कहानी संग्रह >> वापसी के नाखून वापसी के नाखूननरेन्द्र नागदेव
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स्नेहिल मानवीय सम्बन्धों पर हावी होते निर्मम भौतिकवाद और इस टकराहट से उत्पन्न धीमी आवाज में झुलसती संवेदनाओं की कहानियाँ....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘वापसी के नाखून’ हिन्दी के एक विशिष्ट और प्रतिष्ठित कथाकार
नरेन्द्र नागदेव की बहुचर्चित बारह कहानियों का संकलन है। ये कहानियाँ
मूल्य-विघटन के इस दौर में, स्नेहिल मानवीय सम्बन्धों पर हावी होते निर्मम
भौतिकतावाद और इस टकराहट से उत्पन्न धीमी आँच में झुलसती संवेदनाओं की
कहानियाँ हैं। नरेन्द्र नागदेव की कहानियों के पात्र दो धरातलों पर एक साथ
संघर्षरत दिखते हैं-एक तरफ अपने और अपने बीच तथा दूसरी तरफ अपने और बाहरी
परिवेश के बीच। सही अर्थों में आधुनिक मनुष्य की यही नियति है।
‘वापसी के नाखून’ की कहानियों में कथ्य का सुनियोजित
संयोजन
है-सम्भवतः कथाकार के वास्तुशिल्पी होने के प्रभाव में। प्रस्तुतीकरण में
अतियथार्थवादी बिम्बों को भी हम सर्वत्र देख पाते हैं। ये दरअसल उत्तर
आधुनिकता के अक्स हैं, जो इन कहानियों को नया सन्दर्भ देते हैं। इस संग्रह
में संकलित सभी कहानियों की विशेषता यह है कि ये कहानियाँ निरन्तर झूलती
सी चलती हैं-वर्तमान और अतीत के बीच, कल्पना और यथार्थ के बीच, सही और गलत
के बीच, बनते और बिगडते संबन्धों के बीच अपनी सहज आत्मीयता, संवेदनशीलता
तथा स्मृति-सम्पन्नता के साथ।
चाबुक
शहर के प्रसिद्ध मनश्चिकित्सक का केबिन था वह। उनके व्यक्तित्व और ख्याति
के अनुरूप ही भव्य। विक्टोरियन डिजाइन वाली उनकी मेज असाधारण रूप से बड़ी
थी, जिसके पीछे वे शानदार, घूमती हुई कुर्सी पर बैठे, एकटक मुझे देख रहे
थे। पीछे दीवार पर दो तस्वीरें लगी थी। एक वह, जिसमें डिग्री लेते हुए
स्नातकों का ग्रुप-फोटो था—काला गाउन पहने हुए, दूसरी वह,
जिसमें वे
किसी बड़े आदमी से कोई पुरस्कार ले रहे थे। दोनों चित्रों के बीच सुनहरी
फ्रेमों में जड़ी कुछ सूक्तियाँ थीं—मन को स्वस्थ रखने के
नुस्खे।
....‘‘सर, मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ। क्योंकि मेरा स्पष्ट मत है कि मन कभी स्वस्थ रह ही नहीं सकता।....मेरा मतलब है कि जो लगातार स्वस्थ रहे, वह मन हो ही नहीं सकता है।...क्या आप मुझे समझ रहे हैं ? अर्थात् मन की स्वाभाविक अवस्था उसकी अस्वस्थ अवस्था ही है। .....दूसरे शब्दों में, अस्वस्थ मन ही एक स्वस्थ मन होता है।’’...
उनका चश्मा नाक पर थोड़ा नीचे खिसक आया था। वे अपनी अनुभवी आँखों से मुझे गहराई से तोल रहे थे। फिर फोन की घण्टी बजने लगी और वे किसी लम्बे वार्तालाप में डूब गये। मैं खिड़की से बाहर देखने लगा।
नीचे चौक पर शाम उतर रही थी। अपने अथाह सिन्दूरी सौन्दर्य के साथ। पर उसके साथ एकात्मकता तो इसीलिए महसूस होती है ना कि उसमें किसी एक प्रक्रिया के खत्म हो जाने की सूचना होती है।...कुछ बीत जाने का एहसास।...कुछ बीतते चले जाने के पारदर्शी अवसाद।...
