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शिवमूर्ति : जहां कहानी और संघर्ष, जनजीवन और कला मिलते हैं।
Keshar Kasturi A Hindi Book by Shivmurty
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आधुनिक हिन्दी कहानी में सबसे अलग उभरकर जो एक नाम आता है, वह है- शिवमूर्ति का। शिवमूर्ति को पढ़ने का अर्थ है-उत्तर भारत के गाँवों को उसकी समग्रता में जानना। गाँव ही शिवमूर्ति की प्रकृत लीला-भूमि है। इसे केन्द्रित करके उनका कथाकार दूर-दूर तक मँडराता है। गाँव की रीति-रिवाज, ईर्ष्या-द्वेष, राग-विराग, जड़ों में धँसे संस्कार, प्रकृत यौन-बुभुक्षा, पर्त-दर-पर्त उजागर होता वर्णवादी-वर्गवादी शोषण मूल्यहीन राजनीति और उनके बीच भटकती लाचार जिन्दगियाँ.......
प्रकृतवाद में वे जोला के आस-पास दिखते हैं तो पात्रों के जीवन्त चित्रण में गोर्की के समीप। संवादों का ध्वन्यात्मकता से वे सतीनाथ भादुड़ी और रेणु की याद दिलाते हैं तो विम्ब-विधान में जैक लण्डन की। पर इन सबके बावजूद शिवमूर्ति का जो ‘अपना’ है, वह कहीं और नहीं।
लोग हैरान रह जाते हैं यह देखकर कि जब स्वयं जनवादियों की कहानियों में ‘जन’ दिनोंदिन दूर होते जा रहे हैं, बिना घोषित जनवादी हुए शिवमूर्ति की कहानियाँ जन के इतने करीब कैसे हैं !
शिवमूर्ति के साथ ही हिन्दी कहानी में पुन: कथारस वापसी हुई है। आज कहानी में पठनीयता के संकट का सवाल उठा हुआ है, शिवमूर्ति इस सवाल का मुकम्मल जवाब हैं।
प्रकृतवाद में वे जोला के आस-पास दिखते हैं तो पात्रों के जीवन्त चित्रण में गोर्की के समीप। संवादों का ध्वन्यात्मकता से वे सतीनाथ भादुड़ी और रेणु की याद दिलाते हैं तो विम्ब-विधान में जैक लण्डन की। पर इन सबके बावजूद शिवमूर्ति का जो ‘अपना’ है, वह कहीं और नहीं।
लोग हैरान रह जाते हैं यह देखकर कि जब स्वयं जनवादियों की कहानियों में ‘जन’ दिनोंदिन दूर होते जा रहे हैं, बिना घोषित जनवादी हुए शिवमूर्ति की कहानियाँ जन के इतने करीब कैसे हैं !
