लोगों की राय

लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

150 पाठक हैं

औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


जाने कितने अर्से, कितने ही वर्षों पहले, मेरिलिन फ्रेंच ने 'द वीमेन्स रूम' नामक किताब में लिखा था-'पुरुषों के प्रति मेरी अनुभूति, पुरुष के बारे में मेरे तजुर्षों से जुड़ी हुई है। सच कहूँ तो पुरुषों के प्रति मेरी कोई सहानुभूति नहीं है। डाखाऊ कन्सेंट्रेशन कैम्प से निकलकर, एक यहूदी नाज़ी फ़ौज के किसी नौजवान को पेट में होती पीड़ा में तड़पते हुए देख कर भी, निर्विकार मुद्रा में आगे बढ़ गयी। मैं पुरुषों को उसी रूप में देखती हूँ। मैं उनसे कन्धे से कन्धा मिलाने की ज़रूरत महसूस नहीं करती। मैं उन लोगों की परवाह नहीं करती। इन्सान के तौर पर वह पुरुष क्या था, कैसा था, उसकी इच्छा-अनिच्छा क्या है, यह सब मेरे लिए कोई विषय नहीं है।'

पुरुष को तुच्छ करने की शक्ति और साहस, इस समाज में कितने लोगों में है? उन लोगों को तुच्छ साबित किये बिना, पुरुषतन्त्र के चंगुल से किसी भी औरत की मुक्ति नहीं हो सकती। हमारी वीरांगना महिलाओं ने विवाह तक का त्याग कर दिया था। मैं पूछती हूँ, है किसी में हिम्मत यह जुमला अपनी जुबान पर लाने की?- 'चूंकि विवाह का मतलब है, औरत को गलामी की जंजीरें पहनाना, इसलिए औरतों का लक्ष्य होना चाहिए, विवाह प्रथा के बदन पर जबर्दस्त लात ज़माना। विवाह प्रथा ये बिना, औरत अपनी स्वाधीनता कभी भी अर्जित नहीं कर सकती। लेकिन इतना साहस किसमें है?

'नहीं, नहीं, नहीं, हम पुरुषों के कन्धे से कन्धा मिला कर चलती हैं। हम काफ़ी आगे बढ़ चुकी हैं। हम तो अपना प्राप्य अधिकार, जाने कितने पहले ही पा चुकी हैं। अब जो पाना बाक़ी रह गया है; उसके लिए पुरुषों को साथ ले कर ही हम संघर्ष करेंगी।'

'सचेतन' कह कर तारीफ करने वाली औरतें ही इस किस्म की बातें करती हैं। नारी-पुरुष, दोनों को ही; नारी-सम्मान अधिकारों के लिए संघर्ष करना होगा-यह राय, औरत-मर्द, लगभग दोनों की ही है। लेकिन बलात्कारियों को साथ ले कर, क्या संघर्ष किया जा सकता है? अपनी वह दो या तीन इंच की उस चीज़ का अहंकार. है कोई मर्द, जो नहीं करता? जो पुरुष अपने को नारीवादी कहते हैं, वे लोग भी समय-समय पर अपनी जाँघों के जोड़ पर हाथ रख कर. उस 'चीज़' की उपस्थिति परख लेते हैं। बलात्कारियों की जात का विश्वास किया नहीं कि मौत निश्चित है।

यह क्या मामला है? जात के बारे में बकवास कर रही हैं? जी हाँ, जात के बारे में ही कह रही हूँ। ये पुरुष हैं, बिलकुल अलग जात! वे लोग मानवजाति से बिलकुल अलग हैं। इस समाज में ऐसी बात, कोई गुस्से में भी नहीं कहता। अच्छा, औरतों का गुस्सा-खीज़ क्या बिलकुल ही ठण्डा हो गया है! गुस्से में तो औरतें काफ़ी कुछ कर गुज़रती हैं। गुस्से में बलात्कारियों का धर्मदण्ड, खौफनाक कुत्तों को खिला रही हैं या नहीं? अब क्रोध में, गुस्से में, औरतें सच अपनी जुबान पर क्यों नहीं लातीं? वह सच, जो कभी अगर जुबान पर आ भी जाये तो औरतों को ख़ामोशी से निगल जाना पड़ता है। हज़ारों-हज़ारों वर्षों से औरतें वह सच हजम करती रही हैं। लेकिन, क्या अब भी?


...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book