‘‘सर....मेरा मतलब है...जिन्दगी ऐसे ही बीत जाती है ना ? बिना कुछ किए ? दरअसल, जिन्दगी को आखिर कैसे साधा जाए, कैसे जिया जाए, ये प्रयोग करने में ही जिन्दगी गुजर भी जाती है। जी तो हम उसे पाते ही नहीं।...कुल मिलाकर सर, जिन्दगी को नहीं जी पाना ही उसे जीने का सबसे स्वाभाविक रूप होता है ना ?
शायद उनके पास वक्त कम था। मैं अब स्पष्ट देख रहा था कि वे खीझने लगे थे, ‘साफ बताओ, तुम्हारी समस्या क्या है ?’’—वे गरजे।
मैं भी झटके से अपनी बात पर आ गया, ‘‘लेकिन मैं जीना चाहता हूँ सर ! बल्कि दोनों जिन्दगियाँ जीना चाहता हूँ। एक यह घिसटती हुई जिन्दगी, जिसे जीने के लिए मैं बाध्य हूँ। और दूसरी वह शानदार जिन्दगी भी, जिसे मैं दूर बैठकर हसरत से ताकता हूँ, लेकिन छू नहीं पाता। दोनों...दोनों जिन्दगियाँ...।’’
उत्तेजना में मैं हाँफने लगा था, ‘‘....सर, मैं यहाँ इसीलिए आया था। दरअसल, मैं एक ‘स्प्लिट पर्सनॉलिटी’ बनना चाहता हूँ।...एक शानदार स्प्लिट पर्सनॉलिटी ! मेरी बड़ी आकांक्षा है सर।...’’
उनके चेहरे पर उभरती हैरत देखकर मुझे अच्छा लगा था।
हालाँकि मैं कह नहीं सकता कि उन्हें भीतर-ही-भीतर बहुत गुस्सा आया होगा या नहीं। लेकिन वे कुर्सी छोड़कर खड़े हो गए और कमरे में तेजी से इधर से उधर चक्कर काटने लगे।
मैं अपनी बात कह चुकने के बाद अधिक हल्का, अधिक आश्वस्त महसूस कर रहा था।
....‘सर, मैं तो पहले ही जानता था कि आपकी प्रक्रिया ऐसी ही होगी।’’—मैंने बात आगे बढ़ाने की कोशिश की।
वे गुर्राते हुए, मेरे बिलकुल ऊपर झुक आए और गरजने लगे कि कैसे-कैसे लोग चले आते हैं समय बर्बाद करने।
थोड़ा मुझे बुरा भी लगा, ‘‘सर...प्लीज...आप मुझे समझने की कोशिश करें। अब देखिए, होता तो यही है ना कि किसी के अवचेतन में कोई घटना कहीं गहरे पैठ जाती है। है ना ?...यानी वह व्यक्ति उस घटना को भूल भी चुका होता है। लेकिन वर्षों बाद, उस घटना से सम्बन्धित कोई रंग देखकर अथवा कोई आवाज सुनकर, उसका अवचेतन इतने सघन रूप से आन्दोलित हो उठता है कि उसका पूरा व्यक्तित्व ही बदल जाता है...वह एक दूसरी शख्सियत बन जाता है।...बिलकुल दूसरी तरह से सोचता हुआ और जीता हुआ आदमी। होता तो यही है ना सर ?’’...
वे पाइप का एक गहरा कश लेकर फिर उसी कुर्सी पर बैठ गये। ऐसा लगा जैसे मुझे समझाने की कोशिश में हैं, ‘‘...ठीक है। फिर ?...तुम्हारे मन से टकराती है कोई ऐसी आवाज ?’’
‘‘है न सर...टकराती है एक आवाज। वह चाबुक मारने की आवाज है—सटाक् ! सटाक् !!...लेकिन वह मेरे चेतन में है। वह मुझे आंदोलित भी करती हैं। लेकिन मैं क्या करूँ ? वह मेरे अवचेतन तक पैठकर उसे इतना झकझोरती ही नहीं कि मुझे दूसरे व्यक्तित्व में बदल दे।’’ मेरी आवाज स्पष्टतः काँपने लगी थी।
‘‘अच्छा ? वह आवाज सुनकर तुम्हें कैसा लगता है ?’’
‘‘धड़कन तेज हो जाती है सर। और नसों में खून अन्धाधुन्ध दौड़ने लगता है—दिल के नियन्त्रण से परे !’’
‘‘हाँ...बताते जाओ।’’
‘‘और लगता है जैसे देह भी अपने-आप को स्वयं ही संचालित करने की कोशिश कर रही हो, उच्छृंखल होकर-मस्तिष्क के नियन्त्रण से परे।’’
‘‘हाथ-पैरों के तलों में झनझनाहट होती है ?’’
‘‘वैसा तो होता ही है सर। लेकिन पेट की आँतें तो टूटने की हद तक खिंचने लगती हैं।
‘‘अब संक्षेप में कहो कि क्या-क्या लगता है ?’’
‘‘बस, ऐसा जैसे बहुत ऊपर से झूले में बैठकर नीचे आते हुए लगता है।...आप समझ रहे हैं ना कि यह कितनी सघन अनुभूति है ?’’—मैं अपनी सीट पर से खड़ा हो गया था।
‘‘यकीनन...यकीनन।’’—वे अपने बुझते पाइप को लेकर खासे परेशान हो रहे थे।
‘‘तो सर, आपको इतना ही तो करना है ना, कि किसी इंजेक्शन के सहारे इस अनुभूति को इतना और सघन कर दें, कि वह मेरी शख्सियत ही बदलकर रख दे।’—इस बार मैंने नोट किया कि मैं बड़े विश्वास के साथ बोल रहा हूँ। जैसे मुझे उनसे ज्यादा पता हो।
‘‘अच्छा तुम कुछ देर बाहर घूम आओ। आधे घण्टे बाद आना। मुझे दूसरे मरीज से बातें करनी हैं।’’—उन्होंने कहा और किसी किसी दूसरे मरीज के पेपर देखने लगे।
...नीचे चौक में शाम की गहमागहमी थी। पुराने महाराजा की मूर्ति के इर्द-गिर्द बने वृत्ताकार बगीचे के बीच में जा बैठा और दाने चुगते कबूतरों को देखता रहा। उनके साथ दो तोते भी उतर आये थे। मैं छोटा था, तब भी इस तरह किसी तोते का नीचे उतर आना मुझे एक अतिरिक्त खुशी से भर देता था। मैं वहाँ तब तक बैठा रहा, जब तक कि तोते उड़ नहीं गये।
बाहर फुटपाथ पर रेडीमेड कपड़े वाले चिल्ला-चिल्ला जोरदार बिजनेस कर रहे थे। उनके पास से होता हुआ मैं पुरानी किताबों की दुकान के पास जा खड़ा हुआ। व्यग्रता से किताबों को उलटता-पलटता रहा, कि कहीं कोई मनोविज्ञान की किताब हाथ लग जाए। और उसमें ऐसा ही कोई ‘स्प्लिट पर्सनॉलिटी’ का अध्याय हो तो दौड़कर डाक्टर साहब के चीबर पर पटक दूँ...ये है।... पढ़ो इसे।
पर ऐसे भी क्या मिलती है कोई किताब !