शिवमूर्ति के साथ ही हिन्दी कहानी में पुन: कथारस वापसी हुई है। आज कहानी में पठनीयता के संकट का सवाल उठा हुआ है, शिवमूर्ति इस सवाल का मुकम्मल जवाब हैं।
कसाईबाड़ा
गाँव में बिजली की तरह खबर फैलती है कि शनिचरी धरने पर बैठ गई है, परधानजी के दुआरे। लीडरजी कहते हैं, जब तक परधानजी उसकी बेटी वापस नहीं करते, शनिचरी अनशन करेगी, आमरण अनशन।’’
पिछले एक हफ्ते से लीडरजी शनिचरी को अनशन के लिए पटा रहे थे और अब गाँव के हर कान में मंतर फूँक रहे हैं, ‘‘शनिचरी परधान के खिलाफ नहीं, अन्याय, दगाबाजी और शोषण के खिलाफ लड़ रही है, अहिंसा की लड़ाई, महात्मा गांधी का रास्ता। आप सबका कर्त्तव्य है कि जोर-जुल्म के खिलाफ लड़ी जाने वाली लड़ाई में उस गरीब विधवा को सपोर्ट करें-मनसा, वाचा, कर्मणा।’’
परधानजी की दुतल्ली बिल्डिंग के सदर दरवाजे पर बोरी बिछाकर किसी मोटे प्रश्नचिह्न-सी बैठी है, शनिचरी। लीडरजी ने गाँधीजी का छोटा-सा फोटो देकर कहा है, ‘‘इन्हीं का ध्यान करो। अन्यायी का हृदय-परिवर्तन होगा या सर्वनाश।’’
अत्याचार के खिलाफ संघर्ष तेज़ करने के लिए लीडरजी ने स्कूल से छुट्टी ले ली है। इस संघर्ष की सफलता में उनके जीवन की सफलता निहित है। महत्त्वाकांक्षाओं की एक लम्बी श्रृंखला है उनके सामने-प्रथम तो अगली बार होने वाले परधानजी के इलेक्शन में, जैसे भी हो, पुराने परधान को हराकर गाँव-परधान बनना। प्राइमरी स्कूल की मास्टरी उन्हें गर्दन की मैल लगने लगी है.....फिर ब्लॉक प्रमुख, फिर एमेले, फिर मिनिस्टर। एयर कंडीशंड कोच में देशाटन। ये सब कठिन संघर्ष की माँग करते हैं। सतत प्रयत्न। परधानी की फील्ड तैयार करने का इससे बड़ा चांस फिर कब आएगा ? शहर से कैमरा लाकर उन्होंने शनिचरी का फोटो उतारा है, अखबार में छपाने के लिए। एक सम्वाददाता भी पकड़ लाए थे। सारे गाँव को जगाना शुरू कर दिया है, ‘‘होशियार हो जाइए आप लोग, आपके गाँव में शेर की खाल में गीदड़। और आप लोगों ने उसे ही परधान बना दिया, सोचने की बात.....’’
तीन पृष्ठों की दरखास्त लिखकर लीडरजी उस पर सारे गाँव वालों के दस्तखत या अँगूठा-निशान ले रहे हैं। इसे लेकर डी०एम० के पास जाएँगे। अखबार में छपवाएँगे। अत्याचारी को सजा दिलवाएँगे, ‘‘लेकिन आप लोग भी सोचिए और समझिए। गलत आदमी को परधान बनाने का क्या रिजल्ट होता है ? आइंदा के लिए....’’
जो परधानजी गाँव में आदर्श विवाह का आयोजन करवाकर तीन-चार महीनों से आसपास तक के गाँवों में देवता की तरह पूजे जाने लगे थे, उन्हीं का अब घर से निकलना मुश्किल हो गया है। निकलते ही शनिचरी उनका पैर पकड़कर गोहार लगाती है, ‘‘मोर बिटिया वापस कर दे बेईमनवा, मोर फूल ऐसी बिटिया गाय-बकरी की नाईं बेंचि के तिजोरी भरै वाले ! तेरे अंग-अंग से कोढ़ फूटि कै बदर-बदर चूई रे कोढ़िया....’’
शनिचरी को आज भी आदर्श-विवाह वाले नगाड़ों की गड़गड़ाहट सुनाई पड़ती है। गाँव का पूरब, सड़क के किनारे के अमराई में गाँव-भर के तख्तों को जुटाकर बनाया गया बड़ा-सा मंच। लाल-हरे रंगों वाले शमियाने। कुर्सी, मेज, बेंच, ढोल, मृदंग, नगाड़े, तुरई, बैंड। ए०डी०ओ०, बी०डी०ओ०, मिडवाइफ। प्रमुख, परधान, सरपंच। सिर पर मौर बाँधे, सजे-सजाए, पढ़े-लिखे, लम्बे-तगड़े दस शहराती दूल्हे। दस दुल्हनें-गाँव की गरीब कन्याएँ। रंग-बिरंगी साड़ियों में पुलकित। सामूहिक आदर्श-विवाह। दहेज-प्रथा और जाति-पाँत की संकीर्ण और सड़ी-गली मान्यताओं पर कुठारघात। एड़ी-चोटी का पसीना एक करके महीनों शहर-शहरात की खाक छानने के बाद परधानजी दस लड़कों को तैयार कर पाए थे। गाँव-समाज के इतिहास में एक नए अध्याय की शुरूआत।
भोंपू में अटक-अटककर प्रेम से बोले थे बी०डी०ओ० साहब, ‘‘आपके ग्राम-परधान श्री के०डी० सिंह के अथक प्रयास के फलस्वरूप- एँ---क्या नाम....इंटरकास्ट मैरिज का प्रोग्राम.......एँ....ऐसे पिछड़े क्षेत्र में। क्या नाम......अगेंस्ट द कर्स ऑफ डाउरी....एँ....समाज और राष्ट्र के अपलिफ्ट के लिए....क्या नाम....’’
