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सुखी जीवन के सूत्र

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6933
आईएसबीएन :9788131008034

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सुखी होने का अर्थ अक्सर धनागम से जोड़ा जाता है...

Sukhi Jivan Ke Sutra - A Hindi Book - by Swami Avdheshanand

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

नीतिशास्त्र में छह प्रकार के सुखों की चर्चा की गई है।

 

अर्थागमों नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यश्च पुत्रो अर्थकरी च विद्या षट् जीव लोकेषु सुखानि राजन्।

 

धनागम, नित्य आरोग्य, सुंदर पत्नी, वह भी प्रियबोलने वाली हो, आज्ञाकारी पुत्र और ऐसी विद्या जिससे अर्थप्राप्ति हो सके, ये छह सुख हैं इस संसार में।

हम लोगों की भी सामान्यतया यही मान्यता है। लेकिन देखने में आया है कि जिनके पास ये छहों हैं, वे भी इस संसार में दुखी हैं। यदि ऐसा न होता, तो अपने भरे-पूरे परिवार, सुख, ऐश्वर्य का परित्याग करके सम्राट् वनों में नहीं जाते। उपनिषदों में एक कथा आती है। जिसमें ऋषि ने जब अपनी पत्नियों को सम्पत्ति का आधा-आधा बंटवारा करने को कहा, तो एक ने उनसे पूछ ही लिया, ‘‘आप इस सभी को छोड़ कर कहां जाना चाहते हैं ?’’
उसने यह भी आग्रह किया, ‘जहां आप जाना चाहते हैं, मैं भी आपके पास वहां चलूंगी।’’
इन कथाओं से स्पष्ट होता है कि संसार में जिन्हें सुख के साधन कहा जाता है, उनका सुख से दूर-दूर का वास्ता नहीं है, वे दुख के कारण हैं।
स्वामी जी के प्रवचनों में उसी मार्ग की ओर बारम्बार संकेत किया गया है, जो सही अर्थों में सुख की ओर ले जाता है। यही सच्चे सुख का साधन है—अर्थात् जो सुख इससे प्राप्त होता है, वह कभी छिनता नहीं।

 

प्रकाशक

 

‘सुख एक विशेष अवस्था है मन की। जब संवेदना अनुकूल होती है, तब सुख की अनुभूति होती है। दुख प्रतिकूल संवेदना का परिणाम है। श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ में इस मात्र-स्पर्श को दुख-सुख का मूल बताते हुए इन्हें आने-जाने वाला कहा है। इस प्रकार इंद्रियों द्वारा प्राप्त सुख किसी भी रूप में स्थायी नहीं हो सकता। इसका यह अर्थ हुआ कि सुख का सहज भाव निरर्थक है क्योंकि प्रत्येक जीवन सुख के लिए कर्म में प्रवृत्त होता है।

इंद्रिय-विषय के संयोग से प्राप्त होने वाला सुख आने-जाने वाला है—ऐसा कहकर भारतीय मनीषी बताना चाहते हैं कि यह जीव की प्रमुख भूल है। इस सुख का स्रोत कहां है ? सुख अपने स्रोत में ही मिलेगा। हम अपनी सुविधा के अनुसार जिस किसी स्थान पर जो कुछ ढूँढ़ना चाहें तो क्या वह मिल जाएगा ? बिल्कुल नहीं ! वह उसी स्थान पर मिलेगा, जहाँ उसका मूल स्रोत है या फिर जहाँ वह खोया है। गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरित मानस’ में एक सिद्धांत के रूप में इस बात की पुष्टि की है—

 

वारि मथै वरु होई घृत सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरिकृपा न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल।।

 

संभव है, रेत को पेरने से तेल निकल आए, पानी को मथने से मक्खन (घृत) निकल आए, तो भी यह नहीं भूलना चाहिए कि परमात्मा का स्मरण किए बिना भवसागर से तरा नहीं जा सकता। यह जटल सिद्धांत है। भव का अर्थ दुख है और हरि का अर्थ है—परमात्मा अर्थात् सत्य।

 

1

भक्ति सहज और सरल है

शिक्षा मनुष्य के मस्तिष्क को जाग्रत करने का कार्य करती है और यदि वह स्वचेतना को जगाने में सहायक नहीं होती है तो जो ज्ञान व्यक्ति ने अर्जित किया है वही उसे बांधता भी है। अध्ययन के द्वारा मस्तिष्क में कुछ केंद्र जाग्रत अवश्य होते हैं। पर उनमें आलोक उद्दीप्त करने के लिए उसे आत्मसात् कर अनुभव में उतार कर परखने पर वही शिक्षा अज्ञानता के बंधन से मुक्त होने में सहायक होती है। अन्यथा पुस्तकों से प्राप्त ज्ञान कालांतर में हमें अपना अर्जन लगने लगता है और यह भ्रम हमें बांधता है, हम इसे इस रूप में भी समझ सकते हैं कि अध्ययन जब विद्या हो जाता है तब वही मुक्ति में सहायक होता है। आदमी से मनुष्य होना सुषुप्त से जाग्रत होने की प्रक्रिया है। अचेतन से आत्मचेतना की स्थिति में प्रवेश पाने का अवसर है।
शास्त्रों का अध्ययन, उनका मनन, उनका अनुसरण, जप, तप और भजन अपने अंदर की सुषुप्त चेतना को जाग्रत करने के साधन हैं। पर आज तक न तो आदमी के मस्तिष्क को ही और न उसके मन को ये पूर्णरूपेण जाग्रत कर सके और न आने वाली शताब्दियों में ही इसकी कोई संभावना दिखती है। अभी हम आंशिक जागृति के पुंज हैं। मन और मस्तिष्क के केंद्रों को जाग्रत करने की साधना अंधकार से प्रकाश की यात्रा है। इस यात्रा के अनेक माध्यम हैं। मुझे इनमें से भक्ति सहज और सरल प्रतीत होती है।

