सिनेमा एवं मनोरंजन >> राजकपूर : आधी हकीकत आधा फसाना राजकपूर : आधी हकीकत आधा फसानाप्रहलाद अग्रवाल
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आधी हकीकत आधा फसाना
Aadhi Hakikat Aadha Fasana - A Hindi Book - by Prahlad Agarwal
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जिन्दगी जितनी सख्त हैं
आदमी उतनी ही कोमलता ढूँढ़ता हैं।
दुख जितने सघन होते हैं,
खुशी की एक-एक किरच के लिए
आदमी की छटपटाहट उतनी ही तेज हो जाती है
जख्मों से भरा सीना लिये हुए भी
हँसता, गीत गाता है आदमी।
इस आदमी को,
पीड़ा के बीच भी जिन्दगी की
कभी न बुझनेवाली तड़प को
परदे पर राजकपूर ने साकार किया है।
परदे पर राजकपूर की छवि वह सोचने को मजबूर करती है कि क्या कोई मनुष्य इतना निश्छल, कोमल और मासूम भी हो सकता है ? चार दिल चार राहें का वह निष्ठावान नवयुवक जो भंगिन को ब्याह लाने के लिए ढोल बजानेवाले लड़के के साथ अकेला ही निकल पड़ा है, जिन्दगी की चालाक सच्चाइयों से बेखबर अनाड़ी नंगी सच्चाई को देख लेने की सजा भुगतता जागते रहो का माटीपुत्र, ईमानदारी से जिंदा रहने की लालसा लिये ईमान बेचने को मजबूर श्री 420 का शिक्षित बेरोजगारी, तालियों की गड़गड़ाहट और दर्शकों की किलकारियों के बीच अपनी माँ की मौत का आँसुओं की नकली पिचकारी छोड़कर मातम मनाता जोकर-ये सब राजकपूर ही है। और रेणु की माटी के आदमी की आत्मा में प्रवेश कर जानेवाला तीसरी कसम का हीरामन भी यही है।
ये किरदार इसलिए, अनोखे बन पड़े हैं क्योंकि इनमें जिन्दगी का संगीत है। दुखों और अभावों के बीच कहराची मानवता का मजाक नहीं उड़ाया गया है। तकलीफों के बयान में महानता का मुलम्मा भी नहीं चढ़ाया गया है।
वह आह में अपनी नायिका से कहता है-‘जी हाँ, मैं सपने बहुत देखता हूँ। सपने जो नई दुनिया को रचने में मदद करते हैं। सपने जो न हो तो आदमी भले ही रहे, उसकी आँखों में उजाला और होठों पर मुस्कान कभी न रहे। यही ,सपने राजकपूर की सबसे बड़ी मिल्कियत हैं।
राजकपूर के रचनात्मक व्यक्तित्व को परत-दर-परत खोलनेवाली एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक।
आदमी उतनी ही कोमलता ढूँढ़ता हैं।
दुख जितने सघन होते हैं,
खुशी की एक-एक किरच के लिए
आदमी की छटपटाहट उतनी ही तेज हो जाती है
जख्मों से भरा सीना लिये हुए भी
हँसता, गीत गाता है आदमी।
इस आदमी को,
पीड़ा के बीच भी जिन्दगी की
कभी न बुझनेवाली तड़प को
परदे पर राजकपूर ने साकार किया है।
परदे पर राजकपूर की छवि वह सोचने को मजबूर करती है कि क्या कोई मनुष्य इतना निश्छल, कोमल और मासूम भी हो सकता है ? चार दिल चार राहें का वह निष्ठावान नवयुवक जो भंगिन को ब्याह लाने के लिए ढोल बजानेवाले लड़के के साथ अकेला ही निकल पड़ा है, जिन्दगी की चालाक सच्चाइयों से बेखबर अनाड़ी नंगी सच्चाई को देख लेने की सजा भुगतता जागते रहो का माटीपुत्र, ईमानदारी से जिंदा रहने की लालसा लिये ईमान बेचने को मजबूर श्री 420 का शिक्षित बेरोजगारी, तालियों की गड़गड़ाहट और दर्शकों की किलकारियों के बीच अपनी माँ की मौत का आँसुओं की नकली पिचकारी छोड़कर मातम मनाता जोकर-ये सब राजकपूर ही है। और रेणु की माटी के आदमी की आत्मा में प्रवेश कर जानेवाला तीसरी कसम का हीरामन भी यही है।
