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बिना दरवाजे का मकान

रामदरश मिश्र

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6904
आईएसबीएन :9788171783137

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एक जुझारू एवं संघर्षशील नायिका की कहानी...

Bina Darwaje Ka Makan A Hindi Book by Ram Darash Mishra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आर्थिक विपन्नता से ग्रस्त किसी युवती को जब जीवन-यापन के लिए काम करना पड़ता है तो समाज के भूखे भेड़िए उसे ललचाई नज़रों से देखने लगते हैं, लेकिन जब उसकी आर्थिक विपन्नता के साथ उसके पति की शारीरिक निष्क्रियता भी जुड़ जाए, तो उसे सार्वजनिक संपत्ति ही समझ लिया जाता है। बिना दरवाज़े का मकान की नायिका दीपा निम्न वर्ग की एक ऐसी ही अभिशप्त युवती है जो जीविकोपार्जन के साथ-साथ अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए लगातार संघर्ष कर रही है। उसकी जीवन-प्रक्रिया तथा संघर्ष के क्रम में संभ्रांत समाज बेनकाब होता जाता है। और दो समाज आमने-सामने तने हुए दिखाई पड़ते हैं। दिल्ली की एक भरी-पूरी कॉलोनी की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा कभी-कभी गाँव की ओर भी चली जाती है और तब विडंबना एकदम गहरा जाती है। दर्द और यातना के गहरे प्रसार के बीच जिजीविषा एवं संघर्ष से उत्पन्न मूल्य-चेतना उपन्यास को और सशक्त बनाती है।

 

लेखकीय

इस उपन्यास में कथा का कुछ हिस्सा लेखक के सामने घटित हुआ है, कुछ दीपा की स्मृतियों से होकर गुजरा है। जहाँ कथा दीपा की स्मृतियों से होकर गुजरी है, वहाँ अनेक पात्रों के संवादों की भाषा-शैली दीपा की अपनी भाषागत क्षमता के अनुरूप हो गई है।

 

1

 

‘‘हाँ, हाँ, और छिपकर भागो दीपा, कोई देख न ले।’’
आखिर उसे रुकना पड़ गया और सफाई देती बोली, ‘‘नहीं बीबीजी, भागने की कौन बात आ गई। जल्दी में थी, मेरा मरद अस्पताल में है।’’
‘‘वह तो रहेगा ही, तुम भी रहोगी। हराम का माल पचता थोड़े ही है !’’
‘‘नहीं, नहीं बीबीजी, आऊँगी, हिसाब कर दूँगी।’’
‘‘अरे, तुम आ चुकीं और कर चुकीं हिसाब ! तुम लोगों के साथ नेकी करने का फल यही होता है।’’
वह कुछ बोली नहीं, झटके से चली गई। पीछे से आवाज आई-‘‘चोट्टी, हरामखोर !’’
शब्द पीतल के बरतन की तरह उसके कानों से टकराकर झनझना उठे। लेकिन सच बात तो यह है कि अब झनझनाहट भी कम होती जा रही है। पहले कितनी जोर से बजते थे ये !

जाकर बस-स्टैंड पर खड़ी हो गई। उसे डर लग रहा था कि कोई दूसरी बीबीजी न मिल जाएँ, दूसरी के बाद तीसरी न मिल जाएँ।
गर्मी की चिलचिलाती हुई धूप ! धूप में बस का इंतजार करते हुए लोग। एक बस आती थी जैसे वह भागने के लिए आती थी और लोग जैसे बस पर चढ़ने के लिए नहीं, उसे खदेड़ने के लिए आए हैं, उसके पीछे-पीछे दौड़ते थे। बस स्टैंड से कुछ दूर जाकर रुकती थी तो लोग दौड़ते हुए वहाँ पहुँचते थे। जब तक दो-चार आदमी चढ़ते थे, बस चल देती थी। रोज का यही खेल है, रोज की यही जिंदगी है। दीपा भी भागती थी और बस छूट जाती थी।

हाँ, आज ज्यादा ही देर हो गई। आठ बजे बीबीजी ने बुलाया था, नौ यहीं बज गए। हाँ, वह झूठ बोली थी। अस्पताल थोड़े ही न जा रही है, वह तो कैंट जा रही है एक शादी में काम करने। जिन-जिनके यहाँ काम करती है सबसे झूठ बोल आई है कि उसका मरद अस्पताल में है, उसे रोज जाना पड़ता है, इसलिए वह आज काम पर नहीं आएगी। झूठ-हाँ, झूठ न बोले तो कोई आसानी से छोड़ेगा ? पहले वह झूठ नहीं बोलती थी और उसे धीरे-धीरे लगने लगा कि झूठ बोले बिना जिन्दगी नहीं चल सकती। सच बोलकर तो आदमी तेली के बैल की तरह जुता रहे और एक ही घेरे में सुबह से शाम तक जुआ कंधे पर डाले चक्कर लगाता रहे, कुछ होने-जाने का नहीं।
‘‘क्यों भाई, नौ बजे की गाड़ी का क्या हुआ ?’’

