लोगों की राय

कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ

अगला यथार्थ

हिमांशु जोशी

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7147
आईएसबीएन :0-14-306194-1

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

61 पाठक हैं

हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...


"पर आप तो बर्फ के बारे में कह रहे थे।

"तुम भी ठीक हो, मैं भी गलत नहीं। मैं दोनों के बारे में कुछ कहना चाह रहा था। मैंने तुम्हारी ओर देखते हुए कहा, “तुम्हें सच नहीं लगेगा कि बर्फीली नदियों में बहकर जो मछलियां गर्म मैदानी इलाकों में चली जाती हैं, वहां की भीषण गर्मी में वे कभी-कभी मोम की तरह पिघलकर पानी में विलीन हो जाती हैं।”

तुम फटकर हंस पड़ी थीं, “इंपोसेबल ! ऐसा कहीं हो सकता है, हमने आज-तक कभी नहीं सुना....।”

"अरे, जो तुमने नहीं सुना, क्या वह इसी कारण घटित होने से रह जाएगा? बड़ी अजीब हो तुम...।”

तुम अभी तक भी अविश्वास की उसी भंगिमा से मेरी ओर देख रही थीं। देखे जा रही थीं।

"अरे, यह तो आम बात है। क्या तुम्हारे यहां ऐसा नहीं होता? इस बार लौटकर, नील नदी के मुहाने पर जाना, गर्मी की भरी दोपहरी में, पिघलती मछलियों का अंबार मिलेगा...।”

तुमने पिरामिडों के दृश्य वाले रंगीन रेशमी स्कार्फ से अपना रेशमी चेहरा सहसा ढक लिया था। हंसती-हंसती तुम हांफने-सी लगी थीं। ओह गॉड...!

मैं अब उस विशाल पत्थर पर पीठ के बल लेटकर, देवदार के वृक्षों की चोटियों की ओर बड़े जिज्ञासा-भाव से देख रहा था। सफेद रेशमी बादल कतरनों में बंटे इधर-उधर नीले आसमान में बिखरे हौले-हौले तिर रहे थे।

तुम भी चुप थीं। चारों ओर का मोहक परिदृश्य अपनी नीली-नीली भावुक आंखों में समेटकर, पता नहीं जिज्ञासा से क्या टटोल रही थीं।

मेरी पलकों पर बिखरे भावों को रहस्यमय ढंग से तौलती, तुम हौले से बुदबुदाई थीं, “तुम्हारी आंखें बहुत सुंदर हैं, शरारती। इनका सम्मोहन किसी को भी पागल बना देने के लिए पर्याप्त है...।”

अब हंसने की बारी मेरी थी।

मैं अट्टहास करता हंस पड़ा।

"अरे, तुम कविता भी करती हो, मुझे पता नहीं था।”

"इसमें कविता की बात कहां से आ गई? यथार्थ के लिए, यथार्थ ही क्या पर्याप्त नहीं ! मैं पहेली नहीं बुझा रही। जैसा अनुभव हुआ, यानी जैसा लगा, सीधा-सीधा कह रही हूं। मुझे कहना नहीं आता, तुम्हारी तरह...।”

फिर कुछ क्षणों का सन्नाटा तोड़ते हुए तुमने कहा, “जबसे यहां आई हूं, मैं सब कुछ भूल गई हूं। अपना अतीत, अपना वर्तमान, अपना अस्तित्व...” कहती-कहती तुम बहुत भावुक हो आई थीं, "दुनिया इतनी सुंदर भी हो सकती है, मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। जितना संसार अब तक मैंने देखा था, वही मेरे लिए संपूर्ण ब्रह्मांड था। उससे आगे भी, कहीं कोई और क्षितिज है, मेरी कल्पना से परे था...।"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. कथा से कथा-यात्रा तक
  2. आयतें
  3. इस यात्रा में
  4. एक बार फिर
  5. सजा
  6. अगला यथार्थ
  7. अक्षांश
  8. आश्रय
  9. जो घटित हुआ
  10. पाषाण-गाथा
  11. इस बार बर्फ गिरा तो
  12. जलते हुए डैने
  13. एक सार्थक सच
  14. कुत्ता
  15. हत्यारे
  16. तपस्या
  17. स्मृतियाँ
  18. कांछा
  19. सागर तट के शहर

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai