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पर्व

भैरप्पा

प्रकाशक : अमरसत्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :616
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7069
आईएसबीएन :81-88466-29-8

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भारतीय वाङ्मय में पंचम वेद के रूप में अधिष्ठित महाभारत पर आधारित भैरप्पा की महान् औपन्यासिक कृति

Parv

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘पर्व’ भारतीय वाङ्मय में पंचम वेद के रूप में अधिष्ठित महाभारत पर आधारित भैरप्पा की महान् औपन्यासिक कृति है। इस उपन्यास में लेखक ने महाभारत के पात्रों, स्थितियों और घटनाओं का जो वस्तुनिष्ठ आलेखन प्रस्तुत किया है, वह अद्भुत और अनुपम है। महाभारतकालीन भारत की सामाजिक संरचना तथा तत्कालीन इतिहास और परंपराओं के लंबे अरसे तक अनुसंधान, व्यापक भ्रमण और अध्ययन पर आधारित यह उपन्यास भारतीय साहित्य की महान् उपलब्धि है। अतीतोन्मुखी भारतीय जनमानस के साथ जुड़े महाभारत के पात्रों के अलंकरण और चमत्कारों एवं अतिश्योक्ति की कैंचुली उतारकर उन्हें मानवीय धरातल पर साधारण मनुष्य के रूप में प्रस्तुत करने के कारण यह उपन्यास वस्तुतः एक क्रान्तिकारी कृति है। संक्षेप में इतना कहना ही शायद पर्याप्त हो ‘पर्व’ आधुनिक संदर्भों से जुड़ा महाभारत का पुनराख्यान है।

‘पर्व’ का फलक भले ही महाभारत पर आधारित हो, लेकिन यह एक साहित्यिक कृति है - एक उपन्यास। पाठक इसे एक उपन्यास के रूप में ही स्वीकार करेंगे - ऐसा लेखक का अनुरोध है।

 

लेखक के बारे में

 

पेशे से प्राध्यापक होते हुए भी, प्रवृत्ति से साहित्यकार बने रहने वाले भैरप्पा ऐसी गरीबी से उभरकर आए हैं जिसकी कल्पना तक कर पाना कठिन है। आपका जीवन सचमुच ही संघर्ष का जीवन रहा है। हुब्बल्लि के काडसिद्धेश्वर कॉलेज में अध्यापक की हैसियत से कैरियर शुरु करके आपने आगे चलकर गुजरात के सरदार पटेल विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के एन. सी. ई. आर. टी. तथा मैसूर के प्रादेशिक शिक्षा कॉलेज में सेवा की है। अवकाश ग्रहण करने के बाद आप मैसूर में रहते हैं।

‘धर्मश्री’ (1960) से लेकर ‘मंद्र’ (2002) तक आपके द्वारा रचे गए उपन्यासों की संख्या 19 है। उपन्यास से उपन्यास तक रचनारत रहने वाले भैरप्पा ने भारतीय उपन्यासकारों में अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया है। आपके ‘उल्लंघन’ और ‘गृहभंगा’ उपन्यास भारत की 14 प्रमुख भाषाओं में ही नहीं, अंग्रेजी में भी अनूदित हैं। ‘धर्मश्री’ और ‘सार्थ’ उपन्यास संस्कृत में अनूदित हैं। ‘पर्व’ महाभारत के प्रति आपके आधुनिक दृष्टिकोण का फल है, तो ‘तंतु’ आधुनिक भारत के प्रति आपकी व्याख्या का प्रतीक है। ‘सार्थ’ में जहाँ शंकराचार्य जी के समय के भारत की पुनर्सृष्टि का प्रयास किया गया है, वहीं ‘मंद्र’ में संगीत लोक के विभिन्न आयामों को समर्थ रूप में प्रस्तुत किया गया है। रवीन्द्र, बंकिमचंद्र, शरतचंद्र और प्रेमचंद के बाद किसी ने यदि अखिल भारतीय मनीषा और अस्मिता को शब्दांकित किया है, तो वह भैरप्पा ही हैं। आपकी सर्जनात्मकता, तत्त्वशास्त्रीय विद्वता, अध्ययन की श्रद्धा और जिज्ञासु प्रवृत्ति - इन सब ने साहित्य के क्षेत्र में आपको अनन्य बना दिया है। आपके अनेक उपन्यास बड़े और छोटे स्क्रीन को भी अलंकृत कर चुके हैं।

केंद्रीय साहित्य अकादेमी तथा कर्नाटक साहित्य अकादेमी (3 बार) का पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद का पुरस्कार - ऐसे कई पुरस्कारों से आप सम्मानित हुए हैं। अखिल भारतीय कन्नड़ साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता का, मराठी साहित्य सम्मेलन के उद्घाटन करने का, अमेरिका में आयोजित कन्नड़ साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करने आदि का गौरव आपने अर्जित किया है।
देश-विदेश की विस्तृत यात्रा करने वाले भैरप्पा ने साहित्येतर चिंतनपरक कृतियों की भी रचना की है। आपकी साहित्यिक साधना से संबंधित कई आलोचनात्मक पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं।



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