शो-विन्डोज पर देर तक खड़ा रहा।
फिर जब पान खाने के लिए रुका, तो ढलान के आगे, दूर पर स्थिति काले बाबू की हवेली ने एक बारगी मुझ पर हमला कर दिया।...मैंने कहा ना, यह हवेली हमेशा मेरी ताक में रहती है। हमेशा पीछा करती है मेरा ! बचपन से करती रही है। और मौका पाते ही वार कर देती है। यह एक तरह से गुरिल्ला-युद्ध की स्थिति है।
उस हवेली के आसपास जो टीन के चद्दरों वाली बस्ती है, वही हमारी बस्ती है। उसी में मेरा बचपन बीता था। वह खूब अच्छा बचपन था। बल्कि हमारी तो पूरी दुनिया ही तब उस बस्ती तक सीमित थी। बाहर के शहर का पता तो बहुत देर से चला था।
बराबरी के दोस्तों का झुण्ड था। जो चिड़ियाओं-सा झरझराता चला आता था।
झाड़ियों की, और जंगली फूलों की खुशबुएँ थीं, जो लिपटती-लिपटती साथ हो लेती थीं। अण्टियों का खेल था...सपने थे...हम थे....हवाएँ थीं, धूप और चाँदनी थी।...कभी-कभी फुरसत मिलती तो चाँद और सूरज भी साथ खेलने आ ही जाते थे।
जब से आँखें खोली थीं, तब से परवरिश हमारी बड़े भैया ही करते दिख रहे थे। हमें कभी, कुछ भी उन्होंने महसूस होने ही नहीं दिया। अलादीन के जिन्न की तरह। जब चाहें उन्हें बुला लो। जिस चीज की चाहे, फरमाइश कर दो। उनकी हथेली सामने होगी और चीज हाजिर।
हमारा तो दो कमरों का टीन की छतवाला घर था। दरिद्रता की सीमा-रेखा पर खड़ा हुआ। भैया कहाँ-कहाँ खटते हुए, हमारे गुजर-बसर का ही नहीं, बल्कि हमारी हर जिद पूरी करने का भी इन्तजाम कैसे करते होंगे—यह सब जानने की हमें कभी जरूरत महसूस ही नहीं हुई।...उन्होंने हमारे लिए अपनत्व और सुरक्षा का एक बड़ा पारदर्शी कवच बनकर हमें ढँक लिया था। जिसके नीचे संपूर्ण सुरक्षा थी, खूब स्नेह था, और खूब मस्ती की फुहारों में भीगते अल्हड़ दिन थे।...
हमारे बचपन का वह जादू इसी हवेली के अहाते में टूटा था। सटाक्-सटाक् !!
...काले बाबू की हवेली के अहाते में उस दिन छह-सात लोगों को लाइन से खड़ा किया गया था। उनमें भैया भी थे। उन सबकी पीठ खुली थी। वे हाथ जोड़े थे और थर-थर काँप रहे थे। ये सब वे लोग थे, जिन्होंने जरूरत के वक्त काले बाबू से पैसे उधार लिये होंगे। काले बाबू का धन्धा ही ब्याज पर पैसे देने का था। फिर जो लोग वक्त पर पैसा नहीं लौटा पाते थे, उन्हें रविवार की शाम को इसी तरह उनकी हवेली के अहाते में करबद्ध खड़े होना पड़ता था।...वे सब थर-थर काँपते काले बाबू के आने की प्रतीक्षा करते थे।
...काले बाबू देर बाद आते थे। अँधेरा घिरते-घिरते। उनकी खाली आँखों में लाली होती थी दहकती-सी। और शेष चेहरे पर ठण्डी क्रूरता। उनकी देह खूब ऊँची-पूरी थी। खूब सुगठित। और बिलकुल काली देह।...उनके हाथ में चमड़े का चाबुक होता था, जिसे वे बार-बार फटकारते थे और हथेली पर खोलते-लपेटते थे। सटाक्-सटाक् ! वे गालियाँ बकते थे और नंगी पीठों पर कस-कसकर चाबुक चलाते थे—पैसा मिल गया तो मस्ती में आ गये हैं भड़वे ! हरामजादों की अभी खाल उधड़ेगी तो पता चलेगा।...