‘‘वह अभी तक नहीं आई।’’ एडवांसर रटा-रटाया जवाब देकर आगे बढ़ गया।
काफी लंबी लाइन बस के इंतजार में खड़ी बुदबुदा रही थी। दो-चार युवक लाइन के आगे चक्कर काट रहे थे। ये सबसे पहले चढ़ेंगे। लाइन लगाने से इनका कोई वास्ता नहीं। ये रोज ही यह करते हैं। इनके लिए कायदे-कानून बेकार की चीज़ें हैं और बेकार की चीज़ों के पालन के लिए यदि इन्हें कहा जाए तो कहने वाले की खैर नहीं। लोग आदी हो गए हैं और सभी लोग अलग-अलग हैं न। अलग-अलग बुदबुदाएँगे सभी, लेकिन मिलकर ऐसी हरकतों का प्रतिरोध नहीं करेंगे। अकेला आदमी इन चार-पाँच के समूह से टकराए तो खैर नहीं।
‘‘अब तो नौ बीस की ही बस आएगी।’’
‘‘उसका भी क्या भरोसा ?’’

‘‘यार, रोज का यह हाल है। है कोई सुननेवाला ! ऐन दफ्तर के समय की गाड़ियाँ मिस हो जाती हैं और डी.टी.सी. को इसकी कोई चिंता ही नहीं। अक्सर दफ्तर में लेट हो जाते हैं। अफसर की डाँट खानी पड़ती है।’’
‘‘यार, कोई कहने वाला भी तो नहीं। सभी लोग मिलकर डी.टी.सी. की ऐसा की तैसी कर सकते हैं लेकिन नहीं, सभी लोग यहाँ खड़े-खड़े बुदबुदाएँगे, करेंगे कुछ नहीं। डी.टी.सी. हो चाहे और कोई व्यवस्था, जब तक उसे एक बड़े समूह से टकराहट का भय नहीं होता, कुछ नहीं करती।’’
‘‘कौन करे ? आप करेंगे ?’’
‘‘हाँ, मैं करूँगा, चलिए आप लोग मेरे साथ। लीजिए आज की छुट्टी और चलिए चलते हैं शादीपुर।’’
लोगों ने अब गौर से देखा इस व्यक्ति को।
‘‘आपका शुभ नाम ?’’

‘‘छोड़िए यह सब। मेरी जन्म-कुंडली और दिनचर्या से आपको क्या मिलेगा ? आप लोग साथ दे सकते हों तो मैं अभी बस से लड़ाई शुरू कर सकता हूँ। बोलिए, आप लोग तैयार हैं ?’’
सभी लोग चुप रहे। वह मुस्कुराया और हाथ में पकड़ा हुआ अखबार पढ़ने लगा।
....मइया मैंनूँ लाल बख्श दे.....
सामने माइक से जय माता के गीत उठ रहे थे। विशाल भगवती जागरण होने वाला है। विज्ञापन के लिए तंबू लगाकर माताजी का चित्र प्रतिष्ठित कर दिया गया था। वहाँ पुजारी के तौर पर आधुनिक वेश-भूषा में एक युवक बैठा हुआ था। लोग जाते थे, पैसे चढ़ाते थे और युवक प्रसाद देता था।
....मइया मैंनूँ लाल बख्श दे.....

दीपा सुनती है तो उसके भीतर कुछ कचोटने लगता है। लगता है वही माताजी के सामने झोली फैलाए खड़ी है।
‘मेहरबान, कदरदान, मरद की मरदानगी नहीं तो जिंदगी में कुछ भी नहीं।.....जड़ी-बूटियों से तैयार किया गया यह टॉनिक पीजिए और बीवी को खुश रखिए। सपनदोष हो, बच्चा पैदा न होता हो, जिंदगी उदास हो गई हो, बीवी चिड़चिड़ी होती जाती हो तो मेहरबान, कदरदान, यह टॉनिक ले जाइए, और महीने-भर में ही इसका कमाल देखिए, पत्थर को भी.....देंगे....’

