लोगों की राय

लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

150 पाठक हैं

औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


प्रेम के गुरु रवि ठाकुर ही अगर प्रेमिका के साथ-साथ नहीं चल सके, तो हमारे रमेन या रंजन का भला क्या दोष? प्रेमिका मिले या न मिले, लेकिन रवीन्द्र के बारे में आगे-पीछे का मामला नहीं था। मैंने जो देखा या सुना वह था-मैं ऊँचा, तुम नीचे! मैं कुर्सी पर तुम मेरे चरणों में।

बंगाली पुरुषों में बीवी को परम बन्धु और प्रेमिका समझने का रिवाज़ नहीं है। वे लोग छुटपुट स्वाधीनता का दान दे कर, बाहर यह कहते फिरते हैं कि उन लोगों ने बीवी को पूरी स्वाधीनता दी है। मानो स्वाधीनता किसी को देने की चीज़ है, मानो यह इन्सान का जन्मसिद्ध अधिकार नहीं है। बंगाली पुरुष कहीं से भी अलग नहीं हैं। सभी रक्षणशील, सभी पुरुषतान्त्रिक समाज में लगभग यही नियम है। लेकिन बंगाली पुरुष पढ़ा-लिखा होने के बावजूद, कलाकार होने के बावजूद, साहित्यकार, बुद्धिजीवी होने के बावजूद, पुरुषतन्त्र की सुख-सुविधा जीने के लिए लगभग पगलाया रहता है।

यह भी कहा जाता है कि पश्चिम के पुरुषों में दिल नाम की कोई चीज़ नहीं होती। प्रेम में तो बंगाली पड़ता है। बंगाली के पास ही दिल नाम की चीज़ होती है। बंगाली ही रोता है। यह सरासर गलतफहमी है! झूठ है!

प्यार का रिश्ता टूटने पर, पश्चिमी औरत-मर्द, दोनों को ही मैंने पागलों की तरह रोते देखा है। एक-दो दिन की रुलाई नहीं, महीनों-महीनों...तक रुलाई! सालों-साल तक रुलाई। मैंने वहाँ के लोगों को छुरी से अपने हाथ-पाँव काटते हुए देखा है, जहर पीते हुए देखा है, मेट्रो तले छलाँग लगाते देखा है। टूटे-दिल प्रेमी-प्रेमिकाओं को मनोरोग-विशेषज्ञों के पास दौड़ते हुए देखा है। दुनिया भर में घूमने-फिरने के दौरान, मैंने दिलवाले बहुतेरे प्रेमी देखे हैं, मगर बंगाली पुरुषों जैसे पत्थर-दिल प्रेमी कम नज़र आये हैं। बंगाली पुरुषों जैसा अ-प्रेमी भी मैंने कम ही देखा है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book