उपन्यास >> हरिया हरक्यूलीज की हैरानी हरिया हरक्यूलीज की हैरानीमनोहर श्याम जोशी
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जोशी जी के अद्भुत शिल्प और कथा-कौशल की नुमाइंदगी करता हुआ एक अलग ढंग का उपन्यास....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पहले बिरादरी को हैरानी हुआ करती थी कि हरिया को किसी बात से हैरानी क्यों
नहीं होती, लेकिन अचानक हरिया के सामने हैरानी का दरवाजा जो खुला तो वह
हैरानी के तिलिस्म में उतरता ही चला गया। यहाँ तक कि बिरादरी की हैरानियों
पर भारी पड़ने लगा। हैरानी को लेकर जितनी व्याख्याएँ लोगों के पास थीं, वे
कहानियों की शक्ल में बहने लगीं। और तब सवाल उठा इन कहानियों को सुरक्षित
रखने, बिरादरी के विरसे में शामिल करने का। बुजुर्गों को चिंता हुई कि
कहीं ये कहानियाँ आपस ही में टकराकर खत्म न हो जाएँ। लेकिन बिरादरी के एक
मेधावी युवक ने उन्हें भरोसा दिलाया कि हरिया की हैरानी हमेशा रहेगी
क्योंकि हैरानी के बिना कहानी नहीं होती और कहानी के बिना बिरादरी नहीं
होती।
जोशीजी के अद्भुत शिल्प और कथा-कौशल की नुमाइंदगी करता हुआ एक अलग ढंग का उपन्यास।
जोशीजी के अद्भुत शिल्प और कथा-कौशल की नुमाइंदगी करता हुआ एक अलग ढंग का उपन्यास।
हरिया हरक्यूलिज़ की हैरानी
हरिहर दत्त तिवारी उर्फ हरिया हरक्यूलिज ईसाई संवत् 1969 के (हमारा अपनी
विद्रमी संवत् क्या चल रहा है, यह याद रखना हमारी बिरादरी तब भी भूलने लगी
थी) उस कथाख्यात दिन से पहले कभी हैरान नहीं हुआ था, इसलिए उसकी हैरानी
हमारी बिरादरी के लिए क्रमशः एक लम्बी और पेचदार कहानी बनती चली गयी।
तब तक टेलीविजन का घर-घर चलन नहीं हुआ था। हमारी बिरादरी में सान्ध्य-वन्दन में सुरश्रेष्ठ का विसर्जन करके पारलौकिक व्यापारों से छुट्टी पाकर और उसके बाद रात को भोजन करके इहलौकिक व्यापारों से भी मुक्त होकर कथा-कहानी सुन-सुनाकर अद्भुत रस का उचित मात्रा में आस्वादन करने-कराने का रिवाज अभी चल ही रहा था। ऐसा माना जाता था कि उचित मात्रा में अद्भुत का आस्वादन करने से स्वप्न-प्रसूता सुख-निद्रा की प्राप्ति होती है। अद्भुत का आस्वादन निषिद्ध था, क्योंकि समझा जाता था कि उससे व्यक्ति को, उसके पूर्व संस्कारों के अनुसार, या तो अद्भुत के प्रति वितृष्णा हो जाती है और वह अत्यन्त साधारण यथार्थ की ओर उसी तरह दौड़ती है, जिस तरह धनाढ्य व्यक्ति गरिष्ठ आहार से अजीर्ण का शिकार होकर निर्धन की रुखी-सूखी रोटी की ओर लपकता है, या फिर वह यथार्थ से ऊपर उठकर अद्भुत में ही लीन हो जाता है और इसलिए, हरिया हरक्यूलिज की तरह, स्वयं उन स्वप्न-गन्धा कथाओं का पात्र बनता है, जिनका बाद में हमारी बिरादरी सुख-निद्रा की साधना में उपयोग करती है।
हरिया की हैरानी की शुरुआत की तारीख हमारी बिरादरी को ठीक-ठीक याद नहीं है, तिथि अलबत्ता याद है। तब तक भी हमारे लिए विश्वसनीय सूर्य की तारीखें बेमतलब थीं। हम अपने समस्त निजी कार्यों में चंचलमना चन्द्र की तिथियों का ही उपयोग करते थे। इसलिए हरिया हरक्यूलीज की हैरानी की कहानी शुरू करते हम आज भी यह कहते हैं कि यह सन् उनहत्तरी की जन्यो-पुण्यु1 के बाद की द्वितीया की बात है कि हरिया हरक्यूलिज जिन्दगी में पहली बार हैरान हुआ और सो भी गू-2 जैसी, अब और क्या कह सकते हो, गू चीज के मारे।
