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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


सप्तमी के लिए, सप्तमी जैसी लाखों औरतों के लिए मुझे बेहद तकलीफ होती है। वह औरत अकेली रहती है। किसी सूने-अकेले बाँस की खपच्चियों से घिरी किसी कोठरी में उसे खाना नसीब हो या न हो, लेकिन जाने कहाँ, किस सुदूर में मौज-मज़ा करने वाले पति के मंगल के लिए पूजा-पाठ करती है। तमाम मोहताज औरतें अपनी औकात से ज़्यादा खर्च करके, पति के कल्याण के लिए पूजा चढ़ाती हैं। लेकिन यह शांखा-सिन्दूर उनका कौन-सा भला करती है?

मैंने उससे पूछा भी था, 'कभी किसी ने भी तुम्हारी बेइज्जती करने की कोशिश नहीं की?'

'की क्यों नहीं? खूब की कोशिश! आज तक लोग-बाग़ हमारी बेइज्जती करते ही रहते हैं।'

'-फिर क्या फ़ायदा?'

चाह कर भी यह बात मैं अपनी जुबान पर नहीं ला पायी।

वह खुद ही शुरू हो गयी, 'पता है, दीदी, रात-दिन नींद नहीं आती। तकिये के नीचे बड़ी-सी कटार रख कर सोती हूँ। दरवाजे पर जब भी, जरा-सी खट-खुट होती है, मैं हाथ में कटार ले कर दरवाजे तक जाती हूँ। आ, कौन अन्दर आयेगा, आ! आज या तो तू बचेगा या मैं।' 

'तुममें इतना साहस है सप्तमी?' मैंने विस्मय-विमुग्ध लहजे में पूछा।

'साहस न होता, तो लोग हमें टुकड़े-टुकड़े काट कर डाल देते। कोई दो पैसे से भी मेरी मदद करने वाला नहीं है। मुँह अँधेरे उठ कर, माँड़-भात किसी तरह मुँह में ठंस कर. सोनारपुर से सात बजे निकल पड़ती हूँ, भीड़-भड़क्के से भरी ट्रेन पकड़ती हूँ। कई लोगों के घर काम निपटा कर, अँधियारी रात को घर लौटती हूँ। दिल में साहस है, तभी तो थोड़े-थोड़े रुपये जमा कर, एक जगह ख़रीद ली है। उस जगह पर मुर्गी के दड़बे जैसा ही सही एक घर भी बना लिया था। लोग बाग़ काफ़ी अच्छा-बुरा कहते रहे। यहाँ तक कहा कि कलकत्ता जा-जा कर हम 'ग्राहक' पकड़ते हैं। लेकिन, मैंने किसी की बात पर कान नहीं दिया। कान देती, तो भला चलता? वे लोग क्या एक जून भी मुझे खाने देंगे?'

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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