ये किरदार इसलिए, अनोखे बन पड़े हैं क्योंकि इनमें जिन्दगी का संगीत है। दुखों और अभावों के बीच कहराची मानवता का मजाक नहीं उड़ाया गया है। तकलीफों के बयान में महानता का मुलम्मा भी नहीं चढ़ाया गया है।
वह आह में अपनी नायिका से कहता है-‘जी हाँ, मैं सपने बहुत देखता हूँ। सपने जो नई दुनिया को रचने में मदद करते हैं। सपने जो न हो तो आदमी भले ही रहे, उसकी आँखों में उजाला और होठों पर मुस्कान कभी न रहे। यही ,सपने राजकपूर की सबसे बड़ी मिल्कियत हैं।
राजकपूर के रचनात्मक व्यक्तित्व को परत-दर-परत खोलनेवाली एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक।
नवीन संस्करण पर चंद बातें
यह किताब 1984 में पहली बार प्रकाशित हुई थी। राधाकृष्ण प्रकाशन के तत्कालीन संचालन श्री अरविन्द कुमार ने इसे सजिल्द एवं पेपरबैंक संस्करणों में एक साथ रुचिपूर्वक छापा था। इसको विद्वज्जनों से लेकर सामान्य पाठकों तक का जैसा व्यापक स्नेह मिला, उसका शुक्रिया अदा करने के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं। अनेक कृपालु साहित्य मनीषियों ने भी आलोचनाओं और तारीफों के उस पार इसे मुहब्बत इनायत की। उन अग्रज लेखकों ने, जो हमारे प्रेरणास्रोत रहे है, इसे अपना आर्शीर्वाद दिया। हमारे लिए सन्तोष की बात है कि दो दशक से अधिक गुजर जाने के बावजूद यह किताब आज भी मनीषियों के दिलों पर कहीं दस्तक देती हैं। ‘अहा ! ज़िन्दगी’ (अगस्त’ 2005) में हमारी नई किताब प्यासाः चिर अतृप्त गुरुदत्त’ पर टिप्पणी करते हुए श्री सुधीश पचौरी ने लिखा-‘फिल्म और जिन्दगी के बीच की दीवार ढहानेवाले गुरुदत्त की सम्पूर्ण रचना-प्रक्रिया को आसानी से समझा सकनेवाली अनमोल किताब।’ और उन्होंने लेखक का परिचय इन शब्दों में दिया-‘प्रहलाद अग्रवाल लेखक-वही जिन्होंने राजकपूरः आधी हकीकत आधा फसाना लिखी थी। फिल्मों पर इतनी तन्मयता से लिखते कितने हैं।’ इंडिया टुडे (9 नवम्बर 2005) में श्री विजय मोहन सिंह ने भी हमारी किताब कवि शैलेन्द्रः जिन्दगी की जीत में यकीन की समीक्षा में इसका स्मरण करते हुए लिखा-‘हिन्दी में फिल्मी व्यक्तियों के रचनात्मक अवदान पर बहुत कम पुस्तकें लिखी गई हैं किन्तु प्रहलाद अग्रवाल प्रारम्भ से ही इस दिशा मे सक्रिय रहे हैं। प्रस्तुत पुस्तक से पूर्व उन्होंने राजकपूर पर आधी हकीकत आधा फसाना नाम की किताब लिखी थी जो पर्याप्त चर्चित हुई थीं।’
