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अगला यथार्थ

हिमांशु जोशी

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7147
आईएसबीएन :0-14-306194-1

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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...


सुबह की बस से मुझे त्रिवेंद्रम जाना है। अतः रात जी भरकर घूम लेना चाहता हूं।

अकेला ही मैं सागर के किनारे-किनारे दूर तक निकल जाता हूं। आसमान में झूलते नारियल के वृक्ष चारकोल से खिंची मोटी रेखाओं-जैसे लगते हैं। सूनी रेतीली सड़क पर, दूर-दूर तक कहीं कोई प्राणी नहीं। चांद अभी उगा नहीं, इसलिए सागर का जल एकदम काला लग रहा है-गाढ़ा वार्निश जैसा।

परंतु लौटते समय उभरते चांद का धुंधला बिंब बड़ा मनोरम लगता है। जल की सतह पर पीत आभा-सी बिखरने लगती है।

मैं घड़ी की ओर देखता हूं तो समय का भान होता है। जल्दी-जल्दी मेरे कदम डेरे की ओर बढ़ने लगते हैं। अधिक रात में, इतने निर्जन स्थल पर अकेले घूमने का ख़तरा भी तो कुछ कम नहीं !

चलते-चलते उसी चट्टान के पास से निकलता हूं तो आश्चर्य से मेरी आंखें कुछ और बड़ी हो आती हैं-उस गहरे एकांत में चट्टान पर एक मानव छाया-सी हिल-डुल रही है।

अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पाता। अंतः कुछ और निकट जाता हूं, नीचे ढलान पर उतरकर कुछ और आगे।

चट्टान से अब कुछ ही गज़ों के फ़ासले पर होता हूं कि आकृति कुछ और स्पष्ट दीखने लगती है।

मेरे बढ़ते क़दम भय से, शंका से सहसा ठिठक पड़ते हैं।

एक क्षीण मानव छाया-सी सशंकित भाव से इधर-उधर देखती हुई दोनों हाथों को डैनों की तरह हवा में झुलाती सहसा उठ रही है और तेज़ी से, लंगूर की तरह उछल-उछलकर बगल वाली चट्टान की दिशा में ओझल हो रही है।

सहसा जिज्ञासा से मैं चट्टान पर चला जाता हूं। ख़तरे के बिंदु से कुछ और आगे बढ़ता हूं तो भयंकर दुर्गंध-सी महसूस होती है-सड़ी हुई मछली के अवशेष इधर-उधर बिखरे दिखलाई देते हैं।

तो यथार्थ यह था !

मेरी आंखें इधर-उधर कुछ खोजती हैं, पर वह मानव-छाया जैसी आकृति फिर कहीं नहीं दिखलाई देती !



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    अनुक्रम

  1. कथा से कथा-यात्रा तक
  2. आयतें
  3. इस यात्रा में
  4. एक बार फिर
  5. सजा
  6. अगला यथार्थ
  7. अक्षांश
  8. आश्रय
  9. जो घटित हुआ
  10. पाषाण-गाथा
  11. इस बार बर्फ गिरा तो
  12. जलते हुए डैने
  13. एक सार्थक सच
  14. कुत्ता
  15. हत्यारे
  16. तपस्या
  17. स्मृतियाँ
  18. कांछा
  19. सागर तट के शहर

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