लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
समता की माँग करते हुए समूची दुनिया में आन्दोलन भी कम नहीं हुए। आन्दोलन की वजह से विषमता को टिकाये रखनेवाली अर्से पुरानी प्रथा अब निर्मूल हो चुकी है लेकिन आज तक पुरुषतन्त्र का ज़रा भी बाल-बाँका नहीं हुआ। क्या लगता है इसकी क्या वजह हो सकती है? आकाश से गिरा यह पुरुषतन्त्र लोहे का बना हुआ है, इसलिए? या इसलिए कि इन्सान इसे टिकाये रखने के लिए जी-जान से जुटा हुआ है? जो लोग इस कोशिश में लगे हैं, उन्हें दोष देना न्यायसंगत है या न्यायविरुद्ध ? पुरुषतन्त्र चूँकि नारी-विरोधी प्रथा है औरत के अधिकारों के साथ, चूँकि पुरुषतन्त्र का जन्म-जन्मान्तरों से विरोध रहा है इसलिए मानवाधिकार की बात करते हुए मुझे पुरुषतन्त्र और साथ ही इस तन्त्र को टिकाये रखने वाले लोगों का जिक्र करना भी जरूरी हो आया है वर्ना, पानी छुए बिना मछली पकड़ने जैसी स्थिति होगी। मेरे लिए यह ज़िक्र करना ज़रूरी हो आया कि नारी-स्वाधीनता की विपक्षी शक्तियाँ ठीक कौन-कौन-सी हैं।
'पुरुषतन्त्र बुरा है, पुरुष भले हैं'–यह जुमला, बिलकुल उसी जुमले की तरह है-'पूँजीवाद बुरा है, पूँजीवादी भले हैं। मुझ पर अगर पुरुष-विद्वेषी होने का इल्ज़ाम न लगाया जाता तो पुरुषतन्त्र की समालोचना जैसे मैं करती रही हूँ, भविष्य में भी जारी रखती। इसके लिए जो ज़िम्मेदार हैं, उनकी तलाश न करती। जो लोग इसके पक्षधरों को आदर-आह्वाद दे-दे कर, उन लोगों को खुश रख कर, सिर्फ तन्त्र पर कंकड़ बरसाते हैं वे लोग क्या यह नहीं जानते कि तन्त्र का कोई शरीर नहीं होता, अपनी कोई निजी बोध-बद्धि भी नहीं होती। तन्त्र बोलता नहीं। वे लोग क्या यह नहीं जानते कि तन्त्र, यह तन्त्र नहीं चलाता, बल्कि इन्सान चलाता है। वे लोग क्या यह नहीं जानते कि कंकड़ बरसाने के बावजूद तन्त्र जैसे बहाल तबीयत होता है, उसी तरह मौजूद रहता है। जो लोग, इस तन्त्र को चला रहे हैं, अगर उन लोगों को अक्षत हालत में छोड़ दिया जाये, इस प्रथा के कल-पुर्तों में तेल डाल कर इसे सक्रिय किया जाये तो यह समझ लें कि पुरुषतन्त्र की जय-जयकार से, दुनिया का सर्वनाश होने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगेगा।
जो लोग सिर्फ़ सिस्टम पर नाराज़गी दिखाते हैं कि सिस्टम के प्रस्तुतकर्ता और सिस्टम के रक्षक को माफ़ कर दिया जाये, मुझे शक है कि वे लोग असल में पुरुष-शासन और शोषण को ही छल-कौशल से इसे कायम रखना चाहते हैं।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं