उपन्यास >> उत्तर मार्ग उत्तर मार्गप्रतिभा राय
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प्रस्तुत उपन्यास में उड़ीसा के खास अंचल के उन अख्यात स्वतन्त्रता-सेनानियों के त्यागपूर्ण एवं मार्मिक जीवन का चित्रांकन के है जिनके सक्रिय सहयोग के बिना भारत की स्वाधीनता की गाथा अधूरी ही रहती।...
Uttar Marg
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
उड़िया की अग्रणी लेखिका प्रतिभा राय के प्रस्तुत उपन्यास ‘उत्तर मार्ग’ में उड़ीसा के खास अंचल के उन अख्यात स्वतन्त्रता-सेनानियों के त्यागपूर्ण एवं मार्मिक जीवन का चित्रांकन है जिनके सक्रिय सहयोग के बिना भारत की स्वाधीनता की गाथा अधूरी ही रहती। लेखिका के अनुसार,उड़ीसा के राष्ट्रीय मुक्ति-संग्राम के इतिहास में केवल विशिष्ट नेताओं और प्रसिद्ध सेनानियों की गौरव-गाथा लिपिबद्ध हुई है। अगणित अख्यात ऐसे स्वतन्त्रता सेनानी भी रहे हैं जिनके देश-प्रेम,त्याग,साहस और बलिदान का इतिहास के पन्नों पर कहीं कोई उल्लेख नहीं हैं,या कहा जा सकता है कि इतिहास लिखते समय जिनके नाम सामने नहीं आ सके। प्रस्तुत उपन्यास में देश की आजादी के लिए समर्पित दिगन्त केशरी,मदन जेना,श्यामा पुहाण,परशुराम,हरि विश्वाल, रमादेवी, साधवी, मैथिली आदि ऐसे ही कुछेक आंचलिक सेनानियों के तपःपूत एवं साहसिक जीवन के सन्दर्भों को कथावस्तु का आधार बनाया गया है। उपन्यास की कथा जितनी सशक्त और विचारपरक है,उतनी ही मार्मिक और रोचक भी है। प्रस्तुत है हिन्दी जगत के पाठकों के लिए उपन्यास का नया संस्करण।
प्रस्तुति
भारतीय ज्ञानपीठ ने सदा भारतीय साहित्य में एक सेतु की सक्रिय भूमिका निभायी है। ज्ञानपीठ पुरस्कार की असाधारण सफलता का मुख्य कारण यही है। भारतीय भाषाओं में से चुने हुए किसी शीर्षस्थ साहित्यकार को प्रतिवर्ष दिये जाने वाले पुरस्कार का अनूठापन इसमें है कि यह भारतीय साहित्य के मानदण्ड स्थापित करता है। ज्ञानपीठ इन चुने हुए साहित्यकारों की कालजयी कृतियों का हिन्दी (और कभी-कभी अन्य भाषाओं में भी) अनुवाद पुरस्कार की स्थापना के समय से ही साहित्यानुरागियों को समर्पित करता आ रहा है। इसके अतिरिक्त विभिन्न भाषाओं के अन्य साहित्य-मनीषियों का, हिन्दी अनुवाद के माध्यम से उनकी भाषायी सीमाओं के बाहर, परिचय कराके ज्ञानपीठ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय दायित्व निभा रहा है। हमारा उनुभव है कि किसी भी साहित्यिक रचना का हिन्दी में अनुवाद हो जाने पर उसका अन्य भाषाओं में अनुवाद सुविधाजनक हो जाता है। हमें विश्वास है कि यह सब प्रयत्न आधुनिक भारतीय साहित्य की मूल संवेदना उजागर करने में सार्थक होंगे।
प्रस्तुत उपन्यास ‘उत्तर मार्ग’ की लेखिका डॉ. (श्रीमती) प्रतिभा राय का आधुनिक उड़िया साहित्य में एक विशेष स्थान बन चुका है। ‘उत्तर मार्ग’ में उन्होंने उड़ीसा के खास अंचल के उन अख्यात स्वतन्त्रता-सेनानियों के त्यागपूर्ण एवं मार्मिक जीवन का उल्लेख किया है जिनके सक्रिय सहयोग के बिना भारत की स्वाधीनता की गाथा अधूरी ही रहती। लेखिका के अनुसार, उड़ीसा के राष्ट्रीय मुक्ति-संग्राम के इतिहास में केवल विशिष्ट नेताओं और प्रसिद्ध स्वतन्त्रता-सेनानियों की गौरव-गाथा लिपिबद्ध