श्रंगार - प्रेम >> अदालत अदालतअमृता प्रीतम
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बहुचर्चित कथाकार अमृता प्रीतम की कलम से एक और रोचक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मैंने कई बार चांद की लौ में उसे देखा
है, किसी टहनी पर उगने वाले पहले पत्ते में नदी के पानी में तैरते हुए
मन्दिर के कलश में... अगर वह सचमुच मर गया होता—तो मेरी आँखों में
यह पानी नहीं आ सकता था...
-अमृता
उसके अनुमान से अभी रात थी..
पानी के किनारे पर उगी हुई झाड़ी में उसने अपनी सिकोड़ी हुई टांगों को सीधा किया और पैरों के बल खड़ा हुआ तो उसे झाड़ी के ऊपरी सिरे के गुच्छेदार फूल अपनी गरदन को छूते हुए लगे...पर जब वह लम्बे डग भरता झाड़ों से निकलकर पानी के किनारे पर आया तो पानी में पड़ने वाली उसकी परछाईं उसके दिल को हिला गई...
निथरे, खड़े हुए पानी में उसकी पूरी आकृति प्रतिबिम्बित थी—लम्बी-पतली टांगें, छाती की हलकी दूधिया परछाईं, और दोनों पहलुओं में उगे हुए अखरोटी रंग के पंखों का गहरा साया, और माथे के पास सिर पर पहने हुए ताज के समान बड़े चमकदार नीलें पंखों का गहरा रंग, और लम्बी-पतली चोंच का अकड़ाव... और आंखों के गिर्द लाल सुर्ख घेरे...
सो, यह रात नहीं थी, दिन चढ़ने वाला था, तभी तो उसका प्रतिबिम्ब इतना स्पष्ट दिखाई दे रहा था...
और दिन चढ़ने के खयाल से एक प्रकार के भय का एक ऐसा कम्पन उसके शरीर से गुज़र गया कि खड़े हुए जल में भी उसका साया कांप गया...
उसने जल्दी से चोंच को पानी में डुबाकर एक लम्बी घूंट भरी। उसके सूखे हुए गले को जब पानी की तरावट मिली, उसने अपनी प्यास की ओर से ध्यान हटाकर, दूर तक एक भयभीत दृष्टि डाली और फिर जल्दी से लम्बे डग भरता हुआ पानी के किनारे उगी हुई झाड़ी में जाकर छिप गया...
सरकंडों की यह झाड़ी पतली-सी थी, जिसकी दरज़ों को रात का अंधेरा तो मिटा देता था, पर दिन की रोशनी उन्हें चौड़ा-सा करती हुई लगती थी, जिसके कारण वह अपने शरीर को छिपाकर भी निश्चिंत नहीं था... और सरकंडों की यह झाड़ी ऊंची भी नहीं थी। वह जब बैठ जाता था, तब कहीं उसे कुछ ढकती थी, पर जब वह खड़ा होता था, तो बस उसकी गरदन तक आती थी। उसने अपने शरीर को मानो अपने शरीर में ही समेट लिया, और फिर जल्दी से सरकंडे के पत्तों को अपनी चोंच में लेकर ऊपर खींचने लगा। शरीर की पूरी शक्ति से जब उसने पत्तों को ऊपर खींचकर अपने शरीर को ढकने की कोशिश की, तो उसके हांफने के कारण उसकी नींद टूट गई।
बिस्तर की चादर को वह नींद में न जाने कितनी देर तक खींचता रहा था कि उसे लगा, वह चादर पायंती की ओर से कुछ फट गई है। उसने पलंग के पास ही लगे हुए बिजली के बटन को दबाया और हैरान होकर अपने कमरे को देखा। वही रोज़ की तरह सजा हुआ कमरा था, वही लकड़ी के बारीक काम की पीठ वाला पलंग, और वही... वह...
अजीब सपना आया था कि आज वह तप्त-रेखा में पैदा होने वाला पंछी बन गया था, जो दिन-भर, रोशनी से डरते हुए, पानी के किनारे की झाड़ी में छिपकर रहता है और सिर्फ रात के घने अंधेरे में झाड़ी से बाहर निकलता है।
उसे अपना गला उसी तरह सूखता हुआ लगा, जैसे अभी-अभी नींद में पानी के किनारे खड़े हुए अपनी लम्बी चोंच से लम्बे घूंट भरकर पानी पीते समय लगा था। पलंग के पास ही छोटी मेज़ पर रखी हुई कांच की सुराही में से उसने पानी के कितने ही घूंट भरे और फिर, अभी देखे हुए अपने सपने के बारे में सोचने लगा। सहज स्वभाववश उसका हाथ अपनी छाती की ओर भी गया और बांहों की ओर भी—जैसे अभी उसके सारे पंख झड़ गए हों और वह एक पंछी से बदलकर सिर्फ एक आदमी रह गया हो।
पंख नहीं थे, पर पक्षी के मन का डर इस समय भी उसके मन में था। और यों तो अभी रात थी, दिन का उजाला नहीं हुआ था, कमरे की मसनूई रोशनी से भी चौंककर वह कमरे की दीवारों की ओर देखने लगा। एक दीवार से लगी हुई किताबों की अलमारी थी। उसकी भटकती हुई दृष्टि जब किताबों की ओर गई, उसे याद आया कि कल उसने एक ऑस्ट्रेलियन आर्टिस्ट की एक किताब पढ़ी थी—‘द ड्रीम टाइम बुक’ और उसी किताब में तप्त-रेखा में पैदा होने वाले उस ‘रात के पक्षी’ की तस्वीर देखी थी, जो दिन-भर पानी के किनारे पर सरकड़ों में छिपकर रहता है, और जब उसे वे सरकंडे अपने कद से छोटे जान पड़ते हैं, वह चोंच से सरकंडों के पत्तों को खींचता रहता है, ताकि वे जल्दी से ऊँचे हो जाएं।
उसे अपने सपने पर हंसी-सी आ गई और पलंग से उठकर उसने अलमारी में से फिर वह किताब निकालकर देखी। पर उसकी हंसी उसके होंठों के पास आकर भी पीछे होती हुई उसके गले में अटक-सी गई, ‘पर सपने में मैं वह पक्षी क्यों बन गया?’
शायद पिछले जन्म में मैं तप्त-रेखा का पक्षी था !
शायद अगले जन्म में मैं उस पक्षी की जून पाऊँगा।
शायद इस जन्म में शरीर मनुष्य का, आत्मा उस पक्षी की... !
उसने एक गहरी सांस ली, और आदिवासियों की उस कथा के संबंध में सोचने लगा, जो ‘रात के पक्षी’ से संबंधित है और जिसमें वे कहते हैं कि वह पक्षी वास्तव में एक मनुष्य था, जिसे उसके साथियों ने इतना सताया कि उसने ईश्वर के आगे प्रार्थना कर करके अपने लिए एक पक्षी का रूप मांग लिया। उसकी प्रार्थना स्वीकार हो गई और वह पक्षी बन गया, पर उसकी छाती में जो भय जमा हुआ था, वह उसके पक्षी बनने के बाद भी उसकी छाती में ही पड़ा रहा और वह सदा के लिए दिन की रोशनी में छिपकर रहने लगा।
पर आदिवासियों की इस कथा का मुझसे क्या संबंध ?
यह कथा मेरी छाती में क्यों उतर गई ?
केवल याद में नहीं, रात के सपने में भी ?...
ज़िन्दगी के थोड़े-से वर्षों ने कई सुख उसके दायें-बायें बिछाए थे, और दूर जहां तक उसकी दृष्टि जाती थी, उसे सारा रास्ता मखमली रंग का दिखाई देता था, पर आज वह चकित था कि वह कौन-सा डर था, जो रात के समय उसे सरकंडों की झाड़ी में छिपकर बैठने के लिए कहता रहा था ?
और रात के समय खड़े हुए पानी में भी उसका प्रतिबिंब क्यों कांपता रहा था ?
