इतिहास और राजनीति >> पलासी का युद्ध पलासी का युद्धतपन मोहन भट्टाचार्य
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पलासी के युद्ध की घटना प्रसिद्ध ऐतिहासिक तथ्य है। इतिहास में भी एक अपना रस है, उस रस को सुरक्षित रखते हुए कृतिकार ने इस रचना-शिल्प के माध्यम से इतिहास और कथा-साहित्य को सम्मिलित रूप से समृद्ध किया है।...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘पलासी का युद्ध’ बांग्ला लेखक तपन मोहन
चट्टोपाध्याय की प्रसिद्ध कृति ‘पलाशिर युद्ध’ का रूपान्तर
है। पलासी के युद्ध की घटना प्रसिद्ध ऐतिहासिक तथ्य है। इतिहास में भी एक
अपना रस है, उस रस को सुरक्षित रखते हुए कृतिकार ने इस रचना-शिल्प के
माध्यम से इतिहास और कथा-साहित्य को सम्मिलित रूप से समृद्ध किया है।
1757 ईसवी बंगाल में मध्य युग के अवसान और वर्तमान युग के आविर्भाव का सन्धिकाल माना जाता है। पलासी का युद्ध इसी समय की घटना है। कथाकार ने उस समय के समाज तथा कलकत्ता के तत्कालीन शासकों की कैसी अवस्था थी, इस कृति में इसका बहुत ही प्रामाणित एवं रोचक चित्रांकन किया है। कलकत्ता शहर की स्थापना और तत्कालीन परिस्थितियों को समझने में कृति का महत्त्व निर्विवाद है। उपन्यास की शैली अत्यन्त आकर्षक है। उसमें इतिहास की घटनाओं को ऐसे सहज ढंग में व्यक्त करने की क्षमता है, एक आत्मीय भाव है कि पाठक खुद-ब-खुद उससे जुड़ता चला जाता है।
हिन्दी पाठकों की रुचि को ध्यान में रखते हुए वर्षों से दुर्लभ इस कृति का ‘पुनर्नवा’ श्रृंखला में प्रकाशन करते हुए भारतीय ज्ञानपीठ को प्रसन्नता है।
1757 ईसवी बंगाल में मध्य युग के अवसान और वर्तमान युग के आविर्भाव का सन्धिकाल माना जाता है। पलासी का युद्ध इसी समय की घटना है। कथाकार ने उस समय के समाज तथा कलकत्ता के तत्कालीन शासकों की कैसी अवस्था थी, इस कृति में इसका बहुत ही प्रामाणित एवं रोचक चित्रांकन किया है। कलकत्ता शहर की स्थापना और तत्कालीन परिस्थितियों को समझने में कृति का महत्त्व निर्विवाद है। उपन्यास की शैली अत्यन्त आकर्षक है। उसमें इतिहास की घटनाओं को ऐसे सहज ढंग में व्यक्त करने की क्षमता है, एक आत्मीय भाव है कि पाठक खुद-ब-खुद उससे जुड़ता चला जाता है।
हिन्दी पाठकों की रुचि को ध्यान में रखते हुए वर्षों से दुर्लभ इस कृति का ‘पुनर्नवा’ श्रृंखला में प्रकाशन करते हुए भारतीय ज्ञानपीठ को प्रसन्नता है।
आरम्भ
मैं एक ऐतिहासिक कहानी कहने जा रहा हूँ।
कहानी के रूप में अपनी बात कहने जा रहा हूँ। इसलिए यह इतिहास नहीं है, ऐसी बात कोई इसमें न समझे। क्योंकि बना-बनाकर कोरी कहानी रचना करने की कल्पना शक्ति मुझमें बिलकुल नहीं है। इसके अलावा मैं जिस काल की कहानी कहने के लिए तैयार हुआ हूँ, उस काल की समस्त घटनाओं का ब्योरेवार विवरण इतिहास के बड़े-बड़े ग्रन्थों के पन्ने-पन्ने में बड़े विस्तार से स्पष्ट भाव से लिखा हुआ है। कोई भी जिस समय इच्छा हो उन पुस्तकों को उलट-पुलटकर इस बात की जाँच कर ले सकता है कि जो मैं कह रहा हूँ वह इतिहास है अथवा नहीं। इसीलिए, यह कहानी होने पर भी सत्य कहानी है, यह मैं बिना किसी हिचक के कह सकता हूँ।