हुई है। अगणित अख्यात ऐसे स्वतन्त्रता-सेनानी भी रहे हैं जिनके देश-प्रेम, त्याग, साहस और बलिदान का इतिहास के पन्नों पर कहीं कोई उल्लेख नहीं है या कहा जा सकता है कि इतिहास लिखते समय जिनके नाम सामने नहीं आ सके। प्रस्तुत उपन्यास ‘उत्तर मार्ग’ में देश की आज़ादी के लिए समर्पित दिगन्तकेशरी, मदन जेना, श्यामा पुहाण, परशुराम, हरि विश्वाल, रमा देवी, साधवी, मैथिली आदि ऐसे ही कुछेक आंचलिक सेनानियों के तपःपूत एवं साहसिक जीवन के सन्दर्भों को कथावस्तु का आधार बनाया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह कथा जितनी सशक्त और विचारपरक है उतनी ही मार्मिक और रोचक भी है।
भारतीय ज्ञानपीठ के ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ से सम्मानित डाँ. प्रतिभा राय का एक अन्य महत्त्वपूर्ण उपन्यास है ‘आदिभूमि’। यह उड़िया पाठकवर्ग में तो काफी चर्चित हुआ ही है, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित इसका अनुवाद भी हिन्दी के सहृदय पाठकों द्वारा खूब सराहा जा रहा है।
प्रस्तुत उपन्यास ‘उत्तर मार्ग’ की लेखिका डॉ. (श्रीमती) प्रतिभा राय का आधुनिक उड़िया साहित्य में एक विशेष स्थान बन चुका है। ‘उत्तर मार्ग’ में उन्होंने उड़ीसा के खास अंचल के उन अख्यात स्वतन्त्रता-सेनानियों के त्यागपूर्ण एवं मार्मिक जीवन का उल्लेख किया है जिनके सक्रिय सहयोग के बिना भारत की स्वाधीनता की गाथा अधूरी ही रहती। लेखिका के अनुसार, उड़ीसा के राष्ट्रीय मुक्ति-संग्राम के इतिहास में केवल विशिष्ट नेताओं और प्रसिद्ध स्वतन्त्रता-सेनानियों की गौरव-गाथा लिपिबद्ध हुई है। अगणित अख्यात ऐसे स्वतन्त्रता-सेनानी भी रहे हैं जिनके देश-प्रेम, त्याग, साहस और बलिदान का इतिहास के पन्नों पर कहीं कोई उल्लेख नहीं है या कहा जा सकता है कि इतिहास लिखते समय जिनके नाम सामने नहीं आ सके। प्रस्तुत उपन्यास ‘उत्तर मार्ग’ में देश की आज़ादी के लिए समर्पित दिगन्तकेशरी, मदन जेना, श्यामा पुहाण, परशुराम, हरि विश्वाल, रमा देवी, साधवी, मैथिली आदि ऐसे ही कुछेक आंचलिक सेनानियों के तपःपूत एवं साहसिक जीवन के सन्दर्भों को कथावस्तु का आधार बनाया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह कथा जितनी सशक्त और विचारपरक है उतनी ही मार्मिक और रोचक भी है।
भारतीय ज्ञानपीठ के ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ से सम्मानित डाँ. प्रतिभा राय का एक अन्य महत्त्वपूर्ण उपन्यास है ‘आदिभूमि’। यह उड़िया पाठकवर्ग में तो काफी चर्चित हुआ ही है, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित इसका अनुवाद भी हिन्दी के सहृदय पाठकों द्वारा खूब सराहा जा रहा है।
उत्तर मार्ग
‘‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय :।।’’
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय :।।’’
‘मरने पर स्वर्ग, जीतने पर राज्य-भोग। अतः युद्ध करने का संकल्प लेकर खड़े हो जाओ।’ अन्याय के विरुद्ध संग्राम करने के लिए युद्ध-विमुख वीर अर्जुन को कृष्ण का यही आह्वान था।
पर जो न्याय-अन्याय कुछ नहीं जानता, जो मरने पर स्वर्ग नहीं पाता, जीतने पर राज्य नहीं पाता, वह संग्राम करे किसके विरुद्ध, और क्यों करेगा संग्राम ?
