादित, रचित, वितरित और नियंत्रित करने वाली संस्थाओं, आचरण-संहिताओं, विमर्शों और निरूपण के रूपों की जाँच-पड़ताल करनी होगी। दरअसल, हमें सेक्शुअलिटी के सवाल पर किसी भी तरह के सुरक्षित विमर्श से परे जा कर गैर-मानकीय यौनिकताओं की दुनिया में भी झाँकना होगा ताकि इतरलैंगिक मान्यताओं पर सवालिया निशान लगाए जा सकें। दरअसल, आधुनिक भारत में कामनाओं और हिंसा की सेक्शुअल राजनीति की समझ बनाए बिना हम भारतीय सेक्शुअलिटी के साथ एक विषय के रूप में न्याय नहीं कर पाएँगे।
सेक्शुअलिटी : एक संक्षिप्त वैचारिक इतिहास
एक अवधारणा के रूप में सेक्शुअलिटी का आविर्बाव पश्चिमी में उन्नीसवीं सदी
के दौरान हुआ। शुरू में इसका इस्तेमाल जीव-विज्ञान और वनस्पति विज्ञान
द्वारा प्राणवान चीजों के प्रजनन के संदर्भ में किया जाता था। लेकिन,
जल्दी ही इसका प्रयोग व्यक्तियों के बीच सहवास के लिए किया जाने लगा।
मसलन, 1879 में यह कहा गया है कि डिम्ब ग्रंथियों को निकाल दिए जाने के
बावजूद स्त्री की सेक्शुअलिटी नष्ट नहीं होती। इसी दौरान होमोंसेक्शुअलिटी
और हेटरोसेक्शुअलिटी जैसे शब्दों का आविष्कार हुआ। पहले डॉक्टरों ने इसे
दोनों लिंगो के प्रति रूझान के रूप में देखा, और बाद में इसका मानवीकरण
प्रजनन के दायरे के बाहर अन्य लिंग के प्रति आकर्षण के रूप में होता चला
गया।
बीसवीं सदी में एक विषय के रूप में सेक्शुअलिटी के विकास के पाँच प्रमुख आयाम हैं : सिग्मंड फ्रायड की रचनाएँ साठ के दशक में स्त्री आंदोलन की रेडिकल ‘सेक्शुअल राजनीति’, जाक लकाँ और ‘फ्रांसीसी’ नारीवादी की रेडिकल ‘सेक्शुअल राजनीति’, जाक लकाँ फ्रांसीसी’ नारीवादी सिद्धान्त, मिशेल फूको द्वारा सेक्शुअलिटी का इतिहास और हाल ही में निकाला गया सेक्शुअलिटी का नया मतलब यानी सेक्शुअलिटी को सेक्शुअल चुनाव के रूप में देखना।
फॉयड की हैसियत आज भी सेक्शुअलिटी के महा-सिद्धांतकार की है। 1893 में उन्होंने अपने विद्वान साथियों के साथ उन्माद की प्रकृति पर अनुसंधान किया। इसके बाद फ्रॉयड थ्री एसेज़ ऑन दि थियरी ऑ सेक्शुअलिटी के संधान में व्यस्त हो गए। फ्रॉयड के प्रभाव से कोई नहीं बचा। गैर-पश्चिमी समानों के मानवशास्त्रीय अध्ययनों पर भी उनका असर देखा जा सकती है। ब्रोनिस्लाव मैलिनोव्स्की की रचनाओं के बाद तो सेक्शुअलिटी, मनोविश्लेषण और संस्कृति के अध्ययन का एक त्रिकोण ही तैयार हो गया।
साठ का दशक पश्चिमी समान में यौन क्रांति का दशक था जिसके दौरान सेक्शुअलिटी से संबंधित कई तरह के सिद्धांत चलन में आए। नारीवागी समूहों ने सेक्स पर बहस का राजनीतिकरण कर दिया। कहा गया कि सत्ता और पितृसत्ता की समझ के बिना सेक्स (चाहे वह दमित हो या उन्मुक्त) और बलात्कार पर बात नहीं की जा सकती। न ही साहित्य की सेक्शुअल राजनीति पर और न ही गर्भपात के अधिकार पर सवाल पर चर्चा हो सकती है। सूसन ब्राउनमिलर जैसी नारीवादियों ने फ्रॉयड और अन्य सिद्धांतकारों पर आरोप लगाया कि वे बलात्कार के प्रश्न को नजरअंदाज करते हैं, और इस तरह वास्तविक जीवन में शिशन को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किए जाने की हकीकत की तरफ ध्यान नहीं देते। बाद में रेडिकल नारीवाद का प्रभाव जैसे-जैसे क्षीण हुआ, फ्रॉयड की रचनाओं में दिलचस्पी बढ़ी। जॉक लकाँ ने फ्रायड की वापसी की घोषणा की। सत्तर की शुरूआत में नारीवादी और मनोविश्लेषण के बीच रिश्तों को गहरी निगाह से देखते हुए फ्रांस की जूलियर इरिगारे और ब्रिटेन की जूलियट मिशेल, जेकलीन रोज़ और लौरा मुलवी ने फ्रायड, लकाँ और स्त्री सेक्शुअलिटी की धारणाओं की बेहतरीन रक्षात्मक व्याख्या की।