सटाक्-सटाक् !....मैं उस दिन अनायास ही छिपकर भैया के पीछे-पीछे चला गया था, और उत्सुकतावश कम्पाउण्डवाल से सटे नीम के पेड़ पर चढ़कर देखने लगा था।
....भैया की पीठ पर कसकर चाबुक पड़ा था और वे दर्द और अपमान से बिलबिला रहे थे। लगातार कुछ गिड़गिड़ा भी रहे थे, जो समझ में नहीं आ रहा था।...और वे सँभलते तब तक दूसरा और फिर तीसरा चाबुक भी पड़ गया था। वे जमीन पर गिर कर धूल में लोटने लगे थे।
मेरी आँखों के आगे अँधेरा-सा छा रहा था। मैं पता नहीं कब-कैसे नीम के पेड़ से कूद-फाँदकर उतरा और बेतहाशा घर की ओर दौड़ने लगा था। आसपास की हर चीज से बेखबर।...लेकिन घर में भी घुसा नहीं था मैं। अनायास लगा कि वहाँ भी चैन नहीं मिलेगा।...फिर कहाँ जाकर ठहरूँ मैं ? बेवजह इधर-उधर गलियों में भागता-दौड़ता रहा। फिर बस्ती छोड़ दी और घिरते अँधेरे में अकेला, निर्जन में, झाड़ियों के बीच होता हुआ, पोखर के किनारे पहुँच गया और वहाँ भरभरा कर ढह गया। कुछ नहीं था वहाँ। मैं था और अँधेरा। बस, मैं था और भाँय-भाँय सन्नाटा।...बस मैं था और स्याह, ठहरा हुआ जल।
मैं खूब रोया।.....बचपन ने वहीं तक साथ दिया था मेरा। उस रात को मुझे वहीं, पोखरे के पास छोड़कर चला गया था। फिर नहीं आया।
न उस रात कोई चाँद आया, न चाँदनी ।
बहुत देर तक पड़ा रहा मैं वहाँ। रात देर तक। फिर उठा। पत्थर का एक टुकड़ा उठाया, और झटके से पानी की सतह पर फेंक दिया।
एकबारगी माहौल का सन्नाटा टूट गया। किनारे के पेड़ों पर ऊँघते परिन्दे फड़फड़ाकर उड़ गये। स्याह जल की सतह पर लहरें उठीं और बड़े बेचैनी से तड़पती-फैलती चली गयीं। मैं उठ खड़ा हुआ और फैलती लहरों को सम्बोधित करते हुए ऊँची आवाज में घोषणा करने लगा—सुन लो तुम...ध्यान से सुनो मुझे।
....मैं आगे चलकर बाबू बनूँगा....!!
....‘‘सर, मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ। क्योंकि मेरा स्पष्ट मत है कि मन कभी स्वस्थ रह ही नहीं सकता।....मेरा मतलब है कि जो लगातार स्वस्थ रहे, वह मन हो ही नहीं सकता है।...क्या आप मुझे समझ रहे हैं ? अर्थात् मन की स्वाभाविक अवस्था उसकी अस्वस्थ अवस्था ही है। .....दूसरे शब्दों में, अस्वस्थ मन ही एक स्वस्थ मन होता है।’’...
उनका चश्मा नाक पर थोड़ा नीचे खिसक आया था। वे अपनी अनुभवी आँखों से मुझे गहराई से तोल रहे थे। फिर फोन की घण्टी बजने लगी और वे किसी लम्बे वार्तालाप में डूब गये। मैं खिड़की से बाहर देखने लगा।
नीचे चौक पर शाम उतर रही थी। अपने अथाह सिन्दूरी सौन्दर्य के साथ। पर उसके साथ एकात्मकता तो इसीलिए महसूस होती है ना कि उसमें किसी एक प्रक्रिया के खत्म हो जाने की सूचना होती है।...कुछ बीत जाने का एहसास।...कुछ बीतते चले जाने के पारदर्शी अवसाद।...
‘‘सर....मेरा मतलब है...जिन्दगी ऐसे ही बीत जाती है ना ? बिना कुछ किए ? दरअसल, जिन्दगी को आखिर कैसे साधा जाए, कैसे जिया जाए, ये प्रयोग करने में ही जिन्दगी गुजर भी जाती है। जी तो हम उसे पाते ही नहीं।...कुल मिलाकर सर, जिन्दगी को नहीं जी पाना ही उसे जीने का सबसे स्वाभाविक रूप होता है ना ?
शायद उनके पास वक्त कम था। मैं अब स्पष्ट देख रहा था कि वे खीझने लगे थे, ‘साफ बताओ, तुम्हारी समस्या क्या है ?’’—वे गरजे।
मैं भी झटके से अपनी बात पर आ गया, ‘‘लेकिन मैं जीना चाहता हूँ सर ! बल्कि दोनों जिन्दगियाँ जीना चाहता हूँ। एक यह घिसटती हुई जिन्दगी, जिसे जीने के लिए मैं बाध्य हूँ। और दूसरी वह शानदार जिन्दगी भी, जिसे मैं दूर बैठकर हसरत से ताकता हूँ, लेकिन छू नहीं पाता। दोनों...दोनों जिन्दगियाँ...।’’
उत्तेजना में मैं हाँफने लगा था, ‘‘....सर, मैं यहाँ इसीलिए आया था। दरअसल, मैं एक ‘स्प्लिट पर्सनॉलिटी’ बनना चाहता हूँ।...एक शानदार स्प्लिट पर्सनॉलिटी ! मेरी बड़ी आकांक्षा है सर।...’’
