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अगला यथार्थ

हिमांशु जोशी

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7147
आईएसबीएन :0-14-306194-1

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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...


"आज बलि नहीं चढ़ेगी अब। अपशगुन हो गया है। कल प्रातः फिर आना होगा। देवी मां आज प्रसन्न नहीं। ऐसे में बलि देना अनिष्टकारक होगा।”

हमने बार-बार समझाया उसे कि तुम्हारे बच्चे को सर्दी लगी है। वह रास्ते-भर छींकता आ रहा है। पर वह माना नहीं।

"अशुभ तो अशुभ है। ऐसे में पूजा करोगे तो निश्चित ही विनाश होगा...।” पुजारी जिद पर अड़ा रहा।

पुजारी ने पूजा की सामग्री झटपट समेट ली। उसे कपड़े में बांधकर, बेंत की कंडिया में रख दिया। बकरी को फिर नाव पर चढ़ा दिया। उसके साथ-साथ तुम भी चढ़ीं। इस बार उसे तुमने अपनी गोद में बिठला लिया था। इस बार वह उछल-कूद भी नहीं कर रही थी। दुबकी हुई-सी तुम्हारे शॉल में सिमट आई थी। डरी-डरी-सी।

किनारे पर आकर पुजारी ने बकरी को अपने साथ ले जाने का प्रस्ताव रखा तो मैंने स्वीकृति दे दी। होटल में कहां रखेंगे? पर तुमने रस्सी छोड़ी नहीं। उसे अपने ही साथ ले आई थीं, डेरे तक।

पता नहीं कब तक तुम उसके साथ लॉन में खेलती रही थीं। तुम पोर्च के खंभे के पीछे छिपतीं तो वह भी तुम्हें खोजती पीछे-पीछे आ जाती। तुम्हारी यह बच्चों जैसी लुका-छिपी देर तक चलती रही।

तुमने आज दवा भी ली नहीं। चाय के साथ जो बिस्कुट आए, तुमने तोड़-तोड़कर सब बकरी को खिला दिए थे।

तुम्हारी आकृति में अब थकान नहीं थी। नीले, निरभ्र आकाश में थाल-सा पीला चांद उभर आया था। शायद आज पूर्णमासी थी। हिमालय चांदी के पहाड़-जैसा लग रहा था, इतना निकट कि हाथ बढ़ाकर छू लेना कठिन नहीं।

पास ही क्यारियों से तुम ढेर सारी मुलायम घास बटोर लाई थीं। जब लॉन पर बैठे-बैठे देर हो गई तो तुम बकरी के साथ बालकनी में आ गई थीं।

अपना पलंग तुमने बालकनी में ही लगवा लिया था। बिस्तर पर लेटे-लेटे जो यात्री रात को हिमालय देखना चाहें, उनके सोने की व्यवस्था होटल वालों ने बालकनी में ही कर दी थी।

खाना खा लेने के बाद पता नहीं कब तक उसके साथ खेलती रही थीं। मैं दिन भर का थका, पलंग पर गिरते ही न जाने कब सो गया !

सुबह जागा तो तुम दोनों कब के जाग चुके थे। बकरी के मुलायम बाल रेशम की तरह चमक रहे थे।

''बड़ी मैली हो रही थी, शैंपू से नहला दिया। चुपचाप नहाती रही शैतान ! कुछ भी नहीं बोली।” तुमने अपने गीले बालों को निथारते हुए कहा।

तुम अब कहीं से भी बीमार-जैसी नहीं लग रही थीं।

"जल्दी तैयार होइए। हम दोनों ने तो कब का नाश्ता भी कर लिया।” चहककर तुमने कहा, “पहली फ्लाइट से निकल चलते हैं।

“क्यों, पूजा नहीं करनी?” मैंने सहज आश्चर्य से कहा तो तुम हंस पड़ी थीं, “तुम तो निरे-निरे हो ! अरे, घर चलो न ! अभी जल्दी से निकलकर पहली फ्लाइट पकड़ सकते हैं...।”

मुझे लगा, तुम कहीं असहज तो नहीं हो गईं ! एकदम से तुम्हें यह क्या हो गया? हादसों में ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं !

“तबीयत तो ठीक है न !” मैंने बड़ी चिंता के साथ दबे स्वर में पूछा।

तुम और ज़ोर से हंस पड़ी थीं, “घबरा गए न ! कहीं मैं पागल तो नहीं हो गई....!"

मैं चुप तुम्हारी ओर देखता रहा।

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    अनुक्रम

  1. कथा से कथा-यात्रा तक
  2. आयतें
  3. इस यात्रा में
  4. एक बार फिर
  5. सजा
  6. अगला यथार्थ
  7. अक्षांश
  8. आश्रय
  9. जो घटित हुआ
  10. पाषाण-गाथा
  11. इस बार बर्फ गिरा तो
  12. जलते हुए डैने
  13. एक सार्थक सच
  14. कुत्ता
  15. हत्यारे
  16. तपस्या
  17. स्मृतियाँ
  18. कांछा
  19. सागर तट के शहर

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