ऐसा नहीं कि हरिया के पास इससे पहले हैरान-परेशान होने का कभी कोई कारण न रहा हो। बल्कि सच तो यह है कि उस अधेड़, अकालवृद्ध, गंजे और गमखोर चिरकुँवारे हरिया के लिए हैरान होने के एक नहीं, हजारों कारण रहे थे। अपने पिता के पाँच पुत्रों में से केवल वही जीवित बचा था और उस पर अपने बड़े भाइयों के बाल-बच्चों की परवरिश की ही नहीं, अपने तिरासी वर्षीय रुग्ण और अन्धे पिता की तीमारदारी का भी पूरा भार पड़ा था। फिर भी उसे कभी हैरान-परेशान होता नहीं देखा गया। उसके परेशान न होने को कुछ लोग उसके परम मूढ़ होने का लक्षण मानते रहे थे। अगर हरिया का उपनाम ‘हरक्यूलीज’ न चल चुका होता तो लोग-बाग उसे हरिया ‘मदुआ’ यानी हरिया बुद्धू के नाम से मशहूर कर देते। उसके पिता राय साहब गिरवाण दत्त तिवारी तो उसे अक्सर ‘मदुआ’ ही पुकारा करते थे।
यों तो हिरवाण दत्त जी को अपने पाँचों ही बेटे, जिन्हें उनकी पत्नी ‘हमारे पाँच पांडव’ कहा करती थीं, स्वयं के मुकाबले में कमतल ही लगे—आखिर उनमें से कोई भी उनकी तरह से जंगलात महकमे में कैम्प क्लर्क की हैसियत से नौकरी शुरू करके किसी रियासत का दीवान बन जाने-जैसा कोई करिश्मा नहीं दिखा पाया—लेकिन सबसे बाद में पैदा हुआ, पढ़ने में सबसे फिसड्डी हरिया, उनकी दृष्टि में विशेष रूप से निराशाजनक ठहरा।
दिखने-सुनने में वह अपनी नाटी, साँवली और किंचित् चपटी नाक वाली नानी पर गया था। उसे न माँ की बड़ी-बड़ी काली आँखें और नुकीली ठोढ़ी नसीब हुई थी और न पिता की गोरी-चिकनी चमड़ी, लम्बी-तीखी नाक, गड्ढेदार गाल और पतले-पतले ओंठों से युक्त वह खूबसूरती, जिसके कारण जवानी में वह गिरुआ ‘गौहरजान’ कहलाये और एक देसी रियासत में कैम्प क्लर्क बनाकर ले जाने वाले अंग्रेज वन अधिकारी से लेकर उस रियासत की महारानी तक कोई बुजुर्ग स्त्री-पुरुषों के विशेष स्नेह-भाजन बन सके।
पढ़ने-लिखने में भी हरिया मामूली साबित हुआ। मैट्रिक तीन कोशिशों में पास कर सका। और सो भी हिन्दी-रत्न के जरिये। टाइप के इम्तहान में भी अंग्रेजी कमजोर होने की वजह से रह गया। गिरवाण दत्त जी ने किसी तरह कह-सुनकर उसे दफ्तरी लगवाया। प्राइवेट इण्डर-बी.ए. कुछ कर लेता तो असिस्टेण्ट तो बनवा ही देते। मुश्किल से एल.डी.सी. करा पाये उसे।
गिरवाण दत्त जी अक्सर गुस्से में आकर हरिया से कहते कि अगर भगवान को बुढ़ापे में मेरी सेवा के लिए पाँच में से एक ही बेटा बचाना था तो उसने तुझे ही क्यों चुना रे मदुआ ? सबसे बड़ा कृपाल इम्पीरियल बैंक में खजांची लगा था, दूसरा गिरीश फारेस्ट सर्विस में आ गया था, तीसरा शिरीष रेलवे में इंजीनियर हो गया था और चौथा गिरिजी, जो अपने बाप का अस्सल बेटा था’, ‘आई.ए.एस. में चुन लिया गया था। क्यों जो उन चारों को अपनी पैंतीसलीं होली-दीवाली देखना भी नसीब न हुआ और क्यों तू बचपन में बीस तरह की बीमारियाँ होने के बावजूद जिन्दा रहा ?