उनके चेहरे पर उभरती हैरत देखकर मुझे अच्छा लगा था।
हालाँकि मैं कह नहीं सकता कि उन्हें भीतर-ही-भीतर बहुत गुस्सा आया होगा या नहीं। लेकिन वे कुर्सी छोड़कर खड़े हो गए और कमरे में तेजी से इधर से उधर चक्कर काटने लगे।
मैं अपनी बात कह चुकने के बाद अधिक हल्का, अधिक आश्वस्त महसूस कर रहा था।
....‘सर, मैं तो पहले ही जानता था कि आपकी प्रक्रिया ऐसी ही होगी।’’—मैंने बात आगे बढ़ाने की कोशिश की।
वे गुर्राते हुए, मेरे बिलकुल ऊपर झुक आए और गरजने लगे कि कैसे-कैसे लोग चले आते हैं समय बर्बाद करने।
थोड़ा मुझे बुरा भी लगा, ‘‘सर...प्लीज...आप मुझे समझने की कोशिश करें। अब देखिए, होता तो यही है ना कि किसी के अवचेतन में कोई घटना कहीं गहरे पैठ जाती है। है ना ?...यानी वह व्यक्ति उस घटना को भूल भी चुका होता है। लेकिन वर्षों बाद, उस घटना से सम्बन्धित कोई रंग देखकर अथवा कोई आवाज सुनकर, उसका अवचेतन इतने सघन रूप से आन्दोलित हो उठता है कि उसका पूरा व्यक्तित्व ही बदल जाता है...वह एक दूसरी शख्सियत बन जाता है।...बिलकुल दूसरी तरह से सोचता हुआ और जीता हुआ आदमी। होता तो यही है ना सर ?’’...
वे पाइप का एक गहरा कश लेकर फिर उसी कुर्सी पर बैठ गये। ऐसा लगा जैसे मुझे समझाने की कोशिश में हैं, ‘‘...ठीक है। फिर ?...तुम्हारे मन से टकराती है कोई ऐसी आवाज ?’’
‘‘है न सर...टकराती है एक आवाज। वह चाबुक मारने की आवाज है—सटाक् ! सटाक् !!...लेकिन वह मेरे चेतन में है। वह मुझे आंदोलित भी करती हैं। लेकिन मैं क्या करूँ ? वह मेरे अवचेतन तक पैठकर उसे इतना झकझोरती ही नहीं कि मुझे दूसरे व्यक्तित्व में बदल दे।’’ मेरी आवाज स्पष्टतः काँपने लगी थी।
‘‘अच्छा ? वह आवाज सुनकर तुम्हें कैसा लगता है ?’’
‘‘धड़कन तेज हो जाती है सर। और नसों में खून अन्धाधुन्ध दौड़ने लगता है—दिल के नियन्त्रण से परे !’’
‘‘हाँ...बताते जाओ।’’
‘‘और लगता है जैसे देह भी अपने-आप को स्वयं ही संचालित करने की कोशिश कर रही हो, उच्छृंखल होकर-मस्तिष्क के नियन्त्रण से परे।’’
‘‘हाथ-पैरों के तलों में झनझनाहट होती है ?’’
‘‘वैसा तो होता ही है सर। लेकिन पेट की आँतें तो टूटने की हद तक खिंचने लगती हैं।
‘‘अब संक्षेप में कहो कि क्या-क्या लगता है ?’’
