लोगों की राय

ऐतिहासिक >> परवाज़

परवाज़

रस्किन बॉण्ड

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :92
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7170
आईएसबीएन :0-14-306192-5

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

220 पाठक हैं

1857 की क्रांति की पृष्ठभूमि में लिखा उपन्यास...

Parwaz - A Hindi Book - by Ruskin Bond

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अंग्रेज़ी के प्रख्यात उपन्यासकार व कथा लेखक रस्किन बौंड की अब तक सैकड़ों कहानियां व उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं।
‘परवाज़’ उनकी एकमात्र ऐतिहासिक रचना है। 1857 की क्रांति की पृष्ठभूमि में लिखा यह उपन्यास एक बहादुर पठान के एक अंग्रेज़ लड़की के प्रति इकतरफ़ा प्यार की कहानी पर आधारित है।
तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियां, क्रांति को लेकर हिंदुस्तानी आवाम का उत्साह, अंग्रेज़ों के प्रति उनके मन में गहरी बसी नफ़रत और आक्रोश की भावना, क्रांति के असफल हो जाने से फैली निराशा और इस सबके बीच एक मुस्लिम परिवार में शरण पाई ऐंग्लो-इंडियन परिवार की कुछ असहाय महिलाओं की ख़ुद को बचाए रखने की जद्दोजहद - रस्किन बौंड ने इस लघु उपन्यास में इस सबको भलीभांति उकेरा है।

भूमिका

सन् 1857 की गर्मियों की शुरुआत थी। बेहद तपिश और घुटन भरे दिन थे। 10 मई को मेरठ में बग़ावत हो गई। सिपाहियों ने अंग्रेज़ अफ़सरों को गोली से मार गिराया। शहर में दंगा होने लगा, लूटपाट शुरू हो गई। जेल के दरवाज़े तोड़ दिए गए। हथियारों से लैस क़ैदी शहर और कैंटूनमेंट में फैल गए। जहां-जहां अंग्रेज़ों के मकान मिले, उनमें आग लगा दी गई, बाशिंदों को मार दिया गया। बग़ावती रेजीमेंटे दिल्ली पहुंच गईं और बादशाह बहादुरशाह के इर्द-गिर्द जमा हो गईं। अचानक एक कविता-प्रेमी शांति-प्रिय बादशाह विद्रोह का केंद्र-बिंदु बन गया।

गर्मी की तपिश से बचने के लिए ब्रिटिश सेना शिमला की पहाड़ियों में ठंडक का आनंद ले रही थी। उसको ताबड़तोड़ दिल्ली की तरफ़ कूच करना पड़ा। रास्ता काफ़ी लंबा था, इस बीच विद्रोह और शहरों में भी फैल गया। 30 मई को दिल्ली से 250 मील पूर्व में स्थित शाहजहांपुर के मजिस्ट्रेट के दफ़्तर में भी भावनाएं गर्मा रही थीं।
कैंटूनमेंट में एक बंगले में रात को आग लगा दी गई थी। उसमें मिस्टर रेडमैन, जो कि ऐंग्लो-इंडियन थे, अपने परिवार सहित रहते थे। रेडमैन परिवार तो बच गया पर उनकी सारी संपत्ति या तो जलकर बर्बाद हो गई या लूट ली गई। उस रात उस इलाक़े में एक परिचित साया देखा गया; और शहर के नामी-गिरामी रोहिल्ला पठान जावेद ख़ान को आगज़नी के शुबहे में गिरफ़्तार करके मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया।

शाहजहांपुर शहर में जावेद ख़ान के रोबीले व्यक्ति का काफ़ी दबदबा था। अगर बढ़िया इनाम मिले तो वह कोई भी जोखिम भरा काम करने को तैयार हो जाता था। उसे कई बार पहले भी पकड़ा जा चुका था। जावेद को अंग्रेज़ी क़ानून की जानकारी थी। उसने कोर्ट से गवाहों को पेश करने को कहा। कोई गवाह नहीं मिला जिसने जावेद को जलते हुए मकान से भागते देखा हो। सही गवाह मिलने तक केस मुल्तवी कर दिया गया। जावेद कचहरी से बाहर ले जाया गया, पर यह कहना मुश्किल था कि जावेद पुलिसवालों के संरक्षण में था या पुलिसवाले जावेद के संरक्षण में थे। कमरे से निकलने से पहले जावेद ने मजिस्ट्रेट को अनादरपूर्वक सिर झुकाया, ‘‘मेरे गवाह कल आएंगे, आप चाहें या न चाहें’’ उसने कहा।