परमात्मा के इस परम अन्याय पर राय सैप1 की हैरानी में सारी बिरादरी भागीदारी करती, लेकिन हरिया पर उसका कोई असर न होता।
यों कभी-कभी गिरवाण दत्त जी को यह लगता, और वह इसे केवल हरिया के सामने ही नहीं, लोगों के बीच भी स्वीकार करते, कि शायद इस परम मूढ़ को परमेश्वर ने जीवित ही इसलिए रखा कि यह परम मूढ़ है। इसे बीमारों का गू-मूत उठाने और कफ-भरा थूकदान साफ करने में घिन नहीं आती। इसे न मुर्दे को फूँकते हुए भय होता है, न उसके बाद श्मशान-वैराग्य। सिरजनहार हो पाता था कि इसके पैदा होने के बाद गिरवाण दत्त के कुनबे को क्षय लग जायेगा। एक-एक करके उसके चार बेटे, चार बहुएँ, दो बेटियाँ, तीन दामाद, आठ पोते, सात पोतियाँ और दस नाती-नातिनी राजरोग की भेंट चढ़ेंगे। यही नहीं, स्वयं गिरवाण दत्त को 60वें वर्ष में लकवा मार जायेगा, वह खाट पकड़ लेगा मगर जीवन फिर भी उसे पूरी बेरहमी और————————————
1. राय साहब
बेशरमी से पकड़े रहेगा। कुगत होनी थी बुढ़ापे में, कुकुर-योनि में जीना था रे, इसीलिए तुझ गधे को जिनाद रखा मेरी सेवा के लिए, ऐसा कहते राय सैप और सारा समाज हामी में सिर हिलाता। लेकिन परमात्मा के इस परम विचित्र न्याय पर पिता की हैरानी, हरिया के मन-मस्तिष्क में कोई अनुगूँज पैदा न कर पाती।
गिरवाण दत्त जी, जिन्हें मेहंरबान अंग्रेज साहब ने ‘गौरी’ उपनाम दे छोड़ा था, जो रहते भी पूरे साहबी ठाट-बाट से आये थे, जिनके सूट-बूट, जिनके घोड़े, जिनकी कार, जिनके इलायची खाने वाले कुत्ते समाज में ईर्ष्यालु चर्चा के विषय रहे थे, अपने जीवन के पिछले तेईस वर्ष वस्तुतः घिसटते हुए बिताते आ रहे थे। खाना-पीना, हगना-मूतना, सब कुछ उन्हें हरिया के संहारे ही करना पड़ता था। उन्हें कभी-कभी अफसोस होता कि इस लाचारी की वजह से ही वह हरिया की तरक्की के लिए अपने बचे-खुचे शक्तिशाली परिचित लोगों के दरवाजे खुद न खटखटा सके। उन्होंने सदा हरिया को यह स्मरण कराया कि आज भी कुमाउँनी समाज के बड़े लोगों में और नयी दिल्ली के सरकारी हलकों में मेरे नाम की कुछ वकत है। वह कहते—‘‘जरा सोशल बन भाऊँ1। मेरा नाम लेकर बड़े लोगों से मिलेगा-जुलेगा तो तेरी तरक्की के रास्ते खुलेंगे।’’
तरक्की के इन रास्तों की खोज के लिए गिरवाण दत्त जी ने हरिया को अपनी हरक्यूलीज साइकिल भेंट की थी। इस साइकिल के साथ-साथ उसे पिता की घुड़सवारी वाली बिरजिस और पोलो टोपी भी मिली थी। घुड़सवारी पाली पोशाक में साइकिल-सवार होकर डब वह पहली बार निकला था तब उसके जीजी नरेन्द्र कृष्ण पन्त ने पूछा था, ‘‘यार, पोशाक से तू तो पूरा घुड़सवार बना हुआ है, तेरे इस घोड़े का नाम क्या है रे ?’’ हरिया ने साइकिल का नाम बताया और उस दिन से वह समाज में हरिया हरक्यूलीज के नाम से मशहूर हुआ। हालाँकि उसकी सींकिया काया का यूनान के उस महाबली हरक्यूलीज से दूर-दूर का भी नाता न था, जिसे प्रायश्चितस्वरूप तमाम कठिन परीक्षाएँ देनी पड़ी थीं।
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1. छोटा लड़का।
सोशल होने के लिए की गयी साइकिल सवारी से हरिया के लिए तरक्की के रास्ते तो नहीं खुले, लेकिन उसे हर छुट्टी के दिन मिलने-जुलने के लिए जाने का सिलसिला जारी रखना पड़ा, क्योंकि गिरवाण दत्त जी अपने परिचितों और सम्बन्धियों की कुशल जानने के लिए तरसते थे और उन परिचितों-सम्बन्धियों ने स्वयं उनकी कुशल पूछने के लिए आना धीरे-धीरे लगभग छोड़ ही दिया था। मूलतः इसलिए कि गिरवाण दत्त जी अपने मरने को बहुत ही लम्बा खींचते चले गये थे। उनके समवयस्क इष्ट-मित्रों में से ज्यादातर इस बीच गगुजर चुके थे और जो जिन्दा थे, वे दिल्ली छोड़ चुके थे, या स्वयं भी गिरवाण दत्त जी जितने ही असहाय और अशक्त हो चले थे। परिचितों के बच्चों अगर कभी भूले से गिरवाण दत्त जी के घर अब आते भी थे तो किसी बीमार की तीमारदारी या किसी मृतक के दाह-संस्कार के लिए हरिया की सेवाएँ प्राप्त करने की खातिर ही।
हरिया हमारे समाज में इन दो चीजों के विशेषज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित हो चला था। वह बिना घिनाये, बिना अघाये, बिना घबराये, मरते हुए रोग की शुश्रुषा कर सकता था और मरने के बाद बहुत कायदे से, हिसाब से, उसे फूँक और फुँकवा सकता था। अक्सर लोग-बाग टिप्पणी करते थे कि हरिया पिछले जन्म में डोम रहा होगा। निगम बोध घाट के महाब्राह्मण, कुमाऊँनी परम्परा के अनुसार नदी की धार से सटाकर चिता सजवाते हुए हरिया को श्रद्धानत होकर देखते थे।
जब तक पिता के समवयस्क जिन्दा थे, तब तक उसके घरों में जाने पर यह आशा की जा सकती थी कि पिता के बारे में कुछ पूछा जायेगा और समवयस्क के बारे में ऐसा कुछ बताया भी जायेगा, जो घर लौटकर पिता को सुनाया जा सके। अब ऐसी कोई सम्भावना न थी, फिर भी हरिया हरिक्यूलीज पिता को प्रसन्न रखने के लिए सोशल होने का फ़र्ज निभाये चला जा रहा था। वह खुद ही बगैर किसी के पूछे पिता का हाल सुना देता और मेजबान चाहे कुछ भी न बतायें, उनसे उनका हाल-समाचार भी पूछ लेता कि पिता को सुनाया जा सके।
तब तक टेलीविजन का घर-घर चलन नहीं हुआ था। हमारी बिरादरी में सान्ध्य-वन्दन में सुरश्रेष्ठ का विसर्जन करके पारलौकिक व्यापारों से छुट्टी पाकर और उसके बाद रात को भोजन करके इहलौकिक व्यापारों से भी मुक्त होकर कथा-कहानी सुन-सुनाकर अद्भुत रस का उचित मात्रा में आस्वादन करने-कराने का रिवाज अभी चल ही रहा था। ऐसा माना जाता था कि उचित मात्रा में अद्भुत का आस्वादन करने से स्वप्न-प्रसूता सुख-निद्रा की प्राप्ति होती है। अद्भुत का आस्वादन निषिद्ध था, क्योंकि समझा जाता था कि उससे व्यक्ति को, उसके पूर्व संस्कारों के अनुसार, या तो अद्भुत के प्रति वितृष्णा हो जाती है और वह अत्यन्त साधारण यथार्थ की ओर उसी तरह दौड़ती है, जिस तरह धनाढ्य व्यक्ति गरिष्ठ आहार से अजीर्ण का शिकार होकर निर्धन की रुखी-सूखी रोटी की ओर लपकता है, या फिर वह यथार्थ से ऊपर उठकर अद्भुत में ही लीन हो जाता है और इसलिए, हरिया हरक्यूलिज की तरह, स्वयं उन स्वप्न-गन्धा कथाओं का पात्र बनता है, जिनका बाद में हमारी बिरादरी सुख-निद्रा की साधना में उपयोग करती है।
