अर्थशास्त्र >> भारत की अर्थनीति भारत की अर्थनीतिविमल जालान
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भारत की अर्थनीति
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
स्वतंत्रता मिले आधी सदी गुजर जाने के बावजूद भारत एक अति निर्धन देश ही
बना हुआ है। प्रति व्यक्ति आय का मामला हो या मानवीय विकास सूचकांक का, हर
लिहाज़ से इसकी जगह तली में ही है। भारतीय अर्थतंत्र की वृद्धि दर चीन तो
छोड़िए, एशिया के कुछ अन्य देशों की तुलना में भी आधी से कम रही है। और
हमारी सरकारें, चाहे केन्द्र की हों, चाहे राज्यों की, दीवालिएपन के कगार
पर खड़ी हैं।
आर्थिक दृष्टि से हमारे इस आश्चर्यजनक पिछड़ेपन की वजह उन नीतियों के जारी रहने में है जिनका कुछ औचित्य भले ही औपनिवेशिक अतीत के मद्देनज़र शुरू हो रहा हो, लेकिन जो अपनी सारी उपयोगिता काफी पहले खो चुकी हैं। इन नीतियों के सूत्रबद्ध किए जाने के बाद से लेकर अब तक विश्व आर्थिक परिदृश्य काफी बदल चुका है और आज हमारे सामने इसके अलावा और कोई चारा नहीं है कि हम सोच-समझ कर नई हक़ीक़तों का सामना करें।
प्रख्यात अर्थशास्त्री और फिलहाल भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर विमल जालान ने अपनी इस तर्कपूर्ण और सुपाठ्य पुस्तक में यह दलील तैयार की है कि सरकारें बस वे ही काम अपने हाथ में ले, जिन्हें वे सर्वश्रेष्ठ तरीके से अंजाम दे सकती हैं और जो काम वे पर्याप्त अच्छी तरह नहीं कर सकतीं, उनसे यथाशीघ्र अपने हाथ खींच लें। इस पुस्तक में श्री जालान का स्वर न तो हताशा से भरा है और न अतिरिक्त चेतावनी से। भारत के स्वर्णिम भविष्य को लेकर वे पूर्णतया आश्वस्त हैं, बशर्ते ऐसे भविष्य के लिए हमारी नीतिगत तैयारियाँ समय रहते पूरी हो जाएँ।
आर्थिक दृष्टि से हमारे इस आश्चर्यजनक पिछड़ेपन की वजह उन नीतियों के जारी रहने में है जिनका कुछ औचित्य भले ही औपनिवेशिक अतीत के मद्देनज़र शुरू हो रहा हो, लेकिन जो अपनी सारी उपयोगिता काफी पहले खो चुकी हैं। इन नीतियों के सूत्रबद्ध किए जाने के बाद से लेकर अब तक विश्व आर्थिक परिदृश्य काफी बदल चुका है और आज हमारे सामने इसके अलावा और कोई चारा नहीं है कि हम सोच-समझ कर नई हक़ीक़तों का सामना करें।
प्रख्यात अर्थशास्त्री और फिलहाल भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर विमल जालान ने अपनी इस तर्कपूर्ण और सुपाठ्य पुस्तक में यह दलील तैयार की है कि सरकारें बस वे ही काम अपने हाथ में ले, जिन्हें वे सर्वश्रेष्ठ तरीके से अंजाम दे सकती हैं और जो काम वे पर्याप्त अच्छी तरह नहीं कर सकतीं, उनसे यथाशीघ्र अपने हाथ खींच लें। इस पुस्तक में श्री जालान का स्वर न तो हताशा से भरा है और न अतिरिक्त चेतावनी से। भारत के स्वर्णिम भविष्य को लेकर वे पूर्णतया आश्वस्त हैं, बशर्ते ऐसे भविष्य के लिए हमारी नीतिगत तैयारियाँ समय रहते पूरी हो जाएँ।
दो शब्द
यह पुस्तक पहली बार अगस्त, 1996 में प्रकाशित हुई थी। तब से अब तक एक बार
सत्ता परिवर्तन हो चुका है। विश्व के राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य में भी
कई महत्त्वपूर्ण बदलाव आए हैं। आर्थिक दृष्टिकोण से इनमें सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण है, विशेषत: पूर्व-एशियाई अर्थतंत्रों में मुद्रा व
शेयरबाजार की उथल-पुथल। हाल के हफ्तों में भारतीय अर्थतंत्र भी इससे