स्टैंड के पीछे की ओर से माइक पर आवाज गूँज रही थी। एक छोटे-से तंबू के नीचे तमाम जड़ी-बूटियाँ और दवाएँ रखे हुए एक हकीम टाइप का पहलवान बैठा था। उसकी बगल में उसका चेलानुमा एक लड़का था। उसे घेरकर काफी लोग खड़े थे। लाइन में कुछ लोग बुदबुदा रहे थे, ‘‘अच्छा धंधा है।’’ दूसरा बोला, ‘‘हाँ, तभी तक वह धंधा है, जब तक समाज अंधा है।’’
‘‘और उसे आप क्या कहेंगे ?’’
एक ने देवी-जागरण वाले तंबू की ओर इशारा करते हुए कहा।
‘‘अरे, उससे इसका क्या मुकाबला साहब ? वह दैवी विभूति है और यह सांसारिक ठगी।’’
‘‘मुकाबला है क्यों नहीं ? दोनों ही संतान बाँट रहे हैं- एक हवाई चमत्कार से, एक गलत दवाओं से। दोनों इसके बदले पैसा बटोर रहे हैं। दोनों ही दुखी जन की कमजोरी का फायदा उठा रहे हैं।’’
‘‘आप नास्तिक मालूम पड़ते हैं।’’

‘‘छोड़िए इस प्रसंग को। असल चीज तो यह है कि कि हमारी बस नहीं आ रही है। यहाँ नास्तिक और आस्तिक दोनों एक ही दर्द भोग रहे हैं। इलाज यही है कि बस आ जाए।’’
‘‘नौ बीस भी तो हो गए !’’
‘‘अरे साहब एडवांसर कह रहा है कि नौ बीसवाली बस को भी सेक्रेटेरिएट से आना था, अभी आई नहीं। लगता है, खराब हो गई है। अब नौ चालीस की ही बस जाएगी।’’
‘‘और वह भी नहीं आई तो ?’’
‘‘नहीं, वह तो वहाँ खड़ी है। इसका जाना निश्चित होता है।’’
‘‘यानी आज फिर चालीस मिनट लेट होंगे।’’
‘‘सो तो होंगे ही।’’
‘‘मेहरबान, कदरदान....’’

दीपा की इच्छा हुई कि एक बोतल टॉनिक हकीम से ले ले। टॉनिक-वह एक कल्पना में डूब गई। उसकी गोद में एक नन्हा-मुन्ना खेलने लगा-हाँ, एक बोतल ले ही ले। लेकिन अभी लेकर क्या करेगी, अभी तो उसका मरद बीमार है। जब अच्छा हो जाएगा तब के लिए। बार-बार उसके ध्यान में एक छोटा-सा नन्हा-मुन्ना आ जाता था। सामने की दुकान के आगे एक बहुत गदगद् बच्चे की फोटो दिखाई दे रही थी। वह उसे देखने लगी।
‘‘बस आई, बस आई !’’ शोर हुआ। वह कल्पना से जागी। लाइन टूट गई और पीछे खड़े लोग बस पर चढ़ने लगे। एक अजीब भगदड़ मच गई। लोग एक-दूसरे के ऊपर गिरते-पड़ते बस में चढ़ने लगे। कुछ लोग लाइन तोड़ने वालों को गालियाँ देने लगे- ‘‘आखिर बस में लटकना ही था तो घंटा-भर पहले लाइन लगाने से क्या फायदा ?’’
दीपा भी आगे से पीछे हो गई और धकियाती हुई बस पर चढ़ने लगी। उसे लगा कि कोई हाथ उसकी छाती से टकरा रहा है। उसने झटककर फेंक दिया। किसका हाथ है, इस भीड़ में कहाँ दिखाई पड़ता है। इसमें किसी के अलग हाथ, पाँव, दिल-दिमाग की पहचान नहीं हो पाती, यहाँ तो केवल भीड़ होती है।
एक-दूसरे पर लदे हुए लोग हिचकोले खाते जा रहे थे। गंदे नाले के भीतर से जोर का भभका आया। कुछ लोगों ने नाक पर रूमाल रख लिए बाकी लोग अभ्यस्त हो गए हैं।

एक पढ़ी-लिखी महिला लेडीज सीट के पास आकर खड़ी हो गई। लेडीज सीट पर मुस्टंडे बैठे हुए थे। किसी ने उसे बैठने को नहीं कहा। तब तक एक कामवाली आई। बोली, ‘‘छोड़ो जी, यह जनानी सीट है।’’ किसी ने ध्यान नहीं दिया। वह दुगने वेग से चीखी-‘‘काहे को चीखती हो, यहाँ कोई सीट नहीं छोड़ेगा।’’
‘‘अरे, छोड़ेगा कैसे नहीं ? और वह उस सीट के एक आदमी का हाथ खींचकर बोली, ‘‘उठ रे, सरम-लेहाज नहीं रह गया। जनानियाँ खड़ी हैं और तू कहने पर भी नहीं उठ रहा।’’

उसने अपना हाथ छुड़ाकर कहा, ‘‘हट भाग, नहीं उठता। औरत होकर हाथापाई कर रही है।’’
‘‘जब तू मरद होकर औरत बना हुआ है तो औरत को मरद बनना ही पड़ेगा- उठ !’’
पहले जो व्यंग्य से मिसकी मार रहे थे वे अब सकते में आ गए। कुछ लोगों ने उस आदमी को राय दीं कि ‘उठ जाओ भाई, काहे को औरत से उलझते हो।’
‘‘मैं नहीं उठता।’’

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