उसने किताब का वह पन्ना पलट दिया, जिसपर उस ‘रात के पक्षी’ का चित्र था और अगले पन्नों पर छपी हुई तस्वीरें देखने लगा।
ये तस्वीरें उसने कल भी प्यासी आंखों से देखी थीं।
यह उस अंडे की तस्वीर थी, जिसके टूटने पर उसमें से पहला सूरज निकला था।
वह पक्षी, जो मनुष्य जाति के लिए अपने सिर पर आग उठाकर लाया था और जिसके सिर के ऊपर वाले पंख सदा के लिए लाल हो गए थे।
वे टूटी हुई चट्टानें, जिनमें से मानों अब भी एक तूफान का शोर सुनाई दे रहा हो।
हाथ में ली हुई किताब को उसने परे रख दिया—रंगों के तूफान का शोर सुनाई देने का एक भयानक एहसास था।
किताब, जैसे उसने रखी थी, बन्द और चुप पड़ी रही, पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ किताब का नाम मानों उसकी आंखों को पकड़कर बैठा रहा—ड्रीम टाइम बुक...
खाने का समय, काम का समय, सोने का समय, आराम का समय... ये सब समय लोगों ने गढ़े हैं, पर यह किस प्रकार का आदमी है—वह सोचने लगा—जिसने सपनों का समय कहकर इस किताब को देखने की बात की है...
रात का सपना उसे फिर याद आ गया और किताब की ओर से मुँह हटाते हुए उसे लगा मानों वह स्वयं किताब का एक पृष्ठ बनकर किताब में रह गया हो और अब वह किताब से नहीं, स्वयं अपने से परे हटकर अपने पलंग की ओर जा रहा हो।
पलंग के पास खड़े होकर वह कितनी ही देर रात वाली, पायंती की ओर से फटी हुई, चादर की ओर देखता रहा।
सोचता रहा—इस चादर में मैं क्यों अपने शरीर को छिपा लेना चाहता था ?
क्यों ? किससे ?
और अचानक उसका ध्यान ऊँचा होकर छत के उस कोने की ओर गया, जहां एक महीन-सा जाला मानो उस कोने में बैठकर नीचे पलंग की ओर देख रहा हो।
भय का एक काला साया मानो उस कोने से लटक रहा हो।
पानी के किनारे पर उगी हुई झाड़ी में उसने अपनी सिकोड़ी हुई टांगों को सीधा किया और पैरों के बल खड़ा हुआ तो उसे झाड़ी के ऊपरी सिरे के गुच्छेदार फूल अपनी गरदन को छूते हुए लगे...पर जब वह लम्बे डग भरता झाड़ों से निकलकर पानी के किनारे पर आया तो पानी में पड़ने वाली उसकी परछाईं उसके दिल को हिला गई...
निथरे, खड़े हुए पानी में उसकी पूरी आकृति प्रतिबिम्बित थी—लम्बी-पतली टांगें, छाती की हलकी दूधिया परछाईं, और दोनों पहलुओं में उगे हुए अखरोटी रंग के पंखों का गहरा साया, और माथे के पास सिर पर पहने हुए ताज के समान बड़े चमकदार नीलें पंखों का गहरा रंग, और लम्बी-पतली चोंच का अकड़ाव... और आंखों के गिर्द लाल सुर्ख घेरे...
सो, यह रात नहीं थी, दिन चढ़ने वाला था, तभी तो उसका प्रतिबिम्ब इतना स्पष्ट दिखाई दे रहा था...
और दिन चढ़ने के खयाल से एक प्रकार के भय का एक ऐसा कम्पन उसके शरीर से गुज़र गया कि खड़े हुए जल में भी उसका साया कांप गया...
उसने जल्दी से चोंच को पानी में डुबाकर एक लम्बी घूंट भरी। उसके सूखे हुए गले को जब पानी की तरावट मिली, उसने अपनी प्यास की ओर से ध्यान हटाकर, दूर तक एक भयभीत दृष्टि डाली और फिर जल्दी से लम्बे डग भरता हुआ पानी के किनारे उगी हुई झाड़ी में जाकर छिप गया...