इरिगारे कहती हुई नजर आई कि फ्रायड के सिद्धांत अपने ही अंतर्विरोधों से ग्रस्त हैं। उनका काम संबंधी अर्थशास्त्र इकहरा है जिसमें शिशन की सत्ता के तहस ‘स्त्री’, उसकी सेक्शुअलिटी और स्त्रीत्व की समस्या विश्लेषण से परे चली जाती है। उधर जूलियट मिशेल ने एक नए नजरिए से दावा किया कि यौन भिन्नता सामाजिक और निजी जीवन की गतिशीलता पर असर डालती हैं, और इस तरह नारीवाद और सामाजवाद के बीच एक सूत्र निकलता है। इसके दस साल बाद रोज़ ने कहा कि नारीवाद और मनोविश्लेषण एक ही परियोजना के अंशों की तरह देखे जाने चाहिए। यह बात उन्होंने स्त्री सेक्शुअलिटी के अस्थिर होने और अवचेतन द्वारा सेक्शुअल अस्मिता अमान्य करने पर लकाँ द्वारा दिए जाने वाले जोर की रोशनी में कही थी।
बीसवीं सदी में एक विषय के रूप में सेक्शुअलिटी के विकास के पाँच प्रमुख आयाम हैं : सिग्मंड फ्रायड की रचनाएँ साठ के दशक में स्त्री आंदोलन की रेडिकल ‘सेक्शुअल राजनीति’, जाक लकाँ और ‘फ्रांसीसी’ नारीवादी की रेडिकल ‘सेक्शुअल राजनीति’, जाक लकाँ फ्रांसीसी’ नारीवादी सिद्धान्त, मिशेल फूको द्वारा सेक्शुअलिटी का इतिहास और हाल ही में निकाला गया सेक्शुअलिटी का नया मतलब यानी सेक्शुअलिटी को सेक्शुअल चुनाव के रूप में देखना।
फॉयड की हैसियत आज भी सेक्शुअलिटी के महा-सिद्धांतकार की है। 1893 में उन्होंने अपने विद्वान साथियों के साथ उन्माद की प्रकृति पर अनुसंधान किया। इसके बाद फ्रॉयड थ्री एसेज़ ऑन दि थियरी ऑ सेक्शुअलिटी के संधान में व्यस्त हो गए। फ्रॉयड के प्रभाव से कोई नहीं बचा। गैर-पश्चिमी समानों के मानवशास्त्रीय अध्ययनों पर भी उनका असर देखा जा सकती है। ब्रोनिस्लाव मैलिनोव्स्की की रचनाओं के बाद तो सेक्शुअलिटी, मनोविश्लेषण और संस्कृति के अध्ययन का एक त्रिकोण ही तैयार हो गया।
साठ का दशक पश्चिमी समान में यौन क्रांति का दशक था जिसके दौरान सेक्शुअलिटी से संबंधित कई तरह के सिद्धांत चलन में आए। नारीवागी समूहों ने सेक्स पर बहस का राजनीतिकरण कर दिया। कहा गया कि सत्ता और पितृसत्ता की समझ के बिना सेक्स (चाहे वह दमित हो या उन्मुक्त) और बलात्कार पर बात नहीं की जा सकती। न ही साहित्य की सेक्शुअल राजनीति पर और न ही गर्भपात के अधिकार पर सवाल पर चर्चा हो सकती है। सूसन ब्राउनमिलर जैसी नारीवादियों ने फ्रॉयड और अन्य सिद्धांतकारों पर आरोप लगाया कि वे बलात्कार के प्रश्न को नजरअंदाज करते हैं, और इस तरह वास्तविक जीवन में शिशन को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किए जाने की हकीकत की तरफ ध्यान नहीं देते। बाद में रेडिकल नारीवाद का प्रभाव जैसे-जैसे क्षीण हुआ, फ्रॉयड की रचनाओं में दिलचस्पी बढ़ी। जॉक लकाँ ने फ्रायड की वापसी की घोषणा की। सत्तर की शुरूआत में नारीवादी और मनोविश्लेषण के बीच रिश्तों को गहरी निगाह से देखते हुए फ्रांस की जूलियर इरिगारे और ब्रिटेन की जूलियट मिशेल, जेकलीन रोज़ और लौरा मुलवी ने फ्रायड, लकाँ और स्त्री सेक्शुअलिटी की धारणाओं की बेहतरीन रक्षात्मक व्याख्या की।
इरिगारे कहती हुई नजर आई कि फ्रायड के सिद्धांत अपने ही अंतर्विरोधों से ग्रस्त हैं। उनका काम संबंधी अर्थशास्त्र इकहरा है जिसमें शिशन की सत्ता के तहस ‘स्त्री’, उसकी सेक्शुअलिटी और स्त्रीत्व की समस्या विश्लेषण से परे चली जाती है। उधर जूलियट मिशेल ने एक नए नजरिए से दावा किया कि यौन भिन्नता सामाजिक और निजी जीवन की गतिशीलता पर असर डालती हैं, और इस तरह नारीवाद और सामाजवाद के बीच एक सूत्र निकलता है। इसके दस साल बाद रोज़ ने कहा कि नारीवाद और मनोविश्लेषण एक ही परियोजना के अंशों की तरह देखे जाने चाहिए। यह बात उन्होंने स्त्री सेक्शुअलिटी के अस्थिर होने और अवचेतन द्वारा सेक्शुअल अस्मिता अमान्य करने पर लकाँ द्वारा दिए जाने वाले जोर की रोशनी में कही थी।
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