‘‘बस, ऐसा जैसे बहुत ऊपर से झूले में बैठकर नीचे आते हुए लगता है।...आप समझ रहे हैं ना कि यह कितनी सघन अनुभूति है ?’’—मैं अपनी सीट पर से खड़ा हो गया था।
‘‘यकीनन...यकीनन।’’—वे अपने बुझते पाइप को लेकर खासे परेशान हो रहे थे।
‘‘तो सर, आपको इतना ही तो करना है ना, कि किसी इंजेक्शन के सहारे इस अनुभूति को इतना और सघन कर दें, कि वह मेरी शख्सियत ही बदलकर रख दे।’—इस बार मैंने नोट किया कि मैं बड़े विश्वास के साथ बोल रहा हूँ। जैसे मुझे उनसे ज्यादा पता हो।
‘‘अच्छा तुम कुछ देर बाहर घूम आओ। आधे घण्टे बाद आना। मुझे दूसरे मरीज से बातें करनी हैं।’’—उन्होंने कहा और किसी किसी दूसरे मरीज के पेपर देखने लगे।
...नीचे चौक में शाम की गहमागहमी थी। पुराने महाराजा की मूर्ति के इर्द-गिर्द बने वृत्ताकार बगीचे के बीच में जा बैठा और दाने चुगते कबूतरों को देखता रहा। उनके साथ दो तोते भी उतर आये थे। मैं छोटा था, तब भी इस तरह किसी तोते का नीचे उतर आना मुझे एक अतिरिक्त खुशी से भर देता था। मैं वहाँ तब तक बैठा रहा, जब तक कि तोते उड़ नहीं गये।
बाहर फुटपाथ पर रेडीमेड कपड़े वाले चिल्ला-चिल्ला जोरदार बिजनेस कर रहे थे। उनके पास से होता हुआ मैं पुरानी किताबों की दुकान के पास जा खड़ा हुआ। व्यग्रता से किताबों को उलटता-पलटता रहा, कि कहीं कोई मनोविज्ञान की किताब हाथ लग जाए। और उसमें ऐसा ही कोई ‘स्प्लिट पर्सनॉलिटी’ का अध्याय हो तो दौड़कर डाक्टर साहब के चीबर पर पटक दूँ...ये है।... पढ़ो इसे।
पर ऐसे भी क्या मिलती है कोई किताब !
शो-विन्डोज पर देर तक खड़ा रहा।
फिर जब पान खाने के लिए रुका, तो ढलान के आगे, दूर पर स्थिति काले बाबू की हवेली ने एक बारगी मुझ पर हमला कर दिया।...मैंने कहा ना, यह हवेली हमेशा मेरी ताक में रहती है। हमेशा पीछा करती है मेरा ! बचपन से करती रही है। और मौका पाते ही वार कर देती है। यह एक तरह से गुरिल्ला-युद्ध की स्थिति है।
उस हवेली के आसपास जो टीन के चद्दरों वाली बस्ती है, वही हमारी बस्ती है। उसी में मेरा बचपन बीता था। वह खूब अच्छा बचपन था। बल्कि हमारी तो पूरी दुनिया ही तब उस बस्ती तक सीमित थी। बाहर के शहर का पता तो बहुत देर से चला था।
बराबरी के दोस्तों का झुण्ड था। जो चिड़ियाओं-सा झरझराता चला आता था।
झाड़ियों की, और जंगली फूलों की खुशबुएँ थीं, जो लिपटती-लिपटती साथ हो लेती थीं। अण्टियों का खेल था...सपने थे...हम थे....हवाएँ थीं, धूप और चाँदनी थी।...कभी-कभी फुरसत मिलती तो चाँद और सूरज भी साथ खेलने आ ही जाते थे।
जब से आँखें खोली थीं, तब से परवरिश हमारी बड़े भैया ही करते दिख रहे थे। हमें कभी, कुछ भी उन्होंने महसूस होने ही नहीं दिया। अलादीन के जिन्न की तरह। जब चाहें उन्हें बुला लो। जिस चीज की चाहे, फरमाइश कर दो। उनकी हथेली सामने होगी और चीज हाजिर।
हमारा तो दो कमरों का टीन की छतवाला घर था। दरिद्रता की सीमा-रेखा पर खड़ा हुआ। भैया कहाँ-कहाँ खटते हुए, हमारे गुजर-बसर का ही नहीं, बल्कि हमारी हर जिद पूरी करने का भी इन्तजाम कैसे करते होंगे—यह सब जानने की हमें कभी जरूरत महसूस ही नहीं हुई।...उन्होंने हमारे लिए अपनत्व और सुरक्षा का एक बड़ा पारदर्शी कवच बनकर हमें ढँक लिया था। जिसके नीचे संपूर्ण सुरक्षा थी, खूब स्नेह था, और खूब मस्ती की फुहारों में भीगते अल्हड़ दिन थे।...
हमारे बचपन का वह जादू इसी हवेली के अहाते में टूटा था। सटाक्-सटाक् !!