मिडवाइक ने एक-एक डिब्बा उपहार में दिया था सभी दुल्हनों को। कंट्रासेप्टिव पिल्स, फैमिली प्लानिंग का लिटरेचर। शनिचरी निहाल थी अपने दामाद की छवि निहारकर। गोरा रंग, पतली मूँछें, बाँका जवान। कलम चलाने वाला। खुला-खुली गहना-गुरिया देने का हुकुम नहीं था तो क्या, शनिचरी ने चोरी से बेटी के बक्से में अपने सारे गहने डाल दिए थे-तीन सेर चाँदी। विदा होते समय कैसी कलेजा फाड़ देने वाली आवाज में रोई थी रूपमती। अपनी बकरी तक को भेंटना नहीं भूली थी।
परधानजी देवता हो गए थे। लीडरजी को सोच हो गया था। ऐन इलेक्शन के छह महीने पहले ही ऐसी जादू की छड़ी घुमाई परधान ने कि सारा गाँव उनके पैर छूने लगा। अब वे मुकाबले में कैसे टिकेंगे ? फिर भी कोशिश तो करनी ही है। हर आदमी से अलग-अलग अकेले में भेंट करते लीडरजी और आगाह करते, ‘‘याद करो, चौबीस रुपए के तीन सौ वसूल किए थे। तुमसे इसी रंगे सियार ने। रंगे सियार का किस्सा नहीं जानते ? किसी दिन फुरसत से सुनाएँगे। एक मन जौ के बदले रामप्रसाद की बियाई भैंस खोल ले जाने वाला कौन है ? बदलुआ को झूठ-मूठ चोरी में फँसाने वाला कौन है ? और, अगर फिर इसी को परधान बनाया आप लोगों ने, तो सबका अग़वार-पिछवार जोतवाकर चरी बो देगा, देखना।’’ लेकिन आदर्श विवाह का कुछ ऐसा जादू चल गया था लोगों पर कि लीडरजी को लगता, अब जनमत पलटना असंभव है। उन्हें बार-बार बी०डी०ओ० की याद आती, ‘बाबू के०डी०सिंह के अथक प्रयास से.....’ हुँह ! खिरोधर सिंह का कितना शानदार संस्करण किया था साले ने। खखारता ऐसा है कि चार बार नाम ले लो तो गले में खारिश हो जाए।
शनिचरी अपनी बुढ़ौती सफल मान बैठी थी। उसकी बेटी अच्छे घर गई है। परधान का वंश बढ़े। अचानक वज्र गिरेगा, शनिचरी ने कब सोचा था।
अर्द्धरात्रि। सघन अंधकार। बूढ़ी आँखों में नींद नहीं। सहसा लगा, कोई टाटी खुटकाते हुए पुकार रहा है, ‘‘काकी, काकी रे !’’ उसने उठकर टाटी का बेंडा खोला तो सुगनी हाँफते हुए उसके गले से लिपट गई, ‘‘काकी रे, हमारी जिनगी माटी हो गई।’’
‘‘क्या हुआ ? बोल तो इतनी रात में कहाँ भागी आ रही है ?’’ उसे इस हालत में देखकर शनिचरी शन्न रह गई थी।
‘‘काकी, अपना परधान कसाई है। इसने पैसा लेकर हम सबको बेच दिया है। शादी की बात धोखा थी। हम सबको पेशा करना पड़ता है, रूपमती को भी। अमीरों के घर सोने भेजा जाता है। आज मैं किसी तरह से निकल भागी। पीछे बदमाश लग गए थे।’’ बोलते-बोलते गला सूख गया उनका। उसने घड़े से एक गिलास पानी पिया और साँस लेकर बोली, ‘‘माई से मिलने को जी हुड़क रहा है काकी। चलती हूँ। सबेरे फिर आँऊगी। सब लोगों को मिलकर थाने पर रपट लिखानी होगी।’’
शनिचरी जड़ हो गई थी। पेशा ! सारी रात वह टाटी के पीठ टिकाए बिसूरती रही और सबेरे जो सुगनी से मिलने उसे घर गई तो सुगनी की माँ ने डाँटा था, ‘‘पागल हो गई बुढ़िया ?’’