इस किताब का एक-एक शब्द इसके प्रकाशन के पूर्व और बाद में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ। कई बार थोड़ा-बहुत फेरबदल कर और हूबहू भी इस किताब के अंश लोगों ने अपने नाम से छपवाए। एक महत्त्वपूर्ण पत्रकार महोदय ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी तत्कालीन शीर्षस्थ पत्रिका में अपने एक लेख में इस पुस्तक के कई पृष्ठ शब्दशः उतार दिए। बाद में हमारे द्वारा आपत्ति जताने पर साप्ताहिक हिन्दुस्तान के 23 फरवरी। 1986 के अंक में भूल सुधार के नाम पर छापा गया-‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान के 22 दिसम्बर 1985 अंक में प्रकाशित लेख ‘संगीत-रोमांस और सैक्स का जादूगर राजकपूर’ श्री प्रहलाद अग्रवाल की बहुचर्चित पुस्तक राजकपूरः आधी हकीकत आधा फसाना पर आधारित था।’’ गरज यह कि इस पर तरह-तरह से जो मुझे प्रोत्साहन मिला वह हमारे लिए कल्पनातीत था। स्वयं श्री राजकपूर ने हमें मिलने के लिए बुलवाया। उनसे और रविवार मे इनसे सम्बन्धित दो विस्तृत आलेख प्रकाशित हुए। उन्हें भी इस पुस्तक में अब सम्मिलित कर दिया गया है। यह किताब राजकपूर के जीवित रहते ही लिखी गई थी, तब उन्होंने राम तेरी गंगा मैली नहीं बनाई थी। इसके प्रदर्शन के उपरान्त परिवर्तन (कलकत्ता) में प्रकाशित आलेख जिस्म की हर बात है आवारगी ये मत कहो भी इसमें अन्त में जोड़ दिया गया है।
इस किताब की आलोचना मे एक ही बात खासतौर से कही गई कि लेखक राजकपूर की मुहब्बत से ग्रस्त है। इस आलोचना से बढ़कर हमें अपनी कोई तारीफ बेहतर नहीं लगी। बेशक हम राजकपूर की मुहब्बत से ग्रस्त हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो हम सिनेमा पर कभी लिखते ही नहीं। नादान उम्र में ही यह मासूम छवि पर्दें से सीधे हमारे दिल में उतरकर गुनगुना गई थी-मैं बताँऊ जी ? मेरे को सब मालूम है। जो दुनियादारी की बात है तो बेवकूफ बनिए। समझदार की तो जमाने में मौत है ही। दुनिया के सारे मौज-मजे बेवकूफियों में है।
हमने किताब समर्पित ही राजकपूर की उस छवि को की थी जो आसमान छूने की नहीं, आसमान को ज़मीन तक खींच लाने की कशिश पैदा करती है। सिनेमा छवियों का ही खेल हैं। साहित्यकार कलम से अपनी भावनाओं को शब्दों के माध्यम से कागज पर उतारता है। फिल्मकार अपनी नजर से कैमरे के माध्यम से अपनी भावनाएँ गतिशील चित्रों में अंकित करता हैं। अपने चिंत्राकन मे लगभग हर कलात्मक विधा का सहयोग लेने के लिए वह स्वतंत्र होता है। इस तरह सिनेमा नाटक की ही भाँति विभिन्न विधाओं का समायोजन करनेवाली विधा है। पर तब भी वह समेकित निर्देशक की दुष्टि में और पर्दें पर प्रक्षेपित छवियों के माध्यम से ही होती है। ये छवियाँ निर्गुण और सगुण दोनों प्रकार की होती है। 1945 से 70 के दरमियानी पच्चीस साल, जिसे हिन्दी सिनेमा का स्वर्ण युग भी कहा जाता है, उस दौर में अनेक निर्देशकों की ऐसी निर्गुण छवियाँ मौजूद थीं जिनकी वर्चस्व बड़े से बड़े अभिनेताओं की सगुण छवियों पर स्थापित था। आज इक्कीसवीं सदी में पुनः निर्देशक की खोई हुई अस्मिता लौटती दिखलाई पड़ती है।
