लोगों की राय

लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

150 पाठक हैं

औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


नीलोफ़र और शिल्पा के सन्दर्भ में कट्टरपन्थी जब हल्ला-गुल्ला मचाते हैं, हम इसका इल्ज़ाम कट्टरपंथियों पर लादकर आराम से बैठे रहते हैं, मानो कट्टरपन्थी अतिशय बुरे हैं, बाकी लोग बहुत भले हैं। लेकिन दोष कट्टरपंथियों का नहीं है। दोष मूल में है, समाज में है, ढाँचे में है। ये कट्टरपन्थी बीच-बीच में हमें इस ढाँचे की याद दिला देते हैं। खैर इस ढाँचे के बारे में इस देश के अधिकांश लोगों को कोई एतराज़ नहीं है। इसी ढाँचे पर ही तो उन लोगों ने अपना सुरम्य संसार, समाज रच डाला है।

लोगों ने हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध, ईसाई, जैन, यहूदी, पारसी वगैरह धार्मिक सम्प्रदायों में फ़र्क के बारे में भारी-भरकम किताबें लिख डाली हैं। लेकिन मेरी राय में इनमें कोई फर्क नहीं है। सभी धर्म और समाज पुरुषतान्त्रिक है और अतिशय संगत कारणों से इसीलिए नारी-विरोधी हैं। इन धर्मों में ऊपर-ऊपर से तो कुछ फ़र्क ज़रूर है। धार्मिक उत्सवों के आचार-आचरण में भी थोड़ा-बहुत फर्क नज़र आता है। लेकिन इन सबकी प्रकृति एक है, अन्दर ही अन्दर सब एक ही हैं। किसी अदृश्य शक्ति को डरना होगा, उसे प्रार्थना-पूजा द्वारा तुष्ट रखना होगा और मनुष्य को समाज में यह नियम मानकर चलना होगा कि पुरुष प्रभु है और महिला दासी है। दासी शब्द सुनते ही आजकल उच्च श्रेणी की उच्च शिक्षित औरतें चिढ़ जाती हैं। लेकिन इस शब्द के अलावा औरत के लिए अन्य कोई सटीक शब्द मुझे नहीं मिलता। आपात्दृष्टि में भले दासी न लगे लेकिन पुरुषतन्त्र के ढाँचे ने औरत को दासी बना रखा है जो गहरे पानी पैठकर यह नहीं देख पाते। लोग अन्धे नहीं तो और क्या हैं? हालाँकि औरत अगर अन्धी न हो तो नहीं चलता। खुली आँखों वाली औरत के लिए इस समाज में कोई स्थान नहीं है।

औरतों की आँखें जब खुल ही रही थीं उसी समय समाज के रक्षक उन आँखों को अन्धा कर देने के लिए व्यग्र हो उठे हैं। समाज के इन ठेकेदारों को कोई 'कटरपन्थी' कह कर अपमानित नहीं करता। वे लोग काफ़ी सम्मानित लोग हैं। शरीफ लोग! बुद्धिमान! कल्चर्ड! कट्टरपन्थी सड़कों पर बन्दर की तरह उछल-कूद मचाते हैं। अश्लीलता करते हैं। जला कर फूंक देते हैं। वे लोग बुद्धू हैं। अनकल्वर्ड! असल में वे लोग शरीफ़ लोगों से कम कट्टरपन्थी हैं। वे लोग औरतों को इतना नुक़सान नहीं पहुँचाते जितना 'शरीफ लोग' पहुंचाते हैं। कट्टरपंथियों को देख कर, उन्हें पहचाना जा सकता है उन लोगों से सावधान हुआ जा सकता है। अक्ल से उन लोगों को परास्त भी किया जा सकता है। लेकिन पढ़े-लिखे लोगों को परास्त नहीं किया जा सकता है। भले मानसों को! बुद्धिमानों को। बाहर से देखो तो उन लोगों को पहचाना भी नहीं जा सकता। वे लोग प्रगतिशील हैं; समता में विश्वास रखते हैं-सभी लोगों की लगभग यही धारणा है। उन लोगों की खुद भी यही धारणा है। लेकिन वे लोग ही इस पुरुष शासित समाज को, ज़बर्दस्त बुद्धि के दम पर कूट-कौशल से टिकाये हुए हैं। शरीफ़ लोग भी टिकाये रखते हैं। वे लोग नारी-विरोधी, शान, सनातन संस्कृति, पहले से भी ज़्यादा धूमधाम से पालन करने की तैयारी में हैं।

सड़कों पर पुतले जलाने वाले, फ़तवा देने वाले कट्टरपन्थी या उग्रपन्थी लोगों की संख्या शरीफ़ लोगों की तुलना में कम है। इन अल्पसंख्यक लोगों में पुरुषतन्त्र
को टिकाये रखने की कोई क्षमता नहीं है। इसे तो शरीफ लोगों ने टिकाये रखा है, जो लोग नरमपन्थी और चालाक-चतुर हैं। जिन लोगों को कोई कट्टरपन्थी नहीं मानेगा, असल में कट्टरपन्थी वही हैं। पुरुषतन्त्र के ढाँचे को अक्षत रखने के लिए जो करना होता है, सब कुछ वे लोग ही कर रहे हैं। अगर वे लोग बुद्धिबल, शक्तिबल, पुरुषबल के ज़ोर पर पुरुषतन्त्र को टिकाये नहीं रखते तो यह इतने लम्बे अर्से तक टिका नहीं रहता।


...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book