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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


औरत खुद अपनी सहाय, अपनी मददगार आखिर कब होगी? ऐसा दिन कब आयेगा, जब औरत को किसी पुरुष की कृपा या करुणा की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। मैं उसी दिन का सपना देखती हूँ। मैं सपना देखती हूँ कि किसी-न-किसी दिन नारी-पुरुष का रिश्ता विवेक-बुद्धिसम्पन्न होगा; मनुष्यों में परस्पर श्रद्धा का नाता होगा।

इन्सान के प्रति इन्सान के मन में श्रद्धाबोध नहीं है, इसलिए वर्ग-वैषम्य, लिंग-वैषम्य, जात-पाँत, साम्प्रदायिकता जैसी कुत्सित चीजें सालों-सालों से टिकी हुई हैं। जैसे-जैसे वक्त गुज़र रहा है, इन्सान जितना-जितना शिक्षित हो रहा है, जैसे-जैसे विज्ञान की उन्नततर सविधाएँ ग्रहण कर रहा है तैसे-तैसे तमाम वैषम्य खत्म हो जाने चाहिए थे, लेकिन इसका उल्टा हो रहा है। इन्सान जैसे और धर्मान्ध होता जा रहा है, कुसंस्कारों से और ज़्यादा ढंकता जा रहा है और ज़्यादा संकीर्ण होता जा रहा है।

प्राणी जगत में औरत ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो अपने अत्याचारियों के साथ सर्वाधिक घनिष्ठ भाव से रहती-सहती है। और कोई प्राणी है भला, जो अपने अत्याचारी को, औरत जितना प्रेम या सेवा देता हो? औरत की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उन लोगों में समझ नहीं है या उन लोगों को यह समझने का मौका ही नहीं दिया जाता कि पुरुष उनके आश्रयदाता हैं। इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है कि नारी की किसी समस्या का समाधान हो गया। मुमकिन है, पुरुष आज उन्हें आश्रय दे भी दे, लेकिन कल नहीं देगा। आज प्यार करता है, लेकिन कल नहीं करेगा, मुमकिन है, आज वह कहे-तुम सुन्दर हो, लेकिन कल ही यह कहने से बाज़ नहीं आयेगा कि तुम कुत्सित हो। औरत भले और किसी पर विश्वास करे, पुरुष पर हरगिज़ न करे।

अगर कोई पुरुष विश्वास योग्य हो भी, तो उसे विश्वास योग्य बनाये रखने के लिए, औरत को अपना सर्वस्व त्याग करना पड़ता है। ज़्यादातर अपना सर्वस्व विसर्जित करने के बाद भी औरत को कछ नहीं मिलता। बहतेरी औरतों को मामूली-सी अनुकम्पा भी नहीं जुटती और यह किसी को अन्याय भी नहीं लगता।

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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