जहाँ साहित्य की पैठ मात्र पढ़े-लिखे और प्रबुद्धजनों तक ही होती है, वही सिनेमा समाज के अन्तिम आदमी तक पहुँचता है। इसलिए इन दिनों माध्यमों की कहन और शैली में अन्तर होना स्वाभाविक है। यह जटिलताओं को भी सहजता तक ले जानेवाला माध्यम है। इन छवियों के आकर्षण ने ही सिनेमा को प्रभावोत्पादक बनाया है। ईमानदारी की बात तो यह है कि साहित्य के अध्ययन से भी पाठक के भीतर जो छवियाँ निर्मित होती हैं वे ही किसी रचना को लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण बनाती हैं।
हमारे लिए राजकपूर की छवि माशूक का दर्जा रखती है। फिर हमारा माशूक बड़ा हरजाई है। जिसने दुनिया की तमाम खूबसूरतियों मे अपना जलवा दिखला दिया। राजकपूर की छवि की आशिकी ने हमें समूचे सिनेमा का आशिक बनाया। आज भी उसकी कहन की अनुगूँज हिन्दी सिनेमा में मौजूद है कि हम तुम्हारे साथ है, सदा तुम्हारे साथ रहेंगे। जीना यहाँ, मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ। राजकपूर के बाद की पीढ़ी के यश चोपड़ा, मनमोहन देसाई और सुभाष घई जैसे सफलतम निर्देशक राजकपूर के मुरीद रहे हैं। वहीं इक्कीसवीं सदी के आदित्य चोपड़ा, सूरज बड़जात्या, करण जौहर प्रभृति सबसे सफल फिल्मकार राजकपूर के अवदान से अत्यधिक प्रभावित हैं। यह राजकपूर की भविष्यदृष्टि की सम्पन्नता ही थी जो आज उसे सबसे बढ़कर प्रासंगिक बनाए हुए हैं। हिन्दी सिनेमा की मूलधारा में गुरुदत्त और राजकपूर ही वे फिल्मकार हैं जिनमें मौजूदा दौर के फिल्मकारों ने सर्वाधिक प्रभाव ग्रहण किया है। मेरा नाम जोकर और कागज के फूल जो अपने समय में टिकिट खिड़की पर नाकामयाब हुई थी, आज की पीढ़ी को सम्मोहित करती हैं।
सबसे बढ़कर यह कि इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद गम्भीर साहित्यिक पत्रिकाओं ने सिनेमा पर हमारे आलेखों को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रकाशित किया। हिन्दी सिनेमा की मूलधारा के अवदान को रेखांकित करने का हमारा अकिंचन प्रयास किसी हद तक सफल हुआ। वी. शान्ताराम, महबूब खान, बिमल, राय, राजकपूर, गुरुदत्त से लेकर ऋषिकेस मुखर्जी, यश चोपड़ा मनमोहन देसाई, श्याम बेनेगल, सुभाष घई से होती हुई सूरज बड़जात्या, आदित्य चोपड़ा संजय लीला भंसाली, करण चौहर, विधू विनोद चोपड़ा, फरहान अख्तर तक हिन्दी सिनेमा के श्रेष्ठ फिल्मकारों की परम्परा कायम हैं। इनके समुचित मूल्याकंन की अभी यह शुरुआत ही है। हमें विश्वास है कि इस दिशा में आगे अनेक प्रतिभावान लोग सक्रिय होंगे जो इसके विस्तृत प्रभाव क्षेत्र और अवदान की प्रखर व्याख्या और विश्लेषण करेंगे। इस दिशा में हमारा पिछले कोई तीन दशकों से अनवरत जारी है। जिसकी अगली कड़ी सुभाष घई की रचना-प्रक्रिया का विवेचन हैं। इसके साथ ही अन्य महत्त्वपूर्ण फिल्मकारों और अभिनेताओं के कृतित्व पर भी हमने लगातार काम किया है जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है और यथासमय पुस्तकाकार सामने आएगा, ऐसी उम्मीद है।