युद्ध आदमी को क्षत-विक्षत करता है, रक्ताक्त कर देता है। पर इसमें जीवन का आह्वान होता है। संग्रामहीन पूरे जीवन का अर्थ ही क्या है ? आह्वान बिना जीवन तो प्राणहीन प्रतिमा की तरह होगा।
कई लोगों का जीवन ऐसी ही प्रतिमा की तरह होता है। पर प्रतिमा में कहीं प्रतिभा भी छुपी होती है। और प्रतिभा के उस सूक्ष्मतम बिन्दु पर अन्वेष का हलका-सा स्फूर्त स्फुलिंग चमक उठता है।
अन्वेष का वह अदृश्य हाथ होता है उस प्रतिभादर्शी में। संग्रामहीन सुषुप्ति की रात में उस स्फुलिंग ने जगाया था आचार्य दिग्दर्शी को, अन्वेष के स्पर्श से।
सारे देश का प्राणकेन्द्र तब एक अन्वेष के स्पर्श से नवजागरण के कम्पन में झंकृत हो रहा था।
देश की सन्धि-वेला में जैसे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का आविर्भाव हुआ, वैसे ही कटक जिले के अख्यात गाँव में जब जमींदार, मामलातकार अन्धेरनगरी वाला शासन चला कर प्रजा-पीड़न कर रहे थे, जनजीवन शापग्रस्त था, तब देवदूत की तरह आविर्भाव हुआ था आचार्य दिग्दर्शी का।
आचार्य दिग्दर्शी आजीवन ब्रह्मचारी रहे हैं। उनकी जाति, गोत्र, धर्म, भाषा किसी को पता नहीं। कहाँ जनमे, माता-पिता कौन हैं, यह भी कोई नहीं जानता। कोई पूछता है तो खुद भी कुछ बता नहीं पाते। सब कुछ भूल गये हैं अपने बारे में।–‘‘मैं नया इतिहास रचने में विश्वास करता हूँ। पुराने इतिहास को कण्ठस्थ कर निष्क्रिय बैठा नहीं रह सकता।’’ पता-ठिकाना पूछो तो अन्तर्भेदी दृष्टि से देखेंगे और मनोरम हँसी में कहेंगे-‘‘मेरा पता ! वो तो तुम्हारे पास है, तुम्हारे अन्तःकरण में। जब भी खोजोगे, मैं वहीं मिल जाऊँगा। मुझे हृदय से निकालकर फेंक सकोगे ?
उनकी जाति, धर्म या भाषा के बारे में बात करने पर तो दो टूक कहते हैं-‘‘तुम्हारी जो जाति है, तुम्हारा जो धर्म है वही सब मेरा है। यह सारा भारत मेरा देश है। मैं तुम्हारा भाई हूँ इस बात को क्या नहीं मानते ?’’
आचार्य की हर बात ऐसी ही होती है। इतनी आत्मीयता-भरी होती है कि उनके पास जाते ही सारे संशय, सारे द्वन्द्व, सारा विरोधाभास कहीं लीन हो जाता है। बस एक ही बात रह जाती है-आचार्य दूर के नहीं, एकदम निकट के हैं, आत्मीय। उन्हें छोड़कर सोचना भी मुश्किल होगा।
गाँव के बड़े-बूढ़े सबके अपने हैं वे। आचार्य जी के लिए सबके मन में है आन्तरिकता-स्नेह, ममता, अपनत्व। सिर्फ चौधरी जी...ग्रहराज चौधरी को छोड़कर।
जमींदार ग्रहराज चौधरी।
मात्र उसी गाँव के नहीं, आस-पास के दस-बीस गाँवों के-उस इलाके के गरीब-गुरबा, मेहनत-मजूरी करने वालों के ग्रह, कालग्रह थे।
कहते हैं राजा-महाराजा, जमींदारों के प्रताप से बड़े-बड़ों के होश ठिकाने आ जाते हैं। ग्रहराज चौधरी अगर आकाश में भागते मेघ को देख लें, थम जाएगा, सारा पानी बरसकर निचुड़ जाएगा। आँख दिखा दें तो काला स्याह बादल हँसती तड़ितलता में घबराकर मुँह छिपा ले। धरती पर घबराकर वज्र भी खिसक जाए।
उस गाँव का क्या नाम-पता बताया जाए ? ग्रहराज चौधरी के बेटे-पोते, पड़पोते आज हमारे राज्य में किसी गाँव में किसी भी शहर में मिल जाएँगे। कपूर उड़ गया, बचे रूमाल का प्रताप भी तो कम नहीं। क्यों न हो, महाप्रतापी जमींदार चौधरी ग्रहराज के वंशधर जो ठहरे ! ब्रिटिश राजाओं की छत्र-छाया न रही तो क्या हुआ, गणतन्त्र के राजा-महराजाओं की छत्र-छाया में वह उस कपूर की महक भरे रूमाल में बँधा है।
ग्रहराज और दिग्दर्शी के बीच घोर विरोध है। आचार्य दिग्दर्शी तो चौधरी जी की जमींदारी की कोई प्रजा नहीं हैं, न उनकी जागीर पर जीवित हैं। कोई घर-बार भी तो नहीं उनका। निरासक्त योगी जो ठहरे ! दो दिन यहाँ, चार दिन वहाँ। और फिर चल दिये दूसरे गाँव-पदयात्रा जारी है-इस राज्य से उस राज्य। हिमालय से कन्याकुमारी तक फिरते ही रहते हैं।
जमींदार ग्रहराज चौधरी ! अँग्रेजों के जमाने में थे उनके ताबेदार राजभक्त जमींदार और आचार्य दिग्दर्शी ठहरे संन्यासी-अनगिनत हृदयों के अप्रतिद्वन्द्वी सम्राट्। गरीब-गुरबा लोग ही जानते हैं उन्हें। अँग्रेजों के बीच उनका नाम क्यों जाता ?
मगर वे संन्यासी ही होते तो बात और थी। एक और ही धुन सवार थी सिर पर-चैन न था-सुराजियों के गीत गाया करते।
बस यहीं थी गड़बड़। सुराजी और ग्रहराज-एक साथ कैसे मिल पाते ? सुराजियों के पीछे थे लोग-बाग और एक महान जाति का भविष्य जुड़ा था उनके साथ। वे अब विदेशी शासन का दर्द महसूसने लगे थे। और ग्रहराज के पीछे थी जमींदारी-पारिवारिक हजारेदारी और इसके लिए वे अँग्रेजों के मुखातिब थे।
ऐसे में ग्रहराज सुराज को कैसे प्रश्रय देते ?
दिग्दर्शी थे वैसे पूरे संन्यासी-अहिंसाव्रती। गाँधी जी कहा करते थे, अन्याय का प्रतिरोध करेंगे, न्यायपूर्ण माँगों के लिए एक होना है, हमें मजबूत बनना है। इस दृष्टि से दिग्दर्शी को गाँधीवाणी का प्रचारक कहा जाता था। गीता पर प्रवचन करते-करते वे गाँधी, विवेकानन्द, अरविन्द-दर्शन तक पहुँच जाते। महाभारत के भगवान श्रीकृष्ण ने अन्याय का विरोध कर न्याय पाने के लिए युद्ध का आह्वान किया था। अर्जुन को मोहग्रस्त हालत से उबारा था और यह युद्ध चाहे अहिंसा का हो, गाँधी जी ने अहिंसा आन्दोलन चला रखा है। वर्षों की पराधीनता के कारण हीन-भाव एवं जड़ग्रस्त जनता के मन में महाभारतीय चेतना जगाने के लिए गाँधी जी ने अहिंसा-आन्दोलन छेड़ रखा है। श्रीकृष्ण उवाच से शुरू कर गाँधी उवाच तक इतनी सुन्दरता से पहुँच जाते...पता नहीं चलता यह व्यक्ति कोई संन्यासी है या सैनिक ! ईश्वरभक्त है या देशभक्त ! लोग चकित देखते रह जाते।
दिग्दर्शी तो हँसते-हँसते बोलते-ईश्वर और देश एक हैं, अभिन्न हैं। कोई नास्तिक बनकर कभी देशप्रेमी नहीं हो सकता प्रेम से यह जगत् पैदा हुआ है। आत्मा-परमात्मा के प्रेम में ही यह जगत् बँधा है। ईश्वर ने जन्म दिया है, देश ने गोद ले लिया, पिण्ड बनाया और मरने तक पालन-पोषण किया। एक ने जन्म दिया, एक ने प्राणों को पोषण दिया और बढ़ाया। बड़ा कौन, छोटा कौन ? कौन किससे अलग है ? देश को ईश्वर की जगह रखो। बस तुम सबसे बड़े देशभक्त होगे !
श्रीकृष्ण और राम, कुरुक्षेत्र, राम-रावण युद्ध। और इसी पंक्ति में तो आते हैं, अरविन्द, विवेकानन्द गाँधी और भगिनी निवेदिता, राममोहन, महामना, तिलक।
क्रान्ति ! क्रान्ति का आवाहन करते दिग्दर्शी।
जनता मुग्ध होकर सुनती। आँखों पर से पट्टी उतर जाती। चेतना के अन्धे कुएँ में मशाल जल उठती। कानों में झंकार गूँजती-क्रान्ति....स्वराज...स्वराज्य..
