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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


इस बिन्दु पर यह सोचने की कतई ज़रूरत नहीं कि यह रिश्ता प्रेम-महब्बत में परिणत होगा या नहीं। ऐसा माहौल, ऐसे पलों का सृजन किया गया है कि पुरुष अगर हल्के-से भी छू लेता तो वह लड़की बिछ जाती। कमजोर फिल्म-स्क्रिप्ट का यही नियम है। बार-बार चौंकाने की कोशिश। हर पल साँस रुकने लगती है। देखो-देखो, लगता है, वह बोलने ही वाली है-'आई लव यू' ! लेकिन वह यह डायलॉग नहीं बोलती। उसके साथ बस सोने ही वाली है लेकिन नहीं सोती। रात को जब वे दोनों जन अपने-अपने कमरे की ओर जाने लगते हैं, तो दरवाज़े तक पहुँचकर एकदम से ठिठक जाते हैं। वह औरत प्यासी निगाहों से देखती है। लगता है, अपने-अपने कमरे में न जा कर वे दोनों किसी एक कमरे में समा जायेंगे। लेकिन नहीं, ऐसा भी नहीं हुआ। उस रात न सही, किसी अन्य रात मिलन हो जायेगा, इसकी अमिट सम्भावना बची रहती है। राहुल अपनी प्यारी बीवी नन्दिता को जिसे वह वजह-बेवजह फोन करता रहता है, यह नहीं बताता कि अमित की बीवी, प्रीति, पहाड़ पर उसके पास आयी है। प्रीति भी वहाँ पहुँचने से पहले या जाते हुए रास्ते में उसे कोई सूचना नहीं देती और वहाँ पहुँचकर भी वह नन्दिता को यह नहीं बताती कि वह राहुल के पास जा रही है। अस्तु, राहुल और प्रीति के बीच निश्चित रूप से सीधी-सादी दोस्ती का रिश्ता नहीं था और इस बारे में जो कानाफूसी हई, जो नफ़रत मिली, वह प्रीति को मिली। यह सब कुछ भी अप्रत्याशित नहीं था। भारतीय फ़िल्मों में परायी औरत से किसी शादीशुदा पुरुष से प्रेम या यौन सम्बन्ध हो जाने के बाद पुरुष को अपनी बीवी से माफी मिल ही जाती है। यह भी कोई नयी बात नहीं। औरतें क्षमा-सुन्दर निगाहों से पूरा केस देखती हैं। और पति को बड़े प्यार से अपने गले लगा लेती हैं। ('अनुरणन' में यह गले लगाने का मामला, ज़रा अलग ढंग से घटता है। पति चूँकि अब ज़िन्दा नहीं है। नन्दिता 'गले लगाने का काम पति की मित्र या होने वाली प्रेमिका, प्रीति को गले लगाकर करती है।) इस किस्म की कहानी मुद्दत से दिखायी जा रही है। कुल मिला कर बात इतनी-सी है कि इस समाज के पुरुषों की 'पॉलीगैमी' को क़बूल करने के लिए यह सब एक आन्दोलन के अलावा और कुछ भी नहीं है।

इससे पहले ऋतुपर्ण की 'दोसर' प्रदर्शित हो चुकी है। आजकल, इसे क़बूल करना, ज़रा ‘टफ' हो गया है, इसलिए किसी एक को मरना पड़ता है। 'दोसर' में औरत मरती है, 'अनुरणन' में मर्द। कोई मर जाता है, तो दर्शकों की हमदर्दी हहराकर बढ़ जाती है इसलिए परकीया को सम्भालने में सुविधा हो जाती है। आजकल आधुनिकता यह दिखाकर समझायी जाती है कि औरत, पति को माफ करके गले लगाने से पहले, थोड़ा-बहुत मान दिखाती है या ज़रा गुस्सा दिखाती है। खैर, माफ़ कर देने के अलावा, परनिर्भर औरतों के लिए और कोई उपाय भी क्या है? आजकल
पुरुष का विवाहेतर प्रेम और सेक्स को और गहराई से स्वीकार करने का मन तैयार करने के लिए आजकल पुरुष प्रोड्यूसर और डायरेक्टर ढेर-ढेर रुपये और बुद्धि खर्च करके पूरा दिल उँडेलकर, फिल्मों पर फिल्में बना रहे हैं और लोगों की वाहवाही बटोर रहे हैं।

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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