शनिचरी ने सब कुछ बताया था। बार-बार बताया था। घड़े के पास लुढ़का गिलास दिखाकर विश्वास दिलाया था, कि यह सच है। रात आई थी सुगनी, लेकिन आई थी तो अपने घर पहुँचने से पहली ही कहाँ और क्यों गायब हो गई। किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा था।
परधानजी ने इसे लीडरजी की लंगेबाजी बताया, ‘‘चुनाव का पैंतरा भाँज रहा है साला। मुझे बदनाम करने के लिए शनिचरी को फोड़ा है। देखते नहीं आप लोग, आधी-आधी रात तक उसकी झोंपड़ी में घुसा रहता है।’’
जिन औरतों से शनिचरी को पुरानी खार है, वे कहती हैं, ‘‘बेटी की कमाई पर मौज करती थी। अब खुद कमाकर खाना पड़ा तो भगत बन रही है बुढ़िया।’’ लेकिन, जिनकी बेटियाँ उस समारोह में ब्याही गई थीं, उनके अंदर खलबली मच गई है। करें भी तो क्या ? एक तरफ परधान से खिलाफत। बिरादरी में बदनामी। हुक्का-पानी बंद होने का डर। छोटे बेटे-बेटियों की शादी में रुकावट और दूसरी तरफ बेटी की ममता। शनिचरी की तरफदारी करके बेटी के पता लगाएँ या-हुआ सो हुआ, बात को दबाकर बदनामी से बचें ?
लेकिन शनिचरी तो लड़ेगी। लड़कर प्राण दे देगी या अपनी बेटी वापस कराएगी। लीडरजी ने कहा है-वे उसकी बात थानेदार और एस०पी० से लेकर कलक्टर-कमिश्नर तक पहुँचाएँगे। मुख्यमंत्री और परधानमंत्री को लेटर लिखेंगे। परधान को अंदर कराएँगे।
दरखास्त पर अँगूठा लगवाने के साथ-साथ लीडरजी ने सबको सावधान किया है, ‘‘परधान काला नाग है। उसका विषदंत उखाड़ना है। बिल्डिंग को घेरकर सब लोग अनशन करो।’’ अँगूठे का निशान तो बहुतों ने दिया, लेकिन अनशन करने कोई नहीं आया। अँगूठा-निशानी का क्या? कोरट कचहरी में फँसने का डर हुआ, तो कह देंगे-धोखे से लीडर ने लगवा लिया था माई-बाप।
शाम का धुँधलका गहराने के साथ-साथ शनिचरी के रोने की आवाज सारे गाँव को थरथराती है। सारा गाँव स्तब्ध है, भयाक्रांत। काफी रात गए लीडरजी आते हैं। चोरबत्ती को रोशनी में शनिचरी को दरखास्त दिखाते हैं, ‘‘सब फिट हो गया। कल इतवार है। परसों जाकर डी०एम० को दरखास्त दे दूँगा और चौबीस घंटे के अंदर परधान को हथकड़ी.....’’