सरकंडों की यह झाड़ी पतली-सी थी, जिसकी दरज़ों को रात का अंधेरा तो मिटा देता था, पर दिन की रोशनी उन्हें चौड़ा-सा करती हुई लगती थी, जिसके कारण वह अपने शरीर को छिपाकर भी निश्चिंत नहीं था... और सरकंडों की यह झाड़ी ऊंची भी नहीं थी। वह जब बैठ जाता था, तब कहीं उसे कुछ ढकती थी, पर जब वह खड़ा होता था, तो बस उसकी गरदन तक आती थी। उसने अपने शरीर को मानो अपने शरीर में ही समेट लिया, और फिर जल्दी से सरकंडे के पत्तों को अपनी चोंच में लेकर ऊपर खींचने लगा। शरीर की पूरी शक्ति से जब उसने पत्तों को ऊपर खींचकर अपने शरीर को ढकने की कोशिश की, तो उसके हांफने के कारण उसकी नींद टूट गई।
बिस्तर की चादर को वह नींद में न जाने कितनी देर तक खींचता रहा था कि उसे लगा, वह चादर पायंती की ओर से कुछ फट गई है। उसने पलंग के पास ही लगे हुए बिजली के बटन को दबाया और हैरान होकर अपने कमरे को देखा। वही रोज़ की तरह सजा हुआ कमरा था, वही लकड़ी के बारीक काम की पीठ वाला पलंग, और वही... वह...
अजीब सपना आया था कि आज वह तप्त-रेखा में पैदा होने वाला पंछी बन गया था, जो दिन-भर, रोशनी से डरते हुए, पानी के किनारे की झाड़ी में छिपकर रहता है और सिर्फ रात के घने अंधेरे में झाड़ी से बाहर निकलता है।
उसे अपना गला उसी तरह सूखता हुआ लगा, जैसे अभी-अभी नींद में पानी के किनारे खड़े हुए अपनी लम्बी चोंच से लम्बे घूंट भरकर पानी पीते समय लगा था। पलंग के पास ही छोटी मेज़ पर रखी हुई कांच की सुराही में से उसने पानी के कितने ही घूंट भरे और फिर, अभी देखे हुए अपने सपने के बारे में सोचने लगा। सहज स्वभाववश उसका हाथ अपनी छाती की ओर भी गया और बांहों की ओर भी—जैसे अभी उसके सारे पंख झड़ गए हों और वह एक पंछी से बदलकर सिर्फ एक आदमी रह गया हो।
पंख नहीं थे, पर पक्षी के मन का डर इस समय भी उसके मन में था। और यों तो अभी रात थी, दिन का उजाला नहीं हुआ था, कमरे की मसनूई रोशनी से भी चौंककर वह कमरे की दीवारों की ओर देखने लगा। एक दीवार से लगी हुई किताबों की अलमारी थी। उसकी भटकती हुई दृष्टि जब किताबों की ओर गई, उसे याद आया कि कल उसने एक ऑस्ट्रेलियन आर्टिस्ट की एक किताब पढ़ी थी—‘द ड्रीम टाइम बुक’ और उसी किताब में तप्त-रेखा में पैदा होने वाले उस ‘रात के पक्षी’ की तस्वीर देखी थी, जो दिन-भर पानी के किनारे पर सरकड़ों में छिपकर रहता है, और जब उसे वे सरकंडे अपने कद से छोटे जान पड़ते हैं, वह चोंच से सरकंडों के पत्तों को खींचता रहता है, ताकि वे जल्दी से ऊँचे हो जाएं।
उसे अपने सपने पर हंसी-सी आ गई और पलंग से उठकर उसने अलमारी में से फिर वह किताब निकालकर देखी। पर उसकी हंसी उसके होंठों के पास आकर भी पीछे होती हुई उसके गले में अटक-सी गई, ‘पर सपने में मैं वह पक्षी क्यों बन गया?’
शायद पिछले जन्म में मैं तप्त-रेखा का पक्षी था !
शायद अगले जन्म में मैं उस पक्षी की जून पाऊँगा।
शायद इस जन्म में शरीर मनुष्य का, आत्मा उस पक्षी की... !
उसने एक गहरी सांस ली, और आदिवासियों की उस कथा के संबंध में सोचने लगा, जो ‘रात के पक्षी’ से संबंधित है और जिसमें वे कहते हैं कि वह पक्षी वास्तव में एक मनुष्य था, जिसे उसके साथियों ने इतना सताया कि उसने ईश्वर के आगे प्रार्थना कर करके अपने लिए एक पक्षी का रूप मांग लिया। उसकी प्रार्थना स्वीकार हो गई और वह पक्षी बन गया, पर उसकी छाती में जो भय जमा हुआ था, वह उसके पक्षी बनने के बाद भी उसकी छाती में ही पड़ा रहा और वह सदा के लिए दिन की रोशनी में छिपकर रहने लगा।
पर आदिवासियों की इस कथा का मुझसे क्या संबंध ?
यह कथा मेरी छाती में क्यों उतर गई ?
केवल याद में नहीं, रात के सपने में भी ?...
ज़िन्दगी के थोड़े-से वर्षों ने कई सुख उसके दायें-बायें बिछाए थे, और दूर जहां तक उसकी दृष्टि जाती थी, उसे सारा रास्ता मखमली रंग का दिखाई देता था, पर आज वह चकित था कि वह कौन-सा डर था, जो रात के समय उसे सरकंडों की झाड़ी में छिपकर बैठने के लिए कहता रहा था ?
और रात के समय खड़े हुए पानी में भी उसका प्रतिबिंब क्यों कांपता रहा था ?
उसने किताब का वह पन्ना पलट दिया, जिसपर उस ‘रात के पक्षी’ का चित्र था और अगले पन्नों पर छपी हुई तस्वीरें देखने लगा।
ये तस्वीरें उसने कल भी प्यासी आंखों से देखी थीं।
यह उस अंडे की तस्वीर थी, जिसके टूटने पर उसमें से पहला सूरज निकला था।
वह पक्षी, जो मनुष्य जाति के लिए अपने सिर पर आग उठाकर लाया था और जिसके सिर के ऊपर वाले पंख सदा के लिए लाल हो गए थे।
वे टूटी हुई चट्टानें, जिनमें से मानों अब भी एक तूफान का शोर सुनाई दे रहा हो।
हाथ में ली हुई किताब को उसने परे रख दिया—रंगों के तूफान का शोर सुनाई देने का एक भयानक एहसास था।
किताब, जैसे उसने रखी थी, बन्द और चुप पड़ी रही, पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ किताब का नाम मानों उसकी आंखों को पकड़कर बैठा रहा—ड्रीम टाइम बुक...
खाने का समय, काम का समय, सोने का समय, आराम का समय... ये सब समय लोगों ने गढ़े हैं, पर यह किस प्रकार का आदमी है—वह सोचने लगा—जिसने सपनों का समय कहकर इस किताब को देखने की बात की है...
रात का सपना उसे फिर याद आ गया और किताब की ओर से मुँह हटाते हुए उसे लगा मानों वह स्वयं किताब का एक पृष्ठ बनकर किताब में रह गया हो और अब वह किताब से नहीं, स्वयं अपने से परे हटकर अपने पलंग की ओर जा रहा हो।
पलंग के पास खड़े होकर वह कितनी ही देर रात वाली, पायंती की ओर से फटी हुई, चादर की ओर देखता रहा।
सोचता रहा—इस चादर में मैं क्यों अपने शरीर को छिपा लेना चाहता था ?
क्यों ? किससे ?
और अचानक उसका ध्यान ऊँचा होकर छत के उस कोने की ओर गया, जहां एक महीन-सा जाला मानो उस कोने में बैठकर नीचे पलंग की ओर देख रहा हो।
भय का एक काला साया मानो उस कोने से लटक रहा हो।
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