लोगों की राय

लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

150 पाठक हैं

औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


सप्तमी ने जवाब दिया, 'हम लोगों में एक बार शांखा-सिन्दूर पहनने के बाद हम इन्हें न फेंक सकती हैं, न उतार सकती हैं।'

'तो तुम तलाक़ क्यों नहीं दे देती?' मैंने पूछा।

'हमारे यहाँ कोई तलाक़ नहीं दे सकती।'

'कौन कहता है, नहीं दे सकती, खूब दे सकती हो। तुम्हारे पति से तुम्हारा तो तलाक नहीं हुआ, लेकिन तुम्हारा पति तो दूसरी शादी किये बैठा है। तम लोगों में अगर तलाक न हुआ हो तो दूसरी शादी करना भी तो कानूनी तौर पर निषिद्ध है, यह तुम जानती हो?'

सप्तमी मेरी बात ठीक-ठीक समझ नहीं पायी। मुझे उसे दुबारा समझाना पड़ा कि यहाँ के हिन्दू कानून के मुताबिक औरतों को तलाक़ देने का हक़ है और किसी भी औरत या मर्द को एक से अधिक पति या पत्नी रखने का अधिकार नहीं है। लेकिन नहीं, सप्तमी ये सब क़ानून नहीं जानती। वह धाराप्रवाह कई-कई पुरुषों के नाम गिना गयी, जो दो या तीन बीवियों के साथ, एक ही घर में रहते हैं।

'कहाँ?' मैंने पूछा।

'सोनारपुर, सुभाषग्राम सुन्दरवन में!'

सप्तमी में मैंने एक बात और गौर की है। जब वह अपनी किसी बात का विश्वास कराना चाहती है, तब फट् से अपनी कलाई में पहने शांखा छूते हुए और दूसरे हाथ से चिमटी काटकर कहती है, 'मैं अपने पति की क़सम खाकर कहती हूँ, दीदी...'

सप्तमी के लिए उसका शांखा बेहद पवित्र चीज़ है। इसे वह हर हाल में पहने रहना चाहती है। जिस दिन उसे यह उतारकर फेंकना पड़ा, वह दिन उसके लिए ज़िन्दगी का सबसे भयावह दिन होगा।

मैंने उससे हँसकर कहा, 'तुम्हारे पति ने किसी दिन तुम्हारी खोज-खबर ही नहीं ली। तुम्हारी बदहाली के दिनों में कभी, किसी तरह की मदद भी नहीं की। तुम्हारी दोनों बच्चियाँ तो यह जानती भी नहीं हैं कि पिता कहते किसे हैं। ऐसा आदमी ज़िन्दा रहे तो क्या, न रहे, तो क्या?'

'नहीं, नहीं, मेरा पति जहाँ भी रहे, मैं मनाती हूँ कि वह ज़िन्दा रहे।'

'क्यों?' मैंने सवाल किया।

'मैं शांखा-सिन्दूर में ही मरना चाहती हूँ।' सप्तमी ने जवाब दिया।

शांखा-सिन्दूर में मरी, तो सप्तमी सीधे स्वर्ग जायेगी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book