प्रभावित हुआ है। स्वभावत: यह प्रश्न उठता है कि इस पुस्तक के मुख्य ज़ोर
अथवा भारतीय अर्थतंत्र की दिशा के संबंध में इसके निष्कर्षों पर
पुनर्विचार किया जाना जरूरी है अथवा नहीं।
मेरे ख़याल से हाल की इन घटनाओं ने इस पुस्तक के विश्लेषण व निष्कर्षों को कमज़ोर बनाने के बजाय इन्हें और मजबूत ही किया है। मसलन, सार्वजनिक क्षेत्र के सुधार और व्यय-नियंत्रण के जरिए केन्द्र व राज्य सरकारों का ‘वित्तीय सशक्तीकरण’ एक वर्ष पहले की तुलना में आज कहीं ज़्यादा जरूरी हो गया है। सहकारी राजस्व घाटे पर एक संवैधानिक सीमा आयद करने का प्रस्ताव आम राष्ट्रीय बहस का विषय हो गया है। मैक्सिको-संकट के दो वर्ष बाद विदेशी मुद्रा व पूँजी बाज़ारों में आई हाल की अस्थिरता ने अल्पकालिक वित्तीय प्रवाह के प्रति एक समग्र मध्यकालिक नीति अख्तियार करने की आवश्यकता को ही चिन्हित किया है। विश्व-अर्थतंत्र में भारत अपना न्यायसंगत स्थान ग्रहण कर सके, इसके लिए भारत द्वारा अपनी वृद्धि-दर सात-आठ प्रतिशत बनाए रखना एक अनिवार्य लक्ष्य बना हुआ है। भुखमरी-निवारण और विशेषत: सबके लिए स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सामाजिक क्षेत्रों पर प्रमुख ज़ोर बनाए रखने के लिए राज्य को पर्याप्त साधन मुहैय्या कराने के लिहाज़ से यह एक अपरिहार्य शर्त है।
राजनीति अनिश्चिताओं और हमारे राजनीतिक ढांचे की शक्ल-सूरत को लेकर कुछ गहरी चिंताओं के बादजूद अपने देश के भविष्य को लेकर मैं काफी आशावान हूँ। भारत के पास इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में एक प्रमुख आर्थिक शक्ति बन सकने लायक मेधा, कौशल और उद्यम संसाधन मौजूद हैं। भारत के लिए, खासकर हमारे युवाओं के लिए, सचमुच ज़बरदस्त नई संभावनाएँ मौजूद हैं। हमारी स्वतंत्रता के पचास वर्ष बाद मैं यह आशा करता हूँ कि इस पुस्तक में कही गई कम-से-कम कुछ बातें ऐसी नीतियाँ तैयार करने में मददगार होंगी जो भारत को अपनी वास्तविक क्षमता को अमल में उतार पाने में सक्षम बना सकें।
मेरे ख़याल से हाल की इन घटनाओं ने इस पुस्तक के विश्लेषण व निष्कर्षों को कमज़ोर बनाने के बजाय इन्हें और मजबूत ही किया है। मसलन, सार्वजनिक क्षेत्र के सुधार और व्यय-नियंत्रण के जरिए केन्द्र व राज्य सरकारों का ‘वित्तीय सशक्तीकरण’ एक वर्ष पहले की तुलना में आज कहीं ज़्यादा जरूरी हो गया है। सहकारी राजस्व घाटे पर एक संवैधानिक सीमा आयद करने का प्रस्ताव आम राष्ट्रीय बहस का विषय हो गया है। मैक्सिको-संकट के दो वर्ष बाद विदेशी मुद्रा व पूँजी बाज़ारों में आई हाल की अस्थिरता ने अल्पकालिक वित्तीय प्रवाह के प्रति एक समग्र मध्यकालिक नीति अख्तियार करने की आवश्यकता को ही चिन्हित किया है। विश्व-अर्थतंत्र में भारत अपना न्यायसंगत स्थान ग्रहण कर सके, इसके लिए भारत द्वारा अपनी वृद्धि-दर सात-आठ प्रतिशत बनाए रखना एक अनिवार्य लक्ष्य बना हुआ है। भुखमरी-निवारण और विशेषत: सबके लिए स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सामाजिक क्षेत्रों पर प्रमुख ज़ोर बनाए रखने के लिए राज्य को पर्याप्त साधन मुहैय्या कराने के लिहाज़ से यह एक अपरिहार्य शर्त है।
