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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


बहरहाल, वह दोस्त बन कर रह गया। लेकिन चालीस की चौखट पर पहुँची देह में तो हर पल ज्वार उठता रहता था। जब मैं बीस साल की थी, शायद उन दिनों भी मेरे तन-बदन में इतनी प्यास नहीं थी। इस बार भी प्रेम की उत्ताल हवा, मुझे भिगोती-बहाती हुई एक कवि के सामने ले आयी। रक्षणशील शहर के तमाम संस्कार छोड़-छाड़ कर, उस कवि को साथ-साथ लिये-लिये मैं जी-भर कर उड़ती फिरी। वह कवि मेरी सुबह था, दोपहर था, वह कवि मेरी शाम था, आधी रात था। उस कवि को प्रेम की बत्तीस कलाएँ सिखा-पढ़ा कर, जब मैंने उसे लगभग परम प्रेमी बना डाला, मैंने देखा उस कवि के समूचे तन-बदन पर यौन-रोग के दाग़ उभरे हुए थे। मेरी समूची दुनिया लटू की तरह घूम गयी। कोई हथौड़े से पीट-पीट कर मुझे इस्पात बनाने की कोशिश कर रहा था, मगर नाकाम रहा। वह कवि मुझे आनन्द तो देता था, मगर उसके मुक़ाबले तिगुनी यंत्रणा भी देने लगा था, मैं अपने पिछले जीवन की तरह रोती रही...रोती रही। नहीं, वह कवि प्रेम नहीं जानता था। मेरी तकलीफ की तरफ़ मुड़ कर देखने जैसा दिल, उसके पास नहीं था। मैं इस कदर लहूलुहान हो उठी थी कि किसी ठण्डी-बर्फीली रात में, किसी पुरुष ने अपना गर्म हाथ मेरे बदन पर रखा, मैं पल भर में नदी बन गयी। अँधेरे में उस स्पर्श ने मुझे बेतरह स्रोतात कर डाला। मैं समझ गयी, मैं फिर प्यार करने लगी हूँ। अद्भुत था वह पुरुष! किसी अबोध बच्चे की तरह, मुझे काम-गन्धहीन प्रेम में जकडेो रखना चाहता था। क्यों चाहता था, क्या चाहता था, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा! मैं उस घोर कुहासे में उसके साथ क्यों चलूँ, जबकि मैंने प्रतिज्ञा की है कि मैं बादलों को चीर कर धूप ले आऊँगी।

पुरुषों को मैंने भरपूर दरियादिली से दिया ही दिया है! भले वह धोखेबाज़ हो, प्रेमी हो! मैंने समझ-बूझ कर या बिना समझे ही प्यार किया। बीच-बीच में जब रात की हहराती हवा छेडछाड के बहाने, मेरे निर्जन जीवन को छ जाती है, तो बेहद अकेलापन लगता है। मेरी एक ज़िन्दगी है, लिखने-पढ़ने की ज़िन्दगी! उस जिन्दगी में चरम व्यस्तता है, लाखों-लाखों लोगों का आना-जाना लगा रहता है। इसके अलावा मेरी एक और ज़िन्दगी है, नितान्त व्यक्तिगत! यह जीवन बिलकुल शुरू से ही एक तरह से अकेले ही गुज़ारा है मैंने। अचानक-अचानक, बिलकुल अचानक, किसी रोशनी की झलक की तरह, कोई आता है और बिना कुछ कहे-सुने, बिलकुल ख़ामोशी से चला भी जाता है। उँगलियों पर गिने जाने लायक। चन्द पुरुषों को मैं अपना प्रेमी कहती हूँ, लेकिन जब मुझे होश आता है, तो ऐसा नहीं कि मैं स्वगतोक्ति नहीं करती कि मेरे प्रेमी होने की योग्यता उन लोगों में नहीं है। वे लोग मेरे प्रेमी बनने के क़ाबिल हैं ही नहीं। मेरे प्रेमियों ने अलग-अलग कारणों से मेरी नज़दीकी की कामना की थी। किसी ने मेरे प्यार में डूब कर, मुझे नहीं माँगा। किसी ने मेरे नाम के लिए, किसी ने धन के लिए, किसी ने यश-ख्याति के लिए, किसी ने मेरी देह के लिए, किसी ने मेरे मन के लिए मुझे चाहा। मैंने अपने चारों तरफ़ सिर्फ़ 'चाहिए-चाहिए' देखा है। मेरी अपनी चाह लावारिस-उपेक्षित-सी, रुई की तरह, उदास हवा में उड़ कर घुल-मिल गयी।

वे लोग ठग थे! धोखेबाज थे! हिप्रोक्रेट और डरपोक थे! बहुरुपिया थे! उनमें से एक भी क्या मेरा प्रेमी था? आज जब पकी उम्र तक आ पहुँची हूँ, तो लगता है, दुख के दिनों को भी, सुखद दिन मानकर, मैं खुश हो लेती थी। मैंने अपना दिल निचोड़ कर प्यार बाँटा है। जिन लोगों को दिया है, वे लोग शायद पुरुष थे, प्रेमी नहीं।


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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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