रेडमैन के बंगले में आग लग चुकी थी पर शाहजहांपुर में स्थित अंग्रेज़ बिरादरी के कानों पर जूं भी नहीं रेंगी। मेरठ बहुत दूर था। और जो पतला-सा अख़बार ‘द मुफ़स्लेट’ निकलता था, उसने बग़ावत के बारे में कुछ विशेष नहीं लिखा था। सेनाधिकारियों ने अपना दिन रोज़ की तरह बिताया, उन्हें शहर में कुछ नया नहीं लगा। सिविल अफ़सर रोज़ की तरह ऑफ़िस का काम-काज देखते रहे। शाम भी रोज़ की ही तरह गुज़री, खाना-पीना हुआ पाश्चात्य शैली का नाच-गाना भी।
30 मई के मेज़बान थे, डाक्टर बोलिंग। उनके ड्राइंग रूम में नौजवान लेफ़्टीनेंट स्कॉट ने गिटार पर संगत की और मिसेज़ बोलिंग ने एक रूमानी गीत गाया। आर्मी के चार अफ़सर बैठ कर ताश खेलने लगे। एक बोतल व्हिस्की खोली गई और मिसेज़ रिकेट्स, कलेक्टर मिस्टर जेनकिंस और कैप्टेन जेम्स मौसम के बारे में बातें करने लगे।

एक ही दंपती पार्टी में शामिल नहीं हुआ, श्री एवं श्रीमती लाबदूर। उन्हें ख़तरे की कुछ भनक लग गई थी।
श्री लाबदूर 42 के थे, उनकी पत्नी 38 की। उनकी बेटी थी रूथ। वह फ़तेहगढ़ में मिसेज़ शील्ड के स्कूल में पढ़ती थी। पंद्रहदिन पहले ही उसकी मां ने उसे वापस बुला लिया था, उन्हें लगा कि घर में वह ज़्यादा सुरक्षित रहेगी। रूथ के बाल काले थे और आंखें भी काली, चमकदार थीं।
मिस़ेज लाबदूर के पिता फ़्रांसीसी थे। वे मराठा आर्मी में काम करते थे। उनकी मां रामपुर के एक मुसलमान परिवार की थीं। मिसेज़ लाबदूर का नाम मरियम था, वे व उनके भाई अपने पिता की तरह ईसाई थे। अठारह साल की उम्र में उन्होंने लाबदूर से शादी की थी। लाबदूर चुप रहने वाले, विनम्र व्यक्ति थे। वे मजिस्ट्रेट के दफ़्तर में क्लर्क थे। उनके दादा जर्सी (जो चैनल द्वीप समूह में है) में व्यापारी थे। उनका असली नाम लाबादू था।