राजनीति अनिश्चिताओं और हमारे राजनीतिक ढांचे की शक्ल-सूरत को लेकर कुछ गहरी चिंताओं के बादजूद अपने देश के भविष्य को लेकर मैं काफी आशावान हूँ। भारत के पास इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में एक प्रमुख आर्थिक शक्ति बन सकने लायक मेधा, कौशल और उद्यम संसाधन मौजूद हैं। भारत के लिए, खासकर हमारे युवाओं के लिए, सचमुच ज़बरदस्त नई संभावनाएँ मौजूद हैं। हमारी स्वतंत्रता के पचास वर्ष बाद मैं यह आशा करता हूँ कि इस पुस्तक में कही गई कम-से-कम कुछ बातें ऐसी नीतियाँ तैयार करने में मददगार होंगी जो भारत को अपनी वास्तविक क्षमता को अमल में उतार पाने में सक्षम बना सकें।
17 नवंबर, 1997
विमल जालान
प्रस्तावना
भारत के आर्थिक संकट पर मैंने 1991 में एक पुस्तक लिखी थी। उसमें मैंने
थोड़े बड़े और दूरगामी परिप्रेक्ष्य में उस संकट के मूल कारणों पर दृष्टि
डालने का विनम्र प्रयास किया था। तब से अब तक राजनीतिक एवं आर्थिक क्षेत्र
में देश और विदेश में काफी कुछ घट चुका है। 1991 वाला संकट कब का टल चुका।
भारत ने आर्थिक सुधारों का विशद कार्यक्रम अपना लिया है। एशिया, अफ्रीका
और लातिन अमरीका के विकासशील देश भी अपनी विकास-रणनीति को पुनर्परिभाषित
करने एवं व्यापार तथा निवेश के नए यथार्थ का सामना करने की कोशिश में लगे
हैं। सोवियत संघ के पतन तथा मध्य एशिया एवं यूरोप में कई स्वतंत्र
राष्ट्रों के उदय से विश्व का राजनीतिक नक्शा भी बदल रहा है।
इसी पृष्ठभूमि को देखते हुए मुझे लगा कि भविष्य में भारत के सामने उभरने वाली आर्थिक नीति की चुनौतियों पर फिर से विचार करना उपयोगी होगा। उसी का परिणाम यह पुस्तक है। मैं जैसे-जैसे अपने देश तथा दूसरे देशों के अनुभवों का गहराई से विश्लेषण करता गया, दो बातें स्पष्ट होती गईं। पहली यह कि पिछले दशक में टेक्नोलॉजी व्यापार और निवेश में विश्व स्तर पर भारी बदलाव आया है। इनमें से कई परिवर्तन भारत के हित में हैं। हालाँकि भारत में कई बार ऐसी धारणा नहीं देखी जाती। अपेक्षाकृत अधिक परिपक्व टेक्नालॉजी तथा औद्योगिक आधार से लैस भारत जैसे देशों के समक्ष आज इसके चलते अनेक नए अवसर उपस्थित हो गए हैं। दूसरी बात यह कि इन अवसरों का पूरा लाभ उठाने के लिए अतीत के बोझ से छुटकारा पाना जरूरी है। काफी समय बीत जाने के बावजूद हम अपने औपनिवेशिक अतीत की स्मृति से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। इसके चलते आर्थिक नीति पर मौजूदा बहस के प्रति हमारी दृष्टि धुँधली हुआ करती है।
यह पुस्तक आम पाठकों के लिए है। अगर हमारे नीति-नियंता, सांसद, विधायक, जनमत-द्रष्टा तथा विश्वविद्यालयों के युवा (जिन्हें 21 वीं सदी की चुनौती का वरण करना है) को यह पुस्तक उपयोगी लगे तो मैं अपने प्रयास को सार्थक समझूँगा। वैसे तकनीकी शब्दावली से पूरी तरह बचना मुश्किल है, फिर भी, मैंने कोशिश की है कि पाठ अर्थशास्त्र से अनजान लोगों के लिए भी सुगम रहे। अत्यंत आवश्यक संदर्भ ही दिए गए हैं और आँकड़े भी चुनिंदा हैं।
मैंने दूसरे विद्वानों की प्रकाशित किताबों और अध्ययनों का काफी लाभ उठाया है। सहकर्मियों, मित्रों तथा परिवार के सदस्यों के संग बहस-विमर्श से भी मुझे काफी लाभ हुआ है। उनमें से कुछ मैं उल्लेख करना चाहूँगा। कौशिक बसु ने बहुत कम समय में व्यक्तिगत कठिनाई उठाकर कुछ अध्यायों के मसविदे को पढ़ा और अपनी राय दी। मैं उनका अत्यंत आभारी हूँ। मैंने इस पुस्तक के बारे में अपने युवा बच्चों, प्रतीक और निधि से भी चर्चा की थी। प्रतीक ने न केवल मसविदे को पढ़ा बल्कि कई स्थलों को बेहतर बनाने में सहायता की है। के० के० लूथरा ने कष्ट उठाकर इसकी पांडुलिपि तैयार की। उनके सहयोग एवं धैर्य के अभाव में पुस्तक समय पर तैयार नहीं हो सकती थी।