फिर भी इसमें एक बात है। आजकल के पंडित कहते हैं कि इतिहास ग्रन्थ होने पर भी पहले की नाईं अब उन्हें जो-हो सो-हो कर लिखने से नहीं चलेगा। केवल कई नाम-धाम, सन-तारीख ठीक-ठीक बैठा देने से ही अथवा फुटनोट, एपेंडिक्स के द्वारा ग्रन्थ को भाराक्रान्त कर देने से ही वह एक अच्छा-सा इतिहास-ग्रन्थ हो जाएगा, ऐसी बात नहीं। अर्थात्, सीधी-सी बात यह है कि इतिहास होने पर भी पढ़ने में उसे नाटक-नावेल के समान सरस होना चाहिए। बड़े मजे में रस ले-लेकर सोचते-सोचते सहज भाव से अगर इतिहास-ग्रन्थ नहीं पढ़ा जा सका तो उसका लिखा जाना बेकार है; कोई भी उसे चाव से पढ़ना नहीं चाहेगा। भले ही उस ग्रन्थ को टेक्स्टबुक कर दिया जाए, लेकिन उसे पढ़ने लायक एक इतिहास ग्रन्थ नहीं बनाया जा सकता।
हाल में एक और आवाज उठने लगी है। कहा जाने लगा है कि आज तक इतिहास की रचना गलत ढंग से हुई है। अब सम्पूर्ण रूप से एक नये ढंग से इतिहास लिखना होगा। इतिहास कहते ही स्वभावतः हम लोगों के मन में केवल राजाओं-बादशाहों के युद्ध-विग्रह, विप्लव-षड्यन्त्र की बात ही जाग उठती है; इतिहास का अर्थ इन्हीं सबका विस्तृत विवरण समझा जाता है; लेकिन यह इतिहास तो बिलकुल एकांगी होगा। मनुष्य के विराट जीवन-प्रवाह के साथ इसका सम्बन्ध ही कितना है ? मनुष्य के दिन-प्रतिदिन की जीवन-यात्रा की बात, उसके सुख-दुःख आशा-आकांक्षा की बात, उसके रहन-सहन की बात, धर्म-कर्म की बात, कला-कौशल की बात, इन्हीं सब बातों की चर्चा ही तो इतिहास है।
इसीलिए तो कुछ लोग कहते हैं कि पानीपत की तीसरी लड़ाई में किस पक्ष में कौन-कौन लड़े थे, नेपोलियन किस साल में ड्यूक ऑफ वेलिंगटन से किस युद्ध में हार गया था, बादशाह औरंगज़ेब ने दिल्ली की गद्दी पाने के लिए कौन-कौन से कुकर्म किये थे, इन सब बातों का ठीक-ठीक ब्यौरा रखने की अपेक्षा इस बात को जानना, सोचना और लिखना कहीं अधिक आवश्यक है कि प्रथम किसने कब धान रोपना सिखाया था, सर्वप्रथम किसने कपड़ा बुनने का आविष्कार किया था, रंग और तूलिका के रहस्य का किसने प्रथम उद्घाटन किया था अथवा यही कि मनुष्य को प्रथम-प्रथम किसने हर्बा-हथियार पकड़ना सिखाया था। और कोई-कोई तो स्पष्ट रूप से यह भी कह देते हैं कि मुसलमान-शासन के आरम्भ होने के पूर्व भारतीय इतिहास में सन्-तारीख घटन-अघटन को खोजने जाना व्यर्थ का परिश्रम मात्र है। वे कहते हैं कि यह एक बहुत बड़ी भूल है। भारतवर्ष के लोग तो महाकाल की साधना में खंडकाल को सम्पूर्ण रूप से लुप्त कर देना चाहते हैं। वे काल को अनादि कहते हैं। सृष्टि भी उनके निकट अनादि-अनन्त है। काल का जहाँ कोई परिणाम नहीं वहाँ इतिहास किस प्रकार से लिखा जाए ? जिस देश में मृत व्यक्ति को जलाकर राख कर दिया जाता है, और उसकी चिताभस्म तक को पानी उड़ेलकर साफ कर दिया जाता है, वहाँ स्पष्ट ही समझा जा सकता है कि मनुष्य की बाह्य अवस्था के ऊपर उस देश के लोगों की आस्था कितनी कम है। और घटना ? उसमें प्राण ही कितना है ? वह भी तो उसी काल के ऊपर प्रतिष्ठित है। और असंख्य, करोड़ों कल्पों की तुलना में उसका मूल्य ही क्या है ? जिन लोगों के मन की अवस्था इस प्रकार की है, उन्हें लेकर चाहे और जो-कुछ भी क्यों न कर लिया जाए, लेकिन भद्रभाव से इतिहास कैसे लिखा जाए ?