ज़्यादातर अंग्रेज़ औरतें नौकरों से बातचीत करना अपनी मर्यादा के विरुद्ध समझती थीं, पर मरियम लाबदूर को अपने परिचारकों से गपशप अच्छी लगती थी। शहर की सनसनीखेज़ खबरें वे मरियम को बताते थे। उन्हीं से मरियम को पता चल गया था कि शहर में कुछ ही घंटों में दंगा भड़कने वाला है। मेरठ की घटनाओं की ख़बरें सारे शहर में फैल गई थीं। सारे सिपाहियों में भी भीतर-ही-भीतर यह जानकारी हो गई थी। खन्नौत नदी के किनारे एक बूढ़ा फ़कीर रहता था जिसने भविष्यवाणी की थी कि जल्दी ही भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का राज्य ख़त्म हो जाएगा। मरियम ने राय दी कि वे लोग पार्टी में न जाएं और न ही रविवार को चर्च जाएं। मरियम नियमपूर्वक चर्च जाती थी और उसका ऐसा कहना अचरज भरा था।
रूथ मनमौजी थी, उसने तय किया कि वह इतवार को चर्च जाएगी (और पापा भी तैयार हो गए कि वे साथ चलेंगे।)
आसमान में बादल का एक टुकड़ा भी नहीं था। सवेरे से सूरज में तेज़ी थी। सवेरे जल्दी उठने वालों को ही नदी किनारे से आती शीतल बयार का आनंद हासिल हो सका था। ठीक सात बजे चर्च का घंटा भारी आवाज़ में बजने लगा। घर से निकल कर, सब लोग सेंट मेरी चर्च की ओर चल दिए। कैंट के अंदर की चर्च छोटी-सी थी, पर पक्की बनी थी।
कुछ लोग पैदल जा रहे थे, कुछ घोड़ागाड़ी में, और कुछ पसीना बहाते कहारों के कंधों पर डोली में बैठे थे। पैदल चलने वालों में थे मिस्टर लाबदूर और उनकी बेटी, रूथ।

शाहजहांपुर में सेंट मेरी चर्च, कैंट के दक्षिणी छोर पर एक आम के बग़ीचें के पास स्थित है। अंदर जाने के तीन रास्ते हैं। पहला, दक्षिण में बुलर कंपाउंड के सामने, दूसरा पश्चिम में मीनार के नीचे और तीसरा दरवाज़ा उत्तर की ओर खुलता है। यहीं चर्च की ‘वेस्टी’ या ‘वस्त्रागार’ है। पूर्व में नदी की ओर ढलान लिए खेत हैं, जहां ख़रबूज़े उगते हैं। पश्चिम में एक मैदान के बाद शहर शुरू हो जाता है। चर्च के उत्तर में परेड ग्राउंड और उसके बाद सिपाहियों के बैरक। ग्राउंड से लगे हुए अधिकारियों के बंगले थे। 30 मई की रात उन्होंने आराम से बिताई। आने वाले आतंक की उन्हें भनक भी नहीं थी।
अब रुथ की कहानी शुरू होती है। वह अपनी आपबीती ख़ुद बताएगी।

चर्च पहुंचने पर


मैं पापा के साथ पैदल ही चर्च जा रही थी। अनेक सिपाही सड़क पार कर नदी की ओर नहाने जा रहे थे। उन्होंने हमें घूर कर देखा, मैं पापा से चिपक गई और धीरे से बोली, ‘ये कैसे अजीब तरह देख रहे हैं।’ पर उन्हें कुछ असामान्य नहीं लगा; सिपाही आमतौर पर उसी रास्ते से खन्नौत नदी पर नहाने जाते थे, और पापा ऑफ़िस जाते वक़्त उनसे मिलते थे।
हम दक्षिणी दरवाज़े से चर्च में दाख़िल हुए और दाहिनी ओर अंतिम पंक्ति में बैठ गए। बहुत से लोग पहले भी आ चुके थे, पर मैंने ध्यान नहीं दिया कि वे कौन-कौन हैं। हमने सिर झुकाया और अपने पापों की माफ़ी मांगने लगे कि तभी बाहर से एक शोर उठा, तेज़ आवाज़ें आने लगीं, जो पल-पल क़रीब आती जा रही थीं। चर्च में मौजूद सब लोग खड़े हो गए, पापा पंक्ति से निकल कर दरवाज़े पर जा खड़े हुए, मैं भी उनके पास चली गई।

बाहर राहदरी में छह-सात लोग थे। उन्होंने नाक तक अपने चेहरे ढक रखे थे, वे लंगोट पहने हुए थे जैसे कि कुश्ती के लिए तैयार हों; पर उनके हाथों में नंगी तलवारें थीं। हमें देखते ही वे झपटे, एक ने हम पर वार किया। वार चूक गया और तलवार दरवाजे़ की चौखट में जा धंसी। पापा का बायां हाथ दरवाज़े पर था, उसके नीचे से निकल कर मैं बाहर भागी और चर्च के कंपाउंड में चली गई।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai