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अगला यथार्थ

हिमांशु जोशी

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7147
आईएसबीएन :0-14-306194-1

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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...


मैं डायरी लिखने का काम अधूरा छोड़कर आज की डाक में आए पत्र पढ़ने लगता हूं...

सबसे पहले मोटा लिफाफा उठाता हूं। बाहर की लिखावट से ही रपष्ट पता चल जाता है कि यह पत्र उपल'दा का है। नैनीताल से आया। टिकट के ऊपर नैनीताल की मुहर साफ झलक रही है। आजकल मुहर में रथान का नाम अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी लिखा रहता है। हिंदी में लिखे नाम को देखकर, पता नहीं क्यों, कहीं मुझे बहुत अच्छा लगता है, जापानी-भाषी हिरोसी सॉन जापान से जो पत्र भेजते हैं, उसमें इंडिया के बदले भारत लिखा करते हैं...

हां, मैं लिफाफा खोलता नहीं, जल्दी-जल्दी सुभीते से, अकलात्मक ढंग से फाड़ लेता हूं।

उपल'दा का इतना लंबा-चौड़ा पत्र इससे पहले कभी नहीं आया था। लगता है, वर्ष-भर की कसर एक ही पत्र में निकाल दी है| 'तुम नैनीताल आए और हमसे मिले बिना चले गए!' उपल'दा लिखते हैं, 'यदि एक बार घर तक ही आ जाने का कष्ट कर देते तो छोटे नहीं हो जाते ! अरे, तुम बड़े आदमी हो गए हो तो औरों के लिए। हमारे लिए तो वही हो जो अब से दस साल पहले थे। अम्मा तुम्हारे बारे में अकसर पूछती रहती हैं। जब भी हम चार दोस्त बैठते हैं, तुम्हारा ज़िक्र अवश्य आता है। ‘मुफ्ती कहता था, तुम 'अलका में ठहरे थे। हां, अलका से हमारा घर बहुत अधिक दूर नहीं। केवल कुछ ही सौ गज़ों का सफर तय करने में कष्ट होता तो तुम हमें सूचित कर देते, तुम्हारे दर्शनों के लिए हम स्वयं चले आते। तुमसे ऐसे व्यवहार की आशा न थी। विम्मी कहती थी, 'मैंने लोकेश भैया को लेक-ब्रिज पर देखा। दो-तीन बार आवाजें लगाईं, परंतु उन्होंने देखकर अनदेखा कर दिया।' पाइंस में टोनी तुम्हें मिला था और तुमने उसे भी पहचानने से इनकार कर दिया था...

‘भला यह भी कोई बात है ! वह तुम पर बहुत नाराज़ है। कहता है, वह मेरा इस तरह से अपमान करेगा, यह जानता तो मैं बात ही न करता। तुमने इतने आदमियों के सामने उसे अपमानित किया ! आखिर किसलिए? यही जताने के लिए न कि...

'खैर, छोड़ो भी। सुना था, बस-एक्सीडेंट में तुम्हारे चोट लगी है। नर्मदा दिल्ली से कल ही लौटा है। कहता है, वह सफदरजंग अस्पताल में तुम्हें देख आया है, हालत अधिक सीरियस नहीं। फिर भी लिखना कि अब कंडीशन कैसी है। यों शायद तुम्हें पत्र न लिखता, किंतु...।'

मेरा सिर घूमने लगता है। इन सब लोगों को क्या हो गया है? पिछले तीन महीनों से मैंने दिल्ली से बाहर पांव तक नहीं रखा है। नैनीताल गए मुझे अब छठा साल लग रहा है। सफदरजंग अस्पताल मैंने केवल एक बार गुजरती बस से देखा था। मैं बिलकुल तरोताजा हूं। कहीं एक खरोंच तक नहीं। फिर यह सब है क्या !

मैं जानता हूं, प्रत्युत्तर में जो कुछ भी मैं लिखूगा, उसे लोग सच नहीं मानेंगे। अतः कोई उत्तर न देकर चुप हो जाता हूं और अपने दैनिक कार्यों में लग जाता हूं।

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    अनुक्रम

  1. कथा से कथा-यात्रा तक
  2. आयतें
  3. इस यात्रा में
  4. एक बार फिर
  5. सजा
  6. अगला यथार्थ
  7. अक्षांश
  8. आश्रय
  9. जो घटित हुआ
  10. पाषाण-गाथा
  11. इस बार बर्फ गिरा तो
  12. जलते हुए डैने
  13. एक सार्थक सच
  14. कुत्ता
  15. हत्यारे
  16. तपस्या
  17. स्मृतियाँ
  18. कांछा
  19. सागर तट के शहर

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