हरिया की हैरानी की शुरुआत की तारीख हमारी बिरादरी को ठीक-ठीक याद नहीं है, तिथि अलबत्ता याद है। तब तक भी हमारे लिए विश्वसनीय सूर्य की तारीखें बेमतलब थीं। हम अपने समस्त निजी कार्यों में चंचलमना चन्द्र की तिथियों का ही उपयोग करते थे। इसलिए हरिया हरक्यूलीज की हैरानी की कहानी शुरू करते हम आज भी यह कहते हैं कि यह सन् उनहत्तरी की जन्यो-पुण्यु1 के बाद की द्वितीया की बात है कि हरिया हरक्यूलिज जिन्दगी में पहली बार हैरान हुआ और सो भी गू-2 जैसी, अब और क्या कह सकते हो, गू चीज के मारे।
ऐसा नहीं कि हरिया के पास इससे पहले हैरान-परेशान होने का कभी कोई कारण न रहा हो। बल्कि सच तो यह है कि उस अधेड़, अकालवृद्ध, गंजे और गमखोर चिरकुँवारे हरिया के लिए हैरान होने के एक नहीं, हजारों कारण रहे थे। अपने पिता के पाँच पुत्रों में से केवल वही जीवित बचा था और उस पर अपने बड़े भाइयों के बाल-बच्चों की परवरिश की ही नहीं, अपने तिरासी वर्षीय रुग्ण और अन्धे पिता की तीमारदारी का भी पूरा भार पड़ा था। फिर भी उसे कभी हैरान-परेशान होता नहीं देखा गया। उसके परेशान न होने को कुछ लोग उसके परम मूढ़ होने का लक्षण मानते रहे थे। अगर हरिया का उपनाम ‘हरक्यूलीज’ न चल चुका होता तो लोग-बाग उसे हरिया ‘मदुआ’ यानी हरिया बुद्धू के नाम से मशहूर कर देते। उसके पिता राय साहब गिरवाण दत्त तिवारी तो उसे अक्सर ‘मदुआ’ ही पुकारा करते थे।
यों तो हिरवाण दत्त जी को अपने पाँचों ही बेटे, जिन्हें उनकी पत्नी ‘हमारे पाँच पांडव’ कहा करती थीं, स्वयं के मुकाबले में कमतल ही लगे—आखिर उनमें से कोई भी उनकी तरह से जंगलात महकमे में कैम्प क्लर्क की हैसियत से नौकरी शुरू करके किसी रियासत का दीवान बन जाने-जैसा कोई करिश्मा नहीं दिखा पाया—लेकिन सबसे बाद में पैदा हुआ, पढ़ने में सबसे फिसड्डी हरिया, उनकी दृष्टि में विशेष रूप से निराशाजनक ठहरा।
दिखने-सुनने में वह अपनी नाटी, साँवली और किंचित् चपटी नाक वाली नानी पर गया था। उसे न माँ की बड़ी-बड़ी काली आँखें और नुकीली ठोढ़ी नसीब हुई थी और न पिता की गोरी-चिकनी चमड़ी, लम्बी-तीखी नाक, गड्ढेदार गाल और पतले-पतले ओंठों से युक्त वह खूबसूरती, जिसके कारण जवानी में वह गिरुआ ‘गौहरजान’ कहलाये और एक देसी रियासत में कैम्प क्लर्क बनाकर ले जाने वाले अंग्रेज वन अधिकारी से लेकर उस रियासत की महारानी तक कोई बुजुर्ग स्त्री-पुरुषों के विशेष स्नेह-भाजन बन सके।
पढ़ने-लिखने में भी हरिया मामूली साबित हुआ। मैट्रिक तीन कोशिशों में पास कर सका। और सो भी हिन्दी-रत्न के जरिये। टाइप के इम्तहान में भी अंग्रेजी कमजोर होने की वजह से रह गया। गिरवाण दत्त जी ने किसी तरह कह-सुनकर उसे दफ्तरी लगवाया। प्राइवेट इण्डर-बी.ए. कुछ कर लेता तो असिस्टेण्ट तो बनवा ही देते। मुश्किल से एल.डी.सी. करा पाये उसे।