आर्य पितामहगण तो बादवालों की सुविधा के लिए, जिसे हम इतिहास कहते हैं, उसकी सामग्री कुछ विशेष रख नहीं गये हैं। सामग्री के अभाव को इसीलिए तो कल्पना द्वारा पूरा कर लेना पड़ता है; इसीलिए तो भारतवर्ष के पुरातन इतिहास को लेकर इतनी थ्योरी, इतनी मारामारी और इतना वाद-प्रतिवाद है–नाना मुनियों के नाना प्रकार के मत हैं। मुसलमान और अँग्रेज़ समय को काफी महत्त्व देते हैं। इसी वजह से वे काल का भी एक हिसाब रखते हैं। इसके अलावा वे सांसारिक राजत्व को स्वर्ग के राज्य से कहीं अधिक काम्य मानते हैं। इसीलिए मृत्यु-लोक की घटनाएँ उनके लिए एकदम उपेक्षा की वस्तु नहीं हैं। पीछे लोगों की स्मृति से ये सब विलुप्त न हो जाएँ, इसी भय से तो मौका पाते ही वे इन्हें लिपिबद्ध कर देते हैं। केवल यही नहीं, मरने के बाद भी इस, विषय से उन्हें विरत होते नहीं देखा जाता है। कब्र के ऊपर इमारत, स्तम्भ, शिलापट्ट आदि का निर्माण करते हैं और फिर उसी पर सन्-तारीख नाम-धाम, पू्र्वजों का तथा अपना परिचय देकर अपने कीर्ति कलापों का विवरण लिख रखते हैं और इस प्रकार से सर्वग्रासी काल को जय करना चाहते हैं। यही कारण है कि मुसलमानों के शासन काल से अँग्रेज़ों के शासन काल तक के भारतवर्ष के इतिहास को पंड़ित लोग बहुत दूर तक विश्वसनीय इतिहास मानते हैं। पूरा का पूरा क्यों नहीं मानते, इसके लिए मनुष्य की प्रकृति ही उत्तरदायी है। मनुष्य का मन तो किसी बँधे-बँधाये नियम को मानकर चला नहीं। इसीलिए मनुष्य जो देखता अथवा सुनता है, वह जब उसके मन के रस से परिपाक होकर प्रकाश में आता है, तब देखा जाता है कि एक ही वस्तु को अलग-अलग व्यक्तियों ने अलग-अलग ढंग से देखा है और भिन्न-भिन्न प्रकार से सुना है। विभिन्न लोगों के हाथ में पड़कर एक ही वस्तु ने विभिन्न रूप धारण किये हैं। तब उसका असली रूप क्या है, उसे ठीक-ठीक समझना मुश्किल है।
यह सब देखकर ही तो बहुत से विचारक कहते हैं कि भारतवर्ष के इतिहास में घटनाओं का विवरण देने की जरूरत ही क्या है ? और अगर लिखना ही चाहते हो तो भारतवर्ष ने जिस वस्तु को बड़ा समझा था, उसकी उसी भावधारा का इतिहास क्यों नहीं लिखते ! किस प्रकार से वैदिक युग धीरे-धीरे ब्राह्म-युग में परिणत हुआ, किस प्रकार से बौद्ध धर्म को उन्मूलित कर हिन्दू-धर्म का उदय हुआ; इसके बाद मुसलमान और ईसाई धर्मों के घात-प्रतिघात और संघर्ष से हिन्दू-धर्म ने कौन-सा रूप ग्रहण किया, उसी का इतिहास लिखो। कहाँ से उसकी उत्पत्ति हुई, क्या उसका स्वरूप है, कैसी उसकी गति रही, कैसी उसकी परिणति होगी, इन्हीं सब बातों को सुलझाकर कहो।
बात बड़ी सख्त है। यह आकस्मिक प्रहार बहुत ही कठिन है। सुप्रतिष्ठित प्रवीण इतिहासज्ञ इसे इतिहास कहना चाहेंगे या नहीं, इसमें सन्देह है। पत्थर के समान मजबूत स्थूल पदार्थ के ऊपर इतिहास आश्रय लेता है। भावधारा के समान सूक्ष्म पदार्थ क्या उसका भार सह सकता है ? वह चाहे जो हो, मेरे जैसे आदमी के लिए भाव के गहन वन में प्रवेश करने की चेष्टा बौने के चाँद छूने के लिए हाथ बढ़ाने जैसी है। फलस्वरूप, ‘गमिष्यामि उपहास्यताम्’ अर्थात् उपहास के सिवा उससे