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पाकिस्तान में युद्धकैद के वे दिन

अरुण वाजपेयी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7095
आईएसबीएन :81-8361-027-7

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लेखक के साथ घटित सच्ची घटना पर आधारित....

Pakistan Mein Yudhkaid Ke Ve Din - A Hindi Book - by Brigadier Arun Vajpayee

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘पाकिस्तान में युद्ध कैद के वे दिन’ लेखक के साथ घटित सच्ची घटना पर आधारित किताब है। घटना को लगभग 39 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन लेखक ने स्मृतियों के सहारे इस पुस्तक को लिखते हुए उन त्रासद क्षणों को एक बार पुनः जिया है और पूरी संजीदगी के साथ अपने तल्ख़ अनुभवों का जीवंत चित्रण किया है।
1965 के भारत-पाक युद्ध में लेखक पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में सीमा रेखा के 35 किलोमीटर भीतर युद्ध कैदी बने और भारतीय सेना के दस्तावेजों में लगभग एक वर्ष तक लापता ही घोषित रहे। एक दुश्मन देश में एक वर्ष की अवधि युद्ध कैदी के रूप में बिताना कितना त्रासद और साहसिक कार्य था तथा वहाँ उन्हें किन-किन समस्याओं से रू-ब-रू होना पड़ा, इन सबकी तल्ख़ जानकारी इस किताब में पाठकों को मिलेगी।
यह किताब संशय और आशंकाओं से शुरू होती है तथा उम्मीद और आस्था की ओर बढ़ती है जो पाठकों को बेहद रोमांचित करेगी।

समर्पित

अपने बड़े बेटे ‘अनुराग’ जो आज विदेश में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्च अधिकारी हैं, छोटे बेटे ‘अभिमन्यु’ जोकि अपने पिता के ही पदचिह्नों पर चल रहे हैं और ‘भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून’ में अफसर बनने का प्रशिक्षण ले रहे हैं, मेरी प्यारी बेटियाँ ‘निशु’ और ‘प्रिया’ एवं मेरे भारतीय सेना के उन साथियों को जो आज अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए तन-मन-धन से संलग्न हैं या थे।

लेखक की कलम से

मुझे अब भरोसा हो गया है कि ऊपरवाले ने जब मेरी किस्मत गढ़ी थी तो उसमें हर घटना के आकस्मिक और अप्रत्याशित होने का प्रावधान भी शामिल कर दिया था। पढ़ने गया था इंजीनियरिंग, बन गया भारतीय सेना का अफसर। अपने सैन्य सेवाकाल में स्नातक और प्रबंधन की मास्टर ऑफ मैनेजमेंट (एम०एम०एस०) की डिग्री हासिल की ताकि सेवानिवृत्ति होने के बाद नागरिक प्रबंधन क्षेत्र में कोई पद पकड़ूँगा, लेकिन बन गया पत्रकार। यही नहीं, पिछले पाँच वर्षों में ‘बृहज्जातक’, ‘सरावली’, ‘फलदीपिका’, ‘पाराशरी’ जैसे भारतीय ज्योतिषशास्त्री के सारे प्राचीन ग्रंथ पढ़ डाले और आज अपने आसपास के काफी बड़े इलाके में ‘अंकलजी’ के नाम से ज्योतिषाचार्य भी बन गया हूँ।
पुस्तक लिखने की अभिलाषा तो मेरे अंतःकरण में वर्षों से थी पर पत्रकारिता की व्यस्तता की वजह से समय का अभाव था। हर बार जब पुस्तक लिखने की इच्छा हावी होती थी तो यही विचार आता था कि इतनी मेहनत के बाद हिन्दी मीडिया में अपना स्थान बनाया है, अब अगर किताब लिखने बैठ गया तो फिर इसका ह्रास होगा। अगर मैं मीडिया परिभ्रमण से बाहर हुआ तो समय किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता है।
 
18 अप्रैल, 2003 को तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी के पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाने के बाद ये खबरें एक बार फिर सुर्खियों में आई हैं कि आज भी 70 ऐसे भारतीय परिवार हैं जिनके परिजन 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध से भारतीय सेना के दस्तावेजों में लापता चल रहे हैं, पर असल में वे पाकिस्तान की कैद में हैं। 7 जनवरी, 2004 के ‘हिन्दू’ में प्रकाशित लेख ‘ए वायस ऑफ होप आफ्टर 33 इयर्स’ इसी बात की पुष्टि करती है।

मेरे साथ भी 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में ऐसी ही घटना घटी थी। मैं पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में 35 कि०मी० अन्दर घायल अवस्था में युद्धकैदी बना था। मेरे समेत भारतीय सेना के 12 अफ़सरों और 40 जवानों को, जो पाकिस्तान में युद्धकैदी थे, ‘पेशावर’ शहर के पास ‘कोहट’ युद्धबंदी कैम्प में भारतीय सेना से छिपा लिया था। हम लोग भारतीय सेना के दस्तावेजों के करीब एक वर्ष तक लापता ही चलते रहे थे। हम लोग भारत भी वापस अकस्मात् रूप से ही आए।
हाल ही इन खबरों को पढ़कर 70 भारतीय सैनिकों के परिवारों पर क्या बीत रही होगी, यह सोचकर मुझे अपने ऊपर घटित इन घटनाओं का खुलासा करने की इच्छा हुई और उन वीर भारतीय सैनिक परिवारों को भरोसा दिलाने की, कि वे हिम्मत न हारें। अगर ईश्वर ने चाहा तो सब ठीक हो जाएगा।

मैंने एक दिन ऐसे ही भारत के प्रसिद्ध प्रकाशन संस्था ‘राजकमल प्रकाशन’ को अपनी किताब के प्रकाशन की इच्छा जाहिर की। उनका तुरंत जवाब आ गया कि वह इस पुस्तक के प्रकाशन के इच्छुक हैं और मैंने यह किताब शीघ्र ही प्रकाशन हेतु भेज दी।
मेरी यह किताब मेरे ऊपर घटित एक सच्ची घटना पर आधारित है। आज इस घटना को घटे 39 वर्ष हो चुके हैं और बहुत-सी घटनाओं की यादें समय के परिदृश्य में धूमिल हो गई हैं, पर मैंने अपने लेखन में पूरी कोशिश की है कि यथार्थ पर ही केन्द्रित रहूँ। मैं यहाँ यह भी उल्लेख करना चाहूँगा कि इस कहानी में कहानी के तत्कालीन किरदार, जिनके बारे में मैंने अगर जाने अनजाने में कुछ ऐसा कह दिया हो जो उन्हें अच्छा नहीं लगे, तो मैं उसके लिए उनसे माफी माँगता हूँ।
मैं अपनी माताजी श्रीमती गिरिजा वाजपेयी, एम०ए०, साहित्यरत्न का विशेष रूप से आभारी हूँ, जिन्होंने मुझे इस बात को लिखने के लिए प्रोत्साहित तो किया ही, ‘प्रूफ रीडिंग’ के साथ ही जगह-जगह पर मार्ग दर्शन भी किया है। मैं अपने साथी सूबेदार डी.एस.टी. बिष्ट की पुत्री कुमारी गीता बिष्ट का भी आभारी हूँ कि उन्होंने समय निकालकर इस किताब को कम्प्यूटर पर पूरा टाइप किया और टाइपिंग की सारी गलतियाँ भी सही कीं।

