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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


उसी किशोर उम्र में ही पत्रिकाओं में मेरे लिखने की भी शुरुआत हुई। उन दिनों पत्रिकायें, कला-साहित्य, फिल्म, वगैरह की पंचमेल थीं और बेहद लोकप्रिय थीं। उन दिनों पत्र-मित्रता भी काफ़ी फल-फूल रही थी। जैसे ही मेरी कोई रचना किसी पत्रिका में प्रकाशित होती थी, पत्र-मित्रता का आमन्त्रण देते हए मेरे पते पर दो सौ खत आ पहुँचते थे। सभी ताज़ा-ताज़ा नौजवानों के ख़त! काफ़ी सारे लड़के अपनी तस्वीरें भी भेजते थे। जिसकी तस्वीर या हाथ की लिखावट या ख़त की भाषा मुझे पसन्द आती, उन्हें मैं जवाब भी भेज देती थी। कोई दो दिनों का मित्र बन जाता, कोई पल भर में बड़ा भाई बन जाता था और दुनिया भर के उपदेश बरसाता था। दूर-दराज़ के शहरों में अनजाने, अचीन्हे, नौजवानों को ख़त लिखते-लिखते ही किसी दिन मैं प्यार के ख़त लिखने लगी। प्यार के वे ख़त एक कवि के नाम थे। उन दिनों मैं खद भी कविता की एक लघु-पत्रिका की सम्पादक और प्रकाशक बन चुकी थी। उम्र सत्रह वर्षः मामला कुछ यूँ था कि उस कवि ने मुझसे प्रेम निवेदन किया और मैंने उसके प्यार का प्रतिउत्तर दिया। मेरे दिमाग़ में छोटू'दा के प्रेमपत्र और शाम के वक़्त, सीटी बजाते हुए, बगल के घर की खिड़की पर खड़ी लड़कियों को निहारने के दृश्य भरे हुए थे। तब तक मैंने उस कवि को देखा नहीं था। उस कवि की उम्र कितनी है; उसका घर कहाँ है; वह क्या पढ़ता है; क्या करता है-इन बातों की मुझे कोई जानकारी नहीं थी बस, अपनी लच्छेदार बातों के ज़रिये उसने मुझसे जीवन माँगा। मैंने भी छूटते ही जवाब दिया-'यह कौन-सी बड़ी बात है! ले लो!'

कवि के प्रेम में सात समुन्दर तैर कर पार करने के बाद कवि से साक्षात्कार हुआ। पहली भेंट! लाज के मारे मैं आँख उठाकर नज़र भर देख भी नहीं पायी। दो-तीन भावक जुमले बोल कर मैं सरपट घर भाग आयी। कवि का लम्बा-चौड़ा डील-डौल मुझे बिलकुल पसन्द नहीं आया। भरे गाल, दाढ़ी-मूंछ! लेकिन कवि पसन्द भले न आया हो पर मेरे सिर पर तो 'प्रेम' सवार था, जिस शब्द के प्रति मेरे मन में तीखा आकर्षण समाया हुआ था।

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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