और कोई लाभ नहीं होगा। वह पथ पंडितों के लिए खुला रहे। और इतिहास की पुस्तकों को पढ़कर भी तो देखता हूँ, उसका बारह से चौदह आना अंश मनुष्य की अपकीर्तियों से ही भरा हुआ है। मनुष्य के बड़े से बड़े कुकृत्यों में भी विराट प्राणशक्ति की एक प्रचंड लीला देखने को मिलती है। इसीलिए तो वे मनुष्य को इतना आकर्षित करते हैं। गोपाल के समान सुबोध-सुशील बच्चों के निरीह कार्यकलाप को लेकर तो कोई इतिहास लिखने बैठता नहीं। सम्पू्र्ण रूप से भले ही न हो लेकिन बहुत अंश तक यही कारण है कि अन्त तक एक युद्ध की ही कहानी कहने का मैंने संकल्प किया है। लेकिन घटना के नहीं रहने पर तो कहानी नहीं होती। मेरी कहानी की घटना पलासी का युद्ध है।
भारतीय इतिहास की इतनी घटनाओं में से सहसा पलासी-युद्ध की घटना को कहानी कहने के लिए मैंने क्यों चुना, यह प्रश्न पाठकों, के मन में जगे तो कोई आश्चर्य नहीं। निश्चय ही एक कारण है। वह क्या है उसे थोड़ा खुलकर कहें। मुझे लगता है, पलासी का युद्घ एक सन्धिकाल है। इसी सन्धिकाल में बंगाल में मध्य-युग का अवसान होता है और वर्तमान युग का आविर्भाव होता है। यहाँ आकर बंगाली जाति की जीवन धारा ने जैसे एक मोड़ लिया। धीरे-धीरे अज्ञान का काला कुहरा दूर हो गया और ज्ञान के सूर्यालोक ने बंगाली जाति के जीवन और समाज में एक नयी आबोहवा की सृष्टि की। फलस्वरूप एक सम्पूर्ण नये ढंग का बंगाली समाज धीरे-धीरे गठित हुआ। पूर्ववर्ती समाज की किसी धारा में इसका सादृश्य नहीं पाया जाता।
इस प्रकार के समाज-निर्माण में प्रत्यक्ष रूप से अँग्रेज़ों का अधिक हाथ नहीं था। लेकिन अँग्रेज़ों, के संस्पर्श से ही वह गठित हुआ था, इसमें भी कोई सन्देह नहीं है। उस समाज का चेहरा पूरा-का-पूरा विलायती नहीं है, लेकिन पूरा-का-पूरा देशी भी नहीं है; दोनों को मिलाकर वह नये प्रकार की एक अलग वस्तु है। उसी समाज ने ही एक दिन समस्त भारतवर्ष के विद्या-बुद्धि-ज्ञान का चिराग लेकर लोगों को आलोक-पथ दिखलाया था। इसका इतिहास अभी भी अच्छी तरह से नहीं लिखा गया है। कभी लिखा जाएगा कि नहीं, नहीं जानता। जब तक नहीं लिखा जाता तब तक कहानी को लेकर ही सन्तोष करना होगा। दूध की साध छाछ से नहीं मिटने पर भी मिठाई के अभाव में गुड़ से काम चलाने की व्यवस्था तो शास्त्र में ही हुई है।
कहानी के रूप में अपनी बात कहने जा रहा हूँ। इसलिए यह इतिहास नहीं है, ऐसी बात कोई इसमें न समझे। क्योंकि बना-बनाकर कोरी कहानी रचना करने की कल्पना शक्ति मुझमें बिलकुल नहीं है। इसके अलावा मैं जिस काल की कहानी कहने के लिए तैयार हुआ हूँ, उस काल की समस्त घटनाओं का ब्योरेवार विवरण इतिहास के बड़े-बड़े ग्रन्थों के पन्ने-पन्ने में बड़े विस्तार से स्पष्ट भाव से लिखा हुआ है। कोई भी जिस समय इच्छा हो उन पुस्तकों को उलट-पुलटकर इस बात की जाँच कर ले सकता है कि जो मैं कह रहा हूँ वह इतिहास है अथवा नहीं। इसीलिए, यह कहानी होने पर भी सत्य कहानी है, यह मैं बिना किसी हिचक के कह सकता हूँ।