खुलेआम शनिचरी का पक्ष लेकर कोई आगे आया है तो वह है अधपगला अधरंगी। सम्पूर्ण वामांग आंशिक पैरालिसिस का शिकार। बाईं टाँग लुंज, टेढ़ी और छोटी। बायीं आँख मिचमिची और ज्योतिहीन। होंठ बाईं तरफ खिंचे हुए। बायाँ हाथ चेतनाशून्य। आतंकित करने की हद तक स्पष्टभाषी। तीस-पैंतीस की उम्र में ही बूढ़ा दिखने लगा है। पेशा है-गाँव भर के जानवर चराना। मजदूरी प्रति जानवर, प्रति फसल, प्रति माह एक सेर अनाज। सिर्फ परधानजी के और लीडरजी के जानवर नहीं चराता, क्योंकि उसके अनुसार ये दोनों गाँव के राहु और केतु हैं। इन दिनों रात में वह गलियों में घूमते हुए गाता है-‘कलजुग खरान बा, परधनवा बेईमान बा, अधरंगी हैरान बा।’ और सोते हुए लोगों की चादर पकड़कर खींच लेता है, ‘‘औरों की तरह मुँह ढँककर सोने वाले गीदड़ों, परधान तुम्हारी बहन-बेटियों के गोश्त का रोजगार करता है और तुम लोग हिजड़ों की तरह मुँह ढँककर सो रहे हो। सो जाओ, हमेशा के लिए।’’ और चादर फेंककर वह आगे बढ़ जाता है, ‘कलजुग खरान बा।’
पिछले एक हफ्ते से लीडरजी शनिचरी को अनशन के लिए पटा रहे थे और अब गाँव के हर कान में मंतर फूँक रहे हैं, ‘‘शनिचरी परधान के खिलाफ नहीं, अन्याय, दगाबाजी और शोषण के खिलाफ लड़ रही है, अहिंसा की लड़ाई, महात्मा गांधी का रास्ता। आप सबका कर्त्तव्य है कि जोर-जुल्म के खिलाफ लड़ी जाने वाली लड़ाई में उस गरीब विधवा को सपोर्ट करें-मनसा, वाचा, कर्मणा।’’
परधानजी की दुतल्ली बिल्डिंग के सदर दरवाजे पर बोरी बिछाकर किसी मोटे प्रश्नचिह्न-सी बैठी है, शनिचरी। लीडरजी ने गाँधीजी का छोटा-सा फोटो देकर कहा है, ‘‘इन्हीं का ध्यान करो। अन्यायी का हृदय-परिवर्तन होगा या सर्वनाश।’’
अत्याचार के खिलाफ संघर्ष तेज़ करने के लिए लीडरजी ने स्कूल से छुट्टी ले ली है। इस संघर्ष की सफलता में उनके जीवन की सफलता निहित है। महत्त्वाकांक्षाओं की एक लम्बी श्रृंखला है उनके सामने-प्रथम तो अगली बार होने वाले परधानजी के इलेक्शन में, जैसे भी हो, पुराने परधान को हराकर गाँव-परधान बनना। प्राइमरी स्कूल की मास्टरी उन्हें गर्दन की मैल लगने लगी है.....फिर ब्लॉक प्रमुख, फिर एमेले, फिर मिनिस्टर। एयर कंडीशंड कोच में देशाटन। ये सब कठिन संघर्ष की माँग करते हैं। सतत प्रयत्न। परधानी की फील्ड तैयार करने का इससे बड़ा चांस फिर कब आएगा ? शहर से कैमरा लाकर उन्होंने शनिचरी का फोटो उतारा है, अखबार में छपाने के लिए। एक सम्वाददाता भी पकड़ लाए थे। सारे गाँव को जगाना शुरू कर दिया है, ‘‘होशियार हो जाइए आप लोग, आपके गाँव में शेर की खाल में गीदड़। और आप लोगों ने उसे ही परधान बना दिया, सोचने की बात.....’’