ग्रहराज की आँखें लाल हो जातीं। क्रोध में सारी देह झनझना उठती। मगर वे निरुपाय हैं। गुप्त खबर पाकर पुलिस वाले आते तो देखते-जटा-जूटधारी, प्रशान्त वदन, सौम्य रूप, ब्रह्मचारी गीता का दर्शन बखान रहे हैं। निष्काम कर्मयोग की बातें सुनकर खुफिया पुलिस वाले भी भुला बैठते अपना कर्तव्य।
फिर शुरू होती दिग्दर्शी की पदयात्रा। तब उनका कहीं पता भी नहीं मिलता। यायावर का भी कोई पता-ठिकाना होता है ? गाँववालों से पुलिसवाले पूछते पता। वे अन्दर टटोलते। वहीं दिग्दर्शी इसी तरह स्वराज की वार्ता लिये गाँव-गाँव घूमते रहते।
अन्धकार और घना हो जाता। ग्रहराज और भी खूँखार बनकर गरजते, गाँववाले लरजते, सिहरते। उन कठोर आदेशों, हुक्मरानों के आगे घिग्गी बँध जाती। उनकी जमींदारी की सीमा-सरहद में दिग्दर्शी का नाम तक लेना भी वर्जित था। जमींदार का इशारा न समझे, ऐसा छाती का पूरा कौन होता ?
दासता और शासन-दोनों के बीच एक समझबूझ की स्थिति होती है-स्वाधीनता ! मुक्ति !
आदमी ने धरती पर पाँव रखे थे-मुक्त रूप में। आकाश की तरह, हवा की तरह, जनम-मरण की तरह मुक्त थी उसकी जीवनधारा। आदमी नाम का श्रेष्ठ जीव-क्योंकि उसके विचार उन्नत हैं, बुद्धि दीप्त है, वह चिन्तनशील है। एक दिन अपनी सुविधा के लिए समाज बनाया था उसने। और समाज के लिए बनाया अनुशासन-अपना बनाया अनुशासन-मानने लगा, अपने पैरों में अपनी बनायी बेड़ियाँ। आप ही आप का दास बन गया।
यायावर से बन गया कृषिजीवी। कृषि से स्थायी सम्पत्ति की सृष्टि-स्थायी जीवन से बना समाज-सामाजिक जीवन में कृषि उत्पादन और जरूरतों की कमी-बढ़त के मुताबिक छुपे आदमी के अभाव, अभावों से पैदा हुई सम्पत्ति जमा करने की आकांक्षा, लोभ, दूसरों की सम्पत्ति हजम करने की इच्छा, जबरन दखल के लिए हिंसक कदम उठाये।
जोर जिसका, मुलक उसका। इसी से बना वर्ग, समाज, समाजपति, धनी-दरिद्र का अन्तर-घर्षण-आदमी-आदमी में अन्तर। कोई भूमि का मालिक, कोई सर्वहारा, निःस्व। एक अमीर, एक गरीब। सम्पत्ति और अन्याय से दूसरों के परिश्रम से कमाये धन को दखल करने के कारण एक आदमी दूसरे के आगे दासता स्वीकार करने लगा।
कृषि से व्यवसाय-व्यवसाय से देश-विदेश की यात्रा, उन देशों की फायदा उठाने की कोशिश। कोशिश में लूटने की भावना। उसी में आये पुर्तगीज, मुगल, मराठे और अन्त में अंग्रेज। व्यवसाय-कौशल से राज्य-विस्तार, लूट, शोषण, पीड़न अत्याचार। एक व्यावसायिक जाति के आगे एक और महान जाति बनी पराधीन। अपने देश में लोग बने प्रजा, दास, नौकर।
मुक्त आदमी अपने आगे, अपनी कामना-वासना-लोभ-मोह के आगे, अपनी कल्पना के भूसंस्कारों, अन्धविश्वासों और समाजपतियों की शक्ति के आगे, विदेशी लुटेरों की कूटनीति के आगे कई तरह से, कई स्तर पर बन गया पराधीन, गुलाम।
पराधीनता आदमी के जीवन की सबसे अधिक अवांछित स्थिति होती है-दासता सबसे बड़ा शाप। स्वाधीनता गँवाने पर आदमी अपनी सूक्ष्म मानवीय तत्त्व-प्रवृत्ति खो बैठता है। पर जो स्वाधीनता का अर्थ नहीं जानता, जो दास बन जाता है, उसकी सूक्ष्म मानवीय प्रवृत्तियाँ जागरित होने की कोई गुंजाइश नहीं रहती। जो राजा, प्रभु, मालिक बन जाता है, उसकी मानवीय प्रवृत्ति लुप्त-ध्वंस हो जाती है।
पर जो न्याय-अन्याय कुछ नहीं जानता, जो मरने पर स्वर्ग नहीं पाता, जीतने पर राज्य नहीं पाता, वह संग्राम करे किसके विरुद्ध, और क्यों करेगा संग्राम ?