फिर भी इसमें एक बात है। आजकल के पंडित कहते हैं कि इतिहास ग्रन्थ होने पर भी पहले की नाईं अब उन्हें जो-हो सो-हो कर लिखने से नहीं चलेगा। केवल कई नाम-धाम, सन-तारीख ठीक-ठीक बैठा देने से ही अथवा फुटनोट, एपेंडिक्स के द्वारा ग्रन्थ को भाराक्रान्त कर देने से ही वह एक अच्छा-सा इतिहास-ग्रन्थ हो जाएगा, ऐसी बात नहीं। अर्थात्, सीधी-सी बात यह है कि इतिहास होने पर भी पढ़ने में उसे नाटक-नावेल के समान सरस होना चाहिए। बड़े मजे में रस ले-लेकर सोचते-सोचते सहज भाव से अगर इतिहास-ग्रन्थ नहीं पढ़ा जा सका तो उसका लिखा जाना बेकार है; कोई भी उसे चाव से पढ़ना नहीं चाहेगा। भले ही उस ग्रन्थ को टेक्स्टबुक कर दिया जाए, लेकिन उसे पढ़ने लायक एक इतिहास ग्रन्थ नहीं बनाया जा सकता।
हाल में एक और आवाज उठने लगी है। कहा जाने लगा है कि आज तक इतिहास की रचना गलत ढंग से हुई है। अब सम्पूर्ण रूप से एक नये ढंग से इतिहास लिखना होगा। इतिहास कहते ही स्वभावतः हम लोगों के मन में केवल राजाओं-बादशाहों के युद्ध-विग्रह, विप्लव-षड्यन्त्र की बात ही जाग उठती है; इतिहास का अर्थ इन्हीं सबका विस्तृत विवरण समझा जाता है; लेकिन यह इतिहास तो बिलकुल एकांगी होगा। मनुष्य के विराट जीवन-प्रवाह के साथ इसका सम्बन्ध ही कितना है ? मनुष्य के दिन-प्रतिदिन की जीवन-यात्रा की बात, उसके सुख-दुःख आशा-आकांक्षा की बात, उसके रहन-सहन की बात, धर्म-कर्म की बात, कला-कौशल की बात, इन्हीं सब बातों की चर्चा ही तो इतिहास है।
इसीलिए तो कुछ लोग कहते हैं कि पानीपत की तीसरी लड़ाई में किस पक्ष में कौन-कौन लड़े थे, नेपोलियन किस साल में ड्यूक ऑफ वेलिंगटन से किस युद्ध में हार गया था, बादशाह औरंगज़ेब ने दिल्ली की गद्दी पाने के लिए कौन-कौन से कुकर्म किये थे, इन सब बातों का ठीक-ठीक ब्यौरा रखने की अपेक्षा इस बात को जानना, सोचना और लिखना कहीं अधिक आवश्यक है कि प्रथम किसने कब धान रोपना सिखाया था, सर्वप्रथम किसने कपड़ा बुनने का आविष्कार किया था, रंग और तूलिका के रहस्य का किसने प्रथम उद्घाटन किया था अथवा यही कि मनुष्य को प्रथम-प्रथम किसने हर्बा-हथियार पकड़ना सिखाया था। और कोई-कोई तो स्पष्ट रूप से यह भी कह देते हैं कि मुसलमान-शासन के आरम्भ होने के पूर्व भारतीय इतिहास में सन्-तारीख घटन-अघटन को खोजने जाना व्यर्थ का परिश्रम मात्र है। वे कहते हैं कि यह एक बहुत बड़ी भूल है। भारतवर्ष के लोग तो महाकाल की साधना में खंडकाल को सम्पूर्ण रूप से लुप्त कर देना चाहते हैं। वे काल को अनादि कहते हैं। सृष्टि भी उनके निकट अनादि-अनन्त है। काल का जहाँ कोई परिणाम नहीं वहाँ इतिहास किस प्रकार से लिखा जाए ? जिस देश में मृत व्यक्ति को जलाकर राख कर दिया जाता है, और उसकी चिताभस्म तक को पानी उड़ेलकर साफ कर दिया जाता है, वहाँ स्पष्ट ही समझा जा सकता है कि मनुष्य की बाह्य अवस्था के ऊपर उस देश के लोगों की आस्था कितनी कम है। और घटना ? उसमें प्राण ही कितना है ? वह भी तो उसी काल के ऊपर प्रतिष्ठित है। और असंख्य, करोड़ों कल्पों की तुलना में उसका मूल्य ही क्या है ? जिन लोगों के मन की अवस्था इस प्रकार की है, उन्हें लेकर चाहे और जो-कुछ भी क्यों न कर लिया जाए, लेकिन भद्रभाव से इतिहास कैसे लिखा जाए ?
आर्य पितामहगण तो बादवालों की सुविधा के लिए, जिसे हम इतिहास कहते हैं, उसकी सामग्री कुछ विशेष रख नहीं गये हैं। सामग्री के अभाव को इसीलिए तो कल्पना द्वारा पूरा कर लेना पड़ता है; इसीलिए तो भारतवर्ष के पुरातन इतिहास को लेकर इतनी थ्योरी, इतनी मारामारी और इतना वाद-प्रतिवाद है–नाना मुनियों के नाना प्रकार के मत हैं। मुसलमान और अँग्रेज़ समय को काफी महत्त्व देते हैं। इसी वजह से वे काल का भी एक हिसाब रखते हैं। इसके अलावा वे सांसारिक राजत्व को स्वर्ग के राज्य से कहीं अधिक काम्य मानते हैं। इसीलिए मृत्यु-लोक की घटनाएँ उनके लिए एकदम उपेक्षा की वस्तु नहीं हैं। पीछे लोगों की स्मृति से ये सब विलुप्त न हो जाएँ, इसी भय से तो मौका पाते ही वे इन्हें लिपिबद्ध कर देते हैं। केवल यही नहीं, मरने के बाद भी इस, विषय से उन्हें विरत होते नहीं देखा जाता है। कब्र के ऊपर इमारत, स्तम्भ, शिलापट्ट आदि का निर्माण करते हैं और फिर उसी पर सन्-तारीख नाम-धाम, पू्र्वजों का तथा अपना परिचय देकर अपने कीर्ति कलापों का विवरण लिख रखते हैं और इस प्रकार से सर्वग्रासी काल को जय करना चाहते हैं। यही कारण है कि मुसलमानों के शासन काल से अँग्रेज़ों के शासन काल तक के भारतवर्ष के इतिहास को पंड़ित लोग बहुत दूर तक विश्वसनीय इतिहास मानते हैं। पूरा का पूरा क्यों नहीं मानते, इसके लिए मनुष्य की प्रकृति ही उत्तरदायी है। मनुष्य का मन तो किसी बँधे-बँधाये नियम को मानकर चला नहीं। इसीलिए मनुष्य जो देखता अथवा सुनता है, वह जब उसके मन के रस से परिपाक होकर प्रकाश में आता है, तब देखा जाता है कि एक ही वस्तु को अलग-अलग व्यक्तियों ने अलग-अलग ढंग से देखा है और भिन्न-भिन्न प्रकार से सुना है। विभिन्न लोगों के हाथ में पड़कर एक ही वस्तु ने विभिन्न रूप धारण किये हैं। तब उसका असली रूप क्या है, उसे ठीक-ठीक समझना मुश्किल है।
यह सब देखकर ही तो बहुत से विचारक कहते हैं कि भारतवर्ष के इतिहास में घटनाओं का विवरण देने की जरूरत ही क्या है ? और अगर लिखना ही चाहते हो तो भारतवर्ष ने जिस वस्तु को बड़ा समझा था, उसकी उसी भावधारा का इतिहास क्यों नहीं लिखते ! किस प्रकार से वैदिक युग धीरे-धीरे ब्राह्म-युग में परिणत हुआ, किस प्रकार से बौद्ध धर्म को उन्मूलित कर हिन्दू-धर्म का उदय हुआ; इसके बाद मुसलमान और ईसाई धर्मों के घात-प्रतिघात और संघर्ष से हिन्दू-धर्म ने कौन-सा रूप ग्रहण किया, उसी का इतिहास लिखो। कहाँ से उसकी उत्पत्ति हुई, क्या उसका स्वरूप है, कैसी उसकी गति रही, कैसी उसकी परिणति होगी, इन्हीं सब बातों को सुलझाकर कहो।