इस किताब का एक-एक शब्द इसके प्रकाशन के पूर्व और बाद में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ। कई बार थोड़ा-बहुत फेरबदल कर और हूबहू भी इस किताब के अंश लोगों ने अपने नाम से छपवाए। एक महत्त्वपूर्ण पत्रकार महोदय ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी तत्कालीन शीर्षस्थ पत्रिका में अपने एक लेख में इस पुस्तक के कई पृष्ठ शब्दशः उतार दिए। बाद में हमारे द्वारा आपत्ति जताने पर साप्ताहिक हिन्दुस्तान के 23 फरवरी। 1986 के अंक में भूल सुधार के नाम पर छापा गया-‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान के 22 दिसम्बर 1985 अंक में प्रकाशित लेख ‘संगीत-रोमांस और सैक्स का जादूगर राजकपूर’ श्री प्रहलाद अग्रवाल की बहुचर्चित पुस्तक राजकपूरः आधी हकीकत आधा फसाना पर आधारित था।’’ गरज यह कि इस पर तरह-तरह से जो मुझे प्रोत्साहन मिला वह हमारे लिए कल्पनातीत था। स्वयं श्री राजकपूर ने हमें मिलने के लिए बुलवाया। उनसे और रविवार मे इनसे सम्बन्धित दो विस्तृत आलेख प्रकाशित हुए। उन्हें भी इस पुस्तक में अब सम्मिलित कर दिया गया है। यह किताब राजकपूर के जीवित रहते ही लिखी गई थी, तब उन्होंने राम तेरी गंगा मैली नहीं बनाई थी। इसके प्रदर्शन के उपरान्त परिवर्तन (कलकत्ता) में प्रकाशित आलेख जिस्म की हर बात है आवारगी ये मत कहो भी इसमें अन्त में जोड़ दिया गया है।
इस किताब की आलोचना मे एक ही बात खासतौर से कही गई कि लेखक राजकपूर की मुहब्बत से ग्रस्त है। इस आलोचना से बढ़कर हमें अपनी कोई तारीफ बेहतर नहीं लगी। बेशक हम राजकपूर की मुहब्बत से ग्रस्त हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो हम सिनेमा पर कभी लिखते ही नहीं। नादान उम्र में ही यह मासूम छवि पर्दें से सीधे हमारे दिल में उतरकर गुनगुना गई थी-मैं बताँऊ जी ? मेरे को सब मालूम है। जो दुनियादारी की बात है तो बेवकूफ बनिए। समझदार की तो जमाने में मौत है ही। दुनिया के सारे मौज-मजे बेवकूफियों में है।
हमने किताब समर्पित ही राजकपूर की उस छवि को की थी जो आसमान छूने की नहीं, आसमान को ज़मीन तक खींच लाने की कशिश पैदा करती है। सिनेमा छवियों का ही खेल हैं। साहित्यकार कलम से अपनी भावनाओं को शब्दों के माध्यम से कागज पर उतारता है। फिल्मकार अपनी नजर से कैमरे के माध्यम से अपनी भावनाएँ गतिशील चित्रों में अंकित करता हैं। अपने चिंत्राकन मे लगभग हर कलात्मक विधा का सहयोग लेने के लिए वह स्वतंत्र होता है। इस तरह सिनेमा नाटक की ही भाँति विभिन्न विधाओं का समायोजन करनेवाली विधा है। पर तब भी वह समेकित निर्देशक की दुष्टि में और पर्दें पर प्रक्षेपित छवियों के माध्यम से ही होती है। ये छवियाँ निर्गुण और सगुण दोनों प्रकार की होती है। 1945 से 70 के दरमियानी पच्चीस साल, जिसे हिन्दी सिनेमा का स्वर्ण युग भी कहा जाता है, उस दौर में अनेक निर्देशकों की ऐसी निर्गुण छवियाँ मौजूद थीं जिनकी वर्चस्व बड़े से बड़े अभिनेताओं की सगुण छवियों पर स्थापित था। आज इक्कीसवीं सदी में पुनः निर्देशक की खोई हुई अस्मिता लौटती दिखलाई पड़ती है।
