लोगों की राय

लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

150 पाठक हैं

औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


364 दिन पुरुष दिवस, 1 दिन नारी-दिवस : दरअसल सच यह है कि इस पुरुषशासित समाज में 365 दिनों में 365 दिन ही पुरुष दिवस है। औरतों पर करुणा करते हुए कुल एक दिन उनके लिए रखा गया है क्योंकि औरत के ऊपर पुरुषों के अत्याचार की सीमा नहीं है, इसीलिए कम-से-कम उस एक दिन दल-बल समेत वे लोग रो-धो सकें। या 'जितना दिय नाथ, हम उतने में सुखी' कहते हुए औरतें चर्चा-परिचर्चा, सभाओं का आयोजन कर सकें। अर्सा हुआ, 'कबूल नहीं, नहीं क़बूल' या 'ना मानें, ना मानूंगी' जैसे नारे ख़त्म हो चुके। आजकल जितना नरम हुआ जाये, जितना समझौता किया जाये उतना ही मंगल है। औरतों को मंगलमयी बनाने का कायदा और कौशल, इस समाज में कोई नया नहीं है।

इस दुनिया में 'पुरुष दिवस' के नाम से किसी दिवस की ज़रूरत ही नहीं क्योंकि हर दिवस पुरुष दिवस होता है।

मेरी अपनी राय यह है कि औरत-मर्द में जो भयंकर विषमता विराज रही है, जब वह दूर हो जायेगी, तो 'नारी-दिवस' या 'पुरुष-दिवस'-कोई भी दिवस नहीं रहेगा। मेरा सपना है कि 365 दिन का हर दिन 'मानव-दिवस' होगा।

उक्ति : नहीं, इस दिन के बारे में अधिक लोगों ने समालोचना नहीं की है। यहाँ तक कि बड़े-बड़े नारीवादियों ने भी नहीं की है। अमेरिका की राजनीतिज्ञ, नारीवादी, कानूनदां, बेल आबजुग ने, जिनका स्पष्टवादी के तौर पर काफ़ी नाम था, एक बेहद खूबसूरत बात कही थी-They used to give us a day-it was called 'International women's day.' In 1975, they gave us a year, the year of the women. Then from 1975 to 1985, they gave us a decade, the decade of the women. I said at the time, who knows, if we behave they may let us into the whole thing. Well, we didn't behave and here we are.'

'बिहेव' यानी बर्ताव का ज़िक्र आते ही, मुझे हमेशा वह पंक्ति याद आती है-well-behaved women rarely make history.

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book