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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


करीब रहने का मतलब यह नहीं है कि उसके साथ, हर रात मुझे अपने बिस्तर में सांझा करना होगा या उसके साथ एक ही छत तले रहना होगा। जो दिल में बसा होता है वह चाहे सैकड़ों मील भी दूर हो, दिल में ही होता है। जब मेरा मन करेगा, मैं उससे जिस्म का आदान-प्रदान करूँगी। भले अपने घर में या कहीं और! लेकिन रात बारह बजे के अन्दर-अन्दर उसे मेरे घर से निकल जाना होगा। नहीं, मैं उसकी वेइज्जती करके नहीं निकालूँगी। प्यार से चूमते-चूमते ही उसे दरवाज़ा दिखाऊँगी। हाँ, कभी-कभी वह मेरे साथ रात भी गुजार सकता है, लेकिन मेरे घर का मेहमान बन कर नहीं, सदस्य बन कर नहीं। यह मेरा फैसला है कि मैं किसी प्रेमी के साथ तब तक एकत्रवास नहीं करूँगी जब तक मेरे उस प्रेमी के सिर से पुरुषतन्त्र का आखिरी कण झर कर बेनिशान न हो जाये; क्योंकि एकत्रवास करते हुए, पुरुष का असली स्वरूप बस, कुछ ही दिनों में, ऐसा विकट आकार निकल आता है कि वह पुरुष अपने को पति समझना शुरू कर देता है और पति औरत पर जिस ढंग का शारीरिक और मानसिक अत्याचार करता है, बिलकुल वही-वही शुरू कर देता है। इसलिए इस घोर पुरुषतान्त्रिक समाज में एकत्रवास के बजाय, मैं बेहद गम्भीरता से अलग-थलग रहने में विश्वास करती हूँ। पश्चिम के पुरुषों के बारे में भी मेरा आदर्श यही है! पूरब-पश्चिम के पुरुषों की सूरत-शक्ल में शुरू-शुरू में थोड़ा-बहुत हेर-फेर हो सकता है, लेकिन पुरुष मूलतः एक जैसे होते हैं उनके अन्दर का मसाला, माल-मत्ता एक जैसा ही होता है।

अकेले रहने का सुख मैं जानती हूँ। अकेले रहने से आत्मविश्वास बढ़ जाता है; अपने प्रति श्रद्धा बढ़ जाती है। अकेले रहने से मन का ज़ोर बढ़ जाता है; रिश्तों के बारे में धारणा गहरा आती है। अकेले रहने-सहने से गर्दन पर, दूसरे को तुष्ट-तृप्त करने की गुलामी नहीं करना पड़ती, ऐसी कोई जिम्मेदारी नहीं होती। स्वाधीनता का सच्चा अर्थ, हम जान पाते हैं। अकेले रह कर ज़िन्दगी का भरपूर सुख जीया जा सकता है। ज़िन्दगी तो इन्सान को एक ही मिली है और सब कुछ के बाद तमाम शोर-गुल, हंगामों के अन्त में इन्सान अकेला ही तो है।

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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