युद्ध आदमी को क्षत-विक्षत करता है, रक्ताक्त कर देता है। पर इसमें जीवन का आह्वान होता है। संग्रामहीन पूरे जीवन का अर्थ ही क्या है ? आह्वान बिना जीवन तो प्राणहीन प्रतिमा की तरह होगा।
कई लोगों का जीवन ऐसी ही प्रतिमा की तरह होता है। पर प्रतिमा में कहीं प्रतिभा भी छुपी होती है। और प्रतिभा के उस सूक्ष्मतम बिन्दु पर अन्वेष का हलका-सा स्फूर्त स्फुलिंग चमक उठता है।
अन्वेष का वह अदृश्य हाथ होता है उस प्रतिभादर्शी में। संग्रामहीन सुषुप्ति की रात में उस स्फुलिंग ने जगाया था आचार्य दिग्दर्शी को, अन्वेष के स्पर्श से।
सारे देश का प्राणकेन्द्र तब एक अन्वेष के स्पर्श से नवजागरण के कम्पन में झंकृत हो रहा था।
देश की सन्धि-वेला में जैसे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का आविर्भाव हुआ, वैसे ही कटक जिले के अख्यात गाँव में जब जमींदार, मामलातकार अन्धेरनगरी वाला शासन चला कर प्रजा-पीड़न कर रहे थे, जनजीवन शापग्रस्त था, तब देवदूत की तरह आविर्भाव हुआ था आचार्य दिग्दर्शी का।
आचार्य दिग्दर्शी आजीवन ब्रह्मचारी रहे हैं। उनकी जाति, गोत्र, धर्म, भाषा किसी को पता नहीं। कहाँ जनमे, माता-पिता कौन हैं, यह भी कोई नहीं जानता। कोई पूछता है तो खुद भी कुछ बता नहीं पाते। सब कुछ भूल गये हैं अपने बारे में।–‘‘मैं नया इतिहास रचने में विश्वास करता हूँ। पुराने इतिहास को कण्ठस्थ कर निष्क्रिय बैठा नहीं रह सकता।’’ पता-ठिकाना पूछो तो अन्तर्भेदी दृष्टि से देखेंगे और मनोरम हँसी में कहेंगे-‘‘मेरा पता ! वो तो तुम्हारे पास है, तुम्हारे अन्तःकरण में। जब भी खोजोगे, मैं वहीं मिल जाऊँगा। मुझे हृदय से निकालकर फेंक सकोगे ?
उनकी जाति, धर्म या भाषा के बारे में बात करने पर तो दो टूक कहते हैं-‘‘तुम्हारी जो जाति है, तुम्हारा जो धर्म है वही सब मेरा है। यह सारा भारत मेरा देश है। मैं तुम्हारा भाई हूँ इस बात को क्या नहीं मानते ?’’
आचार्य की हर बात ऐसी ही होती है। इतनी आत्मीयता-भरी होती है कि उनके पास जाते ही सारे संशय, सारे द्वन्द्व, सारा विरोधाभास कहीं लीन हो जाता है। बस एक ही बात रह जाती है-आचार्य दूर के नहीं, एकदम निकट के हैं, आत्मीय। उन्हें छोड़कर सोचना भी मुश्किल होगा।
गाँव के बड़े-बूढ़े सबके अपने हैं वे। आचार्य जी के लिए सबके मन में है आन्तरिकता-स्नेह, ममता, अपनत्व। सिर्फ चौधरी जी...ग्रहराज चौधरी को छोड़कर।
जमींदार ग्रहराज चौधरी।
मात्र उसी गाँव के नहीं, आस-पास के दस-बीस गाँवों के-उस इलाके के गरीब-गुरबा, मेहनत-मजूरी करने वालों के ग्रह, कालग्रह थे।
कहते हैं राजा-महाराजा, जमींदारों के प्रताप से बड़े-बड़ों के होश ठिकाने आ जाते हैं। ग्रहराज चौधरी अगर आकाश में भागते मेघ को देख लें, थम जाएगा, सारा पानी बरसकर निचुड़ जाएगा। आँख दिखा दें तो काला स्याह बादल हँसती तड़ितलता में घबराकर मुँह छिपा ले। धरती पर घबराकर वज्र भी खिसक जाए।
उस गाँव का क्या नाम-पता बताया जाए ? ग्रहराज चौधरी के बेटे-पोते, पड़पोते आज हमारे राज्य में किसी गाँव में किसी भी शहर में मिल जाएँगे। कपूर उड़ गया, बचे रूमाल का प्रताप भी तो कम नहीं। क्यों न हो, महाप्रतापी जमींदार चौधरी ग्रहराज के वंशधर जो ठहरे ! ब्रिटिश राजाओं की छत्र-छाया न रही तो क्या हुआ, गणतन्त्र के राजा-महराजाओं की छत्र-छाया में वह उस कपूर की महक भरे रूमाल में बँधा है।
ग्रहराज और दिग्दर्शी के बीच घोर विरोध है। आचार्य दिग्दर्शी तो चौधरी जी की जमींदारी की कोई प्रजा नहीं हैं, न उनकी जागीर पर जीवित हैं। कोई घर-बार भी तो नहीं उनका। निरासक्त योगी जो ठहरे ! दो दिन यहाँ, चार दिन वहाँ। और फिर चल दिये दूसरे गाँव-पदयात्रा जारी है-इस राज्य से उस राज्य। हिमालय से कन्याकुमारी तक फिरते ही रहते हैं।
जमींदार ग्रहराज चौधरी ! अँग्रेजों के जमाने में थे उनके ताबेदार राजभक्त जमींदार और आचार्य दिग्दर्शी ठहरे संन्यासी-अनगिनत हृदयों के अप्रतिद्वन्द्वी सम्राट्। गरीब-गुरबा लोग ही जानते हैं उन्हें। अँग्रेजों के बीच उनका नाम क्यों जाता ?
