उपन्यास >> भद्रशालिनी भद्रशालिनीभगवती प्रसाद वाजपेयी
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भद्रशालिनी - राजगृह की नगरवधू
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हिन्दी साहित्य में 'वैशाली की नगरवधू' और 'खजुराहो की नगरवधू' काफी चर्चित हुई हैं। नगरवधुओं की परम्परा में, 'भद्रशालिनी - राजगृह की नगरवधू' उक्त दोनों कृतियों से कुछ हटकर है।
यह एक ऐसा मगधकालीन उपन्यास है, जिसके कथावस्तु के अनेक सूत्र इतिहास के अज्ञात पृष्ठों में प्रच्छिन्न पड़े हुए हैं।
हमारा प्राचीन भारतीय इतिहास अपने बहुचर्चित सम्राटों के असाधारण शौर्य, अद्भुत रणकौशल और कुशल कूटनीति के ज्वलन्त दृष्टान्तों से प्रकाशमान है। साथ ही में उनकी मार्मिक एवं महत्वपूर्ण प्रणय-कथाएं उन्हीं पृष्ठों में इधर-उधर बिखरी दृष्टिगोचर होती हैं।
प्रस्तुत उपन्यास एक ऐतिहासिक उपन्यास है। यह कृति मगध राज्य के सुविख्यात वैद्य जीवक की माता 'भद्रशालिनी' के विविध क्रियाकलापों को उजागर करती है। 'भद्रशालिनी' का पूर्व नाम शालवती था। वह एक नगरवधू थी, किन्तु मगध नरेश के प्रणयपाश में बंधकर वह राजमहिषी बनी।
राजमहिषी बनकर मगध नरेश बिम्बसार के प्रशासनिक कार्यों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, युद्ध और शान्ति के कार्यों में उनकी सहयोगिनी रही। उस समय भारत के एक समृद्धशाली राज्य में किस प्रकार की कूटनीतिक चालें चली जा रही थीं, अन्तःपुर की विलास-लीलाओं से किस प्रकार जन-जीवन प्रभावित होता था; राज्यों के उत्थान-पतन में नगरवधुओं का कितना योगदान रहता था - इन सब विषयों पर लेखक की सूक्ष्म दृष्टि पड़ी है।
भाषा-शैली विषयानुकूल, पात्रानुकूल, संस्कृतनिष्ठ, परिमार्जित, सरस तथा प्रवाहमयी है। प्राकृतिक दृश्यों के चित्रण मोहक एवं प्रभावशाली बन पड़े हैं।
उपन्यास विवरणात्मक है - इसमें सृजनात्मकता का अभाव है। देश-प्रेम व राष्ट्र-प्रेम का कोई प्रेरणादायक संदेश भी नहीं है। फिर भी एक नगर की शोभिनी का राजमहिषी होकर मगध सम्राट बिम्बसार के साहस, रण-कौशल और अन्तर्राज्यीय कूटनीति के संचालन के साथ उसकी प्रणय-गाथा का विवरण रोचक एवं पठनीय है।...
यह एक ऐसा मगधकालीन उपन्यास है, जिसके कथावस्तु के अनेक सूत्र इतिहास के अज्ञात पृष्ठों में प्रच्छिन्न पड़े हुए हैं।
हमारा प्राचीन भारतीय इतिहास अपने बहुचर्चित सम्राटों के असाधारण शौर्य, अद्भुत रणकौशल और कुशल कूटनीति के ज्वलन्त दृष्टान्तों से प्रकाशमान है। साथ ही में उनकी मार्मिक एवं महत्वपूर्ण प्रणय-कथाएं उन्हीं पृष्ठों में इधर-उधर बिखरी दृष्टिगोचर होती हैं।
प्रस्तुत उपन्यास एक ऐतिहासिक उपन्यास है। यह कृति मगध राज्य के सुविख्यात वैद्य जीवक की माता 'भद्रशालिनी' के विविध क्रियाकलापों को उजागर करती है। 'भद्रशालिनी' का पूर्व नाम शालवती था। वह एक नगरवधू थी, किन्तु मगध नरेश के प्रणयपाश में बंधकर वह राजमहिषी बनी।
राजमहिषी बनकर मगध नरेश बिम्बसार के प्रशासनिक कार्यों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, युद्ध और शान्ति के कार्यों में उनकी सहयोगिनी रही। उस समय भारत के एक समृद्धशाली राज्य में किस प्रकार की कूटनीतिक चालें चली जा रही थीं, अन्तःपुर की विलास-लीलाओं से किस प्रकार जन-जीवन प्रभावित होता था; राज्यों के उत्थान-पतन में नगरवधुओं का कितना योगदान रहता था - इन सब विषयों पर लेखक की सूक्ष्म दृष्टि पड़ी है।
भाषा-शैली विषयानुकूल, पात्रानुकूल, संस्कृतनिष्ठ, परिमार्जित, सरस तथा प्रवाहमयी है। प्राकृतिक दृश्यों के चित्रण मोहक एवं प्रभावशाली बन पड़े हैं।
उपन्यास विवरणात्मक है - इसमें सृजनात्मकता का अभाव है। देश-प्रेम व राष्ट्र-प्रेम का कोई प्रेरणादायक संदेश भी नहीं है। फिर भी एक नगर की शोभिनी का राजमहिषी होकर मगध सम्राट बिम्बसार के साहस, रण-कौशल और अन्तर्राज्यीय कूटनीति के संचालन के साथ उसकी प्रणय-गाथा का विवरण रोचक एवं पठनीय है।...
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