पुस्तक में रह गई भूलों के लिए मैं भी उत्तरदायी हूँ। इस पुस्तक में व्यक्त विचार मेरे हैं, न कि भारत सरकार या किसी अन्य संस्था के।
इसी पृष्ठभूमि को देखते हुए मुझे लगा कि भविष्य में भारत के सामने उभरने वाली आर्थिक नीति की चुनौतियों पर फिर से विचार करना उपयोगी होगा। उसी का परिणाम यह पुस्तक है। मैं जैसे-जैसे अपने देश तथा दूसरे देशों के अनुभवों का गहराई से विश्लेषण करता गया, दो बातें स्पष्ट होती गईं। पहली यह कि पिछले दशक में टेक्नोलॉजी व्यापार और निवेश में विश्व स्तर पर भारी बदलाव आया है। इनमें से कई परिवर्तन भारत के हित में हैं। हालाँकि भारत में कई बार ऐसी धारणा नहीं देखी जाती। अपेक्षाकृत अधिक परिपक्व टेक्नालॉजी तथा औद्योगिक आधार से लैस भारत जैसे देशों के समक्ष आज इसके चलते अनेक नए अवसर उपस्थित हो गए हैं। दूसरी बात यह कि इन अवसरों का पूरा लाभ उठाने के लिए अतीत के बोझ से छुटकारा पाना जरूरी है। काफी समय बीत जाने के बावजूद हम अपने औपनिवेशिक अतीत की स्मृति से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। इसके चलते आर्थिक नीति पर मौजूदा बहस के प्रति हमारी दृष्टि धुँधली हुआ करती है।
यह पुस्तक आम पाठकों के लिए है। अगर हमारे नीति-नियंता, सांसद, विधायक, जनमत-द्रष्टा तथा विश्वविद्यालयों के युवा (जिन्हें 21 वीं सदी की चुनौती का वरण करना है) को यह पुस्तक उपयोगी लगे तो मैं अपने प्रयास को सार्थक समझूँगा। वैसे तकनीकी शब्दावली से पूरी तरह बचना मुश्किल है, फिर भी, मैंने कोशिश की है कि पाठ अर्थशास्त्र से अनजान लोगों के लिए भी सुगम रहे। अत्यंत आवश्यक संदर्भ ही दिए गए हैं और आँकड़े भी चुनिंदा हैं।
मैंने दूसरे विद्वानों की प्रकाशित किताबों और अध्ययनों का काफी लाभ उठाया है। सहकर्मियों, मित्रों तथा परिवार के सदस्यों के संग बहस-विमर्श से भी मुझे काफी लाभ हुआ है। उनमें से कुछ मैं उल्लेख करना चाहूँगा। कौशिक बसु ने बहुत कम समय में व्यक्तिगत कठिनाई उठाकर कुछ अध्यायों के मसविदे को पढ़ा और अपनी राय दी। मैं उनका अत्यंत आभारी हूँ। मैंने इस पुस्तक के बारे में अपने युवा बच्चों, प्रतीक और निधि से भी चर्चा की थी। प्रतीक ने न केवल मसविदे को पढ़ा बल्कि कई स्थलों को बेहतर बनाने में सहायता की है। के० के० लूथरा ने कष्ट उठाकर इसकी पांडुलिपि तैयार की। उनके सहयोग एवं धैर्य के अभाव में पुस्तक समय पर तैयार नहीं हो सकती थी।
पुस्तक में रह गई भूलों के लिए मैं भी उत्तरदायी हूँ। इस पुस्तक में व्यक्त विचार मेरे हैं, न कि भारत सरकार या किसी अन्य संस्था के।
15 जनवरी, 1996
विमल जालान
भूमिका
चालीस वर्षों तक योजना-आधारित विकास कार्यक्रमों के बावजूद भारत एक गरीब
देश ही है। प्रति व्यक्ति आय के संदर्भ में दुनिया के देशों की तालिका में
उसका नाम निचली पायदान पर है। मानव या सामाजिक विकास के अन्य सूचकांकों के
संदर्भ में भी वह काफी नीचे है। इसकी करीब आधी आबादी निरक्षर है। और इतने
ही लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिल पाता। आजादी के पचास साल बाद देखें तो
गरीबी के अनुपात तथा मानव विकास के अन्य सूचकांकों में कुछ सुधार तो हुआ