मैं भक्ति को उस प्रेम का पर्याय मानता हूँ जिसमें परम तत्व को अभीष्ट तल पर अनूभूत कराने की शक्ति होती है। इसमें परायेपन का विसर्जन, अधिकाररहित संप्रभुता का बोध तथा अन्तर्मुखी जाग्रति की अवस्था, आत्मिक प्रेमजन्य तन्मयता का प्रतिफल अनुभव होता है, इसमें अपने इष्ट, गुरु अथवा प्रिय के प्रति उस भाव का अनन्य चिंतन अभीष्ट है जो उठते-बैठते, काम करते अविरल गति से चलता रहे। इस मार्ग में चित्त की वृत्तियों का निरोध स्वयं आराध्य का चिंतन सहज स्वाभाविक ढंग से कर देता है।

दूसरा मार्ग योग। शारीरिक व्यायाम नहीं है। बल्कि शरीर के अंदर के केंद्रों के बाह्य आसनों से नियंत्रित कर अंतः चेतना को ऊर्ध्वगामी बनाने का सप्रयास उपक्रम है। वैसे मनुष्य अपने अंदर अगणित केंद्रों की संभावना का अनुभव करता है। अर्थात् अपार सम्पदा का कोष मनुष्य के अंदर छुपा है, जिससे वह अनभिज्ञ है।
वैज्ञानिक प्रकृति के केंद्रों को अनावरण कर जो पाता है, उसे समाज ‘अनुसंधान’ कहता है और योगी जिन केंद्रों पर विजय पाता है उसे ‘सिद्धि’ कहकर शास्त्रों ने पुकारा। किंतु भक्ति की गहनता से जाग्रता केंद्रों को भक्त प्रभु का प्रसाद मान कृतज्ञ हो उठता है। पर अभी तो पंद्रह प्रतिशत के अंदर ही मनुष्य की चेतना की जाग्रति का प्रसार है। विज्ञान की भांति योग की भाषा भी प्रामाणिक है। भक्त के पास प्रामाणिक होने का समय ही नहीं है। क्योंकि वैज्ञानिक और योगी की भांति उसकी कोई प्रयोगशाला नहीं है।

 

2

प्रार्थना का अर्थ

वेद चार हैं—ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इनमें पहला वेद है ऋग्वेद। इसे ‘प्रार्थना-वेद’ भी कहते हैं, क्योंकि इस ‘प्रार्थना-वेद’ में सबसे पहले भगवान की प्रार्थना की गई है तथा पूरा ऋग्वेद अनेक देवताओं की प्रार्थना से भरा हुआ है।
प्रार्थना में ईश्वर के साथ संबंध जुड़ता है। यदि प्रभु की प्रार्थना में थोड़ा समय लगाना लाभप्रद है तो सोचिए सारा समय प्रभु के हेतु कितना लाभप्रद होगा। इससे जीवन में परम आनंद, शांति मधुरता और विश्वास का प्रयोग होता है। भगवान की प्रार्थना करते –करते मनुष्य स्वयं समझने लगता है कि उसकी परिस्थितियों में परिवर्तन होने लगा है और कोहरे की तरह कठिनाइयां छंटने लगी हैं। सच्ची प्रार्थना जिसमें कठिनाई में भी ईश्वर दिखलाई देता है और कठिनाइयों से लड़ने की शक्ति भी प्राप्त हो जाती है तथा धीरे-धीरे मन में सुख-शांति आने लगती है और सफलता का मार्ग प्रशस्त करती है।

आत्मिक व मानसिक शक्ति को बढ़ाने के लिए ध्यान और प्रार्थना श्रेष्ठ हैं। सुबह और शाम प्रार्थना का समय निश्चित होना चाहिए, क्योंकि समय ही जीवन का सार है। चूंकि प्रार्थना का प्रत्येक शब्द अन्तर्मन से निकलता है और प्रार्थना करते समय शरीर का रोम-रोम ईश्वर के अधीन हो जाता है, अतः प्रार्थना से तन एवं मन निरोग रहता है। प्रार्थना बोलकर करना जरूरी नहीं है, यह मौन रूप में भी की जा सकती है। प्रार्थना हमेशा सकारात्मक ही होनी चाहिए। उपयुक्त मानसिक साधना से व्यक्ति की विचारशक्ति अधिक शुद्ध तथा सामर्थ्यशाली बनेगी।

सामर्थ्यपूर्ण विचारशक्ति ही हमें आध्यात्मिक पथ पर सहायता करती है। सरल हृदय से विश्वासपूर्ण प्रार्थना करनी चाहिए। प्रार्थना में न आलस्य है, न परेशानी, न थकावट है, न विश्राम, केवल भक्ति है। प्रार्थना का अर्थ है असत्य की ओर से सत्य के मार्ग पर चलने का प्रयत्न।


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