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अगला यथार्थ

हिमांशु जोशी

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7147
आईएसबीएन :0-14-306194-1

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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...


वे कहना चाहते थे-तुम सबको पूरी शिक्षा दी। अपनी मेहनत के बल पर यह सारा कारोबार खड़ा किया। तुम काम नहीं करते। निठल्ले बैठे हो। इसमें मेरा क्या कसूर? तुम बीमार हुए तो क्या-क्या नहीं किया ! मौत के मुंह से तुम्हें बचाकर लाया।

दूसरे बेटों ने भी पिता पर खुलेआम इल्ज़ाम लगाए, निकम्मेपन के। खूब टोपी उछाली, सार्वजनिक रूप से। होनहार बेटा मामा से कह रहा था-पिता को बेनकाब करता हुआ, “इन्होंने हमारे लिए क्या किया? ये जिंदगी भर हमारी उपेक्षा कर घूमते रहे। आपको मालूम नहीं होगा, ये शराब भी पीते हैं ! दिखलाऊ बोतल?”

वे कहना चाहते थे—ब्रांडी की एक बोतल नेपाल से लौटते हुए ‘ड्यूटी-फ्री दुकान से दस-बारह वर्ष पूर्व लाए थे-दवा के लिए। वह अब तक रखी है। यदि पीनी होती तो खुलेआम पीते। उन्हें किसका डर था !

वह एक-एक कर कपड़े उतार रहा था, तोहमत लगाता हुआ। मामा हिकारत की निगाह से देख रहे थे। पत्नी देख रही थी! वह भी बेटे का साथ दे रही थी-इस चीर-हरण में। पति को सबने कठघरे में ला खड़ा किया था।

बेटे की आत्मा को इतना जहर उगलने के बाद भी शांति नहीं मिल पाई थी। वह उसी रौ में, मन में जो आया बोलता चला जा रहा था, “ये रात को नींद में चीख़ते हैं। इन्होंने हमारा जीना मुश्किल कर दिया है।..आपको ...आपको क्या किसी को भी मालूम नहीं कि इन्हें 'टी.बी.' भी हुई थी। बीमार ये होते हैं, झेलना हमें पड़ता है !”

वह कुछ रुककर बोला, "किसी से कहिएगा नहीं, स्नायु रोग की इन्हें कोई ऐसी बीमारी है, जिसका दुनिया में कहीं कोई इलाज नहीं। डॉक्टर कहते हैं ये किसी भी क्षण बैठे-बैठे जा सकते हैं। पर, ये कहते हैं कि मैं तो अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर जीवित हूं और बिना दवाओं के भी ठीक हो रहा हूं...। इन्हें मटरगश्ती का भी शौक़ रहा है। कुछ पुरानी चिट्ठियां देख रहा था...”

वे देखते हैं, सभी आंखें उन्हें घृणा से, उपहास से घूरकर देख रही हैं। वे निपट नंगे बैठे हैं। सोचते हैं, 'काश, यह धरती फट जाती और वे उसमें समा जाते !”

देर तक वे हतप्रभ-से, काष्ठवत बैठे-के-बैठे रह जाते हैं !

फिर सत्तर शिखर पार के वृद्ध पिता किसी तरह घायल गंगे पशु की भांति उठते हैं और अपने कमरे में जाकर स्वयं को बंद कर लेते हैं।

और खुली खिड़की के पास बैठे-बैठे रात बिता देते हैं।

सुबह भोर के उजास के साथ लड़खड़ाते हुए उठते हैं। सामने हरी दूब पर रखी बेंत की कुर्सी पर बैठ जाते हैं। सोचते हैं, 'रात के राक्षसों से तो अब तक निपट ही रहे थे, पर अब इन दिन के दानवों का क्या होगा?"

-मर-मरकर जहां इतनी जिंदगियां जीं, वहां एक बार जी-जीकर मरण देखने में क्या हर्ज !

उन्हें लगता है, जैसे कोई उनके भीतर से बोल रहा है। गहरे अंधे कुएं से आवाज़-सी आ रही है...

धीरे-धीरे हरकत-सी होने लगती है उनके चेतना शून्य शरीर में। हौले-हौले वे उठने का प्रयास करते हैं। और फिर कुछ ही देर में चट्टान की तरह तनकर खड़े हो जाते हैं।

सामने देखते हैं-बादलों को चीरकर सूरज का लाल-लाल धधकता गोला गेंद की तरह उनकी ओर उछलता हुआ आ रहा है। उन्हें लगता है, नन्हे बच्चे की तरह वे भाग रहे हैं-उसे लपकने के लिए ! एक बार फिर जीने के लिए !



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    अनुक्रम

  1. कथा से कथा-यात्रा तक
  2. आयतें
  3. इस यात्रा में
  4. एक बार फिर
  5. सजा
  6. अगला यथार्थ
  7. अक्षांश
  8. आश्रय
  9. जो घटित हुआ
  10. पाषाण-गाथा
  11. इस बार बर्फ गिरा तो
  12. जलते हुए डैने
  13. एक सार्थक सच
  14. कुत्ता
  15. हत्यारे
  16. तपस्या
  17. स्मृतियाँ
  18. कांछा
  19. सागर तट के शहर

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