मगर वे संन्यासी ही होते तो बात और थी। एक और ही धुन सवार थी सिर पर-चैन न था-सुराजियों के गीत गाया करते।
बस यहीं थी गड़बड़। सुराजी और ग्रहराज-एक साथ कैसे मिल पाते ? सुराजियों के पीछे थे लोग-बाग और एक महान जाति का भविष्य जुड़ा था उनके साथ। वे अब विदेशी शासन का दर्द महसूसने लगे थे। और ग्रहराज के पीछे थी जमींदारी-पारिवारिक हजारेदारी और इसके लिए वे अँग्रेजों के मुखातिब थे।
ऐसे में ग्रहराज सुराज को कैसे प्रश्रय देते ?
दिग्दर्शी थे वैसे पूरे संन्यासी-अहिंसाव्रती। गाँधी जी कहा करते थे, अन्याय का प्रतिरोध करेंगे, न्यायपूर्ण माँगों के लिए एक होना है, हमें मजबूत बनना है। इस दृष्टि से दिग्दर्शी को गाँधीवाणी का प्रचारक कहा जाता था। गीता पर प्रवचन करते-करते वे गाँधी, विवेकानन्द, अरविन्द-दर्शन तक पहुँच जाते। महाभारत के भगवान श्रीकृष्ण ने अन्याय का विरोध कर न्याय पाने के लिए युद्ध का आह्वान किया था। अर्जुन को मोहग्रस्त हालत से उबारा था और यह युद्ध चाहे अहिंसा का हो, गाँधी जी ने अहिंसा आन्दोलन चला रखा है। वर्षों की पराधीनता के कारण हीन-भाव एवं जड़ग्रस्त जनता के मन में महाभारतीय चेतना जगाने के लिए गाँधी जी ने अहिंसा-आन्दोलन छेड़ रखा है। श्रीकृष्ण उवाच से शुरू कर गाँधी उवाच तक इतनी सुन्दरता से पहुँच जाते...पता नहीं चलता यह व्यक्ति कोई संन्यासी है या सैनिक ! ईश्वरभक्त है या देशभक्त ! लोग चकित देखते रह जाते।
दिग्दर्शी तो हँसते-हँसते बोलते-ईश्वर और देश एक हैं, अभिन्न हैं। कोई नास्तिक बनकर कभी देशप्रेमी नहीं हो सकता प्रेम से यह जगत् पैदा हुआ है। आत्मा-परमात्मा के प्रेम में ही यह जगत् बँधा है। ईश्वर ने जन्म दिया है, देश ने गोद ले लिया, पिण्ड बनाया और मरने तक पालन-पोषण किया। एक ने जन्म दिया, एक ने प्राणों को पोषण दिया और बढ़ाया। बड़ा कौन, छोटा कौन ? कौन किससे अलग है ? देश को ईश्वर की जगह रखो। बस तुम सबसे बड़े देशभक्त होगे !
श्रीकृष्ण और राम, कुरुक्षेत्र, राम-रावण युद्ध। और इसी पंक्ति में तो आते हैं, अरविन्द, विवेकानन्द गाँधी और भगिनी निवेदिता, राममोहन, महामना, तिलक।
क्रान्ति ! क्रान्ति का आवाहन करते दिग्दर्शी।
जनता मुग्ध होकर सुनती। आँखों पर से पट्टी उतर जाती। चेतना के अन्धे कुएँ में मशाल जल उठती। कानों में झंकार गूँजती-क्रान्ति....स्वराज...स्वराज्य..