जहाँ साहित्य की पैठ मात्र पढ़े-लिखे और प्रबुद्धजनों तक ही होती है, वही सिनेमा समाज के अन्तिम आदमी तक पहुँचता है। इसलिए इन दिनों माध्यमों की कहन और शैली में अन्तर होना स्वाभाविक है। यह जटिलताओं को भी सहजता तक ले जानेवाला माध्यम है। इन छवियों के आकर्षण ने ही सिनेमा को प्रभावोत्पादक बनाया है। ईमानदारी की बात तो यह है कि साहित्य के अध्ययन से भी पाठक के भीतर जो छवियाँ निर्मित होती हैं वे ही किसी रचना को लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण बनाती हैं।
हमारे लिए राजकपूर की छवि माशूक का दर्जा रखती है। फिर हमारा माशूक बड़ा हरजाई है। जिसने दुनिया की तमाम खूबसूरतियों मे अपना जलवा दिखला दिया। राजकपूर की छवि की आशिकी ने हमें समूचे सिनेमा का आशिक बनाया। आज भी उसकी कहन की अनुगूँज हिन्दी सिनेमा में मौजूद है कि हम तुम्हारे साथ है, सदा तुम्हारे साथ रहेंगे। जीना यहाँ, मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ। राजकपूर के बाद की पीढ़ी के यश चोपड़ा, मनमोहन देसाई और सुभाष घई जैसे सफलतम निर्देशक राजकपूर के मुरीद रहे हैं। वहीं इक्कीसवीं सदी के आदित्य चोपड़ा, सूरज बड़जात्या, करण जौहर प्रभृति सबसे सफल फिल्मकार राजकपूर के अवदान से अत्यधिक प्रभावित हैं। यह राजकपूर की भविष्यदृष्टि की सम्पन्नता ही थी जो आज उसे सबसे बढ़कर प्रासंगिक बनाए हुए हैं। हिन्दी सिनेमा की मूलधारा में गुरुदत्त और राजकपूर ही वे फिल्मकार हैं जिनमें मौजूदा दौर के फिल्मकारों ने सर्वाधिक प्रभाव ग्रहण किया है। मेरा नाम जोकर और कागज के फूल जो अपने समय में टिकिट खिड़की पर नाकामयाब हुई थी, आज की पीढ़ी को सम्मोहित करती हैं।
सबसे बढ़कर यह कि इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद गम्भीर साहित्यिक पत्रिकाओं ने सिनेमा पर हमारे आलेखों को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रकाशित किया। हिन्दी सिनेमा की मूलधारा के अवदान को रेखांकित करने का हमारा अकिंचन प्रयास किसी हद तक सफल हुआ। वी. शान्ताराम, महबूब खान, बिमल, राय, राजकपूर, गुरुदत्त से लेकर ऋषिकेस मुखर्जी, यश चोपड़ा मनमोहन देसाई, श्याम बेनेगल, सुभाष घई से होती हुई सूरज बड़जात्या, आदित्य चोपड़ा संजय लीला भंसाली, करण चौहर, विधू विनोद चोपड़ा, फरहान अख्तर तक हिन्दी सिनेमा के श्रेष्ठ फिल्मकारों की परम्परा कायम हैं। इनके समुचित मूल्याकंन की अभी यह शुरुआत ही है। हमें विश्वास है कि इस दिशा में आगे अनेक प्रतिभावान लोग सक्रिय होंगे जो इसके विस्तृत प्रभाव क्षेत्र और अवदान की प्रखर व्याख्या और विश्लेषण करेंगे। इस दिशा में हमारा पिछले कोई तीन दशकों से अनवरत जारी है। जिसकी अगली कड़ी सुभाष घई की रचना-प्रक्रिया का विवेचन हैं। इसके साथ ही अन्य महत्त्वपूर्ण फिल्मकारों और अभिनेताओं के कृतित्व पर भी हमने लगातार काम किया है जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है और यथासमय पुस्तकाकार सामने आएगा, ऐसी उम्मीद है।
14 दिसम्बर, 2006
प्रहलाद अग्रवाल
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