गिरवाण दत्त जी अक्सर गुस्से में आकर हरिया से कहते कि अगर भगवान को बुढ़ापे में मेरी सेवा के लिए पाँच में से एक ही बेटा बचाना था तो उसने तुझे ही क्यों चुना रे मदुआ ? सबसे बड़ा कृपाल इम्पीरियल बैंक में खजांची लगा था, दूसरा गिरीश फारेस्ट सर्विस में आ गया था, तीसरा शिरीष रेलवे में इंजीनियर हो गया था और चौथा गिरिजी, जो अपने बाप का अस्सल बेटा था’, ‘आई.ए.एस. में चुन लिया गया था। क्यों जो उन चारों को अपनी पैंतीसलीं होली-दीवाली देखना भी नसीब न हुआ और क्यों तू बचपन में बीस तरह की बीमारियाँ होने के बावजूद जिन्दा रहा ?
परमात्मा के इस परम अन्याय पर राय सैप1 की हैरानी में सारी बिरादरी भागीदारी करती, लेकिन हरिया पर उसका कोई असर न होता।
यों कभी-कभी गिरवाण दत्त जी को यह लगता, और वह इसे केवल हरिया के सामने ही नहीं, लोगों के बीच भी स्वीकार करते, कि शायद इस परम मूढ़ को परमेश्वर ने जीवित ही इसलिए रखा कि यह परम मूढ़ है। इसे बीमारों का गू-मूत उठाने और कफ-भरा थूकदान साफ करने में घिन नहीं आती। इसे न मुर्दे को फूँकते हुए भय होता है, न उसके बाद श्मशान-वैराग्य। सिरजनहार हो पाता था कि इसके पैदा होने के बाद गिरवाण दत्त के कुनबे को क्षय लग जायेगा। एक-एक करके उसके चार बेटे, चार बहुएँ, दो बेटियाँ, तीन दामाद, आठ पोते, सात पोतियाँ और दस नाती-नातिनी राजरोग की भेंट चढ़ेंगे। यही नहीं, स्वयं गिरवाण दत्त को 60वें वर्ष में लकवा मार जायेगा, वह खाट पकड़ लेगा मगर जीवन फिर भी उसे पूरी बेरहमी और————————————
1. राय साहब
बेशरमी से पकड़े रहेगा। कुगत होनी थी बुढ़ापे में, कुकुर-योनि में जीना था रे, इसीलिए तुझ गधे को जिनाद रखा मेरी सेवा के लिए, ऐसा कहते राय सैप और सारा समाज हामी में सिर हिलाता। लेकिन परमात्मा के इस परम विचित्र न्याय पर पिता की हैरानी, हरिया के मन-मस्तिष्क में कोई अनुगूँज पैदा न कर पाती।
गिरवाण दत्त जी, जिन्हें मेहंरबान अंग्रेज साहब ने ‘गौरी’ उपनाम दे छोड़ा था, जो रहते भी पूरे साहबी ठाट-बाट से आये थे, जिनके सूट-बूट, जिनके घोड़े, जिनकी कार, जिनके इलायची खाने वाले कुत्ते समाज में ईर्ष्यालु चर्चा के विषय रहे थे, अपने जीवन के पिछले तेईस वर्ष वस्तुतः घिसटते हुए बिताते आ रहे थे। खाना-पीना, हगना-मूतना, सब कुछ उन्हें हरिया के संहारे ही करना पड़ता था। उन्हें कभी-कभी अफसोस होता कि इस लाचारी की वजह से ही वह हरिया की तरक्की के लिए अपने बचे-खुचे शक्तिशाली परिचित लोगों के दरवाजे खुद न खटखटा सके। उन्होंने सदा हरिया को यह स्मरण कराया कि आज भी कुमाउँनी समाज के बड़े लोगों में और नयी दिल्ली के सरकारी हलकों में मेरे नाम की कुछ वकत है। वह कहते—‘‘जरा सोशल बन भाऊँ1। मेरा नाम लेकर बड़े लोगों से मिलेगा-जुलेगा तो तेरी तरक्की के रास्ते खुलेंगे।’’