ग्रहराज की आँखें लाल हो जातीं। क्रोध में सारी देह झनझना उठती। मगर वे निरुपाय हैं। गुप्त खबर पाकर पुलिस वाले आते तो देखते-जटा-जूटधारी, प्रशान्त वदन, सौम्य रूप, ब्रह्मचारी गीता का दर्शन बखान रहे हैं। निष्काम कर्मयोग की बातें सुनकर खुफिया पुलिस वाले भी भुला बैठते अपना कर्तव्य।
फिर शुरू होती दिग्दर्शी की पदयात्रा। तब उनका कहीं पता भी नहीं मिलता। यायावर का भी कोई पता-ठिकाना होता है ? गाँववालों से पुलिसवाले पूछते पता। वे अन्दर टटोलते। वहीं दिग्दर्शी इसी तरह स्वराज की वार्ता लिये गाँव-गाँव घूमते रहते।
अन्धकार और घना हो जाता। ग्रहराज और भी खूँखार बनकर गरजते, गाँववाले लरजते, सिहरते। उन कठोर आदेशों, हुक्मरानों के आगे घिग्गी बँध जाती। उनकी जमींदारी की सीमा-सरहद में दिग्दर्शी का नाम तक लेना भी वर्जित था। जमींदार का इशारा न समझे, ऐसा छाती का पूरा कौन होता ?
दासता और शासन-दोनों के बीच एक समझबूझ की स्थिति होती है-स्वाधीनता ! मुक्ति !
आदमी ने धरती पर पाँव रखे थे-मुक्त रूप में। आकाश की तरह, हवा की तरह, जनम-मरण की तरह मुक्त थी उसकी जीवनधारा। आदमी नाम का श्रेष्ठ जीव-क्योंकि उसके विचार उन्नत हैं, बुद्धि दीप्त है, वह चिन्तनशील है। एक दिन अपनी सुविधा के लिए समाज बनाया था उसने। और समाज के लिए बनाया अनुशासन-अपना बनाया अनुशासन-मानने लगा, अपने पैरों में अपनी बनायी बेड़ियाँ। आप ही आप का दास बन गया।
यायावर से बन गया कृषिजीवी। कृषि से स्थायी सम्पत्ति की सृष्टि-स्थायी जीवन से बना समाज-सामाजिक जीवन में कृषि उत्पादन और जरूरतों की कमी-बढ़त के मुताबिक छुपे आदमी के अभाव, अभावों से पैदा हुई सम्पत्ति जमा करने की आकांक्षा, लोभ, दूसरों की सम्पत्ति हजम करने की इच्छा, जबरन दखल के लिए हिंसक कदम उठाये।
जोर जिसका, मुलक उसका। इसी से बना वर्ग, समाज, समाजपति, धनी-दरिद्र का अन्तर-घर्षण-आदमी-आदमी में अन्तर। कोई भूमि का मालिक, कोई सर्वहारा, निःस्व। एक अमीर, एक गरीब। सम्पत्ति और अन्याय से दूसरों के परिश्रम से कमाये धन को दखल करने के कारण एक आदमी दूसरे के आगे दासता स्वीकार करने लगा।
कृषि से व्यवसाय-व्यवसाय से देश-विदेश की यात्रा, उन देशों की फायदा उठाने की कोशिश। कोशिश में लूटने की भावना। उसी में आये पुर्तगीज, मुगल, मराठे और अन्त में अंग्रेज। व्यवसाय-कौशल से राज्य-विस्तार, लूट, शोषण, पीड़न अत्याचार। एक व्यावसायिक जाति के आगे एक और महान जाति बनी पराधीन। अपने देश में लोग बने प्रजा, दास, नौकर।
मुक्त आदमी अपने आगे, अपनी कामना-वासना-लोभ-मोह के आगे, अपनी कल्पना के भूसंस्कारों, अन्धविश्वासों और समाजपतियों की शक्ति के आगे, विदेशी लुटेरों की कूटनीति के आगे कई तरह से, कई स्तर पर बन गया पराधीन, गुलाम।
पराधीनता आदमी के जीवन की सबसे अधिक अवांछित स्थिति होती है-दासता सबसे बड़ा शाप। स्वाधीनता गँवाने पर आदमी अपनी सूक्ष्म मानवीय तत्त्व-प्रवृत्ति खो बैठता है। पर जो स्वाधीनता का अर्थ नहीं जानता, जो दास बन जाता है, उसकी सूक्ष्म मानवीय प्रवृत्तियाँ जागरित होने की कोई गुंजाइश नहीं रहती। जो राजा, प्रभु, मालिक बन जाता है, उसकी मानवीय प्रवृत्ति लुप्त-ध्वंस हो जाती है।
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