                                         -अरुण वाजपेयी

भारत माँ की पुकार


समयचक्र जनवरी, 1963 का था। जिस भारतीय सेना ने ब्रिटेन को द्वितीय महायुद्ध में विजय दिलाई थी, द्वितीय महायुद्ध में जिस भारतीय सेना की वीरगाथाओं और शौर्य के चर्चे बर्मा, अफ्रीका और इटली में प्रसिद्ध थे, वही भारतीय सेना स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद पहली बार चीनी सेना से हिमालय की दुर्गम पहाड़ियों में पराजित हो चुकी थी। आम भारतीयों को विश्वास नहीं हो रहा था कि अपने युद्धकौशल और वीरता के लिए प्रसिद्ध भारतीय सेना पराजित भी हो सकती है। स्वयं भारतीय सेना स्तब्ध थी। उधर शीर्ष भारतीय राजनेता विलाप कर रहे थे कि अगर वे ‘अहिंसा परमोधर्म:’ तथा ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ के दिवास्वप्न नहीं देख रहे होते और भारत के सामरिक क्षेत्र तथा भारतीय सेना के रखरखाव की जरूरतों की तरफ उदासीन नहीं होते, तो आज भारत को इस शर्मनाक हार का सामना नहीं करना पड़ता।

अपनी गलती का एहसास करते हुए भारत सरकार ने युद्ध स्तर पर भारतीय सैन्य तंत्र के आधुनिकीकरण का निश्चय कर लिया था। भारतीय सेना की नफरी दुगुनी करने का ऐलान कर दिया गया था। भारतीय सेना में अफसरों की कमी को पूरी करने के लिए भारत सरकार ने ‘इमर्जेंसी कमीशन’ की प्रणाली लागू कर दी थी। इस प्रणाली के तहत बजाय दो वर्षों के सैन्य प्रशिक्षण के, सात महीनों की ट्रेनिंग के बाद ही प्रशिक्षु सेना में अफसर बन सकता था। उसको बाकी सैन्य प्रशिक्षण भारतीय सेना में कमीशन होने के बाद जमीनी काम करते हुए दिया जाना था।

अपनी माँ की रक्षा के लिए भारत की जनता ही पगला गई हो ! चाहे वह बूढ़ा हो या जवान, चाहे वह सरकारी कर्मचारी हो, छात्र हो, मजदूर हो या किसान-सेना की भर्ती के दफ्तरों में लगी लम्बी कतारें कभी खत्म ही नहीं होती थीं। पूरे भारत में सैन्य सेवा का उन्माद फैल गया था। सबके मुँह में चीन का सबक सिखाने का नारा था।
मैं इस समय जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में इंजीनियरिंग का छात्र था। मेरे पिता श्री मारर्कण्डेय वाजपेयी मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले के जिला तथा सत्र न्यायाधीश थे। हमारा इंजीनियरिंग कॉलेज भी देश-रक्षा की भावना के सैलाब में पीछे नहीं था। एक दिन मैंने और मेरे कई साथियों ने बिना अपने माता-पिता को बताए भारतीय सेना में अफसर बनने के लिए इमजेंसी कमीशन का फार्म भर दिया।

आश्चर्यों में आश्चर्य, हम सबका बुलावा जबलपुर में ही स्थित सेना के ‘सर्विसेज सिलेक्शन बोर्ड’ से आ गया। करीब सात दिनों तक यहाँ पर हमारे इंटेलिजेंस टेस्ट, ग्रुप टेस्ट आदि अलग-अलग टेस्ट लिए गए। इसके बाद 72 प्रत्याशियों में से मुझे और मेरे एक मित्र को चुन लिया गया। जब यह बात घरवालों को पता लगी तो हंगामा मच गया। सबका यही कहना था कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़कर भारतीय सेना के इमजेंसी कमीशन में भर्ती होना कहाँ की अक्लमंदी है ! क्या गारंटी है कि पाँच वर्षों की सैन्य सेवा के बाद मुझे सेना में स्थायी कमीशन मिल ही जाएगा ? अगर नहीं मिला तो फिर मैं न तो घर का रहूँगा और न ही घाट का।

घरवालों का कथन भी अपनी-अपनी जगह सौ फीसदी सही थी, पर भला मैं कहाँ सुननेवाला मेरी इस नादानी के खिलाफ मेरी माताजी थीं क्योंकि उनके सगे बडे़ भाई मेज़र योगेश तिवारी द्वितीय महायुद्ध में बर्मा में युद्ध के दौरान लापता हुए, उनकी आज तक कोई खोज-खबर नहीं मिली थी। जब मेरे पिताजी ने देखा कि मेरा मन भारतीय सेना में जाने का बन चुका है तो फिर उन्होंने मुझे आज्ञा दे दी।