बात बड़ी सख्त है। यह आकस्मिक प्रहार बहुत ही कठिन है। सुप्रतिष्ठित प्रवीण इतिहासज्ञ इसे इतिहास कहना चाहेंगे या नहीं, इसमें सन्देह है। पत्थर के समान मजबूत स्थूल पदार्थ के ऊपर इतिहास आश्रय लेता है। भावधारा के समान सूक्ष्म पदार्थ क्या उसका भार सह सकता है ? वह चाहे जो हो, मेरे जैसे आदमी के लिए भाव के गहन वन में प्रवेश करने की चेष्टा बौने के चाँद छूने के लिए हाथ बढ़ाने जैसी है। फलस्वरूप, ‘गमिष्यामि उपहास्यताम्’ अर्थात् उपहास के सिवा उससे और कोई लाभ नहीं होगा। वह पथ पंडितों के लिए खुला रहे। और इतिहास की पुस्तकों को पढ़कर भी तो देखता हूँ, उसका बारह से चौदह आना अंश मनुष्य की अपकीर्तियों से ही भरा हुआ है। मनुष्य के बड़े से बड़े कुकृत्यों में भी विराट प्राणशक्ति की एक प्रचंड लीला देखने को मिलती है। इसीलिए तो वे मनुष्य को इतना आकर्षित करते हैं। गोपाल के समान सुबोध-सुशील बच्चों के निरीह कार्यकलाप को लेकर तो कोई इतिहास लिखने बैठता नहीं। सम्पू्र्ण रूप से भले ही न हो लेकिन बहुत अंश तक यही कारण है कि अन्त तक एक युद्ध की ही कहानी कहने का मैंने संकल्प किया है। लेकिन घटना के नहीं रहने पर तो कहानी नहीं होती। मेरी कहानी की घटना पलासी का युद्ध है।
भारतीय इतिहास की इतनी घटनाओं में से सहसा पलासी-युद्ध की घटना को कहानी कहने के लिए मैंने क्यों चुना, यह प्रश्न पाठकों, के मन में जगे तो कोई आश्चर्य नहीं। निश्चय ही एक कारण है। वह क्या है उसे थोड़ा खुलकर कहें। मुझे लगता है, पलासी का युद्घ एक सन्धिकाल है। इसी सन्धिकाल में बंगाल में मध्य-युग का अवसान होता है और वर्तमान युग का आविर्भाव होता है। यहाँ आकर बंगाली जाति की जीवन धारा ने जैसे एक मोड़ लिया। धीरे-धीरे अज्ञान का काला कुहरा दूर हो गया और ज्ञान के सूर्यालोक ने बंगाली जाति के जीवन और समाज में एक नयी आबोहवा की सृष्टि की। फलस्वरूप एक सम्पूर्ण नये ढंग का बंगाली समाज धीरे-धीरे गठित हुआ। पूर्ववर्ती समाज की किसी धारा में इसका सादृश्य नहीं पाया जाता।
इस प्रकार के समाज-निर्माण में प्रत्यक्ष रूप से अँग्रेज़ों का अधिक हाथ नहीं था। लेकिन अँग्रेज़ों, के संस्पर्श से ही वह गठित हुआ था, इसमें भी कोई सन्देह नहीं है। उस समाज का चेहरा पूरा-का-पूरा विलायती नहीं है, लेकिन पूरा-का-पूरा देशी भी नहीं है; दोनों को मिलाकर वह नये प्रकार की एक अलग वस्तु है। उसी समाज ने ही एक दिन समस्त भारतवर्ष के विद्या-बुद्धि-ज्ञान का चिराग लेकर लोगों को आलोक-पथ दिखलाया था। इसका इतिहास अभी भी अच्छी तरह से नहीं लिखा गया है। कभी लिखा जाएगा कि नहीं, नहीं जानता। जब तक नहीं लिखा जाता तब तक कहानी को लेकर ही सन्तोष करना होगा। दूध की साध छाछ से नहीं मिटने पर भी मिठाई के अभाव में गुड़ से काम चलाने की व्यवस्था तो शास्त्र में ही हुई है।
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