है। इसके बावजूद भारत अभी भी गरीबी के दलदल में फँसा हुआ है। कुछ (विशेषकर
शहरी झोंपड़पट्टी) मामलों में स्थिति बदतर हुई है। 1951 में बनी पहली
योजना में सोचा गया था कि 1980-81 तक प्रति व्यक्ति आय दोगुनी हो जाएगी और
गरीबी में भारी कमी आएगी। इस लक्ष्य की आधी पूर्ति हो पाई। तीस सालों में,
1980-81 तक प्रति व्यक्ति आय में सिर्फ 50 प्रतिशत की वृद्धि हो पायी।1
राजनीतिक प्रतिबद्धता या इच्छा-शक्ति में कमी के चलते लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो पाई, ऐसा नहीं था। सभी महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दलों और आठों पंचवर्षीय योजनाओं में प्रमुख लक्ष्य ‘गरीबी हटाओ’ ही था। हर बड़े राजनीतिक नेता के तथा बजट भाषणों में इस लक्ष्य का बार-बार उल्लेख होता रहा, फिर भी हम अपनी ही उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे। इसका मूल कारण था कि बचत में महत्त्वपूर्ण वृद्धि के बावजूद राष्ट्रीय आय में वृद्धि कम रही क्योंकि हम संसाधनों का पूरी क्षमता से उपयोग नहीं कर पाए।
हमारी आर्थिक नीति के दो स्तंभ थे : संरक्षण तथा सार्वजनिक क्षेत्र। घरेलू उद्योगों को संरक्षण देने से उम्मीद की गई थी कि औद्योगिक विकास तेजी से आगे बढ़ेगा। उत्पादन के साधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व होने से जो लाभ तथा अधिशेष प्राप्त होगा उसका निवेश किया जाएगा। कुछ प्रारंभिक सफलताओं के बावजूद सारे अनुमान गलत सिद्ध हु्ए। घरेलू उद्योग को उच्च स्तर का संरक्षण देने के बावजूद भारत में औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि की दर चीन या पूर्वी एशिया से आधी ही रही।2 दूसरी बात यह हुई कि सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्ति तथा सरकारी बजट में भारी वृद्धि के बावजूद केन्द्र और राज्यों की सरकारें दिवालियेपन की कगार पर पहुँच गई हैं।
अपनी समस्याओं के कारणों का विस्तार से विवेचन करना अभी मेरा उद्देश्य नहीं है। उसका आगे विश्लेषण होगा। यहाँ यह याद रखना जरूरी है कि व्यापक राजनीति समर्थन के बावजूद हमारी पिछली नीतियों का परिणाम गरीबी उन्मूलन के मामले में सकारात्मक नहीं रहा।
इतिहास के मौजूदा दौर का सबक यह है कि अर्थव्यवस्था में वृद्धि-दर को बढ़ाने के उद्देश्य में तथा गरीबी कम करने के उद्देश्य में कोई टकराव नहीं होता। जिन देशों तथा क्षेत्रों में वृद्धि-दर काफी समय तक अच्छी रही है, वहाँ गरीबी घटाने तथा जनता को स्वास्थ्य तथा पोषण प्रदान करने का रिकार्ड भी शानदार रहा है। वैसे कुछ ऐसे उदाहरण (जैसे केरल या श्रीलंका) भी हैं, जहाँ वृद्धि-दर के मुकाबले गरीबी उन्मूलन तथा मानव विकास सूचकांकों के स्तर में काफी सुधार हुआ है। ऐसे भी कुछ उदाहरण (जैसे सातवें दशक का ब्राजील) हैं जहाँ वृद्धि-दर तो ऊँची रही लेकिन गरीबी का अनुपात बढ़ता गया। प्रति व्यक्ति ऊँची आय के बावजूद शिक्षा तथा सामाजिक सेवाओं में मामूली प्रगति हुई। इसके उदाहरण तो तेल-समृद्ध देश हैं। यह भी स्पष्ट होता जा रहा है कि कम वृद्धि-दर के बावजूद अच्छी प्रगति करने वाले केरल तथा श्रीलंका अब अपनी प्रगति की रफ्तार बनाए रखने में कठिनाई महसूस कर रहे हैं। वित्तीय कटौती के कारण प्रति व्यक्ति खर्च तथा गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में कमी हुई है।