तीन पृष्ठों की दरखास्त लिखकर लीडरजी उस पर सारे गाँव वालों के दस्तखत या अँगूठा-निशान ले रहे हैं। इसे लेकर डी०एम० के पास जाएँगे। अखबार में छपवाएँगे। अत्याचारी को सजा दिलवाएँगे, ‘‘लेकिन आप लोग भी सोचिए और समझिए। गलत आदमी को परधान बनाने का क्या रिजल्ट होता है ? आइंदा के लिए....’’
जो परधानजी गाँव में आदर्श विवाह का आयोजन करवाकर तीन-चार महीनों से आसपास तक के गाँवों में देवता की तरह पूजे जाने लगे थे, उन्हीं का अब घर से निकलना मुश्किल हो गया है। निकलते ही शनिचरी उनका पैर पकड़कर गोहार लगाती है, ‘‘मोर बिटिया वापस कर दे बेईमनवा, मोर फूल ऐसी बिटिया गाय-बकरी की नाईं बेंचि के तिजोरी भरै वाले ! तेरे अंग-अंग से कोढ़ फूटि कै बदर-बदर चूई रे कोढ़िया....’’
शनिचरी को आज भी आदर्श-विवाह वाले नगाड़ों की गड़गड़ाहट सुनाई पड़ती है। गाँव का पूरब, सड़क के किनारे के अमराई में गाँव-भर के तख्तों को जुटाकर बनाया गया बड़ा-सा मंच। लाल-हरे रंगों वाले शमियाने। कुर्सी, मेज, बेंच, ढोल, मृदंग, नगाड़े, तुरई, बैंड। ए०डी०ओ०, बी०डी०ओ०, मिडवाइफ। प्रमुख, परधान, सरपंच। सिर पर मौर बाँधे, सजे-सजाए, पढ़े-लिखे, लम्बे-तगड़े दस शहराती दूल्हे। दस दुल्हनें-गाँव की गरीब कन्याएँ। रंग-बिरंगी साड़ियों में पुलकित। सामूहिक आदर्श-विवाह। दहेज-प्रथा और जाति-पाँत की संकीर्ण और सड़ी-गली मान्यताओं पर कुठारघात। एड़ी-चोटी का पसीना एक करके महीनों शहर-शहरात की खाक छानने के बाद परधानजी दस लड़कों को तैयार कर पाए थे। गाँव-समाज के इतिहास में एक नए अध्याय की शुरूआत।
भोंपू में अटक-अटककर प्रेम से बोले थे बी०डी०ओ० साहब, ‘‘आपके ग्राम-परधान श्री के०डी० सिंह के अथक प्रयास के फलस्वरूप- एँ---क्या नाम....इंटरकास्ट मैरिज का प्रोग्राम.......एँ....ऐसे पिछड़े क्षेत्र में। क्या नाम......अगेंस्ट द कर्स ऑफ डाउरी....एँ....समाज और राष्ट्र के अपलिफ्ट के लिए....क्या नाम....’’
