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भूतनाथ (सेट)

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :2177
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 7144
आईएसबीएन :000000000

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तिलिस्म और ऐयारी संसार की सबसे अधिक महत्वपूर्ण रचना

प्रश्न- वैदिककालीन शिक्षा के मुख्य उद्देश्य क्या थे?

उत्तर-

वैदिककालीन शिक्षा के मुख्य उद्देश्य एवं आदर्श

डॉ. अल्तेकर के शब्दों में, "ईश्वर भक्ति तथा धार्मिकता की भावना, चरित्र निर्माण, व्यक्तित्त्व का विकास, नागरिक तथा सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन, सामाजिक कुशलता की उन्नति और राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण एवं प्रसार प्राचीन भारत में शिक्षा के मुख्य उद्देश्य एवं आदर्श थे।" यद्यपि डॉ. अल्तेकर के उक्त विचार से आज के सभी शिक्षाविद सहमत हैं। तथापि वैदिककालीन शिक्षा के उद्देश्य, शिक्षा के स्वरूप तथा उसकी गम्भीरता से यह स्पष्ट एहसास होता है कि तत्कालीन शिक्षा के उक्त उद्देश्यों के साथ-साथ एक अति महत्त्वपूर्ण उद्देश्य तथा आदर्श ज्ञान का विकास था। तत्कालीन शिक्षा के उद्देश्यों को हम निम्नांकित शीर्षकों के माध्यम से व्यक्त कर सकते हैं-
1. स्वास्थ्य का संरक्षण एवं संवर्द्धन - वैदिककालीन शिक्षा का एक अन्य महत्त्वपूर्ण उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है और मोक्ष की प्राप्ति के लिए सबसे पहली आवश्यकता है - स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन। यही कारण है कि तत्कालीन गुरुकुलों में शिष्यों के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य के संरक्षण एवं संवर्द्धन पर विशेष ध्यान दिया जाता था। ब्रह्ममुहूर्त में उठना, दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर व्यायाम करना, सादा भोजन करना, वासना से दूर रहना, उचित आचार-विचार की ओर उन्मुख रहना, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का पालन करना, काम, क्रोध, लोभ, मोह से दूर रहना इत्यादि की शिक्षा बालकों को स्वास्थ्य के संरक्षण एवं संवर्द्धन के उद्देश्य से दी जाती थी।
2. सामाजिक एवं राष्ट्रीय कर्त्तव्यों का बोध एवं पालन-वैदिक काल में राष्ट्रीयता की भावना का अत्यधिक सम्मान तथा महत्त्व था। यही कारण है कि वैदिककालीन शिक्षा शिष्यों को समाज एवं राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्यों का ज्ञान कराती थी साथ ही उनके पालन के लिए प्रेरित एवं प्रशिक्षित किया जाता था। गुरुकुलकालीन शिक्षा पूर्ण होने के उपरान्त होने वाले समावर्तन समारोह में गुरु अपने शिष्यों को उपदेश देते थे जिसमें वे छात्रों को माता-पिता की सेवा करने, समाज की सेवा करने, गृहस्थ जीवन के कर्त्तव्यों का पालन करने तथा पितृ ऋण एवं देव ऋण से मुक्त होने का उपदेश देते थे।
3. संस्कृति का संरक्षण एवं विकास-वैदिक काल में शिक्षा का एक उद्देश्य अपनी संस्कृति का संरक्षण विकास एवं हस्तान्तरण करना भी था। उस काल में गुरुकुलों की सम्पूर्ण कार्य पद्धति अर्थात् रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और मूल्य सभी धर्म प्रधान थे। स्त्रियों को भी वेदों की शिक्षाएँ दी जाती थीं। लोग गृहस्थ आश्रम के जीवन-यापन के उपरान्त वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करते थे, जहाँ वे जंगलों में भी चिन्तन, मनन तथा निदिध्यासन करते थे। इससे देश की संस्कृति का संरक्षण तथा विकास होता रहा।
4. नैतिक एवं चारित्रिक विकास-वैदिक काल में चरित्र निर्माण से तात्पर्य मनुष्य को धर्म सम्मत आचरण में प्रशिक्षित करने से लिया जाता था। उसके आहार-विहार तथा आचार-विचार को धर्म के आधार पर उचित दिशा देने से लिया जाता था। उस समय बच्चों के नैतिक एवं चारित्रिक विकास के लिए उन्हें प्रारम्भ से ही धर्म और नीतिशास्त्र की शिक्षा दी जाती थी।
5. जीविकोपार्जन एवं कला-कौशल की शिक्षा-वैदिककालीन शिक्षा में ज्ञान आध्यात्मिक शिक्षा के साथ-साथ जीविकोपार्जन एवं कला-कौशल की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था का प्रबन्ध था क्योंकि उस काल की शिक्षा का एक उद्देश्य शिष्यों को स्वावलम्बी बनाने का तथा कला-कौशलों के ज्ञान का विकास करने का भी था। प्रारम्भिक वैदिक काल में शिष्यों को उनकी योग्यतानुसार कला-कौशलों की शिक्षा दी जाती थी। जबकि उत्तर वैदिक काल में यह कर्म एवं योग्यता पर आधारित एवं शिक्षा जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था में बदल गयी थी जिसमें ब्राह्मणों को कर्म काण्ड, आध्यात्म, अध्ययन, अध्यापन, क्षत्रियों को शासन कार्य, युद्ध कौशल, वैश्यों को कृषि, पशुपालन एवं वाणिज्य की शिक्षा दी जाने लगी थी।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न 1

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