मैं अपने सैन्य प्रशिक्षण के लिए भारतीय सेना की देहरादून स्थित विश्वप्रसिद्ध ‘इंडियन मिलिटरी अकादमी, देहरादून’ में पहुँच गया। सात महीने का सैन्य प्रशिक्षण का समय कैसे गुजर गया, पता ही नहीं चला। वर्ष 1964 के शुरू होने के साथ ही मेरा कमीशन सेकेंड लेफ्टिनेंट की रैंक में भारतीय सेना की सबसे पुरानी और सबसे प्रसिद्ध पैदल सेना की रेजिमेंटों में से एक , ‘मराठा लाइट इन्फैंट्री’ में हो गया। इस रेजिमेंट की 205 वर्ष पुरानी तथा 1921 में मेसोपोटामिया में ‘कुतल मारा’ दुर्ग की लड़ाई में अपनी शूरवीरता के लिए ‘रॉयल’ की उपाधि प्राप्त बटालियन ‘5 मराठा लाइट इन्फैंट्री (रॉयल)’ में मैंने अपनी हाजिरी लगा दी।

मेरी यह बटालियन 1962 में चीन के साथ युद्ध शुरू होने के समय से ही चीन के खिलाफ मोर्चे पर लगा दी गई थी। जब मैं अपनी पलटन में पहुँचा तो वह अरुणाचल प्रदेश (उस समय के नॉर्थ-ईस्ट फ्रण्टियर एजेंसी) के शहर ‘बोमडीला’ के आसपास की 9,000 फीट से 11,000 फीट ऊँची दुर्गम पहाड़ियों पर चीन के खिलाफ मोर्चा सँभाले हुए थी।
चीनी सेना वापस जा चुकी थी पर भारतीय सेना के अग्रिम मोर्चे बोमडीला की सुरक्षा को लेकर लगाए गए थे। पूरी बटालियन और उसके बड़े हथियार खाई-खन्दकों और पहाड़ों को काटकर बनाए गए बंकरों में लगे थे और वहीं पर हम सब रहते भी थे।

बटालियन में पहुँचने के साथ मुझे बटालियन की चार्ली कम्पनी की 4 प्लाटून का कमाण्डर बना दिया गया। इस प्लाटून के एक जूनियर कमीशन (जे०सी०ओ०), 12 नॉन कमीशन अफसर (एन०सी०ओ०) और करीब 36 जवान पूरी तरह मेरे नीचे थे। मेरे कम्पनी कमाण्डर मेजर पी०के० चटर्जी थे जो अपने आप में एक बहुत जिन्दादिल इनसान थे। मुझे जमीनी सैन्य शिक्षा देने की पूरी जिम्मेवारी उन्हीं की थी।

मेरे लिए एक अलौकिक अनुभव था। अभी कुछ ही दिनों पहले तक मैं स्वच्छन्द छात्र था जिस पर कोई भी जिम्मेवारी नहीं थी। जो मर्जी करो, कोई रोकने-टोकनेवाला नहीं था। अब मैं एक भारतीय सेना की छोटी-सी टुकड़ी का कमाण्डर था।
भारतीय सेना में अफसर अपना उदाहरण सामने रखता है जिसका जवान अनुसरण करते हैं। अफसरों और जवानों के बीच जो भाईचारा, आपसी प्यार, इज्जत और नजदीकी होती है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। मेरे लिए यह एक अलग ही दुनिया थी। हम सब सुबह चार बजे उठ जाते थे। सुबह पाँच बजे से शारीरिक कसरतों के साथ हमारी सैन्य शिक्षा शुरू हो जाती थी। पूरा दिन मैं और मेरा प्लाटून बाहर ट्रेनिंग पर रहता था।

 

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