मिडवाइक ने एक-एक डिब्बा उपहार में दिया था सभी दुल्हनों को। कंट्रासेप्टिव पिल्स, फैमिली प्लानिंग का लिटरेचर। शनिचरी निहाल थी अपने दामाद की छवि निहारकर। गोरा रंग, पतली मूँछें, बाँका जवान। कलम चलाने वाला। खुला-खुली गहना-गुरिया देने का हुकुम नहीं था तो क्या, शनिचरी ने चोरी से बेटी के बक्से में अपने सारे गहने डाल दिए थे-तीन सेर चाँदी। विदा होते समय कैसी कलेजा फाड़ देने वाली आवाज में रोई थी रूपमती। अपनी बकरी तक को भेंटना नहीं भूली थी।
परधानजी देवता हो गए थे। लीडरजी को सोच हो गया था। ऐन इलेक्शन के छह महीने पहले ही ऐसी जादू की छड़ी घुमाई परधान ने कि सारा गाँव उनके पैर छूने लगा। अब वे मुकाबले में कैसे टिकेंगे ? फिर भी कोशिश तो करनी ही है। हर आदमी से अलग-अलग अकेले में भेंट करते लीडरजी और आगाह करते, ‘‘याद करो, चौबीस रुपए के तीन सौ वसूल किए थे। तुमसे इसी रंगे सियार ने। रंगे सियार का किस्सा नहीं जानते ? किसी दिन फुरसत से सुनाएँगे। एक मन जौ के बदले रामप्रसाद की बियाई भैंस खोल ले जाने वाला कौन है ? बदलुआ को झूठ-मूठ चोरी में फँसाने वाला कौन है ? और, अगर फिर इसी को परधान बनाया आप लोगों ने, तो सबका अग़वार-पिछवार जोतवाकर चरी बो देगा, देखना।’’ लेकिन आदर्श विवाह का कुछ ऐसा जादू चल गया था लोगों पर कि लीडरजी को लगता, अब जनमत पलटना असंभव है। उन्हें बार-बार बी०डी०ओ० की याद आती, ‘बाबू के०डी०सिंह के अथक प्रयास से.....’ हुँह ! खिरोधर सिंह का कितना शानदार संस्करण किया था साले ने। खखारता ऐसा है कि चार बार नाम ले लो तो गले में खारिश हो जाए।
शनिचरी अपनी बुढ़ौती सफल मान बैठी थी। उसकी बेटी अच्छे घर गई है। परधान का वंश बढ़े। अचानक वज्र गिरेगा, शनिचरी ने कब सोचा था।
अर्द्धरात्रि। सघन अंधकार। बूढ़ी आँखों में नींद नहीं। सहसा लगा, कोई टाटी खुटकाते हुए पुकार रहा है, ‘‘काकी, काकी रे !’’ उसने उठकर टाटी का बेंडा खोला तो सुगनी हाँफते हुए उसके गले से लिपट गई, ‘‘काकी रे, हमारी जिनगी माटी हो गई।’’
‘‘क्या हुआ ? बोल तो इतनी रात में कहाँ भागी आ रही है ?’’ उसे इस हालत में देखकर शनिचरी शन्न रह गई थी।
‘‘काकी, अपना परधान कसाई है। इसने पैसा लेकर हम सबको बेच दिया है। शादी की बात धोखा थी। हम सबको पेशा करना पड़ता है, रूपमती को भी। अमीरों के घर सोने भेजा जाता है। आज मैं किसी तरह से निकल भागी। पीछे बदमाश लग गए थे।’’ बोलते-बोलते गला सूख गया उनका। उसने घड़े से एक गिलास पानी पिया और साँस लेकर बोली, ‘‘माई से मिलने को जी हुड़क रहा है काकी। चलती हूँ। सबेरे फिर आँऊगी। सब लोगों को मिलकर थाने पर रपट लिखानी होगी।’’
शनिचरी जड़ हो गई थी। पेशा ! सारी रात वह टाटी के पीठ टिकाए बिसूरती रही और सबेरे जो सुगनी से मिलने उसे घर गई तो सुगनी की माँ ने डाँटा था, ‘‘पागल हो गई बुढ़िया ?’’