तरक्की के इन रास्तों की खोज के लिए गिरवाण दत्त जी ने हरिया को अपनी हरक्यूलीज साइकिल भेंट की थी। इस साइकिल के साथ-साथ उसे पिता की घुड़सवारी वाली बिरजिस और पोलो टोपी भी मिली थी। घुड़सवारी पाली पोशाक में साइकिल-सवार होकर डब वह पहली बार निकला था तब उसके जीजी नरेन्द्र कृष्ण पन्त ने पूछा था, ‘‘यार, पोशाक से तू तो पूरा घुड़सवार बना हुआ है, तेरे इस घोड़े का नाम क्या है रे ?’’ हरिया ने साइकिल का नाम बताया और उस दिन से वह समाज में हरिया हरक्यूलीज के नाम से मशहूर हुआ। हालाँकि उसकी सींकिया काया का यूनान के उस महाबली हरक्यूलीज से दूर-दूर का भी नाता न था, जिसे प्रायश्चितस्वरूप तमाम कठिन परीक्षाएँ देनी पड़ी थीं।
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1. छोटा लड़का।
सोशल होने के लिए की गयी साइकिल सवारी से हरिया के लिए तरक्की के रास्ते तो नहीं खुले, लेकिन उसे हर छुट्टी के दिन मिलने-जुलने के लिए जाने का सिलसिला जारी रखना पड़ा, क्योंकि गिरवाण दत्त जी अपने परिचितों और सम्बन्धियों की कुशल जानने के लिए तरसते थे और उन परिचितों-सम्बन्धियों ने स्वयं उनकी कुशल पूछने के लिए आना धीरे-धीरे लगभग छोड़ ही दिया था। मूलतः इसलिए कि गिरवाण दत्त जी अपने मरने को बहुत ही लम्बा खींचते चले गये थे। उनके समवयस्क इष्ट-मित्रों में से ज्यादातर इस बीच गगुजर चुके थे और जो जिन्दा थे, वे दिल्ली छोड़ चुके थे, या स्वयं भी गिरवाण दत्त जी जितने ही असहाय और अशक्त हो चले थे। परिचितों के बच्चों अगर कभी भूले से गिरवाण दत्त जी के घर अब आते भी थे तो किसी बीमार की तीमारदारी या किसी मृतक के दाह-संस्कार के लिए हरिया की सेवाएँ प्राप्त करने की खातिर ही।
हरिया हमारे समाज में इन दो चीजों के विशेषज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित हो चला था। वह बिना घिनाये, बिना अघाये, बिना घबराये, मरते हुए रोग की शुश्रुषा कर सकता था और मरने के बाद बहुत कायदे से, हिसाब से, उसे फूँक और फुँकवा सकता था। अक्सर लोग-बाग टिप्पणी करते थे कि हरिया पिछले जन्म में डोम रहा होगा। निगम बोध घाट के महाब्राह्मण, कुमाऊँनी परम्परा के अनुसार नदी की धार से सटाकर चिता सजवाते हुए हरिया को श्रद्धानत होकर देखते थे।
जब तक पिता के समवयस्क जिन्दा थे, तब तक उसके घरों में जाने पर यह आशा की जा सकती थी कि पिता के बारे में कुछ पूछा जायेगा और समवयस्क के बारे में ऐसा कुछ बताया भी जायेगा, जो घर लौटकर पिता को सुनाया जा सके। अब ऐसी कोई सम्भावना न थी, फिर भी हरिया हरिक्यूलीज पिता को प्रसन्न रखने के लिए सोशल होने का फ़र्ज निभाये चला जा रहा था। वह खुद ही बगैर किसी के पूछे पिता का हाल सुना देता और मेजबान चाहे कुछ भी न बतायें, उनसे उनका हाल-समाचार भी पूछ लेता कि पिता को सुनाया जा सके।
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