...काले बाबू की हवेली के अहाते में उस दिन छह-सात लोगों को लाइन से खड़ा किया गया था। उनमें भैया भी थे। उन सबकी पीठ खुली थी। वे हाथ जोड़े थे और थर-थर काँप रहे थे। ये सब वे लोग थे, जिन्होंने जरूरत के वक्त काले बाबू से पैसे उधार लिये होंगे। काले बाबू का धन्धा ही ब्याज पर पैसे देने का था। फिर जो लोग वक्त पर पैसा नहीं लौटा पाते थे, उन्हें रविवार की शाम को इसी तरह उनकी हवेली के अहाते में करबद्ध खड़े होना पड़ता था।...वे सब थर-थर काँपते काले बाबू के आने की प्रतीक्षा करते थे।
...काले बाबू देर बाद आते थे। अँधेरा घिरते-घिरते। उनकी खाली आँखों में लाली होती थी दहकती-सी। और शेष चेहरे पर ठण्डी क्रूरता। उनकी देह खूब ऊँची-पूरी थी। खूब सुगठित। और बिलकुल काली देह।...उनके हाथ में चमड़े का चाबुक होता था, जिसे वे बार-बार फटकारते थे और हथेली पर खोलते-लपेटते थे। सटाक्-सटाक् ! वे गालियाँ बकते थे और नंगी पीठों पर कस-कसकर चाबुक चलाते थे—पैसा मिल गया तो मस्ती में आ गये हैं भड़वे ! हरामजादों की अभी खाल उधड़ेगी तो पता चलेगा।...
सटाक्-सटाक् !....मैं उस दिन अनायास ही छिपकर भैया के पीछे-पीछे चला गया था, और उत्सुकतावश कम्पाउण्डवाल से सटे नीम के पेड़ पर चढ़कर देखने लगा था।
....भैया की पीठ पर कसकर चाबुक पड़ा था और वे दर्द और अपमान से बिलबिला रहे थे। लगातार कुछ गिड़गिड़ा भी रहे थे, जो समझ में नहीं आ रहा था।...और वे सँभलते तब तक दूसरा और फिर तीसरा चाबुक भी पड़ गया था। वे जमीन पर गिर कर धूल में लोटने लगे थे।
मेरी आँखों के आगे अँधेरा-सा छा रहा था। मैं पता नहीं कब-कैसे नीम के पेड़ से कूद-फाँदकर उतरा और बेतहाशा घर की ओर दौड़ने लगा था। आसपास की हर चीज से बेखबर।...लेकिन घर में भी घुसा नहीं था मैं। अनायास लगा कि वहाँ भी चैन नहीं मिलेगा।...फिर कहाँ जाकर ठहरूँ मैं ? बेवजह इधर-उधर गलियों में भागता-दौड़ता रहा। फिर बस्ती छोड़ दी और घिरते अँधेरे में अकेला, निर्जन में, झाड़ियों के बीच होता हुआ, पोखर के किनारे पहुँच गया और वहाँ भरभरा कर ढह गया। कुछ नहीं था वहाँ। मैं था और अँधेरा। बस, मैं था और भाँय-भाँय सन्नाटा।...बस मैं था और स्याह, ठहरा हुआ जल।
मैं खूब रोया।.....बचपन ने वहीं तक साथ दिया था मेरा। उस रात को मुझे वहीं, पोखरे के पास छोड़कर चला गया था। फिर नहीं आया।
न उस रात कोई चाँद आया, न चाँदनी ।
बहुत देर तक पड़ा रहा मैं वहाँ। रात देर तक। फिर उठा। पत्थर का एक टुकड़ा उठाया, और झटके से पानी की सतह पर फेंक दिया।
एकबारगी माहौल का सन्नाटा टूट गया। किनारे के पेड़ों पर ऊँघते परिन्दे फड़फड़ाकर उड़ गये। स्याह जल की सतह पर लहरें उठीं और बड़े बेचैनी से तड़पती-फैलती चली गयीं। मैं उठ खड़ा हुआ और फैलती लहरों को सम्बोधित करते हुए ऊँची आवाज में घोषणा करने लगा—सुन लो तुम...ध्यान से सुनो मुझे।
....मैं आगे चलकर बाबू बनूँगा....!!
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