शनिचरी ने सब कुछ बताया था। बार-बार बताया था। घड़े के पास लुढ़का गिलास दिखाकर विश्वास दिलाया था, कि यह सच है। रात आई थी सुगनी, लेकिन आई थी तो अपने घर पहुँचने से पहली ही कहाँ और क्यों गायब हो गई। किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा था।
परधानजी ने इसे लीडरजी की लंगेबाजी बताया, ‘‘चुनाव का पैंतरा भाँज रहा है साला। मुझे बदनाम करने के लिए शनिचरी को फोड़ा है। देखते नहीं आप लोग, आधी-आधी रात तक उसकी झोंपड़ी में घुसा रहता है।’’
जिन औरतों से शनिचरी को पुरानी खार है, वे कहती हैं, ‘‘बेटी की कमाई पर मौज करती थी। अब खुद कमाकर खाना पड़ा तो भगत बन रही है बुढ़िया।’’ लेकिन, जिनकी बेटियाँ उस समारोह में ब्याही गई थीं, उनके अंदर खलबली मच गई है। करें भी तो क्या ? एक तरफ परधान से खिलाफत। बिरादरी में बदनामी। हुक्का-पानी बंद होने का डर। छोटे बेटे-बेटियों की शादी में रुकावट और दूसरी तरफ बेटी की ममता। शनिचरी की तरफदारी करके बेटी के पता लगाएँ या-हुआ सो हुआ, बात को दबाकर बदनामी से बचें ?
लेकिन शनिचरी तो लड़ेगी। लड़कर प्राण दे देगी या अपनी बेटी वापस कराएगी। लीडरजी ने कहा है-वे उसकी बात थानेदार और एस०पी० से लेकर कलक्टर-कमिश्नर तक पहुँचाएँगे। मुख्यमंत्री और परधानमंत्री को लेटर लिखेंगे। परधान को अंदर कराएँगे।
दरखास्त पर अँगूठा लगवाने के साथ-साथ लीडरजी ने सबको सावधान किया है, ‘‘परधान काला नाग है। उसका विषदंत उखाड़ना है। बिल्डिंग को घेरकर सब लोग अनशन करो।’’ अँगूठे का निशान तो बहुतों ने दिया, लेकिन अनशन करने कोई नहीं आया। अँगूठा-निशानी का क्या? कोरट कचहरी में फँसने का डर हुआ, तो कह देंगे-धोखे से लीडर ने लगवा लिया था माई-बाप।
शाम का धुँधलका गहराने के साथ-साथ शनिचरी के रोने की आवाज सारे गाँव को थरथराती है। सारा गाँव स्तब्ध है, भयाक्रांत। काफी रात गए लीडरजी आते हैं। चोरबत्ती को रोशनी में शनिचरी को दरखास्त दिखाते हैं, ‘‘सब फिट हो गया। कल इतवार है। परसों जाकर डी०एम० को दरखास्त दे दूँगा और चौबीस घंटे के अंदर परधान को हथकड़ी.....’’
खुलेआम शनिचरी का पक्ष लेकर कोई आगे आया है तो वह है अधपगला अधरंगी। सम्पूर्ण वामांग आंशिक पैरालिसिस का शिकार। बाईं टाँग लुंज, टेढ़ी और छोटी। बायीं आँख मिचमिची और ज्योतिहीन। होंठ बाईं तरफ खिंचे हुए। बायाँ हाथ चेतनाशून्य। आतंकित करने की हद तक स्पष्टभाषी। तीस-पैंतीस की उम्र में ही बूढ़ा दिखने लगा है। पेशा है-गाँव भर के जानवर चराना। मजदूरी प्रति जानवर, प्रति फसल, प्रति माह एक सेर अनाज। सिर्फ परधानजी के और लीडरजी के जानवर नहीं चराता, क्योंकि उसके अनुसार ये दोनों गाँव के राहु और केतु हैं। इन दिनों रात में वह गलियों में घूमते हुए गाता है-‘कलजुग खरान बा, परधनवा बेईमान बा, अधरंगी हैरान बा।’ और सोते हुए लोगों की चादर पकड़कर खींच लेता है, ‘‘औरों की तरह मुँह ढँककर सोने वाले गीदड़ों, परधान तुम्हारी बहन-बेटियों के गोश्त का रोजगार करता है और तुम लोग हिजड़ों की तरह मुँह ढँककर सो रहे हो। सो जाओ, हमेशा के लिए।’’ और चादर फेंककर वह आगे बढ़ जाता है, ‘कलजुग खरान बा।’
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