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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


दुनिया में दो तरह के युद्ध होते हैं। एक शोषक का युद्ध, शोषित के विरोध में! दसरा, शोषित का युद्ध, शोषक के विरोध में। मैं हमेशा से ही दूसरे युद्ध का ही समर्थन करती आयी हूँ। इसलिए सैकड़ों विपदाओं के बावजूद मैं शोषितों के पक्ष में खड़ी हूँ। मैं शोषण नहीं चाहती, इसलिए खड़ी हूँ। मैं शान्ति चाहती हूँ। युद्ध के मकाबले कहीं आसान है, शान्ति सृजन करना। लेकिन देखने में यह आया है कि यह आसान काम नहीं किया जा रहा है। जटिल-कुटिल इन्सानों के लिए इस आसान काम में ही आपत्ति है। जिनके हाथों में क्षमता है, चील-कौओं ने उन लोगों की आँखें निगल ली हैं, अक्षम-कमज़ोर लोगों की तरफ़ से मुड़ कर देखने वाली मानवीय आँखें नोच ली हैं।

फ्रेंच दार्शनिक वॉल्टेयर ने कहा है कि हथियारों के दम पर समूचे विश्व पर कब्जा करना आसान है, लेकिन एक छोटे-से गाँव का भी मन जीता नहीं जा सकता। 'इट वुड वी ईज़िअर टु सब्जुगेट द इन्टायर यूनिवर्स यू फोर्स दैन द माइण्ड्स ऑफ ए सिंगल विलेज!' वॉल्टेयर का यह कथन मुझे सिंगुर के लोगों की और अधिक याद दिलाता है। मुमकिन है, सिंगुर में टाटा का कारखाना बन जाये। इन्सान सिंगुर की औरतों के अनशन की बात शायद भूल भी जाये; उन औरतों पर पुलिसिया अत्याचार की बात भी शायद विस्मृत कर दे। लेकिन छोटे-से गाँव के नन्हे-से मन को. उसकी खिन्नता को हमेशा याद किया जायेगा। भविष्य में जो लोग इतिहास लिखेंगे, शायद उन लोगों के मन पर भी उन लोगों की खिन्नता कोई छाप न छोड़े। यूँ असम्भव तेज़ और दृढ़ता के साथ औरतों के सामने आने की घटना, उन लोगों का अनशन करना, प्रतिवाद में मुखर होना, अपने अधिकारों के लिए जोखिम उठा कर, संघर्ष में कूद पड़ना-ये तमाम घटनाएँ लोग इतिहास में दर्ज नहीं करेंगे। इतिहास की रचना आखिर पुरुष ही करता है न! नारी-विरोधी, इसी समाज का पुरुष वर्ग ही लिखता है यह इतिहास, जिन लोगों ने औरतों का सम्मान करना नहीं सीखा। वे लोग क्या कहीं भी इन औरतों को याद करेंगे? सम्मान देंगे? इतिहास के पन्नों से ये औरतें ही विच्युत होंगी! विस्मृत होंगी?

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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