औद्योगिक विकास में कम वृद्धि के चलते बेरोजगारी एक बड़ी समस्या बन गई है। गरीबी हटाने के मोर्चे पर वह बड़ी बाधा बन गई है।
राजनीतिक प्रतिबद्धता या इच्छा-शक्ति में कमी के चलते लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो पाई, ऐसा नहीं था। सभी महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दलों और आठों पंचवर्षीय योजनाओं में प्रमुख लक्ष्य ‘गरीबी हटाओ’ ही था। हर बड़े राजनीतिक नेता के तथा बजट भाषणों में इस लक्ष्य का बार-बार उल्लेख होता रहा, फिर भी हम अपनी ही उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे। इसका मूल कारण था कि बचत में महत्त्वपूर्ण वृद्धि के बावजूद राष्ट्रीय आय में वृद्धि कम रही क्योंकि हम संसाधनों का पूरी क्षमता से उपयोग नहीं कर पाए।
हमारी आर्थिक नीति के दो स्तंभ थे : संरक्षण तथा सार्वजनिक क्षेत्र। घरेलू उद्योगों को संरक्षण देने से उम्मीद की गई थी कि औद्योगिक विकास तेजी से आगे बढ़ेगा। उत्पादन के साधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व होने से जो लाभ तथा अधिशेष प्राप्त होगा उसका निवेश किया जाएगा। कुछ प्रारंभिक सफलताओं के बावजूद सारे अनुमान गलत सिद्ध हु्ए। घरेलू उद्योग को उच्च स्तर का संरक्षण देने के बावजूद भारत में औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि की दर चीन या पूर्वी एशिया से आधी ही रही।2 दूसरी बात यह हुई कि सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्ति तथा सरकारी बजट में भारी वृद्धि के बावजूद केन्द्र और राज्यों की सरकारें दिवालियेपन की कगार पर पहुँच गई हैं।
अपनी समस्याओं के कारणों का विस्तार से विवेचन करना अभी मेरा उद्देश्य नहीं है। उसका आगे विश्लेषण होगा। यहाँ यह याद रखना जरूरी है कि व्यापक राजनीति समर्थन के बावजूद हमारी पिछली नीतियों का परिणाम गरीबी उन्मूलन के मामले में सकारात्मक नहीं रहा।
इतिहास के मौजूदा दौर का सबक यह है कि अर्थव्यवस्था में वृद्धि-दर को बढ़ाने के उद्देश्य में तथा गरीबी कम करने के उद्देश्य में कोई टकराव नहीं होता। जिन देशों तथा क्षेत्रों में वृद्धि-दर काफी समय तक अच्छी रही है, वहाँ गरीबी घटाने तथा जनता को स्वास्थ्य तथा पोषण प्रदान करने का रिकार्ड भी शानदार रहा है। वैसे कुछ ऐसे उदाहरण (जैसे केरल या श्रीलंका) भी हैं, जहाँ वृद्धि-दर के मुकाबले गरीबी उन्मूलन तथा मानव विकास सूचकांकों के स्तर में काफी सुधार हुआ है। ऐसे भी कुछ उदाहरण (जैसे सातवें दशक का ब्राजील) हैं जहाँ वृद्धि-दर तो ऊँची रही लेकिन गरीबी का अनुपात बढ़ता गया। प्रति व्यक्ति ऊँची आय के बावजूद शिक्षा तथा सामाजिक सेवाओं में मामूली प्रगति हुई। इसके उदाहरण तो तेल-समृद्ध देश हैं। यह भी स्पष्ट होता जा रहा है कि कम वृद्धि-दर के बावजूद अच्छी प्रगति करने वाले केरल तथा श्रीलंका अब अपनी प्रगति की रफ्तार बनाए रखने में कठिनाई महसूस कर रहे हैं। वित्तीय कटौती के कारण प्रति व्यक्ति खर्च तथा गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में कमी हुई है।
औद्योगिक विकास में कम वृद्धि के चलते बेरोजगारी एक बड़ी समस्या बन गई है। गरीबी हटाने के मोर्चे पर वह बड़ी बाधा बन गई है।
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लोगों की राय
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